भारत में मुसलमान कब और कैसे आए?

इस्लाम धर्म के उदय के पूर्व अरबवासी मूर्तिपूजक थे । वे अनेक कबीलों में बंटे हुए थे । प्रत्येक कबीले का एक नेता (सरदार) था । मुहम्मद साहब का जन्म (570-632 ई) हुआ था । उन्होंने इस्लाम नामक नए धर्म की शिक्षा दी । इस धर्म ने अरब लोगों के अतिरिक्त, विश्व के अन्य भागों में रहने वालों के धार्मिक राजनीतिक व सामाजिक जीवन को परिवर्तित कर दिया । इसकी धार्मिक पुस्तक कुरान है । प्रत्येक मुसलमान से अपेक्षा की गई कि वह दिन में पांच बार नमाज पढ़े, रमज़ान के मास में रोजा (उपवास) रखे, दान करें और यदि सम्भव हो तो हज (तीर्थ-यात्रा) के लिए मक्का जाए । कुरान में शराब पीना, जुआ खेलना और सूअर का माँस खाना वर्जित है ।

मुहम्मद साहब द्वारा प्रचारित इस्लाम धर्म को समझना और उसका पालन करना सरला था। शीघ्र ही यह धर्म सारे अरब में फैल गया और इसने लड़ाकू प्रवृत्ति वाले कबीलों को संगठित किया। सन् 632 ई. में मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद मुसलमानों को धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करने का उत्तरदायित्व खलीफा को मिल गया ।

खलीफा अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ नायाब । मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारियों को यह पदबी दी गई ।

6़32-661 ई. के मध्य चार खलीफा हुए । खलीफाओं के काल में इस्लाम धर्म का तेजी से प्रसार हुआ । शीघ्र ही इस्लाम धर्म एक बड़ी राजनीतिक सत्ता बन गया । अरब वालों की सेना ने पश्चिमी एशिया, जार्डन, सीरिया, ईराक तुर्की और ईरान पर विजय प्राप्त की । उन्होंने उत्तरी अफ्रीका और दक्षिणी यूरोप के भी कुछ भाग विजय किए । अरब वालों का जहाजी बेड़ा 636 ई में बम्बई के निकट आया । उमैयद वंश 661 से 750 ई. तक सत्ता में रहा । उन्होंने खिलाफत को स्थिरता और संपन्नता प्रदान की । उन्हीं के नेतृत्व में अरब के सैनिकों ने व्यापार के एक प्रमुख मार्ग पर अधिकार किया । यह मार्ग सिल्क मार्ग के नाम से प्रसिद्ध था और चीन तक जाता था। इससे ही भारत पर अनगिनत आक्रमण प्रारम्भ हुआ । यह आक्रमण ईसा की सातवीं शताब्दी के मध्य भारत की उत्तर पश्चिम सीमा पर हुए थे । उन्होंने आधुनिक अफग़ानिस्तान के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया था और अब अरब वाले सिंध विजय के लिए सोच रहे थे अर्थात् उनकी दृष्टि सिंध पर थी ।

सातवीं शताब्दी में अरब में पैगम्बर मुहम्मद साहब द्वारा इस्लाम धर्म की स्थापना हुई थी और उन्होंने ही इसका प्रचार किया । इस धर्म ने अरब के विभिन्न कबीलों को संगठित किया और शीघ्र ही वे एक बड़ी राजनीतिक सत्ता बन गए । उमैयद खलीफाओं के नेतृत्व में इस्लाम धर्म तेजी से फैला । खलीफाओं ने व्यापार को प्रोत्साहन दिया और इसी संदर्भ में अरब के मुसलमान व्यापारी ईसा की सातवीं शताब्दी से भारत आने लगे । भारत में मुसलमानों का इतिहास इस प्रकार है -

सिंघ विजय 712 ई.

आठवीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल समैयद वंश की सत्ता का चरमोत्कर्ष काल था । उन्होंने इतना बड़ा मुस्लिम राज्य स्थापित किया जितना पहले कभी नहीं रहा था परन्तु वे अभी भी इस्लाम को पूरे उत्साह के साथ दूर-दूर तक फैला रहे थे । वे भारत की धन-सम्पदा की ओर भी आकर्षित हुए थे । भारत के धन-धान्य व समृद्धि की कहानियां अरब व्यापारियों और नाविकों द्वारा उन तक पहुंच चुकी थीं । आक्रमण की आवश्यकता उस समय हुई जब लंका के राजा द्वारा मुस्लिम राज्य के पूर्वी प्रान्त हाकिम हज्जाज बिन युसूफ को भेजे गए उपहारों से लदे आठ जहाजों को सिंध के समुद्री लुटेरों ने लूट लिया । जब हज्जाज ने सिंध के शासक दाहिर से क्षति पूर्ति के लिए कहा तो दाहिर ने कह दिया कि समुद्री लुटेरों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है, इसलिए वह न तो उन्हें दण्ड दे सकता है और न क्षति पूर्ति कर सकता है । उसके उत्तर से संतुष्ट न होकर हज्जात ने सिंघ के विरूद्ध दो सैनिक अभियान भेजे परन्तु दोनों ही अभियान असफल रहे । इन असफलताओं के पश्चात हज्जाज ने मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में एक विशाल सेना सिंघ पर आक्रमण करने के लिए भेजी ।

घटनाएँ 

मुहम्मद बिन कासिम 711-712 ई. में सिंध आया और उसने समुद्र तट पर स्थित देवस को घेर लिया । उसने शान्तिप्रिय बौद्ध लोगों को सरलता पूर्वक विजय कर लिया । तत्पश्चात् मुहम्मद बिन कासिम सिंध नदी को पार कर आगे बढ़ा । रावार नामक स्थान पर दाहिर ने शत्रु की सेना का मुकाबला किया । प्रारंभ में दाहिर की विजय के लक्षण दिखाई दे रहे थे परन्तु एक घटना ने युद्ध का पासा पलट दिया । दाहिर के हाथी को एक तीर लगा और हाथी दाहिर को गिरा कर भाग गया । दाहिर के दिखाई न देने पर सेना ने समझा कि दाहिर भाग गया और सैनिक हतोत्साहित होकर भागने लगे । दाहिर पकड़ा गया और उसको निर्दयता पूर्वक मार दिया गया । मुहम्मद बिन कासिम धीरे-धीरे आगे बढ़ा और उसने ब्राह्मणवाद सहित सिंध के अनेक क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर ली ।

कासिम के सिंध आक्रमण के प्रभाव

कासिम की विजय के परिणाम स्वरूप सिंध के लोगों का आर्थिक जीवन छिन्न-भिन्न हो गया । सिंध की अधिकांश जनता व व्यापारी सिंध से चले गए । मुहम्मद बिन कासिम ने निचले पंजाब (पंजाब का निचला भाग) सहित सिंध का अधिकांश भाग विजय कर लिया था और उसने विजित प्रदेश में शासन व्यवस्था स्थापित की । वह तीन वर्ष से कुछ अधिक समय तक ही सिंध में रहा क्योंकि अचानक ही उसे नए खलीफा ने वापिस बुला लिया था । दो वर्ष बाद ही सिंध की जनता ने अरब वालों के विरूद्ध विरोद्र कर अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली । इस प्रकार सिंध विजय स्थायी सिद्ध नहीं हुई । कुछ इतिहासकारों ने कहा कि सिंध आक्रमण का कोई परिणाम नहीं निकला ।

तथापि सिंध आक्रमण के कुछ प्रभावी एवं निश्चित परिणाम हुए । अनेक अरबवासी सिंध में बस गए और उन्होंने वहीं की जनता से संबंध स्थापित कर लिए । दसवीं शताब्दी में इब्न हाकुल नामक भूगोल वेत्ता और यात्री ने देखा कि सिंध में अरबी और सिंधी दोनों ही भाषाएं बोली जाती थी और हिन्दू व मुसलमान जनता में सद्भावना थी । आज भी सिंध में मुसलमानों का बाहुल्य है। जिनमें अधिकांश व्यापारी है । सिंधी भाषा अरबी लिपि में लिखि जाती है । आपसी सम्पर्क से अरब वालों ने भारतीय संस्कृति से बहुत कुछ सीखा । उन्होंने दर्शन शास्त्र, खगोल शास्त्र, गणित, औषधि विद्या, रसायन शास्त्र और विषयों का ज्ञान प्राप्त किया । इस विजय के फलस्वरूप भारत का पश्चिमी देशों से व्यापार बढ़ा । बारहवीं शताब्दी तक इस प्रदेश में अरबवासियों (व्यापारियों) का स्थल और समुदी्र मार्ग पर अधिकार बना रहा ।

शाहबुददीन मुहम्मद गोरी का आगमन

शाहबुद्दीन मुहम्मद गोरी के भारत आगमन से पूर्व मध्य-एशिया में होने वाली राजनीतिक घटनाओं और परिवर्तनों को समझ लेना आवश्यक है । महमूद गजनबी की मृत्यु 1030 ई. को हुई थी। उसकी मृत्यु के बाद मध्य-एशिया में सलजुक तुर्की साम्राज्य का उदय हुआ । महमूद के निर्बल उत्तराधिकारी उनका सामना न कर सके । गजनी साम्राज्य धीरे-धीरे गजनी और पंजाब तक सीमित रह गया और वह भारत के लिये भय का कारण नहीं रहा था । सलजुक साम्राज्य के पतन के बाद मध्य-एशिया में दो शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ ये राज्य थे- ईरान का ख्वारज्म राज्य और उत्तर पश्चिमी अफगानिस्तान के गोरी में गोरी साम्राज्य । गोरी गजनबी साम्राज्य के सामन्त रह चुके थे । उन्होंने गजनबी साम्राज्य की कमजोरियों का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी ।

1173 ई. में शाहबुद्दीन मुहम्मद गोरी (1173-1205 ई.), जिसे मुईजदुद्ीन बिन साम भी कहा जाता है, गोर के राजसिंहासन पर बैठा । गोर साम्राज्य इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह ख्वारजम साम्राज्य की बढ़ती शक्ति का सामना कर पाता । दोनों के मध्य खुरासान झगड़े का कारण था और अन्त में ख्वारज्म ने खुरासान विजय कर लिया । गोर वालों ने समझ लिया कि उन्हें अब मध्य एशिया में कुछ नहीं मिलने वाला है । गोर वाले अपने साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा को भारत में विस्तार कर पूरी करने के लिए विवश हुआ ।

मुहम्मद गोरी का उद्देश्य लूटमार करने की अपेक्षा भारत में अपना एक स्थायी साम्राज्य स्थापित करना था । उनके आक्रमण सुनियोजित थे और जब भी उसने कोई प्रदेश जीता तो उसने वहां अपनी अनुपस्थिति में विजित प्रदेश की व्यवस्था के लिए अपना प्रतिनिधि छोड़ा । उसके आक्रमणों का ही परिणाम था कि उसने विन्धय पर्वत की उत्तरी प्रदेश में तुर्की सल्तनत की स्थापना की ।

पंजाब और सिघ की विजय

मुहम्मद गोरी ने भारत पर प्रथम आक्रमण 1175 ई. में किया । उसने मुल्तान पर आक्रमण कर उसे वहां के शासक से मुक्त किया । इस युद्ध में ही उसने भट्टी राजपूतों को पराजित कर उच्छ पर अधिकार किया । वह उच्छ और मुल्तान में अपने हाकिम नियुक्त कर गजनी वापिस चला गया । तीन वर्ष बाद 1178 ई. में उसने गुजरात पर आक्रमण किया परन्तु चालुक्य राजा भीमदेव ने मुहम्मद गोरी को अहिन्लवाड़ा के युद्ध में बुरी तरह पराजित किया । परन्तु इस पराजय से मुहम्मद गोरी हताश नहीं हुआ । उसने गजनबी के प्रदेश पंजाब पर आक्रमण किया जिसके फलस्वरूप उसने 1179-80 में पेशावर और 1186 ई. में लाहौर विजय कर लिए । इसके पश्चात् उसने स्यालकोट और देवल विजय किए । इस प्रकार 1190 ई. में मुल्तान, सिंघ और पंजाब को प्राप्त कर मुहम्मद गोरी के लिये दिल्ली और गंगा घाटी का मार्ग खुल गया था ।

महमूद गजनबी के भारत आक्रमण

महमूद गजनबी के आक्रमणों की चर्चा करने से पूर्व पश्चिमी और मध्य एशिया की घटनाओं और परिवर्तनों का अध्ययन कर लेना उपयुक्त होगा ।

750ई. में उमैयद वंश के खलीफओं की शक्ति समाप्त होने पर सत्ता अब्बासी वंश के हाथ में आ गई थी । नवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में अब्बासी वंश की सत्ता घटने लगी थी । नये शासकों ने सुल्तान का पद धारण किया और अधिकाधिक प्रदेश अब्बासी सत्ता से संबंध विच्छेद कर स्वतंत्र होने लगे । इनमें से ही समानी शासक थे । इनका राज्य ट्रांस आकिसयाना, खुरासान और ईरान के कुछ भागों पर था । समानी गवर्नरों में अलप्तगीन नामक एक तुर्की दास था । बाद में अलप्तगीन ने एक नए राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी गजनी थी महमूद गजनबी 998 ई. में गजनी का शासक बना । उसकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी, गजनी को मध्य एशिया में एक शक्तिशाली राज्य बनाना जिसको पूरा करने के लिए ही महमूद गजनबी ने भारत पर आक्रमण किए थे । इन आक्रमणों का उद्देश्य धन एकत्र करना था । इस ध्न से ही वह मध्य-एशिया में अपने विशाल साम्राज्य को संगठित कर सकता था । उसकी भारत में राज्य स्थापना की कोई इच्छा नहीं थी ।

जिस समय मध्य-एशिया में उपरोक्त घटना चक्र चल रहा था उसी समय उत्तर-भारत में छोटे-छोटे राज्यों का युग आरम्भ हुआ था । यह राज्य सदा ही परस्पर लड़ते रहते थे । जब इन राज्यों पर उत्तर-पश्चिम की ओर से आक्रमण हुआ तो यह अपनी रक्षा न कर सके । महमूद ने 1000-1026 ई. के बीच भारत पर 17 आक्रमण किए । उसने प्रारम्भ में पूर्वी अफगानिस्तान और पंजाब के हिन्दू शाही राज्य पर आक्रमण किए । जब से गजनी स्वतंत्र राज्य के रूप में उभरा था तभी से हिन्दू शाही शासकों ने इसे भय का कारण समझा था ।

तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)

मुहम्मद गोरी के पंजाब विजय करने और गंगा घाटी की ओर बढ़ने के कारण उसका पृथ्वीराज चौहान से प्रत्यक्ष संघर्ष हुआ । वह गोरी का प्रबल शत्रु था । यह राजस्थान के छोटे-छोटे राज्य तथा दिल्ली विजय कर चुका था और वह पंजाब तथा गंगा घाटी में बढ़ना चाहता था । इसलिये दोनों महत्वाकांक्षी शासकों में युद्ध होना अनिवार्य था । भटिंडा पर दोनों ही अपना अधिकार मानते थे । इसे ही लेकर दोनों में संघर्ष प्रारम्भ हुआ । तराइन के प्रथम युद्ध 1191 ई में गोरी की सेना बुरी तरह पराजित हुई और मुहम्मद गोरी बहुत ही कठिनाई से अपने प्राण बचा पाया । पृथ्वीराज ने भटिंडा विजय कर लिया परन्तु उसने वहां सैनिक छावनी नहीं बनाई और न उसने यहां से गोर वालों को निकाला । इससे मुहम्मद गोरी को शक्ति अर्जित करने केा अवसर मिल गया और 1192 ई. में उसने दूसरी बार भारत पर आक्रमण किया ।

तराइन का दूसरा युद्ध (1192 ई.)

इस युद्ध के बाद ही भारतीय इतिहास में बदलाव आया । गोरी ने इस युद्ध के लिए पूरी तरह तैयारी की थी । शायद पृथ्वीराज चौहान ने भी अनुभव कर लिया था कि गोरी का आक्रमण कोई आकस्मिक घटना नहीं था वरन् सुनियोजित आक्रमण था इसलिये उसने उत्तर भारत के सभी राजाओं को संगठित होकर शत्रु का मुकाबला करने का आव्हान किया । बहुत से राजाओं ने अपनी सेनाएं उसकी सहायता के लिए भेजी तथापि कन्नौज के राजा जयचंद ने कोई ध्यान नहीं दिया, और वह चुपचाप बैठा रहा । एक बार फिर तराइन के मैदान में राजपूतों और तुर्की सैनिकों का मुकाबला हुआ । भारतीय सैनिक संख्या में अधिक थे परन्तु तुर्की सेना का संगठन और संचालन बेहतर था । युद्ध मुख्य रूप से घुड़सवारी के मध्य था । भारतीय सैनिक तुर्की घुड़सवारों के संगठन कुशलता और तेज गति का मुकाबला नहीं कर सके । बहुत से सैनिक मारे गए । पृथ्वीराज बच तो गया परन्तु सरस्वती के समीप पकड़ा गया । तुर्की सेना ने हांसी, सरस्वती और समाना के गढ़ विजय कर लिए । इसके पश्चात् उन्होंने अजमेर भी विजय कर लिया परन्तु पृथ्वीराज को कंछु समय तक अजमेर पर शासन करने दिया गया । कुछ समय बाद उसे षडयंत्र रचने के आरोप में मृत्युदण्ड दे दिया गया और उसका स्थान उसके पुत्र को दे दिया गया । पृथ्वीराज के भाई के विद्रोह के कारण अजमेर पृथ्वीराज के बेटे के हाथ से निकल गया । तुर्की सेना ने पुन: अजमेर विजय किया और यहां तुर्की सेना नायक रखा ।

तराइन का दूसरा यद्धु भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है । प्रथम तो महु म्मद गोरी का अधिकार क्षेत्र दिल्ली से दूर नहीं रहा था । दिल्ली के राजपूत शासक को हटा कर गंगा घाटी की ओर भावी गतिविधियों का केन्द्र बनाया गया । इस प्रकार दिल्ली और पूर्वी राजस्थान तुर्की राज्य में शामिल हो गए थे । दूसरे तुर्की के विरूद्ध संगठित संघर्ष का अन्तिम अवसर था । इसके बाद मुहम्मद गोरी और उसके सेना नायकों की व्यक्तिगत चुनौतियों का सामना करना पड़ा, परन्तु उन्हं संगठित मुकाबले का सामना नहीं मिला ।

तराइन के युद्ध के बाद मुहम्मद गोरी भारतीय मामलों का उत्तरदायित्व अपने विश्वसनीय दास कुतुबुद्दीन ऐबक को सौप कर गजनी चला गया । मुहम्मद गोरी 1194 ई. में एक बार फिर भारत आया । वह 50,000 घुड़सवार लेकर यमुना नदी पार कर कन्नौज की ओर बढ़ा । उसने कन्नौज के समीप चन्द्रावार नामक स्थान पर कन्नौज के राजा जयचन्द्र को बुरी तरह पराजित किया । इस प्रकार तराइन और चन्द्रावर के युद्ध के बाद उत्तर भारत में तुर्की राज्य की स्थापना हुई । 1205 ई. में मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद कुतबुद्दीन ऐबक ने उसके भारतीय विजित प्रदेशों का उत्तरदायित्व संभाला ।

मध्य एशिया की राजनीतिक परिस्थितियों न शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी को भारत की ओर बढ़ने के लिए विवश किया । उसका उद्देश्य केवल लूटमार कर धन एकत्र करना नहीं था, वरन् वह भारत में राज्य स्थापित करना चाहता था । वह अन्हिलवाड़ा और तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित हुआ था तथापि राजपूतों के सत्ता के लिए परस्पर संघर्ष ने उसे तराइन के दूसरे युद्ध में सफलता प्राप्त करना सरल कर दिया ।

मामलुक सुल्तान

कुतुबुद्दीन ऐबक से मामलुक सुल्तानों का युग आरम्भ होता है । मामलुक अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है अपनाया हुआ । सैनिक सेवा के लिए लगाए गए तुर्की दासों को निजीया आर्थिक कार्यो पर लगाए गए दासों से अलग करने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया था। मामलुक सुल्तानों ने 1206 से 1290 ई. तक शासन किया । इन सुल्तानों की संख्या 10 थी । वे कुतुबुद्दीन ऐबक, शमसुद्दीन अल्तमश और गयासुद्दीन बलबन के वंशज थे । इस भाग में हम कवे ल उन चार शासकों का अध्ययन करेंगे जिन्होंने सल्तनत के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया था ।

कुतुबु्दीन ऐबक (1206-1210 ई.)

कुतुबुद्दीन ऐबक एक तुर्की दास था । वह अपने परिश्रम के कारण मुहम्मद गोरी की सेना में उच्च पद पर पहुंचा था । भारत में विजय और राज्य विस्तार का समस्त कार्य 1192-1205 ईके समय कुतुबुद्दीन ऐबक ने ही किया था । मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ की । वह भारत में प्रथम तुर्की सुल्तान बना और इस प्रकार उसने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की ।

कुतुबुद्दीन ऐबक को अनेक समस्याओं और कठिनाइयों का समाना करना पड़ा । नई स्थापित तुर्की सल्तनत को आक्रमणों और विद्रोहों का भय था । गजनी का शासक यल्दोज दिल्ली पर अपना अधिकार जता रहा था । सुल्तान और उच्छ का गवर्नर नासिरूद्दीन कुबाचा और पंजाब का अलीमदेंन खां स्वतंत्र के स्वप्न देख रहे थे । स्थानीय राजाओं ने विद्रोह किए । ऐबक ने अपनी सभी शत्रुओं को शक्ति और समझौतों की नीति के बल पर विजय किया । उसने यल्दोज को पराजित किया जो गजनी से दिल्ली की ओर चल दिया था ऐबक ने गजनी पर कब्जा किया, परन्तु जब यल्दोज गजनी में वापिस आया तो ऐबक लाहौर वापिस आ गया और उसने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया । इसके पश्चात् दिल्ली सल्तनत गजनी से अलग हो गई । इससे दिल्ली मध्य एशिया की राजनीति में पड़ने से बच गई । यह अब अस्थायी था । शत्रुओं को पूर्ण रूप से दमन करने का कार्य योग्य उत्तराधिकारी सल्तनत के लिए रह गया ।

अल्तमश इल्तुमिश (1210-1236 ई.)

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद तुर्की अमीरों ने उसके बेटे आराम शाह को गद्दी पर बैठाया । परन्तु वह अयोग्य और निर्बल सिद्ध हुआ । ऐबक के योग्य दामाद अल्मश ने दिल्ली के तुर्की अमीरों की सहायता से उसे गद्दी से उतार दिया और स्वयं सुल्तान बना । इस प्रकार उत्तराधिकारी नियम के अनुसार पिता की मृत्यु के बाद पुत्र को गुद्दी देने की प्रथा को आरम्भ में ही रोक दिया गया । अल्तमश ने 1210 से 1236 ई. तक शासन किया । दिल्ली सल्तनत को संगठित करने का श्रेय अल्तमश को ही प्राप्त है ।

जिस समय अल्तमश गद्दी पर बैठा उसे सब ओर समस्याएं ही दिखाई दी । प्रान्तीय हाकिम सल्तनत से सम्बन्ध विच्छेद कर रहे थे । यल्दोज, कुबाचा और अलीमर्दन खां भी विरोधी हो रहे थे । जालौर और रणथम्भोर के सरदार, ग्वालियर और कालिंजर के साथ मिलकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर रहे थे । इसके अतिरिक्त चगेंज खां के नेतृत्व में मंगोलों की बढ़ती शक्ति की सल्तनत उत्तर पश्चिमी सीमा के लिए भय का कारण बन रही थी ।

अल्तमश ने दृढ़ निश्चय पूर्वक अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाना आरम्भ किया । उसने यल्दोज को पराजित कर उसकी हत्या कर दी । उसने एक अन्य अभियान छेड़ कर कुबाचा से छुटकारा पाया । जिस समय 1220 ई. में मंगोल नेता चंगेज खां ने ख्वारजम राज्य समाप्त किया, उस समय अल्तमश ने अनुभव किया कि राजनीतिक दृष्टि से आए संकट को टालना ही हितकर है । इसलिए जब ख्वारजम के शाह का पुत्र जलालुद्दीन भग..रनी मंगोलों से बचकर भाग निकला तो उसने अल्तमश से शरण मांगी । अल्तमश ने किसी प्रकार उसे टाल दिया । इस प्रकार उसने मंगोलों से दिल्ली सल्तनत की रक्षा की ।1225 ई. के बाद अल्तमश के पूर्वी भाग में विद्रोह दमन करता रहा । जिस समय अल्तमश उत्तर-पश्चिमी सीमा के मामलों में उलझा हुआ था उस समय बंगाल के नए शासक इयाजखां ने स्वतंत्र रूप से राज्य करना आरम्भ कर दिया था । अल्तमश ने 1226-27 ई. में अपने पुत्र नासिरूद्दीन महमद के नेतृत्व में एक विशाल सेना बंगार विजय के लिए भेजी । इस सेना ने इबाज को पराजित किया और बंगाल तथा बिहार को पुन: दिल्ली सल्तनत के अधीन किया । इसी प्रकार उसने राजपूतों के विरूद्ध भी अभियान छेड़ा । उसने 1226 ई. में रणथम्भौर विजय किया और 1231 ई. तक उसने मन्दोर, जालौर, बयाना और ग्वालियर पर अपना अधिकार जमा लिया था । यद्यपि अल्तमश को गुजरात अभियान में सफलता नहीं मिली थी तथापि इसमें सन्देह नहीं कि उसने ऐबक के अधूरे कार्य को पूरा किया । जब दिल्ली सल्तनत का पर्याप्त विस्तार हो चुका था । अल्तमश ने अमीरों का एक संगठन बनाया । यह संगठन चहलगानी या 40 का दल कहलाता था । अस्तमश ने ही दिल्ली सल्तनत के प्रशासन की नींव रखी थी ।

रजिया (1236-1240 ई.)

अल्तमश ने अपने किसी भी पुत्र को गद्दी के उपयुक्त नहीं समझा था । इसलिए उसने अपनी पुत्री रजिया को मनोनीत किया । अल्तमश की मृत्यु के बाद कुछ अमीरों ने उसके सबसे बड़े बेटे रूकनुद्दीन को गद्दी पर बैठाया । तथापि रजिया ने दिल्ली की जनता और कुछ नायकों की सहायता से गद्दी प्राप्त कर ली ।

रजिया के लिए राजसिंहासन एक समस्या सिद्ध हुआ । उसके भाइयों के साथ-साथ अमीरों का एक वर्ग भी उसके विरूद्ध षड्यंत्र रच रहा था । तथापि रजिया ने बुद्धिमता पूर्वक स्थिति को संभाला । उसने अनुभव कर लिया था कि चहलगामी सरदार बहुत शक्तिशाली हो गए थे । इसलिए उसने जान-बुझकर गैरतुर्की को प्रशासन के ऊँचे पर दिए । उसने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय उस समय दिया जब उसने निर्बल ख्वारज्म साम्राज्य के साथ मंगोलों के विरूद्ध सन्धि को अस्वीकार कर दिया ।

रजिया एक शक्तिशाली और यथार्थवादी शासक थी । वह प्रत्यक्ष रूप में शासन कार्य करने लगी वह स्वयं दरबार लगाती और सेना का संचालन करती थी । अमीरों ने भी अनुभव कर लिया था कि रजिया स्त्री होने पर भी उसके हाथ की कठपुतली नहीं बनेगी । अमीरों ने प्रान्तों में विद्रोह करने शुरू कर दिए क्योंकि वे जानते थे कि वह गैर तुर्कों को उच्च पद दे रही थी और उसे दिल्ली की जनता का समर्थन प्राप्त था । उन्होंने आरोप लगाया कि वह याकूबखां नामक अबेसीनीयाई सरदार से मित्रता कर रही थी । रजिया वीरता पूर्वक लड़ी परन्तु पराजित हुई और बाद में मारी गई । इस प्रकार उसका संक्षिप्त शासन 1240 ई. में समाप्त हो गया ।

नसिरूदीन महमूद (1246-1266 ई.)

बलबन एक नाइब के रूप में -ं रजिया के शासन काल मे सुल्तान और तुर्की सरदारों (चहलगानी) के बीच सत्ता के लिए जो संघर्ष आरम्भ हुआ था, वह अब भी चलता रहा । रजिया की मृत्यु के बाद चहलगानी सरदारों की शक्ति इतनी बढ़ गई कि वे सुल्तान बनाने और हटाने में मुख्य भूमिका निभाने लगे । एक चहलगानी महत्वकांक्षी सदस्य उलध खां ने 1246 ई. में एक षड्यन्त्र रचकर नसिरूद्दीन नामक अनुभवहीन नवयुवक को गद्दी पर बैठाया । उलध खां (जो बाद मं बलबन के नाम से गद्दी पर बैठा) ने नाइब का पद लिया । उसने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह नसिरूद्दीन से कर दिया । तथापि बलबन की बढ़ती शक्ति को देखकर अनेक तुर्की सरदार उससे जलने लगे । उन्होंने एक षड्यन्त्र रचकर 1250 ई. में बलबन को नाइब के पद से हटवा दिया । नाइब के पद पर भारतीय मुसलमान इमामुद्दीन रैहान नियुक्त किया गया । बलबन के पद तो छोड़ दिया परन्तु वह अपने संगठन दृढ़ करता रहा । अन्त में वह अपने पुराने पद पर आ गया । पद भार संभालने के बाद उसने अपने शत्रुओं का दमन करने के लिए उचित और अनुचित सभी तरीके अपनाए । उसने शाही चिन्ह भी प्राप्त कर लिया । सुल्तान नसिरूद्दीन की मृत्यु 1265 ई. में हुई । बहुतों का कहना है कि बलबन ने उसे जहर दिया था । बलबन गद्दी पर बैठा और उसके ही साथ शक्तिशाली केन्द्र शासन का युग आरम्भ हुआ ।

बलबन (1266-1287 ई.)

जिस समय बलबन गद्दी पर बैठा उसकी स्थिति सुदृढ़ नहीं थी । तुर्की सरदार किस प्रकार सहन करते कि उनमें से एक गद्दी पर बैठे । मंगाल, सल्तनत पर आक्रमण करने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा में थे । दूर-दराज के प्रान्तीय हाकिम स्वतंत्र शासक बनने के प्रयत्न कर रहे थे । हिन्दू राजा छोटे से छोटा अवसर पाकर विदा्र हे करन े के लिए तैयार थे । दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में मेवाती गड़बड़ कर रहे थे । बलबन ने आरम्भ से ही कठोर नीति अपनाई । इस नीति को ‘ब्लड एंड आयरन’ (लौह और रक्त) की नीति कहा जाता है । वह स्वेच्छाधारी शासक था । उसने सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रयत्न किया । उसने दरबार की दलबन्दी को समाप्त किया और अमीरों की शक्ति को बढ़ने से राकने का प्रयास किया । उसने सुंल्तान के पद की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए राजस्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ।

बलबन ने सेना का पुनर्गठन किया । साम्राज्य के विभिन्न भागों में विद्रोह दमन के लिए उसने सेना तैनात की । उसने दोआब क्षेत्र में शासन व्यवस्था और शान्ति बनाए रखने के लिए अनेक कदम उठाए उसने जंगल कटवा कर सड़के बनवाई और किलों में सेना रखी । उसने मेवात, दोआब, अवध और कटिहार में फैली अशान्ति को कठोरता पूर्वक समाप्त किया । उसने पूर्वी राजपूताने में अजमेर और नागोर पर अपना नियंत्रण स्थापित किया । परन्तु उसके रणथम्भोर और ग्वालियर विजय के प्रयत्न असफल रहे ।

अल्तमश के बाद बिहार और बंगाल स्वतंत्र हो गए थे । बलबन ने उन्हें पुन: दिल्ली सल्तनत के अधीन लाने का प्रयास किया । बंगाल का हाकिम तुगरिल खां 1279 ई. में स्वतंत्र हो गया था। बलबन ने अपनी सेना बंगाल भेजी जिसने तुगरिल खां को निर्दयता पूर्वक मार दिया और बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खां को बंगाल का हाकिम नियुक्त किया ।

मंगोल दलबन को निरन्तर तंग कर रहे थे । मंगोलों ने सिन्ध के पश्चिमी क्षेत्र पर तो अपना अधिकार जमा ही रखा साथ ही वे पंजाब पर भी आक्रमण करते रहे थे । इसलिए बलबन उन्हें पूर्व की ओर बढने से रोकना चाहता था । बलबन ने उत्तर पश्चिमी सीमा पर किले बनवाए और उनमें सेना रखरी । मंगोल नेता हलाकू दिल्ली सल्तनत से अच्छे संबंध बनाए रखना चाहता था । इसलिए उसने अपना राजदूत दिल्ली भेजा । इस प्रकार बलबन अपनी कूटनीति और शक्ति के बल पर मंगोलों को काबू में रख सका ।

1287ई. में बलबन की मृत्यु हुई । उसका उत्राधिकारी शाहजाद मुहम्मद पहले ही मंगोल आक्रमण में मारा जा चुका था । इसलिए बलबन की मृत्यु के बाद सरदारों ने उसके पौत्र कैकुवाद को गद्दी पर बैठाया । वह अपने से पूर्व हुए अनेक सुल्तानों की भांति निर्बल और विलासप्रिय सिद्ध हुआ । एक बार फिर दरबार में दलबन्दी हुई । जिस समय कैकुवाद को पक्षाघात् हुआ सरदारों ने उसके अल्पव्यस्क पुत्र कैमूर को गद्दी पर बैठाया । गद्दी पर तुर्को का अधिकार बनाए रखने के लिए ही यह किया गया था ।

तथापि बलबन का वंश अपने अंत की ओर था । गैर-तुर्क और भारतीय मुसलमान सदा से ही तुर्को के एकाधिकार के विरोधी रहे थे । जमालुद्दीन खलजी के नेतृत्व में खलजी सरदारों ने 1290 ई. में कैमूर को गद्दी से उतार कर अपना अधिकार बना लिया और इस प्रकार बलजी वंश की नीव रखी गई ।

3 Comments

  1. लिखे गए शब्दों में काफी त्रुटि

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    1. त्रुटियों को सही करने की कोशिश कर रहा हूं
      सुझाव के लिए आपका धन्यवाद !

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  2. वास्कोडिगामा

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