वाकाटक वंश का इतिहास \ History Of Vakataka Dynasty

वाकाटक राज्य प्राचीन दक्षिण भारत का एक मजबूत राज्य था। तीसरी शताब्दी ई0 से छठी शताब्दी तक दक्षिण भारत में जिन राजवंशों का उदय हुआ, उनके वाकाटक राजवंश सर्वश्रेष्ठ था।’’ उत्तर भारत में सबसे शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य के साथ-साथ दक्षिण भारत में वाकाटक साम्राज्य बना रहा। वाकाटक प्रारंभ में सातवाहनों के सामन्त थे। वाकाटकों का प्रारंभ तीसरी शताब्दी में हुआ और वाकाटकों ने छटी शताब्दी तक शासन किया। वाकाटकों ने लगभग 250 - 55 ई0 से 510 ई0 तक दक्षिण भारत में शासन किया।  

वाकाटकों की जाति ब्राह्मण थी, वे विष्णुवृद्धि गौत्र के ब्राह्मण थे। वाकाटक राजवंश का संस्थापक विंध्यशक्ति था। उसने वाकाटक राज्य की स्थापना कहीं पूर्वी मध्यप्रदेश या बरार में की थी। विंध्यशक्ति ने विंध्य के दर्रो को पार कर पूर्वी मालवा के कुछ क्षेत्र जीत कर अपने राज्य का विस्तार किया।

तीसरी शताब्दी ई0 के मध्य से छठीं शताब्दी ई0 के आरम्भ तक दकन एवं मध्य भारत पर शासन करने वाले वाकाटक राजवंश की गणना प्राचीन भारत के अत्यन्त शक्तिशाली साम्राज्यों में की जाती है। 

वाकाटक साम्राज्य का विभाजन

वाकाटक साम्राज्य का विभाजन, वाकाटकों के इतिहास की प्रमुख घटना है। वाकाटकों के साम्राज्य के विभाजन से वाकाटकों की शक्ति को भारी चोट पहुँची। इससे वाकाटकों के दकन में एकछत्र राज्य करने का सपना भी चूर - चूर हो गया और भविष्य में भारत के राजनैतिक पटल पर अपनी सशक्त भूमिका को खो दिया। वाकाटक साम्राज्य के विभाजन से कुल मिलाकर वाकाटकों की शक्ति यश और प्रतिष्ठा को भारी क्षति पहुँची। प्रवरसेन की मृत्यु के बाद वाकाटक साम्राज्य चार भागों में विभक्त हो गया। प्रवरसेन प्रथम के चार पुत्रों ने उसकी मृत्यु के बाद अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। प्रवरसेन के चार पुत्रों में से दो पुत्रों, गौतमी पुत्र एवं सर्वसेन के नाम मिलते हैं, दो पुत्रों के नामों का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। प्रवरसेन के बड़े पुत्र गौतमी पुत्र की मृत्यु उसके जीवन में ही हो गयी थी। गौतमी पुत्र का उत्तराधिकारी उसका बेटा रूद्रसेन प्रथम हुआ। रूद्रसेन प्रथम ने वाकाटकों की प्रमुख शाखा का नेतृत्व किया। जिसका शासित क्षेत्र उत्तरी विदर्भ था। जिसकी राजधानी नन्दिवर्धन (नगरधन) थी। प्रवरसेन का दूसरा पुत्र सर्वसेन दक्षिण विदर्भ का शासक बना। उसकी राजधानी वत्सगुल्म (बाशीम) थी। 

वाकाटक का वंश-क्रम

उनका वंश-क्रम इस प्रकार से है-
  1. विन्ध्यशक्ति प्रथम (250-275 ई0)
  2. प्रवीर अथवा प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई0) 
  3. गौतमीपुत्र 
  4. सर्वसेन प्रथम (325-355 ई0) 
  5. रुद्रसेन प्रथम (335-355 ई0) 
  6. विन्ध्यसेन अथवा विन्ध्यशक्ति द्वितीय (355-400 ई0) 
  7. पृथिवीशेण प्रथम (355-385 ई0) 
  8. प्रवरसेन द्वितीय (400-425 ई0) 
  9. रुद्रसेन द्वितीय (385-395 ई0) 
  10. सर्वसेन द्वितीय (425-455 ई0) 
  11. दिवाकर सेन (395-410 ई0)
  12. दामोदर सेन (410-420 ई0)
  13. प्रवरसेन द्वितीय (420-455 ई0) 
  14. देवसेन (455-480 ई0) 
  15. नरेन्द्रसेन (455-480 ई0) 
  16. हरिशेण (480-510 ई0) 

1. विन्ध्यशक्ति

विंध्यशक्ति ने वाकाटक साम्राज्य की स्थापना की। उसने वाकाटक राज्य की स्थापना पूर्वी मध्यप्रदेश या बरार में की थी। पुराणों से ज्ञात होता है कि विंध्यशक्ति की राजधानी पुरिका थी। डाॅ0 ए0 एस0 अल्तेकर के अनुसार - विंध्यशक्ति ने वाकाटक राजवंश की स्थापना लगभग 255 ई0 में की थी। विंध्यशक्ति उसका वास्तविक नाम नहीं था, बल्कि विंध्यक्षेत्र में अपनी शक्ति के द्वारा राज्य स्थापना के कारण उसका विरूद्ध विंध्यशक्ति ही पड़ा और इसी विरूद्ध से उसने शासन किया। विंध्यशक्ति का उल्लेख पुराणों और अजंता अभिलेख में मिलता है।

अल्तेकर का मानना है कि उसका वास्तविक नाम कुछ और था एवं अपनी सैनिक गतिविधियों से विन्ध्याचल तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर उसने ‘विन्ध्यशक्ति ’ विरुद धारण किया था। शरुआत में उसका राज्य विदर्भ (बरार) के एक भाग तक ही सीमित रहा होगा। कालान्तर में अपने सैनिक अभियानों से उत्तर दिषा की ओर अपने राज्य का विस्तार करते हुए उसने बैतूल, इटारसी और होशगाबाद के जिलों को अपने राज्य में मिला लिया होगा। किन्तु मिरासी पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर यह मानते हैं कि विन्ध्य के क्षेत्रों तक उसका विस्तार उसके राज्यकाल में नहीं अपितु उसके पुत्र प्रवरसेन प्रथम के काल में हुआ था।

अजयमित्र शास्त्री का मानना है कि विन्ध्यशक्ति का मूलस्थान मध्यप्रदेश के विन्ध्यक्षेत्र में था। वाकाटकों का प्रारम्भिक अधिकार विन्ध्य के कुछ क्षेत्रों पर था एवं इसके उपरान्त ही उन्होंने दक्षिण दिषा की ओर अपना प्रभाव स्थापित किया होगा। विन्ध्यशक्ति के विषय में हमारा ज्ञान बहुत ही सीमित है। वर्तमान साक्ष्यों के आधार पर उसके विषय में कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता।

विंध्यशक्ति एक राज्य निर्माता के साथ ही एक ब्राह्मण भी था, उसने अपने ब्राह्मणत्व को सदैव जीवित रखा और धर्म-कर्म, पुण्य तथा परोपकारी कार्यों में भी आसक्त था। अजंता अभिलेख में उसे द्विज और ’वाकाटक-वंश-केतु’ कहा गया है। विंध्यशक्ति ने यज्ञों, मंदिरों, ज्ञान शालाओं एवं जन सुविधाओं पर धन खर्च किया था। लगभग 275 ई0 में विंध्यशक्ति की मृत्यु हो गयी थी। उसने लगभग 20 वर्षो तक शासन किया और वाकाटक राजवंश की नींव रखी।

2. प्रवरसेन प्रथम

विन्ध्यशक्ति का उत्तराधिकारी उसका पुत्र प्रवरसेन प्रथम हुआ, जिसे पुराणों में प्रवीर कहा गया है। प्रवरसेन प्रथम लगभग 275 ई0 में वाकाटक राजवंश का शासक बना। प्रवरसेन प्रथम ने अपनी सैन्य सफलताओं के बल पर वाकाटक राज्य को एक ’साम्राज्य’ में बदल दिया था। उसने 60 वर्षों तक शासन किया था। लेकिन निश्चित रूप से वह अपने पिता विन्ध्यशक्ति से अधिक महत्वाकांक्षी एवं साधनसम्पन्न शासक था। इसी कारण से अधिकांश वाकाटक ताम्रपत्रों में वंशावली प्रवरसेन प्रथम से आरम्भ की गयी है। वत्सगुल्म शाखा के मात्र तीन अभिलेख (देवसेन का बीदर ताम्रपत्र, हरिशेण का थाल्नेर ताम्रपत्र एवं अजन्ता की सोलहवीं गुहा का लेख) ऐसे हैं जिनमें वाकाटकों का वंशावली-वर्णन विन्ध्यशक्ति से आरम्भ किया गया है। स्पष्ट रूप से उसने अपने पिता से कहीं अधिक सफलता अर्जित की थी। उसके शासनकाल में उत्तर भारत में गुप्तों और नागों का वर्चस्व स्थापित था। 

प्रवरसेन प्रथम वैदिक धर्म का महान आश्रयदाता था। पुराणों एवं अभिलेखों से विदित होता है कि उसने अनेक श्रौत यज्ञ किये थे। इसके अलावा उसने चार अश्वमेध यज्ञ भी किये थे। 

प्रवरसेन प्रथम के चार पुत्र थे और ये चारों पुत्र ही आगे चलकर राजा हुए- ‘तस्य पुत्रास्तु चत्वारो भविश्यन्ति नराधिपा:’। ऐसा अनुमान है कि इन पुत्रों ने ही प्रवरसेन प्रथम की ओर से कुछ प्रदेशों पर जीत प्राप्त की हो और उसके बदले में इन्हें भिन्न-भिन्न प्रान्तों का उपराजा नियुक्त किया गया हो। प्रवरसेन प्रथम की मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य चार भागों में विभक्त हो गया। प्रवरसेन का गौतमीपुत्र नामक एक पुत्र था जिसकी मृत्यु उसके पिता के काल में ही हो गयी थी और उसके स्थान पर प्रवरसेन का पौत्र रुद्रसेन प्रथम वाकाटक शासन का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। वाषीम ताम्रपत्र की प्राप्ति से उसके एक अन्य पुत्र सर्वसेन का नाम भी ज्ञात होता है, जो वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा का संस्थापक था। उसके अन्य दो पुत्रों के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है और न ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनका राज्य कहाँ था।

3. रुद्रसेन प्रथम

वाकाटक अभिलेखों के अनुसार गौतमीपुत्र प्रवरसेन प्रथम का पुत्र था। लेकिन उसके नाम के साथ किसी उपाधि का प्रयोग नहीं किया गया है। इससे साफ है कि वह कभी राजा नहीं बना था। रुद्रसेन प्रथम एक दुर्बल शासक था। उसके पितामह का वाकाटक साम्राज्य को चार पुत्रों में बाँटने का निर्णय बुद्धिमतापूर्ण न था। उसने लगभग 355 ई0 तक शासन किया था। उसकी मृत्यु अपने पिता के जीवनकाल में ही युवराज रूप में हुई थी। प्रवरसेन प्रथम के बाद लगभग 335 ई0 में उसका पौत्र रुद्रसेन प्रथम उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसका साम्राज्य उत्तर में मध्य प्रदेश के विन्ध्य क्षेत्र से दक्षिण में विदर्भ के उत्तरी भाग तक तथा खानदेश की पूर्वी सीमा से कोसल की पश्चिमी सीमा तक फैला हुआ था। रुद्रसेन प्रथम महाभैरव का उपासक था जो कि शिव का ही रौद्र रूप है।

रुद्रसेन प्रथम गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का समकालीन था। उस समय उत्तर भारत की स्थिति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी। प्रयाग-प्रशस्ति से ज्ञात होता है इस समय समुद्रगुप्त अपने विजय-अभियान पर था। उसने उत्तर भारत के अनेक राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। 

4. पृथिवीशेण प्रथम

रुद्रसेन प्रथम के बाद 355 ई0 में उसका पुत्र पृथिवीशेण प्रथम उसका उत्तराधिकारी हुआ। वाकाटक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि वह माहेष्वर का भक्त था। उसका शासनकाल शान्ति और समृद्धि का काल था। उसने अपने शासनकाल में स्वयं कभी भी कोई आक्रामक युद्ध नहीं किया।एक ओर उत्तर भारत के गुप्त शासकों समुद्रगुप्त एवं उसके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ने आक्रामक नीति का अनुसरण किया और साम्राज्य-विस्तार की ओर ध्यान केन्द्रित किया। वहीं दूसरी ओर उनके समकालीन पृथिवीशेण प्रथम ने शान्तिपूर्ण नीति अपनाकर प्रजाकल्याण को ही अपना लक्ष्य बनाया। पृथिवीशेण प्रथम के पूर्व उसके पिता रुद्रसेन प्रथम ने भी गुप्तों के प्रति शान्तिपूर्ण नीति का ही अवलम्बन किया था और गुप्तों के अधीनस्थ मित्र के रूप में शासन किया था।

पृथिवीशेण प्रथम ने भी अपने पिता की नीतियों का ही अनुसरण किया था। ऐसा माना जाता है कि कुन्तल प्रदेश की विजय स्वयं पृथिवीशेण प्रथम ने की थी। परन्तु अजन्ता की सोलहवीं गुहा के लेख से ज्ञात होता है कि कुन्तल प्रदेश की विजय पृथिवीशेण प्रथम ने नहीं अपितु वत्सगुल्म शाखा के शासक विन्ध्यसेन अथवा विन्ध्यशक्ति द्वितीय ने की थी। सम्भव है कि वत्सगुल्म शाखा के साथ पृथिवीशेण प्रथम के मधुर सम्बन्ध रहे हों और यह भी हो सकता है कि पृथिवीशेण प्रथम ने इस युद्ध में धन और जन (सेना) से अपने परिवार की सहायता की हो।

पृथिवीशेण प्रथम ने अपने पुत्र रुद्रसेन द्वितीय का विवाह गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावतीगुप्ता से किया था। वाकाटक अभिलेखों में गुप्तों के साथ स्थापित इस वैवाहिक सम्बन्ध का उल्लेख बड़े गर्व के साथ किया गया है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इस वैवाहिक सम्बन्ध का उद्देश्य राजनीतिक था। चन्द्रगुप्त द्वितीय पश्चिमी क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करना चाहता था। दक्षिण दिषा में उसे एक मित्र राज्य की सहायता मिल सके। इसके लिए उसने वाकाटकों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थे। परन्तु यह तर्क असमर्थनीय है।

पृथिवीशेण की मृत्यु लगभग 385 ई0 में हुई थी। उसने तीस वर्ष की अवधि तक शासन किया था।

5. रुद्रसेन द्वितीय

पृथिवीशेण प्रथम के बाद उसका पुत्र रुद्रसेन द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसके पिता पृथिवीशेण प्रथम तथा पितामह रुद्रसेन प्रथम दोनों शिव के उपासक थे किन्तु वह स्वयं विष्णु का भक्त था। रुद्रसेन द्वितीय की अग्रमहिशी प्रभावतीगुप्ता गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री थी और अपने पिता के समान वह भी विष्णु की उपासिका थी। ऐसा माना जाता है कि रुद्रसेन प्रथम के धार्मिक विश्वास में यह परिवर्तन उसकी पत्नी प्रभावतीगुप्ता के प्रभावस्वरूप हुआ परन्तु प्राचीन भारत में पारिवारिक धर्म जैसा कुछ भी नहीं था। एक ही परिवार के भिन्न-भिन्न सदस्य आस्था के आधार पर किसी भी धर्म को मानने के लिए स्वतन्त्र होते थे। उसका शासनकाल 385-395 ई0 तक लगभग दस वर्ष का माना जाता है। 

6. दामोदरसेन

दिवाकरसेन के बाद उसका छोटा भाई दामोदरसेन उसका उत्तराधिकारी हुआ। यदि उसका जन्म उसके पिता के शासनकाल की समाप्ति के दो वर्ष पहले हुआ था, तो हो सकता है कि अपने बड़े भाई दिवाकरसेन की मृत्यु (सम्भवत: 23वें वर्ष में) के समय वह 17 वर्ष का रहा हो और अपने बड़े पुत्र दिवाकरसेन के समान ही प्रभावतीगुप्ता कुछ समय के लिए अपने मंझले पुत्र दामोदरसेन की भी संरक्षिका रही हो। मिरासी दामोदरसेन और प्रवरसेन को एक ही व्यक्ति मानते हैं। उनका मानना है कि दामोदरसेन ने ही अपने राज्यारोहण के समय अपने पूर्वज प्रवरसेन (प्रथम) का नाम धारण किया था। उसके द्वारा जारी किसी ताम्रपत्र के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। तथापि यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसने मात्र एक दशक तक अर्थात् 420 ई0 तक शासन किया था।

7. प्रवरसेन द्वितीय

दामोदरसेन के बाद उसका छोटा भाई प्रवरसेन द्वितीय वाकाटक राजवंश का उत्तराधिकारी हुआ। वाकाटक शासकों में मात्र इसी ने सर्वाधिक अभिलेख जारी किये। अभी तक उसके लगभग बीस अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें उन्नीस ताम्रपत्र तथा एक शिलालेख है। उसका एकमात्र ज्ञात शिलालेख उसकी माता प्रभावतीगुप्ता की स्मृति में उसकी अज्ञातनामा बहन के द्वारा रामटेक में लिखवाया गया था। अपने माता-पिता के विपरीत प्रवरसेन द्वितीय शैव था। उसके ताम्रपत्रों में कहा गया है कि उसे भगवान शम्भू के प्रसाद से अपने राज्य में कृतयुग स्थापित करने में सफलता मिली- ‘षम्भो: प्रसादधृतकार्तयुगस्य’ उसके ग्यारहवें राज्यवर्श में जारी किया गया बेलोरा ताम्रपत्र राजधानी नन्दिवर्धन से जारी किया गया था। उसके सोलहवें राज्यवर्श में जारी किया गया माण्ढळ ताम्रपत्र राजधानी प्रवरपुर से जारी किया गया था। अत: ऐसा माना जाता है कि उसने प्रवरपुर नामक नगर की स्थापना कर ग्यारहवें से सोलहवें राज्यवर्श के बीच किसी समय उसे अपनी राजधानी बनाया था। प्रवरपुर की पहचान पवनार से की गयी है जो कि वर्धा जिले के समीप स्थित था। महाराष्ट्र के भण्डारा जिले के पौनी नामक स्थल से प्रवरसेन द्वितीय का 32वें राज्यवर्श का ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है।108 जिससे उसके राज्य की नवीनतम तिथि ज्ञात होती है। इसकी प्राप्ति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उसने कम से कम 32 वर्ष तक अवश्य शासन किया था। उसका शासनकाल 455 ई0 तक माना जाता है।

8. नरेन्द्रसेन

प्रवरसेन द्वितीय के बा  455 ई0 में उसका पुत्र नरेन्द्रसेन गद्दी पर बैठा। उसके शासनकाल का कोई अभिलेख प्राप्त नहीं होता। उसके विषय में जानने के लिए हमें उसके पुत्र पृथिवीशेण द्वितीय के ताम्रपत्रों का आश्रय लेना पड़ता है। उसके पिता प्रवरसेन द्वितीय के माण्ढळ ताम्रपत्र1109 से ज्ञात होता है कि उसका नाम सम्भवत: नरिन्दराज था तथा उसकी माता एवं प्रवरसेन द्वितीय की पत्नी का नाम आज्ञाकभट्टारिका था। प्रवरसेन द्वितीय ने अपने शासनकाल में ही अपने पुत्र युवराज नरेन्द्रसेन का विवाह कुन्तलराज की पुत्री अजितभट्टारिका के साथ कर दिया था। सम्भव है कि इस विवाह के कुछ राजनीतिक कारण रहे हो। हो सकता है कि अपने राजवंश की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए उसने अपने पड़ोसी कुन्तलराज के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये हो। ताम्रपत्रों में कहा गया है कि कोसला, मेकला और मालवा के राजा नरेन्द्रसेन की आज्ञा को षिरोमान्य करते थे। नरेन्द्रसेन के उत्तरवर्ती शासनकाल की कठिन परिस्थितियों को देखते हुए यह तथ्य ग्राह्य प्रतीत नहीं होता। पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में ताम्रपत्रों का यह वर्णन सदैव सन्देहपूर्ण ही रहेगा।

9. पृथिवीशेण द्वितीय

नरेन्द्रसेन का अजिभट्टारिका से उत्पन्न पुत्र पृथिवीशेण द्वितीय 480 ई0 में वाकाटक राजवंश का अगला शासक हुआ।  यह प्रथम प्रयास सम्भवत: उसने अपने वत्सगुल्म शाखा के सम्बन्धियों के विरूद्ध किया था क्योंकि उसके पिता नरेन्द्रसेन के काल में ही वाकाटक राज्य का कुछ भाग वत्सगुल्म शाखा के अधीन हो गया था। पृथिवीशेण द्वितीय के बाद वाकाटक वंश की मुख्य शाखा के किसी शासक के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। सम्भवत: उसके पुत्र उत्तराधिकार पद प्राप्त करने के योग्य नहीं थे। अत: ऐसा माना जाता है कि उसकी मृत्यु के बाद वाकाटकों की ज्येष्ठ (नन्दिवर्धन) शाखा वत्सगुल्म शाखा के शासक हरिशेण के साम्राज्य में विलीन हो गयी। अजन्ता के सोलहवीं गुहा के लेख में हरिशेण को कुन्तल, अवन्ति, कलिंग, कोषल, त्रिकूट, लाट, और आन्ध्र देश का स्वामी कहा गया है। यह तभी सम्भव हुआ होगा जबकि मुख्य शाखा के राज्यों एवं साधनों पर उसका नियत्रंण स्थापित हो गया हो।

10. वत्सगुल्म शाखा

वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा के विषय में जानकारी सन् 1939 ई0 में वाषीम ताम्रपत्र मिलने के साथ ही प्रारम्भ हो पाई। इसकी प्राप्ति के पूर्व वाकाटकों की इस शाखा के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं था। यद्यपि अजन्ता के सोलहवीं गुहा के लेख में वाकाटकों की इस शाखा की वंशावली दी गई है। परन्तु लेख के अस्पष्ट होने के कारण इनसे सम्बन्धित सूचनाएँ अधूरी ही बनी रहीं। 19वीं शताब्दी में जब भगवानलाल और ब्यूलर ने इस लेख का सम्पादन किया तो उनका मानना था कि इस लेख में वाकाटकों की मुख्य शाखा की वंशावली दी गई है।  विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से वाकाटकों का इतिहास पुनर्निर्मित करना प्रारम्भ कर दिया। सन् 1939 ई0 में विन्ध्यशक्ति द्वितीय के वाषीम ताम्रपत्र एवं सन् 1941 ई0 में मिरासी द्वारा प्रकाशित अजन्ता गुहा संख्या 16 के लेख के संशोधित पाठ द्वारा यह स्पष्ट हो पाया कि अजन्ता की इस सोलहवीं गुहा के लेख का वाकाटकों की मुख्य शाखा से कोई सम्बन्ध नहीं है। कालान्तर में वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा से सम्बन्धित अन्य अभिलेखों की प्राप्ति से इस शाखा से सम्बन्धित हमारे ज्ञान में निरन्तर वृद्धि हो पाई है। इनमें विन्ध्यशक्ति द्वितीय के पुत्र देवसेन का हिस्से-बोराला शिलालेख (षक संवत् 380), देवसेन का बीदर ताम्रपत्र एवं उसके पौत्र हरिशेण का थाल्नेर ताम्रपत्र आदि प्रमुख हैं, जिनसे वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा का इतिहास और अधिक स्पष्ट हो पाया।

11. सर्वसेन प्रथम

प्रवरसेन प्रथम का पुत्र सर्वसेन प्रथम वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा का संस्थापक था। उसका नाम उसके पुत्र विन्ध्यशक्ति द्वितीय के वाषीम ताम्रपत्र एवं उसके उत्तराधिकारियों के लेखों में मिलता है। उसका राज्य उत्तर में इन्ध्याद्रि पर्वतमाला से दक्षिण में गोदावरी नदी तक विस्तृत था। उसके रवि नामक सचिव का नाम अजन्ता के सोलहवीं गुहा के लेख में मिलता है जिसने इस प्रदेश पर अपना अधिकार स्थापित करने में उसकी सहायता की थी। इस सचिव के वंशज कई पीढ़ियों तक वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा में समान पद पर बने रहे और उन्होंने पूर्ण समर्पण भाव से उनकी सेवा की।

12. विन्ध्यशक्ति द्वितीय

सर्वसेन प्रथम के पश्चात उसका पुत्र विन्ध्यशक्ति द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ। अजन्ता की सोलहवीं गुहा के लेख में उसे ‘विन्ध्यसेन’ कहा गया है। उसके वाषीम ताम्रपत्र में उसके 37वें वर्ष की तिथि मिलती है। निश्चित रूप से उसने दीर्घकाल तक शासन किया था। अनुमानत: उसका शासनकाल 355-400 ई0 तक निर्धारित किया गया है। अपने पिता और पितामह की भाँति उसने भी ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की थी। उसके वाषीम ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उसने नान्दीकट जिले में स्थित एक ग्राम दान में दिया था। यह ताम्रपत्र वत्सगुल्म से जारी किया गया था। इस नान्दीकट की पहचान महाराष्ट्र राज्य में स्थित वर्तमान नान्देड़ से की गई है। अत: स्पष्ट है कि इस काल तक मराठवाड़ा क्षेत्र उसके अधीन हो गया था। अजन्ता के लेख में उसके कुन्तल के अधिपति पर विजय प्राप्त करने की सूचना मिलती है। राश्ट्रकूट राजा मानांक के वंशज अविधेय के पाण्डरंगपल्ली ताम्रपत्र में मानांक को कुन्तल देश का अधिपति कहा गया है। इस आधार पर मिरासी का मानना है कि इस काल में कुन्तल देश पर राश्ट्रकूटों का शासन था और इस समय राश्ट्रकूट राजा मानांक विन्ध्यशक्ति द्वितीय का समकालीन था।

13. प्रवरसेन द्वितीय

विन्ध्यशक्ति द्वितीय के बाद उसका पुत्र प्रवरसेन द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसकी राजनीतिक गतिविधियों के विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं है। अजन्ता की सोलहवीं गुहा के लेख में कहा गया है कि वह अपने उत्कृष्ट और उदार राजषासन के लिए विख्यात था। इसके साथ ही उसके पौत्र देवसेन के बीदर ताम्रपत्र में उसे ‘महाराज’ कहा गया है। अजन्ता लेख से ज्ञात होता है कि उसकी मृत्यु के समय उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र था। सम्भव है कि उसने अधिक वर्षों तक शासन नहीं किया था अथवा यह भी हो सकता है कि अपने जीवनकाल में उसे पुत्र की प्राप्ति बहुत देर से हुई हो। उसका शासनकाल 400-425 ई0 लगभग 25 वर्षों का निर्धारित किया गया है।

14. सर्वसेन द्वितीय

प्रवरसेन द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका आठ साल का पुत्र था। अजन्ता के लेख में उसका नाम नष्ट हो गया है। सर्वसेन द्वितीय वत्सगुल्म शाखा का एक शक्तिषाली शासक था। अपने शासनकाल में उसने अपने पैतृक साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाए रखने के साथ ही साथ कुन्तल के कदम्ब शासकों को भी अपनी शक्ति का लोहा मनवाया।सर्वसेन द्वितीय की राजनीतिक गतिविधियों के विषय में अधिक जानकारी नहीं है। परन्तु कदम्ब शासक सिंहवर्मन के मुद्गिरि ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि ‘महाराज सर्वसेन ने उसका राज्याभिषेक कर उसे सम्मानित किया था।’ इस सर्वसेन की पहचान वाकाटक राजवंश की वत्सगुल्म शाखा के शासक सर्वसेन से की गई है। वत्सगुल्म शाखा में सर्वसेन नामक दो शासक हुए। पहला वत्सगुल्म शाखा का संस्थापक सर्वसेन प्रथम जिसका शासनकाल 325-355 ई0 तक माना जाता है। दूसरा प्रवरसेन द्वितीय का पुत्र सर्वसेन द्वितीय जिसका शासनकाल 425-455 ई0 तक निर्धारित किया गया है। इन दोनों शासकों में सर्वसेन द्वितीय ही उसका समकालीन अथवा समीपस्थ समकालीन रहा होगा। 

यद्यपि कदम्ब शासक सिंहवर्मन की प्रारम्भिक तिथि 490 ई0 निर्धारित की गई है तथापि उसके मुद्गिरि ताम्रपत्र में उल्लिखित सर्वसेन को वाकाटक शासक सर्वसेन द्वितीय से समीकृत किया जाए तो भी दोनों के मध्य 35 वर्शों का अन्तराल दिखायी पड़ता है। चूंकि अभी तक कदम्बों का कालानुक्रम भी पूर्ण रूप से सुनिश्चित नहीं हो पाया है। इसका कारण यह है कि उनके अभिलेखों में सभी शासकों के लिए तिथियाँ शासन करने वाले राजा के राज्यवर्शों में दी गई हैं। इस प्रकार यदि यह मान लिया जाए कि मुद्गिरि ताम्रपत्र का सर्वसेन वत्सगुल्म शाखा का शासक सर्वसेन ही था तो इससे कदम्बों का कालानुक्रम भी स्थायी रूप से निर्धारित किया जा सकेगा। 

उसका शासनकाल 425-455 ई0 तक लगभग 30 वर्षों का निर्धारित किया गया है। 

15. देवसेन

अपने पिता सर्वसेन द्वितीय के बाद 455 ई0 में देवसेन उसका उत्तराधिकारी हुआ। वाकाटकों की मुख्य शाखा के साथ ही वत्सगुल्म शाखा में भी यह नाम उतना ही प्रसिद्ध था। स्पष्ट है कि हिस्से-बोराला शिलालेख से ज्ञात आर्य स्वामिल्लदेव, जिसने देवसेन के काल में सुदर्शन झील का उत्खनन कराया था, वह मूलरूप से सौराष्ट्र क्षेत्र का निवासी था जहाँ वास्तविक सुदर्शन झील स्थित थी। सम्भवत: इसी कारण उसने उस क्षेत्र में प्रचलित शक संवत् तिथि का प्रयोग भी इस शिलालेख में किया जो कि अन्य वाकाटक लेखों में नहीं मिलती। देवसेन का शासनकाल 455-480 ई0 से निर्धारित किया गया है। 

देवसेन ने अपनी पुत्री का विवाह विश्णुकुण्डिन शासक माधववर्मन द्वितीय जनाश्रय के साथ किया था। जिसके पुत्र विक्रमेन्द्रवर्मन ने स्वयं को जन्म से ही विश्णुकुण्डिन एवं वाकाटक दोनों कुलों से विभूशित बताया है। विश्णुकुण्डिन कुल में यह विवाह उसने एक राजनीतिक सूझ-बूझ के उद्देश्य से किया था। सम्भवत: अपने समकालीन मुख्य शाखा के शासक नरेन्द्रसेन एवं कदम्बों के विरूद्ध अपने राजवंश की स्थिति को सुदृढ़ करने एवं विश्णुकुण्डिनों का सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से उसने उनके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थे। नरेन्द्रसेन के राज्यारोहण के समय उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर विवाद खड़ा हुआ था। जिसमें प्रारम्भ में उत्तराधिकार पद प्राप्त करने में नरेन्द्रसेन को सफलता मिली। परन्तु कुछ समय बाद ही उसके सम्बन्धियों द्वारा उसके राज्य के कुछ भाग उससे छीन लिये गये। यह सम्बन्धी अन्य कोई नहीं अपितु वत्सगुल्म शाखा का शासक देवसेन ही था। देवसेन के हिस्से-बोराला शिलालेख से सुदर्शन झील के निर्माण का उल्लेख मिलता है। यह अभिलेख विशेष ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। प्रथमत: इसमें उसके अधिकारी स्वामिल्लदेव का नाम मिलता है। सम्भवत: यह वही स्वामिल्लदेव है जिसका उल्लेख उसके पाँचवें राज्यवर्श के बीदर ताम्रपत्र में किया गया है। द्वितीयत: इस अभिलेख में अन्य वाकाटक अभिलेखों की अपेक्षा तिथि शक सवंत् 380 अर्थात् 458 ई0 में दी गई है। इस तिथि का वाकाटक इतिहास में विशेष महत्व है। अभी तक वाकाटकों के जितने भी अभिलेख प्राप्त हुए हैं। उनमें तिथियाँ शासन करने वाले राजा के राज्यवर्शों में ही अंकित की गई हैं। इस अभिलेख से न केवल देवसेन की तिथि निर्धारित करने में सहायता मिलती है बल्कि इससे सभी वाकाटक शासकों का कालानुक्रम भी निश्चित करने में विशेष सहायता मिलती है। तृतीयत: इससे ज्ञात होता है कि वाकाटक शासकों ने भी जनकल्याणकारी कार्यों में अपनी रुचि प्रदर्शित की थी। चतुर्थत: हम जानते हैं कि सुदर्शन झील का मौर्य काल से लेकर गुप्त काल तक अपना एक इतिहास रहा है। इसकी महत्ता के कारण ही उत्तरी दकन में झीलों के लिए सुदर्शन नाम प्रसिद्ध हो गया और वाकाटकों ने भी अपने शासनकाल में निर्मित झीलों को भी यही नाम देना उचित समझा। रामटके शिलालेख से ज्ञात होता है कि प्रभावतीगुप्ता की स्मृति में जिस झील का उत्खनन कराया गया उसका नाम भी सुदर्शन ही रखा गया। 

`6. हरिशेण

देवसेन के बाद उसका पुत्र 480 ई0 में उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसके विषय में कहा गया है कि वह शूर और महत्वाकांक्षी शासक था और उसने राज्य की समस्त दिशाओं में विजय प्राप्त की थी।  कन्हेरी से हरिशेण के विजयसूचक कुछ आभिलेखिक प्रमाण मिले हैं, जिसमें उसकी अपरान्त विजय का भी उल्लेख है। जिसके आधार पर यह माना जाता है कि कुछ समय के लिए हरिशेण ने अपरान्त पर भी अपना अधिकार कर लिया था। दक्षिण कोसल पर इस समय शरभ नामक राजा का शासन था। जिसने अपने नाम पर इस क्षेत्र में शरभपुरीय राजवंश की स्थापना की थी। सम्भव है कि हरिशेण ने शरभ के शासनकाल में इस क्षेत्र पर आक्रमण किया था। लाट देश के लिए उसने अपना विजयी अभियान महाराष्ट्र के खानदेश से होकर प्रारम्भ किया होगा क्योंकि यह क्षेत्र पहले से ही वाकाटकों के अधीन था। त्रिकूट का उल्लेख सम्भवत: उत्तरी कोकंण पर राज्य करने वाले त्रैकूटकवष्ं ाीय शासकों के लिए किया गया है। यह उनके पतन का काल था। लगभग 492 ई0 तक व्याघ्रसेन नामक अन्तिम त्रैकूटक राजा ने इस क्षेत्र पर शासन किया था। सम्भव है कि हरिशेण ने इनकी संकटपूर्ण स्थिति का लाभ उठाकर इस क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया था। कुन्तल पर इस समय कदम्बों का शासन था। ज्ञात है कि हरिशेण के पितामह सर्वसेन द्वितीय ने कदम्बों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया था। हरिशेण के पिता देवसेन ने कदम्ब राज्य का कुछ भाग अपने अधीन कर लिया था। किन्तु अजन्ता लेख का अधिकांश भाग नष्ट होने के कारण हरिशेण की विजयों का स्पष्ट ब्यौरा नहीं मिलता। तथापि सम्भव है कि हरिशेण ने अपने पिता देवसेन की कुन्तल विजय में सहायता की थी। मिरासी का मानना है कि हरिशेण के आक्रमणस्वरूप कलिंग तथा आन्ध्र में राजनीतिक क्रान्ति हुई थी। जिसके फलस्वरूप नये राजवंशों का उदय हुआ। 

उनका मानना है कि हरिशेण के काल में ही लगभग 498 ई0 में गंग राजवंश का के स्थापनासूचक गंग संवत् का आरम्भ हुआ। जिनके उदय में सम्भवत: हरिशेण की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। आन्ध्र देश पर इस समय कम से कम 470-71 या 478-79 ई0 से लगभग 518 ई0 तक हरिशेण के बहनोई माधववर्मन द्वितीय जनाश्रय का शासन था। ऐसा माना जाता है कि हरिशेण ने इस समय आन्ध्र में अपने समसामयिक शालंकायनवंषीय राजा को पदच्युत कर उसके स्थान पर अपने सम्बन्धी विश्णुकुण्डिन माधववर्मन द्वितीय जनाश्रय को आन्ध्र राज्य सौंप दिया था।

परन्तु यह सत्य है कि भारत के सभी राज्यों में वाकाटकों का राज्य उसकी मृत्यु (लगभग 510 ई0) के समय सर्वाधिक शक्तिशाली था। उसने अपने शासनकाल में न केवल अपने पैतृक राज्यों को अक्षुण्ण बनाये रखा अपितु पृथिवीशेण द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उसके निर्बल उत्तराधिकारियों की राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर मुख्य शाखा के राज्य को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया। निश्चित रूप से उसकी महत्ता प्रवरसेन प्रथम से किसी भी प्रकार से कम नहीं थी। वह कला का महान संरक्षक था। उसके एकमात्र ज्ञात थाल्नेर ताम्रपत्र में ब्राह्मणों को ग्राम दान देने का उल्लेख है। उसका बौद्ध धर्म के प्रति विशेष झुकाव था। 

वह वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा का अन्तिम शासक था। उसके पश्चात वाकाटक साम्राज्य के अवशेषों पर भिन्न-भिन्न राजवंशों का उदय हुआ। विश्णुकुण्डिन शासक वाकाटकों की वत्सगुल्म शाखा के सम्बन्धी थे अत: सम्भव है कि वाकाटक साम्राज्य के पश्चात उन्होंने स्वयं को वाकाटकों का उत्तराधिकारी समझकर कुछ समय के लिए उनका राज्य अपने अधीन कर लिया हो।

स्वामिराज के नगरधन ताम्रपत्र195 से जो कि कल्चुरी-चेदि संवत् 322 में तिथ्यांकित है, से ज्ञात होता है कि अन्तत: छठीं शताब्दी ई0 के मध्य में मुख्य शाखा के भूभाग माहिश्मती के प्रारम्भिक कल्चुरियों के प्रथम ज्ञात शासक कृश्णराज के नियत्रंण में आ गये थे। जिसने अपने सामन्तों को इस क्षेत्र पर नियुक्त कर रखा था। इस प्रकार लगभग तीन शताब्दियों (अनुमानत: 260 वर्षों) तक शासन करने वाले शक्तिशाली वाकाटक साम्राज्य का अन्त हो गया।

सन्दर्भ -
  1. मिरासी, वी0 वी0, 1963, का0 इ0 इ0, जिल्द 5, गवर्मेण्ट एपिग्राफिस्ट फॉर इण्डिया, उटाकामुंड, पृ0 प
  2. मजूमदार, आर0 सी0 एवं अल्तेकर, 1946 (प्रथम संस्करण), पूर्वोक्त, पृ0 89-90
  3. मिरासी, वी0 वी0, 1964, पूर्वोक्त, पृ0 21
  4. शास्त्री, पी0 वी0, 1986, हैदराबाद प्लेट्स ऑफ वाकाटक देवसेन, इयर 5, ज0 ए0 सो0 इ0, जिल्द 13, पृ0 71-75
  5. शास्त्री, ए0 एम0, 1984, थाल्नेर प्लेट्स ऑफ हरिशेण : ए री-अप्रेज़ल, ज0 ए0 सो0 इ0, जिल्द 11, पृ0 15-20
  6. मिरासी, वी0 वी0, 1963, पूर्वोक्त, पृ0 96, अभिलेख सं0 23, पं0 सं0 4
  7. मिरासी, वी0 वी0, 1938, पौनी स्टोन इन्सक्रिप्षन ऑफ दी भार किंग भागदत्त, ए0 इ0, जिल्द 24, पृ0 11
  8. फ्लीट, जे0 एफ0, 1888, का0 इ0 इ0, जिल्द 3, कलकत्ता, पृ0 7, अभिलेख सं0 1, पं0 सं0 21

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