प्रागैतिहासिक काल का अर्थ क्या है?

सभ्यता के  क्रमबद्ध विकास के पूर्व मानव इतिहास को प्रागैतिहास काल कहा जाता है। इस काल में मनुष्य ने जिस सभ्यता का विकास किया, उसे हम आदि काल की सभ्यता अथवा आदिम सभ्यता के नाम से जानते हैं। यद्यपि इस सभ्यता का काल निश्चित करना कठिन है, किन्तु विद्वानों ने अपने अथक प्रयास से प्रागैतिहास काल के मानव जीवन की एक रूपरेखा प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। इस काल के लिए कोई लिखित ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं है। अतः, इस संदर्भ में विद्वानों ने जो कुछ भी कहा है उन्हें पूर्णतः सत्य नहीं माना जा सकता है। 

1833 ई. में टर्नल ने प्रागैतिहासिक काल के लिए Age of Man शब्द का प्रयोग किया था। किन्तु 1851 ई. में डैनियल विलसन ने अपनी पुस्तक ‘‘The Archeology and Prehistoric Annals of Scotland ’’ में पहली बार प्रागैतिहास शब्द का प्रयोग किया। अतः प्रागैतिहासिक काल मानव के पृथ्वी पर प्रादुर्भाव से प्रारम्भ होकर 3000 ई.पू. तक माना जाता है। यह वह काल था जब मानव को लिपि का ज्ञान नहीं था अर्थात इस काल के लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। 

भारत के प्रमुख पुरातत्ववेत्ता एच.डी. सांकलिया के मतानुसार ‘‘लिपि ज्ञान के पूर्व किसी क्षेत्र, देष या राष्ट्र, मानव या जाति का इतिहास ही प्रागैतिहास है।

प्रागैतिहासिक काल का अर्थ

प्रागैतिहासिक काल का अर्थ प्रागैतिहासिक शब्द प्राग+इतिहास से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है- इतिहास से पूर्व का युग । मानव प्रगति की कहानी के उस भाग को इतिहास कहते है जिसके लिये लिखित वर्णन मिलते है । परन्तु लेखन-कला के विकास के पहले भी मानव लाखों वर्षों तक पृथ्वी पर जीवन व्यतीत कर चुका था । इस काल में वह लिखने की कला से पूर्णतया अपरिचित था । 

यह लम्बा अतीत काल जब मनुष्य ने घटनाओं का कोई लिखित वर्णन नहीं रखा ‘प्रागैतिहास या प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है ।  

प्रगैतिहासिक भारत को 4 भागों में विभक्त किया गया है :-
  1. पूर्व पाषाण काल
  2. मध्य पाषाण काल
  3. उत्तर पाषाण काल
  4. धातु पाषाण काल

1. पूर्व पाषाण काल

पूर्व पाषाण कालीन सभ्यता के केन्द्र दक्षिण भारत में मदुरा त्रिचनापल्ली, मैसूर, तंजौर आदि क्षेत्रों में इस सभ्यता के अवशेष मिले है । इस समय मनुष्य का प्रारंभिक समय था, इस काल में मनुष्य और जानवरों में विशेष अन्तर नहीं था । पूर्व पाषाण कालीन मनुष्य कन्दराओं, गुफाओं, वृक्षो आदि में निवास करता था । पूर्व पाषाण कालीन मनुष्य पत्थरों का प्रयोग अपनी रक्षा के लिये करता था । कुल्हाड़ी और कंकड के औजार सोहन नदी की घाटी में मिले है । सोहन नदी सिंधु नदी की सहायक नदी है। उसके पत्थर के औजार साधारण और खुरदुरे थे । 

इस युग में मानव शिकार व भोजन एकत्र करने की अवस्था में था । खानाबदोश जीवन बिताता था और उन जगहों की तलाश में रहता था, जहॉं खाना पानी अधिक मात्रा में मिल सके ।

2. मध्य पाषाण काल

मध्य पाषाण काल में पत्थर के औजार बनायें जाने लगे इस काल में कुल्हाडियों के अलावा, सुतारी, खुरचनी और बाण आदि मिले है । इस काल में मिट्टी का प्रयोग होने लगा था । पत्थरों में गोमेद, जेस्पर आदि का प्रयोग होता था । इस काल के अवशेष सोहन नदी, नर्मदा नदी और तुगमद्रा नदी के किनारे पाये गये ।

3. उत्तर पाषाण काल

हजारों वर्षो तक पूर्व पाषाण कालीन जीवन व्यतीत करने के बाद धीरे-धीरे मानव सभ्यता का विकास हुआ व उत्तर पाषाण काल का प्रारम्भ हुआ । इस काल में भी मानव पाषाणो का ही प्रयोग करता था, किन्तु इस काल में निर्मित हथियार पहले की अपेक्षा उच्च कोटि के थे । पाषाण काल का समय मानव जीवन के लिये विशेष अनुकूल था । इस काल के मनुष्य अधिक सभ्य थे । उनका जीवन सुख मय हो गया था । उन्होंने पत्थर व मिट्टी को जोड़कर दीवारे व पेड़ की शाखाओं व जानवरों की हड्डियों से छतों का निर्माण किया एवं समूहों में रहना प्रारम्भ कर दिया । मिट्टी के बर्तन, वस्त्र बुनना आदि प्रारम्भ कर दिया । हथियार नुकीले सुन्दर हो गये। इस काल के औजार सेल्ट, कुल्हाड़ियाँ, छेनियाँ, गदायें, मूसला, आरियाँ इत्यादि थे । 

उत्तर पाषाण कालीन लोग पत्थर को रगड़कर आग जलाने व भोजन पकाने की कला जानते थे । इस काल में धार्मिक भावनायें भी जागृत हुई । प्राकृतिक पूजा वन, नदी आदि की करते थे ।

नवपाषाण युग में मानव को खेती-बाड़ी का ज्ञान था । वह पशुपालन भी करता था। वह उच्च स्तर के चिकने औजार बनाता था । इस युग में मानव कुम्हार के चाक का उपयोग भी करता था । इस परिवर्तन और उन्नति को ‘‘नवपाषाण क्रान्ति’’ भी कहा जाता है ।
उत्तर पाषाण काल

4. धातु पाषाण काल

धातु यगु मानव सभ्यता के विकास का द्वितीय चरण था । इस युग में मनुष्य ने धातु के औजार तथा विभिन्न वस्तुयें बनाना सीख लिया था । इस युग में सोने का पता लगा लिया था एवं उसका प्रयोग जेवर के लिये किया जाने लगा । धातु की खोज के साथ ही मानव की क्षमताओं में भी वृद्धि हुई । हथियार अधिक उच्च कोटि के बनने लग गये । धातुकालीन हथियारों में चित्र बनने लगे। इस युग में मानव ने धातु युग को तीन भागों में बांटा गया:-
  1. ताम्र युग
  2. कांस्य युग
  3. लौह युग
1. ताम्र युग- इस युग में ताबें का प्रयोग प्रारम्भ हुआ । पाषाण की अपेक्षा यह अधिक सुदृढ़ और सुविधाजनक था । इस धातु से कुल्हाड़ी, भाले, तलवार तथा आवश्यकता की सभी वस्तुयें तॉबे से बनाई जाने लगी । कृषि कार्य इन्ही औजारों से किया जाने लगा ।

2. कांस्य युग:- इस यगु में मानव ने तांबा और टिन मिलाकर एक नवीन धातु कांसा बनाया जो अत्यंत कठोर था । कांसे के औजार उत्तरी भारत में प्राप्त हुये इन औजार में चित्र भी थे । अनाज उपजाने व कुम्हार के चाक पर बर्तन बनाने की कला सीख ली थी । वह मातृ देवी और नर देवताओं की पूजा करता था । वह मृतकों को दफनाता था और धार्मिक अनुष्ठानों में विश्वास करता था । ताम्र पाषाण काल के लोग गांवों में रहते थे ।

3. लौह युग- दक्षिण भारत में उत्तर पाषाण काल के उपरान्त ही लौह काल प्रारम्भ हुआ। लेकिन उत्तरी भारत में ताम्रकाल के उपरान्त लौह काल प्रारम्भ हुआ । इस काल में लोहे के अस्त्र शस्त्रों का निर्माण किया जाने लगा । ताम्र पाषाण काल में पत्थर और तांबे के औजार बनाये जाते थे ।

5. प्रागैतिहासिक कला

प्रागैतिहासिक कला का पहला प्रमाण 1878 में इटली और फ्रांस में मिला। भारत में प्रागैि तहासिक गुफाएं  जिनकी चट्टानों पर चित्रकारी की हुई है, आदमबेटका, भीमबेटका, महादेव, उत्तरी कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के कुछ भागों में पाई जाती है । दो पत्थर की चट्टान जो चित्रित है, बुर्जहोम में भी पाई गई । इस समय के चित्र प्रतिदिन के जीवन से सम्बन्धित थे । हाथी, चीता, गैंडा और जंगली सूअर के चित्र मिले, जिन्हें लाल, भूरे और सफेद रंगो का प्रयोग करके दिखाया गया है । कुछ चित्रों को चट्टानों को खुरेद कर बनाया गया है। प्रागैतिहासिक काल के चित्र शिकार के है, जिनमें पशुओं की आकृति एवं शिकार करते हुये दिखाया गया है ।

प्रागैतिहासिक कला
आरम्भिक पुरापाषण युग की हाथ की कुल्हाड़ियाँ तथा चीरने फाड़ने के औजार

प्रागैतिहासिक कला

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