मापन - शैक्षिक मापन ( मापन एवं मूल्यांकन ) - अर्थ, परिभाषा, महत्व, उद्देश्य, कार्य

हम अपने जीवन के प्रत्येक क्षण अपने चारों ओर हो रहे परिवर्तनों के प्रति सजग रहते हैं तथा उन प्रत्येक परिवर्तनों का मात्रात्मक आंकलन करते हैं जो हमें किसी न किसी प्रकार प्रभावित करते हैं। शिक्षा सतत् गत्यात्मक प्रक्रिया में इससे जुडे़ प्रत्येक व्यक्ति, छात्र, अभिभावक, अध्यापक, प्रशासक तथा नीति निर्माता सदैव किसी न किसी रुप में शिक्षा की चुनौतियां, समस्याएँ तथा समाधान के प्रति चिंतित रहते हैं। किसी भी समस्या के सम्बन्ध में तत्थ्यात्मक जानकारी के अभाव में कोई भी निर्णय त्रुटिपूर्ण हो सकता है। अत: समस्या के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित सूचना की पर्याप्तता, सन्दर्भ तथा उपयुक्तता उस समस्या के समाधान हेतु प्रथम तथा अपरिहार्य आवश्यकता है। सूचनाओं को वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय तथा वैध तरीके से प्राप्त करने के लिये हमें मापन का सहारा लेना पड़ता है।

एस.एस. स्टीवेन्स के अनुसार- ‘मापन किन्ही स्वीकृत नियमों के अनुसार वस्तुओं को अंक प्रदान करने की प्रक्रिया है अर्थात मापन का स्वरूप आंकिक है। 

जी.सी. हेल्मस्टडेटर के अनुसार- ‘मापन को किसी व्यक्ति या वस्तु में निहित किसी विशेषता की मात्रा का आंकिक वर्णन प्राप्त करने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया हैं’ अर्थात् मापन का स्वरूप मात्रात्मक हैं तथा यह एक प्रक्रिया है। 

ब्रेड फील्ड तथा मोरडोक के अनुसार- ‘‘मापन किसी घटना के विभिन्न आयामों को प्रतीक आवंटित करने की प्रक्रिया है जिससे उस घटना की स्थिति का यथार्थ निर्धारण किया जा सके’’ अर्थात् मापन यथार्थ है।
किसी वस्तु के गुणों तथा विशेषताओं का विवरण गुणात्मक तथा मात्रात्मक दोनों हो सकता है। अत: मापन भी दो प्रकार के होते हैं- गुणात्मक मापन तथा मात्रात्मक मापन। गुणात्मक मापन में गुण या विशेषता की उपस्थिति/अनुपस्थिति दर्शायी जाती है अथवा गुण या विशेषता का प्रकार बताया जाता है जबकि मात्रात्मक मापन में कोई भी गुण या विशेषता कितनी मात्रा में उपस्थित है इसका यथार्थ विवरण प्रस्तुत किया जाता है। वस्तुत: मापन में व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना के ऐसे शब्द, अंक, अक्षर अथवा प्रतीक प्रदान किये जाते हैं जो उन संदर्भ गुणों के प्रकार अथवा उसकी मात्रा को व्यक्त करते हैं। अत: मापन प्रक्रिया में मूलत: तीन तत्व होते हैं-
  1. विषयी : जिसके गुणों का मापन होना है।
  2. प्रतीक : जिसमें गुणों की मात्रा अभिव्यक्त होती है।
  3. नियम या मान्यता : जिसके आधार पर मात्रा व्यक्त होनी है।
प्राय: भौतिक गुणों जैसे- लम्बाई, चौड़ाई, क्षेत्रफल, आयतन आदि के मापन में गुण दिखाई देते रहते हैं तथा उनमें स्थायित्व रहता है। अत: मापन परोक्ष होता है। जबकि शैक्षिक तथा मनोविज्ञान के क्षेत्र में गुणों जैसे- बुद्धि, व्यक्तित्व, रूचि, सम्प्राप्ति आदि में गुण दिखाई नहीं पड़ते तथा इनमें स्थायित्व का भी अभाव रहता है। अत: मापन अपरोक्ष होता है। शैक्षिक मापन बहुत ही चुनौतीपूर्ण तथा अस्थाई होता है क्योंकि लक्षण दिखाई नहीं देते। विषयी द्वारा दिये गये उद्दीपन की प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त अनुक्रिया का विश्लेषण करके गुणों की मात्रा का अनुमान लगाया जाता है। यह अनुमान सही भी हो सकता हैं तथा त्रुटिपूर्ण भी। विषयी यदि अनुक्रिया न करना चाहे या उसकी मनोवैज्ञानिक दशा अनुकूल न हो तो गुण होते हुए भी उसकी मात्रा का ठीक ठीक पता लगाना कठिन हो जाता है। अत: विषयी की मनोदशा पर पर्याप्त नियंत्रण करके ही और स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक पर्यावरण प्रदान करने के उपरान्त ही शैक्षिक मापन सम्भव हो सकता है। शैक्षिक मापन में मापक उपकरण का स्थान तो महत्वपूर्ण रहता है साथ ही विषयी का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।

चरों की प्रकृति

मापन द्वारा व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना की विशेषताओं की मात्रा का अध्ययन किया जाता है। इन विशेषताओं अथवा गुणों को जिससे कोई घटना अपने आप में विशेष हो जाती है चर (Variable) कहते हैं। चर (Variable) का शब्दिक अर्थ है जो बदलती रहे अर्थात स्थिर न रहे, भिन्न-भिन्न लोगों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पायी जाय। जैसे- भार, लम्बाई, बुद्धि, अभिवृत्ति आदि। चर के आधार पर समूह के सदस्यों को कुछ उप-समूहों में बाँटा जा सकता है। यदि समूह का एक सदस्य भी किसी गुण के प्रकार अथवा मात्रा में शेष से भिन्न है तब उसे चर कहा जा सकता है। कोई गुण किसी एक समूह के लिये चर राशि हो सकता है जबकि दूसरे समूह के लिए स्थिर हो। चर दो प्रकार से वर्गीकृत किये जा सकते हैं-
  1. गुणात्मक चर
  2. मात्रात्मक चर 
    1. सतत् 
    2. असतत्
गुणात्मक चर गुणों के विभिन्न प्रकारों को व्यक्त करते हैं जिनके आधार पर समूह को उपश्रेणियों में बाँटा जा सकता है। जैसे- धर्म के आधार पर हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख तथा ईसाई या लिंग के आधार पर महिला, पुरुष। जबकि मात्रात्मक चर वे हैं जो गुणों की मात्रा को व्यक्त करते हैं। समूह के प्रत्येक व्यक्ति में इनका परिमाप भिन्न-भिन्न होता है। जैसे- प्राप्तांक, बुद्धिलब्धि, आय आदि। इनमें लम्बाई तथा भार में एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु के बीच कोई भी मान सम्भव है, अत: ये सतत् चर कहलाते हैं। जबकि परिवार में सदस्यों की संख्या 3 या 4 ही सम्भव है बीच का मान 3.5, 3.8 नहीं। अत: ऐसे चर असतत् चर (Discrete Variable) कहलाते हैं। असतत् चर में प्रयुक्त संख्याएं यथार्थ संख्याएं होती हैं जबकि सतत् चर में प्रयुक्त संख्याएं निकटस्थ प्रकृति की होती हैं।

मापन के स्तर - एस.एस. स्टीवेन्स ने मापन की यथार्थता के आधार पर मापन के चार स्तर बताये हैं:-

1. नामित मापन (Nominal Measurement)- इनमें व्यक्तियों अथवा घटनाओं को किसी गुण या विशेषता के आधार पर कोई नाम, शब्द, अंक या संकेत प्रदान किया जाता हैं। इनमें कोई क्रम या सम्बन्ध अंतर्निहित नहीं रहता हैं। यह एक गुणात्मक मापन है, तथा प्राप्त मानों या संकेतों से कोई भी गशितीय संक्रिया जैसे- जोड़, घटाना, गुणा, भाग आदि सम्भव नहीं हैं। गुणों के आधार पर मात्र विभिé समूहों या उप समूहों की रचना की जा सकती हैं। जैसे- शहरी, ग्रामीण या कला, विज्ञान, वाणिज्य आदि।

2. क्रमित मापन (Ordinal Measurement)- यह मापन गुणों की मात्रा के आकार पर आधारित होता है जिस कारण विभिé श्रेणियों या उप समूहों में एक निश्चित क्रम होता है। वर्गों को कोई नाम या प्रतीक प्रदान करते हैं। जैसे- योग्यता के आधार पर श्रेण्ठ, औसत, कमजोर या प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा फेल आदि। क्रमित मापन भी नामित मापन के भाँति गुणात्मक मापन हैं। इसमें प्रत्येक समूह में सदस्यों की संख्या ज्ञात की जा सकती है किन्तु गशितीय संक्रियाएं सम्भव नहीं है।

3. अन्तरित मापन- (Interval Measurement) यह मापन गुणों की मात्रा पर आधारित होता है गुणों की मात्रा का इस प्रकार श्रेणीबद्ध किया जाता है कि प्रत्येक उप श्रेणी में अन्तर समान रहता है। शैक्षिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक चरों का मापन अन्तरित पैमाने पर ही किया जाता है। इन इकाइयों में शून्य का अर्थ परम शून्य या पूर्ण गुण विहीनता नहीं होता हैं अंतरित मापन में प्राप्त अंकों के साथ जोड़ तथा घटाना तो सम्भव है किन्तु गुणा या भाग सम्भव नहीं है।
जैसे- ग्रेडिंग में श्रेणी A,B,C,D,E
100-80 80-6060-40 40-20 20-10
ABCDE

4. अनपुातिक मापन- (Ratio Measurement)
यह सर्वाधिक परिमाजिर्त मापन है जिसमें अन्तरित मापन के लक्षणों के साथ परम शून्य भी निहित होता है। शून्य का अर्थ अस्तित्व विहीनता होता है। अनुपातिक मापन में प्राप्त मापों की अनुपातिक तुलनीयता है। यह मापन परिणामों का अनुपात के रूप में व्यक्त करता हैं। अधिकांश भौतिक चरों का मापन अनुपातिक स्तर का होता है। अनुपातिक मापन कल्पित शून्य न हो कर वास्तविक तथा परम शून्य होता है तथा प्राप्त परिणामों से जोड़, घटाना, गुणा, भाग सभी गशितीय संक्रियाएं सम्भव हैं।

मूल्याकंन 

मूल्यांकन का अर्थ है मूल्य का अंकन करना। यह मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया है जो मापन की अपेक्षा अधिक व्यापक है। मूल्यांकन गुणों या विशेषताओं की वांछनीयता स्पष्ट करता है। किसी व्यक्ति में उपस्थित गुणों की मात्रा का विश्लेषणात्मक अथवा गुणात्मक विवरण मूल्यांकन प्रस्तुत करता है और यह बताता है कि किसी निश्चित उद्देश्य हेतु वह कितना उपयुक्त या संतोषप्रद है।

1. बेड फील्ड तथा मोरडोक के अनुसार- ‘‘मूल्याकं न किसी सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा वैज्ञानिक मानदण्ड के सन्दर्भ में किसी घटना को प्रतीक आवंटित करना हैं जिससे उस घटना का महत्व अथवा मूल्य ज्ञात किया जा सके।’’ 

2. एन.एम. डाडंकेर ने मूल्याकंन को छात्रों के द्वारा शैक्षिक उद्देश्यों के प्राप्त करने की क्रमबद्ध प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया है। एन.सी.ई.आर.टी. ने मूल्यांकन को ऐसी सतत् व व्यवस्थित प्रक्रिया कहा है जो शैक्षिक उद्देश्यों की प्रप्ति की सीमा, अधिगम अनुभवों की प्रभावशीलता का आंकलन करती है। 

मूल्यांकन एक अत्यन्त ही व्यापक तथा बहुआयामी प्रत्यय है जो पाठ्यवस्तु के ज्ञान के आंकलन के अतिरिक्त विद्यालयी पाठ्यक्रम से सम्बन्धित समस्त उद्देश्यों की एक विशाल तथा व्यापक श्रृंखला है जो बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास से सम्बन्धित है। मूल्यांकन प्रक्रिया के तीन प्रमुख अंग हैं-
  1. शिक्षण उद्देश्य 
  2. अधिगम क्रियाएं 
  3. व्यवहार परिवर्तन 
शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विद्यालय में अधिगम क्रियाएं आयोजित की जाती हैं जिनसे छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन होता है तथा इन व्यवहार परिवर्तनों की तुलना शैक्षिक उद्देश्यों से करके मूल्यांकन किया जाता हैं। अत: मूल्यांकन एक अत्यन्त व्यापक तथा बहुआयामी प्रत्यय हैं जिसका सम्बन्ध मात्र छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि से न होकर उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास से होता है।

शैक्षिक मापन तथा मूल्यांकन का महत्व 

शिक्षा एक सोद्देश्य मानव निर्माण की प्रक्रिया है। इसके विभिé पक्षों पर सतत् निगरानी आवश्यक होती है। किसी भी स्तर पर एक छोटी सी चूक भयावह परिणाम प्रस्तुत कर सकती है। अत: इससे परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति-छात्र, अध्यापक, अभिभावक, समाज तथा प्रशासक की दृष्टि से मापन तथा मूल्यांकन का महत्व रहता है। यह छात्रों को अपनी प्रगति की जानकारी तो देता ही है साथ ही उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा तथा आत्मविश्वास जागश्त भी करता है। अध्यापकों को शिक्षण हेतु उपयुक्त प्रविष्टिा के चुनाव में, शिक्षण विधि की सफलता जानने में, उपयुक्त परीक्षा प्रणाली विकसित करने में मापन तथा मूल्यांकन का विशेष महत्व होता है।
अभिभावक अपने बालकों हेतु विद्यालय, पाठ्यक्रम, भावी दिशा तय करने में मापन व मूल्यांकन का सहारा लेते हैं। शैक्षिक नीतियों में संशोधन, शैक्षिक वित्त एवं प्रशासनिक व्यवस्था के निर्धारण में शैक्षिक प्रशासक मापन व मूल्यांकन का सहारा लेते हैं। समाज तथा राष्ट्र का तो निर्माण ही शिक्षा की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। 

अत: कोई भी राष्ट्र अपनी शिक्षा व्यवस्था से किसी भी प्रकार समझौता नहीं कर सकता है। सदैव सजग रूप से इस पर नियंत्रण रखता है। अत: मापन व मूल्यांकन का महत्व शिक्षा व्यवस्था से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिए है जिसे निम्नवत् बिन्दुवार व्यक्त किया जा सकता है-
  1. शैक्षिक नीतियों के निर्धारण में मापन व मूल्यांकन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
  2. शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित करने में तथा उद्देश्य प्राप्ति की सीमा ज्ञात करने में यह स्पष्ट योगदान करता है। 
  3. मापन तथा मूल्यांकन शिक्षक की प्रभावशीलता इंगित करता है। 
  4. यह छात्रों को अध्ययन हेतु प्रोत्साहित करता है। 
  5. यह पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, सहायक सामग्री तथा मूल्यांकन विधि में सुधार हेतु आधार स्पष्ट करता है। 
  6. कक्षा शिक्षण को प्रभावशाली तथा जीवन्त बनाने हेतु यह अध्यापकों को निर्देशित करता है। 
  7. यह छात्रों को उनकी रूचियों तथा अभिक्षमताओं की पहचान कराकर शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है। 
  8. शिक्षा में चल रहे विभिन्न नवाचारों की उपयोगिता ज्ञात करने में तथा नवीन प्रविधियों की खोज में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

शैक्षिक मापन तथा मूल्यांकन के उद्देश्य 

शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है तथा इसकी प्रक्रिया अत्यधिक जटिल व विकासात्मक है जो देश, काल, परिस्थिति एवं आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तित होती रहती है। मापन तथा मूल्यांकन इस प्रक्रिया में लिटमस परीक्षण की भाँति कार्य करती हैं। इसके प्रमुख उद्देश्य निम्न है-
  1. छात्रों को अर्जित ज्ञान का स्तर बताना। 
  2. छात्रों के सर्वांगीण विकास में सहायता करना। 
  3. विकास में बाधक तत्वों की पहचान करना। 
  4. छात्रों को वैयक्तिक आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा सुविधाएं उपलब्ध कराना। 
  5. छात्रों में स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना विकसित करना। 
  6. अधिगम को सहज बनाकर शिक्षण को आनन्ददायी बनाना। 
  7. पाठ्यक्रम में परिवर्तन का आधार प्रस्तुत करना। 
  8. शिक्षण विधियों में विकास का आधार तथा नवीन अधिगम सामग्रियों के चयन को प्रोत्साहित करना। 
  9. योग्यता आधारित वर्गीकरण करना तथा आवश्यकता अनुरूप गुणात्मक शैक्षिक अनुभव हेतु प्रोत्साहित करना। 
  10. छात्रों को उपयुक्त शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन का आधार स्पष्ट करना। 
  11. परीक्षा प्रणाली में सुधार का आधार प्रस्तुत करना तथा राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक मानकों को निर्धारित करना।

शैक्षिक मापन तथा मूल्यांकन के कार्य  

शिक्षा प्रक्रिया में मापन तथा मूल्यांकन छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान के स्तर को ज्ञात करने हेतु किया जाता है जिससे शिक्षण प्रक्रिया में यथोचित सुधार का आधार प्रस्तुत किया जा सके। मापन छात्रों की कमजोरियों तथा कठिनाई के क्षेत्रों की पहचान हेतु किया जाता है। साथ ही छात्रों की वर्तमान क्षमताओं को ज्ञात कर उनकी भविष्य को कार्य क्षमता के सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगाने में भी किया जाता है। अत: मापन तथा मूल्यांकन के तीन प्रमुख कार्य हैं- साफल्य निर्धारण (Prognostic Function), निदानात्मक कार्य (Diagnostic Function) तथा पूर्वकथन (Prediction)। इनके अतिरिक्त मापन तुलना करने में, वर्गीकरण तथा चयन करने में तथा अनुसंधान कार्यों में भी प्रयुक्त होता है। फिन्डले (1963) ने मापन के तीन कार्य स्पष्ट किये हैं-

शैक्षिक कार्य, प्रशासनिक कार्य तथा निर्देशनात्मक कार्य। शैक्षिक कार्य के अन्तर्गत शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को रोचक, सजग तथा उत्पादक बनाने हेतु मापन तथा मूल्यांकन द्वारा प्राप्त परिणामों का उपयोग किया जाता है। मापन तथा मूल्यांकन छात्रों, अध्यापकों तथा अभिभावकों सभी हेतु पृष्ठपोषण का कार्य करते हैं। ये सभी स्वमूल्यांकन, सहयोगी मूल्यांकन तथा बाºय मूल्यांकन के परिणामों का प्रयोग अपनी स्थिति एवं कार्य प्रणाली को सुधारने हेतु करते हैं।

प्रशासनिक कार्य के अन्तर्गत चयन, प्रमापीकरण, वित्तीय नियंत्रण, सामान्य प्रशासन, गुणवत्ता निर्धारण, वर्गीकरण आदि सम्मिलित हैं। राष्ट्रीय, क्षेत्रीय तथा सामाजिक स्तर पर शैक्षिक आवश्यकताओं की पहचान तथा माँग के अनुरूप गुणात्मक शैक्षिक सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कर राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मानकों के निर्धारण में मापन तथा मूल्यांकन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शैक्षिक लागत का निर्धारण तथा समयबद्ध कार्यक्रम के अनुसार शैक्षिक उपलब्धि सुनिश्चित करने हेतु शैक्षिक प्रशासन को निर्देशित करना मापन तथा मूल्यांकन का कार्य है। कक्षा कक्ष गतिविक्षिायों के नियमन से लेकर सम्पूर्ण शैक्षिक प्रांगण की गतिविधियों की निगरानी तथा गुणात्मक सुधार बिना मापन व मूल्यांकन सम्भव नहीं हो सकता। निर्देशन कार्य में छात्रों की क्षमता, रूचि, योग्यता तथा अभिक्षमता के पहचान तथा उनके अनुरूप शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करने में मापन तथा मूल्यांकन का उपयोग होता है। निर्देशन सेवाओं की उपयुक्तता तथा उसमें संशोधन भी मापन तथा मूल्यांकन के बिना सम्भव नहीं है। पाठ्यक्रम तथा शैक्षिक गतिविधयों में परिवर्तन तथा माँग के अनुरूप शैक्षिक अनुभव को मापन द्वारा ही सुनिश्चित किया जा सकता है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

5 Comments

  1. plz provide ppt of this content

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छा लगा इतना भाषा में

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छा लगा इतनी आसान भाषा में

    ReplyDelete
Previous Post Next Post