वैज्ञानिक प्रबंध क्या है | अर्थ, परिभाषा और टेलर के मूलभूत वैज्ञानिक सिद्धांत

वैज्ञानिक प्रबंध अवधारणा का जन्म 20वीं शताब्दी में एफ. डब्ल्यू. टेलर द्वारा हुआ था। आपके अनुसार, प्रबंध से तात्पर्य काम करने की सर्वोत्तम विधि खोजना तथा न्यूनतम लागत एवं प्रयासों से अधिकतम उत्पादन करना है। इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक कार्य को करने की एक सर्वोत्तम विधि होती है, जिसे ‘वैज्ञानिक विधि’ की संज्ञा दी जा सकती है। प्रबंध की इस अवधारणा के उत्थान का कारण तत्कालीन परिस्थितियां भी थीं । उस समय औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन करना एक चुनौती था। फलत: लोग प्रबंध कार्य को उसी रूप में समझने व अनुभव करने लगें। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि कार्य निष्पादन का आवश्यक मार्ग खोजना ही प्रबंध कहलाता हैं

इस विचारधारा के अनुसार संगठन की तुलना एक जीवित प्रणाली से की गई है। संगठन को अपने अस्तित्व एवं विकास के लिए वातावरण के अनुकूल कार्य करते रहना चाहिए। प्रबंध का प्रमुख कार्य संगठन को परिवर्तनशील बाजार, तकनीक तथा अन्य परिस्थितियों के अनुकूल बनाना है। प्रबंधकों से संगठन के विभिन्न सदस्यों के अंतर्विरोधी उद्देश्यों, लक्ष्यों एवं गतिविधियों में संतुलन स्थापित करने की अपेक्षा की जाती है। अत: प्रबंधक को विद्यमान परिस्थितियों को ध्यान में रखकर संगठन के लक्ष्यों का निर्धारण तथा नीति निर्माण का कार्य करना चाहिए। 

वैज्ञानिक प्रबंध की परिभाषा

1. एफ. डब्ल्यू. टेलर जिन्हें प्रबंध विज्ञान का जनक भी कहा जाता है, के अनुसार ‘‘ प्रबंध यह जानने की कला है कि क्या करना है तथा उसे करने का सर्वोत्तम एवं सुलभ तरीका क्या है।’’ यह परिभाषा प्रबंध के तीन तत्वों पर प्रकाश डालती है-
  1. प्रबंध एक कला है यह कला सामान्य ज्ञान और विश्लेषण ज्ञान से युक्त है।
  2. प्रबंध किये जाने वाले कार्यों का पूर्व चिन्तन व निर्धारण है। 
  3. यह कार्य निष्पादन की श्रेष्ठतम एवं मितव्ययितापूर्ण विधि की खोज करता है। 
उनके अनुसार कार्य को करने से पहले जानने तथा बाद में उसे भली प्रकार न्यूनतम लागत पर सम्पन्न करने की कला ही प्रबंध है। इस परिभाषा का नकारात्मक पक्ष यह है कि यह मानवीय पक्ष की घोर उपेक्षा करता है एवं शोषण को बढ़ावा देता है।

2. हेनरी फेयोल की दृष्टि से, ‘‘ प्रबंध से आशय पूर्वानुमान लगाने एवं योजना बना संगठन की व्यवस्था करने, निर्देश देने, समन्वय करने तथा नियंत्रण करने से है।’’ इस प्रकार फेयोल ने प्रबंध की प्रक्रिया की व्याख्या करने का प्रयास किया है। इससे प्रबंधक के कार्य का ज्ञान हो जाता है। इन कार्यों में पूर्वानुमान, नियोजन, संगठन, निर्देशन समन्वय तथा नियंत्रण का समावेश किया गया है किन्तु उन्होंने प्रबंध के समस्त कार्यों की ओर संकेत नहीं किया है जिनमें अभिप्रेरण एवं निर्णयन सम्मिलित हैं। फिर भी महत्वपूर्ण कार्यों का समावेश होने से यह परिभाषा काफी स्पष्ट, सरल, सारगर्भित बन गई है।

हेनरी फेयोल
 हेनरी फेयोल

3. पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार, ‘‘ प्रबंध आद्योगिक समाज का आर्थिक अंग है। वांछित परिणामों को प्राप्त करने हेतु कार्य करना ही प्रबंध है। यह एक बहुउद्देशीय तत्व है जो व्यवसाय का प्रबंध करता है। प्रबंधकों का प्रबंध करता है तथा कर्मचारियों व कार्य का प्रबंध करता है।’’ यह परिभाषा अग्रलिखित तत्वों पर प्रकाश डालती है-
  1. प्रबंध औद्योगिक सभ्यता व संस्कृति का उत्पाद है। 
  2. औद्योगीकरण के बढ़ते हुए चरणों ने प्रबंध की आवश्यकताओं को प्रेरित किया है। 
  3. प्रबंध वांछित परिणामों को प्राप्त करने का कार्य है। 
  4. यह एक बहुउद्देशीय तत्व है जो व्यवसाय, प्रबंधक, कर्मचारी एवं कार्य सभी का प्रबंध करता है। 
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि प्रबंध एक वैज्ञानिक व निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो संस्था के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से संगठन में कार्यरत व्यक्तियों के प्रयासों का नियोजन, निर्देशन, समन्वय, अभिप्रेरण व नियंत्रण करती है। इस प्रकार उपरोक्त प्रबंध गुरूओं के चिन्तन के आधार पर हम आधुनिक प्रबंध की विशेषताओं का निर्धारण में सक्षम हो सकते हैं। आइये आधुनिक प्रबंध की विशेषताओं का अध्ययन करें जो कि इस प्रकार से है -
  1. प्रबंध एक मानवीय क्रिया है जिसमें विशिष्ट कार्य होता है।
  2. प्रबंध मानव एवं मानवीय संगठनों से सम्बन्धित कार्य है। जिसमें उद्देश्यपूर्ण कार्य होते हैं। 
  3. प्रबंध कार्यों की सुव्यवस्थित एकीकृत व संयाजित प्रक्रिया है।
  4. प्रबंध एक सामाजिक प्रक्रिया है जो सतत चलती रहती है। 
  5. प्रबंध एक गतिशील, परिवर्तनशील व सार्वभौमिक प्रक्रिया है। 
  6. प्रबंध वह प्रक्रिया है जो समूहों के प्रयासों से सम्बन्धित है जिसका आधार समन्वय होता है। 
  7. प्रबंध में कार्य निष्पादन हेतु पदानुक्रम व्यवस्था बनाई जाती है। 
  8. प्रबंध एक सृजनात्मक तथा धनात्मक कार्य है।
  9. प्रबंध एक अधिकार सत्ता व कार्य-संस्कृति है। 
  10. प्रबंध एक अदृश्य शक्ति है जिसे देखा या छुआ नहीं जा सकता। 
  11. प्रबंध एक कला व विज्ञान दोनों ही है। 
  12. प्रबंध ज्ञान व चातुर्य का हस्तांतरण किया जा सकता है यह कार्य शिक्षण प्रशिक्षण की व्यवस्था द्वारा सम्भव होता है। 
  13. प्रबंध व्यवहारवादी विज्ञान है। इसका उपयोग सभी मानवीय क्रिया क्षेत्रों में किया जा सकता है।
  14. प्रबंध वस्तुओं का निर्देशन नहीं, वरन मानव का विकास है। 
  15. प्रबंध का विधिवत नियमन व नियंत्रण किया जाता है। यह कार्य सरकार द्वारा कानून की मदद से किया जाता है। 
उपरोक्त विशेषतायें प्रबंध की प्रकृति का सटीक विश्लेषण करने में सक्षम हैं, जो कि है।
  1. प्रत्येक व्यवसाय में प्रबंध की आवश्यकता अनिवार्य रूप से होती है इसलिये प्रबंध की सार्वभौतिक प्रक्रिया कहते हैं। संगठन की प्रकृति व प्रबंधक का स्तर चाहे कुछ भी हो, उसके कार्य लगभग समान ही होते हैं। किसी भी प्रकृति, आकार या स्थान पर प्रबंध के सिद्धान्तों का प्रयोग हो सकता है।
  2. संगठन के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त करना ही प्रबंध का प्राथमिक उद्देश्य है। प्रबंध की सफलता का मापदंड केवल यही है कि उसके द्वारा उद्देश्य की पूर्ति किस सीमा तक होती है। संगठन का उद्देश्य लाभ कमाना हो या न हो, प्रबंधक का कार्य सदैव प्रभावी तथा कुशलतापूर्ण सम्पन्न होना चाहिये। 
  3. प्रबंध में आवश्यक रूप से व्यवस्थित व्यक्तियों के सामूहिक कार्यों का प्रबंध शामिल होता है। प्रबंध में कार्य के अधीनस्थ व्यक्तियों का प्रशिक्षण विकास तथा अभिप्रेरण शामिल है। साथ ही वह उनको एक सामाजिक प्राणी के रूप में संतुष्टि प्रदान करने का भी ध्यान रखता है। इन सब मानवीय संबन्धों एवं मानवीय गतिवििध्यों के कारण प्रबंध को एक सामाजिक क्रिया की संज्ञा दी जाती है। 
  4. प्रबंध द्वारा परस्पर सम्बन्धित गतिविधियों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया जाता है जिससे किसी कार्य की पुनरावृत्ति न हो। इस प्रकार प्रबंध संगठन के सभी वर्गों के कार्यों का समन्वय करता है।
  5. प्रबंध एक अदृश्य ताकत है। इसकी उपस्थिति का अनुभव इसके परिणामों से ही किया जा सकता है। ये परिणाम व्यवस्था, उचित मात्रा में संतोषजनक वातावरण, तथा कर्मचारी संतुष्टि द्वारा किये जा सके हैं। 
  6. प्रबंध एक गतिशील एवं सतत् प्रक्रिया है। जब तक संगठन में लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रयास होता रहेगा, प्रबंध रूपी चक्र चलता रहेगा। 
  7. प्रबंधकीय कार्य की श्रृंखला पूर्ण रूप से सह आधारित है इसलिए स्वतंत्र रूप से किसी एक कार्य को नहीं किया जा सकता। प्रबंध विशिष्ट अवयवों से मिलकर बनी संयुक्त प्रक्रिया है। प्रबंध की सभी गतिविधियों में अनेक अवयवों को सम्मिलित करना पड़ता है इसलिए इसे एक व्यवस्थित संयुक्त प्रक्रिया की संज्ञा दी गई है। प्रबंध परिणाम प्रदान कर सह क्रियात्मक प्रभावों का सृजन करता है जो सामूहिक सदस्यों के व्यक्तिगत प्रयास के योग से अधिक होता है। यह संक्रियाओं को एक क्रम प्रदान करता है, कार्यों का लक्ष्य से मिलान करता है तथा कार्यों को भौतिक और वित्तीय संसाधनों से जोड़ता है । यह सामूहिक प्रयासों को नई कल्पना, विचार तथा नई दिशा प्रदान करता है। 
कुशल प्रबंध व्यवहार के प्रत्येक स्तर की महत्वपूर्ण आवश्यकता है, तथा आज के प्रतियोगात्मक संगठनों में तो इसका विशेष महत्व है। प्रबंध किसी संगठन का मस्तिष्क होता है जो उसके लिए सोच विचार करता है और लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर अभिप्रेरित करता है। रचनात्मक विचारों और कार्यों के सम्पादन का मूल स्रोत प्रबंध ही है। यही संगठन की नई सोच, लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नए मार्ग और समूचे संगठन को एक सूत्र में बॉंधने का कार्य करता है। सदस्यों को अपने कुशल एवं उचित आदेशों निर्देशों द्वारा प्रबंधक व्यापार को वांछित दिशा और सही गन्तव्य की ओर ले जाता है। संगठन की विभिन्न क्रियाओं में समन्वय और नियंत्रण स्थापित करके प्रबंधक उसका मार्गदर्शन करता है। यह संगठन की समस्याओं का समाधान प्रदान करता है, भ्रान्तियों और झगड़ों को दूर करता है, व्यक्तिगत हितों के ऊपर सामूहिक हितों की गरिमा की स्थापना करता है। और आपसी सहयोग की भावना का सृजन करता है। कुशल प्रबंध के द्वारा ही सर्वोत्तम परिणामों की प्राप्ति होती है, कुशलता में वृद्धि होती है और उपलब्ध मानवीय और भौतिक साधनों का अधिकतम उपयोग सम्भव होता है, तथा लक्ष्यहीन क्रियाएं सम्पन्न होने लगती है। अकुशल प्रबंध वातावरण में अनुशासनहीनता, संघर्षों , भ्रान्तियों, लालफीताशाही, परस्पर विरोधों, अनिश्चितताओं, जोखिमों और अस्त-व्यस्तता को उत्पन्न करता है जिससे संगठन अपने निर्धारित लक्ष्यों से भटक जाता है। अत: किसी संगठन की सफलता में उसके प्रबंध का बड़ा योगदान होता है। बड़े साधन-विहीन एवं विकट समस्याओं से त्रस्त संगठन अपने प्रबंधकों की दूरदर्शिता, कुशल नेतृत्व एवं चातुर्यपूर्ण अभिप्रेरण से सफलता की शिखर पर पहुॅंच जाते हैं।

समस्त विकसित देशों के इतिहास के विकास पर नजर डालें तो पायेंगे कि उनकी समृद्धि, वैभव व प्रभुत्व का मूल आधार कुशल प्रबंधकीय नेतृत्व एवं व्यावसायिक उन्नति ही हैं। भारत एक विकासशील देश है, यहॉं प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता होते हुए भी गरीबी है। आज भी 26 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। आर्थिक विकास की दृष्टि से यह अपने शैवकाल से गुजर रहा है। गरीबी के साथ साथ यहॉं औद्योगिक असंतुलन तथा बेरोजगारी चरमोत्कर्ष पर है। इन आर्थिक समस्याओं को निदान औद्योगीकरण में निहित है। यही कारण है कि पंचवष्र्ाीय योजनाओं में उद्योग धन्धों के विकास पर पर्याप्त बल दिया है। प्राइवेट सेक्टर के अतिरिक्त पब्लिक सेक्टर के विकास के लिए विशाल मात्रा में विनियोजन की व्यवस्था की जा रही है। इन भावी उद्योगों के समुचित प्रबंध के लिये आवश्यकता होगी कुशल प्रबंधकों की । आने वाले वर्षों में यदि मंदी को दूर कर व्यवसाय को भूतकाल की त्रुटियों से बचना है और भविष्य में प्रबंधकों की बढ़ती हुई मांग को पूरा करना है तो कुशल प्रबंध के सिद्धान्तों की शिक्षा देना आवश्यक है। पर्याप्त प्रबंधकीय सम्पत्ति का निर्माण करके ही भविष्य के लिए कुशल प्रबंधकों को तैयार किया जा सकता है। भारतीय व्यापारिक परिदृश्य में प्रबंध का महत्व निम्नलिखित बिन्दुओं से आंका जा सकता है।
  1. देश में भौतिक संसाधनों का सदुपयोग करने के लिए कुशल प्रबंध आवश्यक है।
  2. रोजगार के सृजन के लिए भी श्रेष्ठ प्रबंध आवश्यक है।
  3. प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हेतु प्रभावकारी प्रबंध आवश्यक है।
  4. पूॅंजी के निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए कुशल प्रबंध आवश्यक है।
  5. आधारभूत उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति को बढ़ावा देने के लिए प्रबंध की भूमिका महत्वपूर्ण है।
  6. आधारभूत सुविधाएं प्रदान करने के लिए उद्योगों का कुशल प्रबंध आवश्यक है।
  7. विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कुशल प्रबंध की आवश्यकता है।
  8. निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की उत्पादकता में वृद्धि लाने के लिए कुशल प्रबंध एक अनिवार्यता है।
  9. जनसाधारण के जीवन स्तर में गुणात्मक विकास लाने के लिए प्रबंध आवश्यक है।
  10. नव प्रवर्तन को प्रोत्साहित करने में भी प्रबंध की भूमिका महत्वपूर्ण है।
  11. हमारी आर्थिक नीति का आधार उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण (एल. पीजी. ) का सही क्रियान्वयन एवं समन्वय कुशल प्रबंध द्वारा ही सम्भव हो सकता है जिससे भारत का चातुर्दिक विकास कर समृद्धि लाई जा सकती है और भारत को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा किया जा सकता है।

वैज्ञानिक प्रबंध के सिद्धांत

एफ.डब्न्ल्यू. टेलर, जो प्रबंध के सुप्रसिद्ध विशेषज्ञ थे, ने अमेरिका की एक स्टील कम्पनी में प्रशिक्षु, मशीनकार, फोरमैन तथा अन्तत: मुख्य इंजीनियर के रूप में कार्य किया। टेलर ने प्रबंध का एक नया दृष्टिकोण सुझाया । इसे वैज्ञानिक प्रबंध के नाम से जाना जाता है टेलर के मूलभूत वैज्ञानिक सिद्धांत हैं।

1. कार्यानुमान का सिद्धांत-
प्रत्येक कार्य को करने से पहले उस कार्य के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। पूर्वानुमान लगाने चाहिए।

2. प्रयोगों का सिद्धांत-श्रमिकों के कार्यक्षमता मे वृद्धि के लिए तीन प्रयोग टेलर ने किए-
  1. समय अध्ययन- श्रमिक किसी कार्य को करने में कितना समय लगाता है और वास्तव में कितना समय लगना चाहिए।
  2. गति अध्ययन- किसी कार्य को करने के लिए श्रेष्ठ विधि कौन सी होगी इसे पता लगाना गति अध्ययन है ।
  3. थकान अध्ययन- श्रमिक कब और क्यों जल्दी थकता है इसका अध्ययन थकान अध्ययन कहलाता है।
3. वैज्ञानिक चयन और प्रशिक्षण का सिद्धांत-श्रमिकों का वैज्ञानिक चयन और उनका कार्य- स्थान निर्धारण ताकि प्रत्येक श्रमिक को उसकी उपयुक्त्ता के अनुसार कार्य दिया जा सके। श्रमिकों का वैज्ञानिक प्रशिक्षण एवं विकास ताकि कुशलता का सबसे अच्छा स्तर प्राप्त किया जा सके।

4. प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति का सिद्धांत-टेलर का मानना है मजदूरी कितनी भी अधिक क्यों न हो, कार्य के प्रति लगन होने के लिये प्रेरणा का होना अति आवश्यक है टेलर ने इस बाबत् विभेदात्मक मजदूरी पद्धति को लागू किया जिसके तहत् प्रमापित कार्य करने वाले को ऊॅंची दर पर, प्रमापित कार्य न करने वाले को नीची दर पर मजदूरी दिये जाने को कहा।

5. सामग्री का वैज्ञानिक चुनाव प्रयोग का सिद्धांत-जैसे कि कहावत है जैसा बीज वैसा फल’ अर्थात् अच्छी सामग्री से वस्तु का निर्माण भी अच्छा होगा। अत: कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त सामग्री मानक स्तर की होनी चाहिये साथ ही वस्तु के उपयोग की विधि अच्छी हो, इसकी समुचित व्यवस्था होनी चाहिये, क्योंकि अच्छी से अच्छी वस्तु खराब विधि के प्रयोग से नष्ट हो जाती है। अत: अच्छी वस्तु व उसके उपयोग की विधि उचित होनी चाहिये।

6. मानसिक क्रांति का सिद्धांत-श्रमिकों एवं प्रबंध के बीच निकट का सहयोग ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जो कार्य किए गए हैं वे वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुरूप है।

7. आधुनिक यंत्र व उपकरणों का सिद्धांत-उत्पादन के दौरान आधुनिक एवं उन्नत यंत्र तथा उपकरणों का प्रयोग करना चाहिये, क्योंकि उन्नत यंत्र से उत्पादन लागत कम आती है और माल शीघ्र तैयार होता हैं।

8. प्रमापीकरण का सिद्धांत-इस सिद्धांत के अंतर्गत एक निश्चित प्रमाप की वस्तु, उपकरण, कच्चा माल व कार्य की दशायें तथा प्रमापित विधि श्रमिकों को दी जाती है, जिससे श्रेष्ठ वस्तु कम लागत पर उत्पादित हो सके।

वैज्ञानिक प्रबंध के सामान्य सिद्धांत

वैज्ञानिक प्रबंध का मूल रूप से उद्देश्य फैक्टरी में काम करने वाले कर्मचारियों की कुशलता को बढ़ाना था। उसमें प्रबंधकों के कार्यो एवं उनकी भूमिका को अधिक महत्व नहीं दिया गया। किंतु लगभग उसी समय में हेनरी फेयोल, जो कि फ्रांस की एक कोयला खनन कम्पनी में निदेशक थे, ने प्रबंध की प्रक्रिया का योजना बद्ध विश्लेषण किया उनका मानना था कि प्रबंधकों के दिशानिर्देश के लिए कुछ सिद्धांतों का होना आवश्यक है अत: उन्होंने प्रबंध के चौदह सिद्धांत दिए जो कि आज भी प्रबंध के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते है।

1. श्रम विभाजन का सिद्धांत-इस सिद्धांत में यह सुझाव दिया गया है कि व्यक्ति को वही काम सौंपा जाए जिसके लिए वह सर्वाधिक उपयुक्त हो कार्य का विभाजन उस सीमा तक कर देना चाहिए जिस सीमा तक वह अनुकुल और सही हो इससे विशेषज्ञता बढ़ेगी एवं कार्य क्षमता में सुधार होगा ।

2. अधिकार तथा दायित्व का सिद्धांत-अधिकार एवं दायित्व एक गाड़ी के दोपहियों के समान है, अर्थात् अािधकरों को दायित्व तथा दायित्वों को अधिकारों के अनुरूप होना चाहिये, अर्थात् जो व्यक्ति करे उसे अधिकार अवश्य दने ा चाहिये जिससे वह अधिकारा ें द्वारा श्रेष्ठ कार्य करवा सके ।

3. अनुशासन का सिद्धांत-‘‘जहॉं अनुशासन नहीं वहॉं कुछ नहीं’’ अत: श्रेष्ठ कार्य एवं परिणामों की आशा वहीं करनी चाहिये जहॉं अनुशासन हो, इस हेतु आवश्यक नियम, कानून व दण्ड का स्पष्ट प्रावधान होना चाहिये, सभी स्तरों पर पर्यवेक्षण अच्छा होना चाहिये।

4. आदेश की एकता का सिद्धांत-एक समय में एक कर्मचारी को एक कार्य के लिए केवल एक ही अधिकारी से आदेश प्राप्त होने चाहिए अन्यथा कर्मचारी आदेश के पालन में विस्मय की स्थिति महसूस करता है।

5. निर्देश की एकता का सिद्धांत-कार्य के दौरान कर्मचारी को किसी एक ही निर्देशक से निर्देश मिलना चाहिये ताकि उस निर्देश का पूर्ण रूप से पालन किया जा सके एक से अधिक निर्देश की स्थिति में कार्य में रूकावट आती है।

6. सामुहिक हितो को प्रा्राथमिकता का सिद्धांत-संस्था के कर्मचारी या कर्मचारियों के समूह को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि संस्था के सामान्य हितो मे व्यक्तिगत हित निहित होता है अत: व्यक्ति को सामूहिक हित के पीछे होना चाहिए इस संदर्भ में फेयोल ने निम्न तीन बातों का पालन करने पर बल दिया
  1. निरीक्षकों को दृढ़ होना चाहिए तथा अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए
  2. आपसी ठहराव हों और जहां तक संभव हो, वे बिल्कुल स्पष्ट होने चाहिए तथा
  3. निरीक्षण प्रक्रिया निरंतर रूप से चालू रहनी चाहिए।
7. कर्मचारियों का पारिश्रमिक का सिद्धांत-फेयोल के इस सिद्धांत के अनुसार कर्मचारियो को उचित पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए जो कर्मचारियों के साथ-साथ संस्था को भी संतुष्टि प्रदान कर सके।

8. केन्द्रीकरण का सिद्धांत-इस सिद्धांत में यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि संस्था मे किन सीमाओं तक केन्द्रीयकरण होगा और किन सीमाओं तक विकेन्द्रीकरण होगा जबकि छोटे व्यवसाय के लिए केन्द्रियकरण की नीति श्रेष्ठ मानी जाती है वस्तुत: केन्द्रीय कर संस्था के आकार पर नियंत्रण करता है।

9. सोपान श्रृंखला का सिद्धांत-इस सिद्धांत में यह बताया गया है कि उच्च श्रेणी अधिकारी से लेकर निम्न श्रेणी के अधिकारियों/कर्मचारियों के बीच परस्पर सबंध किस स्तर का होगा और कार्य आदेश किस स्तर से और किसको दिया जायेगा स्पष्ट रूप से निश्चित कर लेना चाहिए।

10. व्यवस्था का सिद्धांत-फेयोल ने इस सिद्धांत मे यह बताया है कि संस्था में कार्य स्थल पर मशीन मानव और संचालन तीनों की व्यवस्था एवं स्थान निश्चित होनी चाहिए।

11. समता का सिद्धांत-इस सिद्धांत में यह अपेक्षा की गई हैं कि प्रबंधक को उदार और न्यायोचित होना चाहिए इससे पर्यवेक्षकों एवं अधीनस्थों के बीच एक दोस्ताना वातावरण बनेगा और वह अपने कार्यो को अधिक कुशलता से करने के लिए प्रोत्साहित होंगे।

12. स्थायित्व का सिद्धांत-कर्मचारियों को रोजगार के कार्यकाल मे स्थरता एवं निरंतरता प्रदान की जानी चाहिए कर्मचारी को उचित आकर्षक पारिश्रमिक एवं सम्माननीय व्यवहार देकर उसे प्राप्त किया जा सकता है

13. पहल शक्ति का सिद्धांत-इस सिद्धांत के अनुसार योजना से वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि योजना को तैयार करने एवं लागू करने के लिए कर्मचारियों मे पहल-क्षमता जागृत की जाये।

14. सहयोग एवं सहकारिता का सिद्धांत- प्रबंधक को अपने कर्मचारियों में सामूहिक रूप से कार्य करने और सहयोग की भावना जागृत करनी चाहिए। इससे पारस्परिक विश्वास एवं एकता की भावना विकसित करने में सहायता मिलेगी।
फेओल ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह सिद्धांत अधिकांश संगठनों पर लागू किए जा सकते हैं किन्तु यह सिद्धांत अन्तिम नहीं हैं संगठनों को यह स्वतंत्रता है कि वे उन सिद्धांतों को अपनायें जो उनके अनुकूल हों और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ छोड़ दें।

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