व्यक्तिगत निर्देशन क्या है व्यक्तिगत निर्देशन की आवश्यकता क्या है?

व्यक्ति की कुछ निजी समस्याएँ भी होती है जिनका समाधान वह स्वयं नहीं कर पाता। मानव जीवन के सम्यक उत्थान के लिए आवश्यक है कि उसका जीवन समस्या रहित हो, वास्तव में निजी समस्याएँ उसके सम्पूर्ण जीवन के विकास को प्रभावित कर देती है। तनावग्रस्त शरीर, मन एवं जीवन किसी अन्य क्षेत्र में विकास एवं समायोजन के लायक नहीं रहता। समस्या तब अधिक होती है जब व्यक्ति उसका निदान खोजने में अपने-आप को असफल पाता है। व्यक्ति के निजी समस्याओं को आम तौर पर हम इन भागों में बाँट सकते है।

1. मानसिक समस्या - ये समस्याएँ मूलतः मानसिक स्वास्थ्य एवं मनुष्य के अहम् से जुड़ी रहती है। व्यक्ति के मानसिक समस्या के निराकरण हेतु निर्देशन प्रदान करने का उद्देश्य उसे मानसिक रूप से स्वस्थ करना होता है। मनोविश्लेषणवादियों ने मनुष्य की मानसिक समस्याओं का विस्तार से अध्ययन किया जिसमें फ्रायड का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने मानव मस्तिष्क की संरचना के तीन परत ईद, ईगो और सुपर ईगो माना है। 

2. पारिवारिक समस्या - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज और परिवार दोनों में समय-समय पर अपनी अहम भूमिका निभाता है। अनेक भूमिकाओं के होने के कारण उसके सामने समायोजन की समस्या खड़ी हो जाती है इसके अतिरिक्त परिवार की आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि उसके जीवन को प्रभावित करती है। इन्हीं के मध्य उसकी निजी समस्याएँ भी जन्म लेती है। तब उसे व्यक्तिगत निर्देशन की आवश्यकता होती है।

3. शारीरिक समस्या - शारीरिक समस्याओं के अन्तर्गत व्यक्ति के स्वास्थ्य में कमी, दुर्बलता एवं परिस्थितिजन्य समस्याएँ आती है। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मस्तिष्क का भार उठा पाता है। असंतुलित आहार विद्यालय का नीरस वातावरण, आसपास के पर्यावरण में स्वास्थ्यपयोगी परिस्थितियों का अभाव, विद्यार्थियों की कमजोर आर्थिक परिस्थितियाँ तथा जन्मजात शारीरिक समस्याएँ विद्याथ्री के शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालती है और वह कुसमायोजित हो जाता है। इसके लिए व्यक्तिगत निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

4. सामाजिक समस्या - इनके अन्तर्गत व्यक्ति के समक्ष समुदाय, समाज से जुडी़ रूढ़ियाँ, परम्पराएँ, अंधविष्वास एवं कुरीतियों के कारण उत्पन्न समस्याएँ आती है जो उसके स्वभाविक विकास को रोक देती है। समाज की समस्याएँ व्यक्ति के मन: मस्तिष्क को तनावग्रस्त करने के साथ कुसमायोजित भी कर देती है।
इन चारों तरह की समस्याएँ मनुष्य के निजी जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है। इन समस्याओं से ग्रस्त होकर मानव अपना सन्तुलन खोने लगता है। तब उसे सहायता की आवश्यकता होती है जोकि व्यक्तिगत निर्देशन के कार्यक्रमों द्वारा ही सम्पन्न होता है। वास्तव में व्यक्तिगत निर्देशन कोई नयी अवधारणा नही है। निर्देशन का स्वरूप व्यक्तिगत ही होता है, व्यक्तिगत निर्देशन शब्द के प्रयोग से भ्रम पैदा होता है। जिसे लेस्टर डी0 क्रो0 एवं एलिस क्रो0 ने स्पष्ट करते हुए लिखा कि ‘‘व्यक्तिगत निर्देशन का अभिप्राय व्यक्ति को प्राप्य उस सहायता से है जो उसके जीवन के सभी क्षेत्रों तथा अभिवृित्तयों के विकास को दृष्टिगत रखकर समायोजन के प्रति निर्दिष्ट होती है।’’

व्यक्तिगत निर्देशन के अन्तर्गत व्यक्ति की समायोजन क्षमता बढ़ाने, निजी समस्याओं के प्रति समझ एवं हल ढूढ़ने आत्मबोध कराने के लिए दिया गया सहयोग सम्मिलित होता है। व्यक्ति के लिए अपनी समस्या को समझ पाना तथा आवश्यकतानुसार उसका हल ढूढ़ना आसान कार्य नही है। आयु के साथ अनुभव बढ़ता है जिससे कि समस्याओं के प्रति समझ एवं हल ढूढ़ना भी आसान हो जाता है परन्तु बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था में स्थिति भयावह हो जाती है और व्यक्तिगत निर्देशन की आवश्यकता होती है।

व्यक्तिगत निर्देशन के सिद्धांत

निर्देशन की व्यक्ति के जीवन में आवश्यकता को समझने के पश्चात उन सिद्धान्तों को भी समझ लेना चाहिए जिनके आधार पर यह निर्देशन दिया जाता है क्योंकि इन सिद्धान्तों का ज्ञान निर्देशन के क्रियात्मक या व्यावहारिक कार्य में अधिक सहायता देता है। सम्पूर्ण व्यक्तिगत निर्देशन कार्यक्रम इन्हीं सिद्धान्तों पर टिका रहता है।

1. रूप से सभी छात्रों को निर्देशन प्रदान करने का सिद्धांत- निर्देशन व्यक्तिगत रूप से किसी एक व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है यह सहायता सभी को समान रूप से प्रदान की जाती है। इसके प्रदान किए जाने एवं उपलब्धता पर कोई विरोधाभास नही है अन्तर मात्र समस्याओं के आधार पर होता है।

2. निर्देशन की व्यापकता - निर्देशन प्रक्रिया व्यापक होती है इसमें परामर्श प्राथ्री की समस्या पर व्यापक रूप से विचार किया जाता है और उसके आधार पर ही सम्पूर्ण प्रक्रिया का संचालन होता है। व्यक्तिगत निर्देशन व्यक्ति के विकास से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों पर आच्छादित होता है। यह व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं भावात्मक वृद्धि की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। इसके अतिरिक्त यह उसके जीवन से सम्बन्धित अन्य पक्षों पर भी विचार करता है। 

सुपर ने निर्देशन की धारणा की व्यापकता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि ‘‘सीखने एवं विकास के मनोविज्ञान से यह तथ्य प्रकाश में आया है कि निर्देशन युवक और जीविका में मेल स्थापित करने तक ही सीमित नही है और ना यह व्यक्तियों की अपनी योग्यताओं एवं रूचियों को समझने में सहायता प्रदान करने की प्रक्रिया है और ना व्यक्तिगत विशेषताओं को शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों में सम्बन्धित करने व निर्णय लेने की प्रक्रिया है। यह तो वास्तव में व्यक्तिगत विकास में निर्देशित करने से सम्बन्धित है।’’

3. व्यवस्थित संचालन का सिद्धांत- व्यक्तिगत निर्देशन की सम्पूर्ण प्रक्रिया निश्चित चरणों से संचालित की जाती है इसके लिए सभी आवश्यक जानकारी एवं संसाधनों की सहायता ली जाती है जिससे कि आवश्यक लक्ष्य की प्राप्ति तत्काल हो सकें।

4. लचीलेपन के सिद्धांत- व्यक्तिगत निर्देशन का उद्देश्य व्यक्ति का विकास करना है अत: यह व्यक्ति की आवश्यकता के अनुसार लचीली की जाती है और समय-समय पर इसमें मूल्यांकन करते हुए आवश्यक परिवर्तन भी किया जाता है।

5. सहयोग का सिद्धांत- व्यक्तिगत निर्देशन वास्तव में व्यक्ति की शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं मानसिक समस्याओं से सम्बन्धित होता है। अत: यह आवश्यक होता है कि निर्देशन में उसके जीवन से सम्बन्धित लोगों का सहयोग लिया जाये जिससे कि उसकी समस्याओं से सम्बन्धित सम्पूर्ण सहयोग मिल सकें।

6. गोपनीयता का सिद्धांत- व्यक्तिगत निर्देशन मे परामर्श दाता परामर्श प्राथ्री की समस्या को समझने के लिए उससे सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करता है और यह तब सम्भव होता है जब वह परामर्श प्राथ्री को यह विष्वास दिला देता है कि उसके द्वारा दी गई जानकारी पूर्णतया गोपनीय रखी जायेगी। 

ये सभी सिद्धांत व्यक्तिगत निर्देशन की प्रक्रिया में समाहित होते है और लक्ष्य प्राप्त करने में सहयोग देते है। 

व्यक्तिगत निर्देशन के उद्देश्य

व्यक्तिगत निर्देशन के अन्तर्गत व्यक्ति को उसके आस-पास के वातावरण को समझने एवं उसमें समायोजन करने की क्षमता का विकास सम्मिलित होता है। इसका मुख्य उद्देश्य होता है-
  1. व्यक्ति को उसकी समस्याओं को समझने एवं उनका विश्लेषण करने की क्षमता का विकास करना। 
  2. व्यक्ति को अपने आस-पास के वातावरण को समझने एवं उनके प्रति संवेदनशील बनाना।
  3. व्यक्ति को परिवार, समुदाय, विद्यालय एवं व्यवसाय सम्बन्धी दशाओं को समझने तथा उनसे उत्पन्न व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने में मदद देना।
  4. व्यक्ति की समायोजन क्षमता को बढ़ाने में उसकी मदद करना। 
  5. व्यक्ति को अपने जीवन से सम्बन्धित निर्णय लेने एवं अभिक्षमता के आधार पर उनपर कार्य करने के लिए विवेकशील बनाना। 
  6.  व्यक्तिगत तनाव का पता लगाना और उचित समय पर उनके कारणों को जानना। 
  7. व्यक्ति को अपने पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सही भूमिका निभाने स्वस्थ सम्बन्ध बनाने उचित आर्थिक पाने एवं सांवेगिक संतुलन बनाए रखने आदि में मदद करना। 
  8. मानव में अपने जीवन की अनेकानेक परिस्थितियों में अपेक्षित सूझ-बूझ विकसित करने तथा क्रियाशील होकर जीवन यापन हेतु सहायता प्रदान करना। 
  9.  विद्याथ्री को परावलम्बन से हटकर स्वतंत्र निर्णय और कार्य करने में सहायता देना। 
  10. ऐसे अवसरों की व्यवस्था करना जिसमें छात्रों के सामाजिक विकास के लिए परस्पर सम्पर्क करने का प्रोत्साहन मिलें। 
  11. विद्याथ्री को भावनात्मक नियन्त्रण करने का अभ्यास देना। वास्तव में व्यक्तिगत निर्देशन वह सहायता है जो कि व्यक्ति में अपने जीवन के प्रति उचित समझ पैदा करते हुए कुशलतापूर्वक समायोजन के योग्य बनाता है।

व्यक्तिगत निर्देशन की आवश्यकता

वैसे तो व्यक्तिगत निर्देशन की आवश्यकता को विशेष तौर से अपसमंजन या कुसमंजन की परिस्थितियों से जोड़ दिया जाता हैं, तथापि सामान्य जीवन के अनेक ऐसे सन्दर्भ देखे जा सकते हैं जिनमें व्यक्ति को थोड़ी सी राय या दिशा निर्देशन के जरिये उसे सफल एवं प्रभावी बनाया जा सकता है। बाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्था तक अपने जीवन के विविध सन्दर्भो में मधुर समायोजन रखना व्यक्ति के जीवन की सफलता एवं मानसिक स्वास्थ्य का परिसूचक है। आज की बदलती उप-संस्कृतियों एवं उनके लिए अपेक्षित तौर-तरीके तथा मिजाज के सन्दर्भ में नई अपेक्षाएँ, मानक तथा आचार संहिताएँ बन रही हैं। पुराने तथा नये मूल्यो में टकराव प्राय: दिखाई पड़ता है। 

नई पीढ़ी तथा पुरानी पीढ़ी के खिंचाव, परिवर्तित सन्दर्भो में जीवन की नवीनशैलियों का उद्भव तथा विकासशील जीवन मूल्य ‘व्यक्तिगत निर्देशन’ के महत्व को सहज ही व्यक्त करते है। उक्त परिप्रेक्ष्य में ‘व्यक्तिगत निर्देशन’ की आवश्यकता को इन दृष्टियों से प्रदर्शित किया जा सकता है-

1. व्यक्तिगत समंजन की सम्भावना बढ़ाने की दृष्टि से - परिवार के अनेकानेक सन्दर्भो तथा सामुदायिक एवं सामाजिक जीवन की परम्परागत जिम्मेदारियों का कुशलतापूर्वक निर्वाह करने के लिये व्यक्ति की समंजन शीलता अपेक्षित है। विशेष तौर से आज की परिवर्तित परिस्थितियों में इसका विशेष महत्व है। युवा-वर्ग समाज में सर्जनशील भूमिका कैसे निभाये, वह अपने जीवन साथी का चुनाव करने हेतु विवाह-प्रस्तावों एवं रस्मों को किस तरह पूरा करें एवं शिक्षा तथा रोजगार के अवसरों से अपना उचित संबंध कैसे स्थापित करें-इन सभी के लिए अपेक्षित समंजन शीलता की सम्भावना बढ़ाने की दृष्टि से व्यक्तिगत निर्देशन नितान्त आवश्यक है।

2. व्यक्तिगत कुशलता विकसित करने की दृष्टि से - यहाँ व्यक्तिगत कुशलता से अभिप्राय व्यक्ति की सद्य: निर्णय लेने की क्षमता एवं उसके अनुकूल कार्यान्वयन की स्थिति पैदा करने की दक्षता से है। आज जीवन के हर क्षेत्र में कुशल व्यक्ति ही सफल हो सकते हैं। इस दृष्टि से व्यक्तिगत निर्देशन तथा शिक्षा के प्रकार्यो में कोई भेद नहीं किया जा सकता। इस सम्बन्ध में याद रखना होगा कि पारिवारिक, सामुदायिक एवं व्यावसायिक कुशलता के स्तर भिन्न-भिन्न होते हैं तथा उन्हें विकसित करने में ‘व्यक्तिगत निर्देशन’ की भूमिका जोरदार होती है।

3. आपसी तनावों तथा व्यक्तिगत उलझनों की स्थिति से बच सकने में मदद देने की दृष्टि से -आज आपसी सम्बन्धों का दायरा बढ रहा है, व्यक्ति के परस्पर तनाव एवं निजी उलझनों की परिस्थितियाँ जटिलतर बनती जा रही है। ऐसी परिस्थितियों का भली प्रकार सामना न कर सकने की दशा में व्यक्ति अपना सन्तुलन एवं मानसिक स्वास्थ्य खो बैठता है। इनसे बचने में मदद देने की दृष्टि से व्यक्तिगत निर्देशन नितान्त आवश्यक है।

4. व्यक्ति के पारिवारिक एवं व्यावसायिक जीवन में सामंजस्य कायम करने की दृष्टि से - व्यक्ति के व्यावसायिक जीवन के सुखमय हाने का रहस्य उसके पारिवारिक जीवन में पाई जाने वाली मधुरता एवं आत्मतोष में बहुत हद तक ढूँढ़ा जा सकता है। इसी प्रकार व्यावसायिक जीवन की सफलता एवं उसमें उपलब्ध सामंजस्य को उसके पारिवारिक जीवन की शान्ति एवं सन्तुलन को महत्वपूर्ण रूप में प्रभावित करते हुए देखा जा सकता है। यहाँ ध्यान देना होगा कि व्यक्ति का पारिवारिक एवं व्यावसायिक जीवन अलग-थलग होते हुए भी इनमें सम्बन्ध बढ़ाया या घटाया जा सकता हैं। व्यक्ति इन संबधों में कड़वाहट न महसूस कर सके इसके लिये सम्यक् प्रकार का व्यक्तिगत निर्देशन अपेक्षित है।

5. संकट के समय या सामान्य क्षणों में अपेक्षित धैर्य तथा सन्तुलन बनाये रखने की दृष्टि से - व्यक्ति में अपेिक्षत धैर्य एवं सन्तुलन का होना उसके मानसिक स्वास्थ्य का परिचायक है। इसकी आवश्यकता जीवन के सामन्य क्षणों के अलावा संकट की घड़ियों में विशेष रूप से होती है। जहाँ ये गुण व्यक्ति की व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं से सम्बद्ध हैं, वहाँ इन्हें समुचित अभ्यास द्वारा विकसित करना भी सम्भव है। इस दृष्टि से व्यक्तिगत निर्देशन का महत्व विशेष रूप से देखा जा सकता है।

6. व्यक्तिगत मामलों में सही निर्णय ले सकने की दृष्टि से - व्यक्ति का अपने जीवन के प्रारम्भिक क्षणों से लेकर, जब वह माँ-बाप या अभिभावक पर निर्भर होता है तथा प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था तक अनेक प्रकार के निर्णय लेने पड़ते हैं। उसे किस विद्यालय में प्रवेश लेना चाहिये, गृहकार्य कैसे पूरा करना चाहिये, अपने पड़ोसियों के साथ किस तरह पेश आना चाहिये, अपने माँ-बाप के प्रति आदर कैसे प्रदर्शित करना चाहिये, अपने जीवन सहचर या जीवन-सहचरी का चयन कैसे हो, उचित उद्यमों में कैसे लगा जाये तथा वृद्धावस्था में परेशानियाँ न खड़ी हों इसके लिए अपेक्षित पूर्व तैयारी क्या हो सकती है। हाँ, इतना अवष्य है कि प्रबुद्ध व्यक्ति होश सम्भालने पर अपना निर्देशन अपने विवके के आधार पर स्वयं कर लेता है।

7. व्यक्ति के जीवन में सुख, शान्ति एवं सन्तोष का भाव लाने की दृष्टि से - हर व्यक्ति अपने जीवन में सुख एवं शान्ति चाहता है। इसके लिये उसमें सन्तोष का भाव भी पैदा करना आवश्यक होता है। यह व्यक्ति की मनोवृित्त एवं उसके निजी मूल्यों पर निर्भर होने के साथ उचित प्रषिक्षण द्वारा विकसित किया जा सकता है। इस दृष्टि से ठीक प्रकार की नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा तथा उस पर आधारित व्यक्तिगत निर्देशन के कार्यक्रमों की आवश्यकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपेक्षित कुशलता, आत्मसन्तोष एवं सामंजस्य कायम करने तथा स्वस्थ, प्रभावी एवं सहज आत्म-विकास का मार्ग प्रशस्त करने की दृष्टि से ‘व्यक्तिगत निर्देशन’ की सेवाओं का योगदान होता है।

व्यक्तिगत निर्देशन की प्रक्रिया एवं कार्य

व्यक्तिगत निर्देशन की प्रक्रिया का मूलस्वरूप वैयक्तिक एवं परामर्शक है। इनमें औपचारिक रूप से गठित सेवाओं का उतना महत्व नहीं होता जितना अनौपचारिक ‘आवश्यकता आश्रित’ (नीड-बेस्ड), सहज रूप में उपलब्ध निर्देशन के अवसरों का प्राय: हुआ करता है। आगे व्यक्तिगत निर्देशन की प्रक्रिया तथा उसके कार्यतन्त्र को स्पष्ट करने वाले सोपानों का उल्लेख किया जा रहा है-

1. सौहार्द स्थापन - व्यक्ति से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना जिससे वह निर्देशनकर्मियों से बिना किसी हिचक के खुलकर अपने बारे में अपने पारिवारिक सन्दर्भो तथा अपनी समस्याओं पर प्रकाश डाल सकें

2. रूचियों एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों का आकलन - व्यक्ति की रूचियों एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों का पता लगाना। इस सोपान के तहत रूचियों एवं व्यक्तित्व विषयक पक्षों का वस्तुनिष्ठ रूप में जायजा लेने हेतु उपयुक्त प्रकार की मापनी एवं परीक्षाओं का भी प्रयोग किया जाता है।

3. समंजन एवं अन्य समस्याओं से सम्बन्धित स्थिति का जायजा - व्यक्ति की समंजन से सम्बन्धित तथा अन्य समस्याओं का मूल्यांकन करना। इसके लिये मनोविश्लेषण की विधियों का प्रयोग वांछनीय माना जाता है। फ्रायड, जुंग, एडलर एवं उनके अनुयायियों ने व्यक्तिगत निर्देशन की प्रणाली को ठोस, चिकित्सात्मक एवं प्रभावी बनाने में इस दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके अनुसार इस सोपान के अन्तर्गत व्यक्ति के अहम् (ईगो), इदम् (ईड) तथा पराहम् (सुपर ईगो) के विकास की कहानी, उनके परस्पर समायोजन तथा वस्तुस्थिति का एहसास कराया जाता है।

4. उचित परामर्श उपलब्ध कराना - व्यक्ति को अपेक्षित परामर्श उपलब्ध कराना तथा उसके आधार पर उसके तथा उसके पर्यावरण के मध्य मधुर समन्वय कायम करना।

5. कार्य योजेजनाओं के क्रियान्वयन में व्यक्ति की मदद करना - व्यक्ति को अपने विवेक एवं आत्म-मूल्यांकन के फलस्वरूप से देखी जा सकती है।

6. समस्याओं के निराकरण के बारे में परिचर्चा - समय-समय पर व्यक्ति की समस्याओं के निवारण या उनके हल के बारे में विचार-विमर्श करना। इस सोपान के अन्तर्गत निर्देशक एक कुशल चिकित्सक की भाँति सेवाथ्री से उसकी समस्याओं का सन्तोषजनक हल प्राप्त करने के बारे में पूछताछ करता रहता है तथा इस प्रक्रिया में किसी तरह की बाधा या कठिनाई आने पर उसे दूर करने की कोशिश करता है।

7. सेवाथ्री व्यक्ति पर पडे़ परिणामों का आकलन - निर्देशकों की टीम द्वारा समस्या के स्वरूप, उसके लिए प्राप्त हल तथा व्यक्ति के समंजन में दिखाई पड़ने वाले परिणामों का मूल्यांकन करना, ‘व्यक्तिगत निर्देशन’ की प्रक्रिया का अन्तिम सोपान होता है। इसके जरिये व्यक्तिगत निर्देशन की सेवाओं में व्यावसायिकता का पुट आता है जिससे निर्देशनकर्मी भविष्य में अपने अनुभव के आधार पर उपयोगी युक्तियों का प्रयोग कर सकने में सफल होते हैं।
व्यक्तिगत निर्देशन का बुनियादी स्वरूप चिकित्सापरक एवं सुधारात्मक है। इसमें व्यक्ति के आत्म-अवबोध एवं संवेदनशीलता का विकास, उसकी परिस्थिति का गहराई में अध्ययन तथा अपेक्षित युक्तियों का समीक्षात्मक मूल्यांकन मुख्य कार्य होते हैं। इसका कार्य-तन्त्र औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों प्रकार के सन्दर्भो से मिलकर बनता है।
  1. सेवाथ्री व्यक्ति पर पड़े परिणामों का आकलन
  2. समस्याओं के निराकरण के बारे में परिचर्चा
  3. कार्य-योजना के क्रियान्वयन में व्यक्ति की मदद करना
  4. उचित परामर्श उपलब्ध कराना
  5. समंजन वं अन्य समस्याओं से सम्बन्धित स्थिति का जायजा
  6. रूचियों वं व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों का आकलन
  7. सौहार्द स्थापन
निर्देशनकर्मी को अत्यन्त सावधानीपूर्वक जाँच-पड़ताल की भूमिका निभानी पड़ती है तथा वार्तालापों के माध्यम से सेवाथ्री के सम्बन्ध में ज्ञात तथ्यों एवं सूचनाओं को गापे नीय रखने की व्यावसायिक जिम्मेदारी पूर्णत: उसकी होती है। इस प्रकार ‘व्यक्तिगत निर्देशन’ व्यक्ति के विकास-पथ को सरल, सुगम एवं निरापद बनाने उसमें अपेक्षित मानसिक स्वास्थ्य बनाये रखने तथा अपने जीवन के विविध क्षेत्रों में समंजन लाने की दृष्टि से प्रत्येक प्रगतिशील समाज की स्वाभाविक चिन्ता, चेष्टा, आत्मचेतना एवं दर्शन का परिचायक है। 

परिवार, सामुदायिक एवं सामाजिक सन्दभोर्ं, मित्रों, व्यावसायिक सहकर्मियों, शिक्षकों, चिकित्सकों तथा समाजसेवी व्यक्तियों एवं संस्थाओं के माध्यम से इसका व्यापक जाल फैला रहता है।

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