चोल वंश का इतिहास | chola dynasty

पल्लव और पाण्डय जैसे अधिक शक्तिशाली राज्यों के उदय के कारण चोल वंश को अनेक वर्षो तक ग्रहण सा लगा रहा । इन शक्तियों के पतन के साथ ही चोल एक बार फिर उभरे । नवीं से बारहवीं शताब्दी तक यह राज्य दक्षिण में सर्वाधिक शक्तिशाली बना रहा । चोल शासकों ने केवल सुदृढ शासन व्यवस्था ही प्रदान नहीं की वरन् कला और साहित्य को संरक्षण प्रदान किया । अनेक इतिहासकारों ने चोल शासन काल को दक्षिण का स्वर्ण काल कहा है । चोल वंश संस्थापक विजयादित्य (विजयालय) था । वह पहले पल्लवों का सामन्त था । उसने 850 ई. में तंजौर पर अधिकार किया और पाण्डय राजा से युद्ध किया । चोल शासक ने 897 ई. में पल्लवों की शक्ति समाप्त कर दी । राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने चोल राजा को पराजित किया परन्तु उसकी मृत्यु के बाद चोल शासक शक्तिशाली हो गए ।

चोल शासकों में सबसे महान था राजराज प्रथम (985-1014) । उसने अपनी विजयों द्वारा विशाल चोल साम्राज्य की स्थापना की । उसने पाण्डय, चेर शासकों के साथ-सथ पूर्वी चालुक्यों को भी पराजित किया । अभिलेखों से पता चलता है कि उसने गंगावाड़ी (कर्नाटक) और कलिंग (उडिसा) प्रदेश विजय किए थे । उसने अपनी नौ-सेना की सहायता से श्रीलंका का उत्तरी भाग और मालद्वीप भी अपने साम्राज्य में शामिल कर लिए थे ।

राजराज प्रथम की साम्राज्यवादी नीति का अनुकरण उसके पुत्र राजेन्द्र प्रथम ने किया । उसने पश्चिम के चालुक्यों की शक्ति को समाप्त किया जो कल्याणी में उभर रहे थे । उसकी सेनाएं कन्नौज होती हुई बंगाल तक गई । उसने गुंगा नदी पार कर उस क्षेत्र के स्थानीय राजाओं को पराजित किया । अभिलेख से पता चलता है कि इस विजय के बाद राजेन्द्र प्रथम गंगाईकोंड चोल (गंगा को जीतने वाला चोल) उपाधि धारण की । उसने गंगाईकोंडचोलपुरम् नगर बसारा और उसे अपनी राजधानी बनाया ।

चोल साम्राज्य की पूर्ण शक्ति उस समय दिखाई थी जब राजेन्द्र प्रथम ने दक्षिण पूर्व एशिया के शैलेन्द्र साम्राज्य पर जल सेना (जहाजी बेड़े) से आक्रमण किया । उसका मुख्य उद्देश्य चोल व्यापार को चीन तक फैलाना था । कहा जाता है कि प्लीथ जहाजी बेड़ा इतना शिक्त्शाली था कि बंगाल की खाड़ी को चील झील कहा जाने लगा था ।

राजेन्द्र प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र राजधिराज (1044-1052 ई.) हुआ । यद्यपि उसने पाण्डय, चेर और चालुक्यों के विरूद्ध सैनिक अभियान छेड़े थे फिर भी उसका शासन काल शीघ्र समाप्त हो गया । ईस्वी की तेरहवीं शताब्दी में चोल सत्ता घटने लगी थी और दक्षिण में उनका स्थानपाण्डय और होयसल ने लिया ।

चोल शासन व्यवस्था

चोल इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष उनकी शासन व्यवस्था है । राज्य का सर्वोच्च अधिकारी राजा था । वह स्वयं मंत्री और विभागाध्यक्ष नियुक्त करता था । वह ही कानून निर्माता था, चोल राजाओं और रानियों का बहुत मान था । राजेन्द्र प्रथम और उसकी रानी की अनेक कांस्य मूर्तियाँ मिली है । राजा जल और थल सेना का प्रमुख था । चोल सेना में 1,50,000 सैनिक और 60,000 हाथी थे । उनके पास अश्व सेना भी थी । उसका जहाजी बेड़ा बहुत शक्तिशाली था ।

चोल साम्राज्य प्रान्तों (मण्डलम्) में बंटा हुआ था । इसका अध्यक्ष राजप्रतिनिधि (वाइसराय) होता था । मंडलम के उप-विभाग वलनाडु और इनके उप-विभाग वाडु होते थे । राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भूमि कर था । भूमि कर युक्त और कर मुक्त दो भागों में वर्गीकृत थी । लगान भूमि की उपज शक्ति के आधार पर निश्चित किया जाता था । व्यापार कर, सामन्तों से प्राप्त भेंट, युद्ध में मिली लूट आदि राज्य की आय के अन्य स्त्रोत थे । चोल राजाओं ने जन कल्याण के लिए राजकीय सड़कों, पुलों और सिंचाई के लिए नहरें और बांध बनवाए थे । चोल शासन व्यवस्था का महत्वपूर्ण पक्ष सुव्यवस्थित स्थानीय शासन था । प्रत्येक गांव शासन की पूर्ण इकाई था । अभिलेखों से ‘उर’ और महासभा नामक दो परिषदों का पता चलता है । उर गांव की सामान्य समिति थी । महासभा अग्रहार कहे जाने वाले ब्राह्मण गांवों की सभा थी जिसके सदस्य गांव के व्यस्क होते थे । (ब्राह्मणों को कर मुक्त गांव दिए जाते थे) महासभा को उपसमितियों में बाटां गया था । उदहरणार्थ बागों की देखभाल के लिए समिति, तालाबों, खेतों, न्याय का प्रबन्ध आदि । महासभा गांव के लिए ऋण एकत्र करती थी । गांव का अपना खजाना होता था । गांव की आय इसी खजाने में जमा होती थी । अतिरिक्त राशि राजकी कोष (खजाना) में जमा कर दी जाती थी ।



चोल शासक कला और साहित्य के महान पोषक थे । उनके शासन काल में मन्दिर निर्माण चरमोत्कर्ष पर पहुंचा । मन्दिर निर्माण में द्रविड़ शैली का आरम्भ हुआ। इसमें बहुमंजिले भवन और स्तम्भों वाले बड़े-बड़े हाल (बड़े कमरों) पर बल दिया गया था । इन हालों में स्त्रियों के नृत्य जैसे कार्यक्रम होते थे । इसका उत्तम नमूना है तंजोर का बृहदीश्वर मन्दिर । इसे राजराज प्रथन ने बनवाया था ऐसे अनेक मन्दिर गंगाईकोडचोलपुरम में बनवाए गए थे । चोल शासकों के समय में मूर्तिकला का भी विकास हुआ था । कांस्य की अनेक मूर्तियां मिली है।

यद्यपि चोल शासकों ने संस्कृत को प्रोत्साहन

दिया फिर भी इस काल में स्थानीय भाषाओं का विकास हुआ । सन्तों ने अपनी रचनाएं तमिल और कन्नड़ में लिखी । प्रसिद्ध विद्वान कम्बन ने तमिल में रामयण लिखी । यह तमिल साहित्य में बहुत ही महत्वपूर्ण है । विश्वास किया जाता है कि यह चोल के दरबार का कवि था । यह तमिल साहित्य में बहुत ही महत्वपूर्ण है । विश्वास किया जाता है कि यह चोल के दरबार का कवि था। रामयण और महाभारत के अनेक अंश को तमिल में कविता का रूप दिया गया था । इस प्रकार दक्षिण के राजनैतिक और सांस्कृतिक इतिहास में इस काल का बहुत महत्व है ।

नवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक चोल साम्राज्य का शक्तिशाली राज्य रहा । राजा राजराज और राजेन्द्र प्रथम ने राज्य का विस्तार किया, और अपने जहाजी बेड़े दक्षिण पूर्व एशिया तक भेजे चोल शासन व्यवस्था से साम्राज्य शक्तिशाली बना । इसने ग्रामीण स्वायत को महत्व दिया । चोल शासकों के अधीन मूर्तिकला, वास्तुकला और साहित्य ने नए कीर्तिमान स्थापित किए ।

Post a Comment

Previous Post Next Post