पंडित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक विचार

पंडित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक विचार

पंडित मदन मोहन मालवीय 25 दिसम्बर, 1861 को तीर्थराज प्रयाग में जन्म हुआ। पंडित मदन मोहन मालवीय  के पिता प्रेमधर जी संस्कृत के बड़े विद्वान थे। धर्म के प्रति उनकी बड़ी गहरी निष्ठा थी। पितामह की तरह पितामही भी धर्मनिष्ठ और शील सम्पन्न थी। मदन मोहन मालवीय के पिता पं0 ब्रजनाथ पं0 प्रेमधर की ही तरह धर्मनिष्ठ,जव संस्कृत के विद्वान तथा राधाकृष्ण के अनन्य भक्त थे।

 
पंडित मदन मोहन मालवीय को पाँच वर्ष की आयु में विद्यारंभ कराया गया। उन्हें प्राच्य और पाश्चात्य दोनों ही तरह की शिक्षाओं का गहराई से अनुशीलन करने का अवसर मिला। पहाड़ा एवं सामान्य गणित पढ़ने वे एक महाजनी पाठशाला में जाते थे। उसके उपरांत उन्होंने धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में संस्कृत, धर्म और शारीरिक शिक्षा पाई। फिर वे धर्म प्रविर्द्धनी पाठशाला के विद्याथ्री बने। इस प्रकार उन्हें परम्परागत भारतीय ज्ञान, धर्म, दर्शन का अच्छा अभ्यास हो गया।

सन् 1868 में प्रयाग में गर्वनमेण्ट हाईस्कूल खुला। पंडित मदन मोहन मालवीय ने इसमें प्रवेश लिया। यहाँ बड़े परिश्रम से अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण की। साथ ही साथ वे संस्कृत का भी ज्ञान प्राप्त करते रहे। एन्ट्रेस उत्तीर्ण करने के उपरांत मदन मोहन म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में पढ़ने लगे। मासिक छात्रवृत्ति मिल जाने से उनका आर्थिक संकट कुछ हद तक कम हुआ। 1881 में एफ0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1884 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी0ए0 की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण वे एम0ए0 की परीक्षा में नहीं बैठ सके। उन्होंने सरकारी उच्च विद्यालय में पहले 40 रूपये और बाद में 60 रू0 मासिक वेतन पर अध्यापक पद स्वीकार कर लिया।

समाज सेवा के प्रति पंडित मदन मोहन मालवीय की लगन छात्र जीवन से ही दिखती है। समाज सेवा हेतु छात्र जीवन में ही उन्होंने ‘साहित्य सभा’ एवं ‘हिन्दू समाज’ नामक संस्थाओं की स्थापना की थी। सरकारी नौकरी महामना को बाँधे नही रख सकी। तीन वर्षों तक सरकारी नौकरी में रहने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 1886 में कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में महामना के भाषण ने राष्ट्रीय नेताओं को काफी प्रभावित किया। अब वे कालाकाँकर आकर दैनिक समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादन करने लगे। 1887 से 1889 तक इस कार्य को सफलता पूर्वक किया। महामना की बहुमुखी प्रतिभा इसी तथ्य से स्पष्ट है कि समाचार पत्र के सम्पादन के साथ-साथ उन्होंने वकालत की पढ़ाई जारी रखी। 1891 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर आप इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। 12 नवम्बर, 1946 सूर्य के अवसान बेला में इस महामानव का देहावसान हो गया।

पंडित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक विचार

महामना सही अर्थों में शिक्षा को सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति मानते थे। वे भारत के सांस्कृतिक-सामाजिक और राजनीतिक-आर्थिक पराभव का कारण भारतीयों की निरक्षरता एवं अशिक्षा को मानते थे। उनका कहना था कि ‘‘यदि देश का अभ्युदय चाहते हो तो सब प्रकार से यत्न करो कि देश में कोई बालक या बालिका निरक्षर न रहे।’’ उनके अनुसार देश की दुर्दशा को समाप्त करने का एकमात्र साधन साक्षरता एवं शिक्षा है। अत: उन्होंने अपने जीवन के अधिक महत्वपूर्ण भाग को शिक्षा में लगाया।

महामना शिक्षा को मानव-जीवन के सर्वागींण विकास का साधन मानते थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा वह है जो विद्याथ्री की शारीरिक, बौद्धिक तथा भावात्मक शक्तियों को परिपुष्ट और विकसित कर सके तथा भविष्य में किसी व्यवसाय द्वारा ईमानदारी से जीवन-निर्वाह करने के योग्य बना सके। महामना शिक्षा के द्वारा युवा वर्ग को कलात्मक और सौन्दर्यपूर्ण जीवन के लिए तैयार करना चाहते थे। वे शिक्षा को राष्ट्रप्रेम जागृत करने वाली शक्ति बनाना चाहते थे ताकि नई पीढ़ी निस्वार्थ भाव से समाज एवं राष्ट्र की सेवा कर सके।

पंडित मदन मोहन मालवीय शिक्षा को मानव मात्र का अधिकार मानते थे तथा इसका समुचित प्रबन्ध करना राज्य का कर्त्तव्य मानते थे। वे शिक्षा की एक ऐसी राष्ट्रीय प्रणाली विकसित होते देखना चाहते थे जिसमें प्रारम्भिक और माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा नि:शुल्क हो। वे कहते थे ‘‘सब स्तर पर शिक्षा का ऐसा प्रबन्ध हो कि कोई बच्चा निर्धन होने के कारण उससे वंचित न रह पाये।’’ उनका मानना था कि शिक्षा के व्यापक विस्तार से सामाजिक कुरीतियों और आर्थिक विषमताओं को दूर किया जा सकता है।

महामना पुरूषों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण स्त्रियों की शिक्षा को मानते थे। इसका कारण यह है कि वे ही देश की भावी संतान की मातांए हैं। उनकी इच्छा थी कि राष्ट्रीय कार्यक्रम के आधार पर स्त्रियों को इस तरह शिक्षित किया जाये कि उनमें प्राचीन तथा आधुनिक संस्कृतियों के बेहतर पक्षों का समन्वय हो। वे नारियों को इतना सबल बनाना चाहते थे कि वे भारत के पुनर्निमाण में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।

शिक्षा का उद्देश्य 

महामना को शिक्षा में वह शक्ति दिखती थी जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों के विकास के लिए आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के व्यापक उद्देश्य निर्धारित किए।

1. व्यक्तित्व का सर्वागींण विकास- महामना शिक्षा के द्वारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास चाहते थे। केवल बौद्धिक विकास को वे अर्थहीन मानते थे। विद्याथ्री के बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक पक्षों के समन्वित विकास को महामना ने शिक्षा का परम लक्ष्य माना।

2. शारीरिक विकास- महामना का मानना था कि दुर्बल शरीर वाले व्यक्ति सबल राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। उनके अनुसार शिक्षा व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य शारीरिक विकास है। ‘मेरा बचपन’ नामक लेख में महामना ने लिखा ‘‘स्वास्थ्य के तीन खम्भे हैं- आहार, शयन और ब्रह्मचर्य। तीनों की युक्तिपूर्वक सेवन करने से स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।’’ वे चाहते थे कि प्रत्येक विद्याथ्री पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे तथा प्रतिदिन नियम से व्यायाम करे। उनका मानना था कि ब्रह्मचर्य ही व्यक्ति को आत्मबल देता है, जिसके द्वारा व्यक्ति संसार में सब कष्टों और कठिनाईयों का साहस के साथ सामना कर सकता है।

3. चरित्र गठन हेतु शिक्षा- महामना की दृष्टि में चरित्र गठन शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य है। विनम्रता विहीन ज्ञान, उनकी दृष्टि में निरर्थक है। वे व्यक्ति के उत्कर्ष और राष्ट्र की उन्नति के लिए उज्ज्वल चरित्र को बौद्धिक तथा व्यवसायिक विकास से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। उनके अनुसार सदाचार मनुष्य का परमधर्म है, उसका पालन मनुष्य का पुनीत कर्तव्य तथा उसकी वृद्धि उसका पुरूषार्थ है।

4. राष्ट्रीयता की भावना का विकास- महामना मालवीय ने शिक्षा के एक महत्वपूर्ण उद्देश्य राष्ट्रभक्ति की भावना का विकास बताया। उनके अनुसार शिक्षित व्यक्ति को राष्ट्र के प्रति नि:स्वार्थ भक्ति भाव रखना चाहिए। उन्होंने कहा ‘‘यह भारत हमारा देश है। सभी बातों के विचार से इसके समान संसार में कोई दूसरा देश नहीं है। हमको इस बात के लिए कृतज्ञ और गौरवान्वित होना चाहिए कि उस कृपालु परमेश्वर ने हमें इस पवित्र देश में पैदा किया।’’ महामना ने भारतीय राष्ट्रीयता का आधार ‘हिन्दुत्व’ माना। अत: वे हिन्दुत्व पर आधारित राष्ट्रभक्ति की शिक्षा का उद्देश्य बनाना चाहते थे। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि महामना की ‘हिन्दू’ की धारणा बड़ी व्यापक थी। भा

रत के सभी निवासियों को वे हिन्दू मानते थे। वस्तुत: हिन्दुत्व को वे एक श्रेष्ठ जीवन शैली के रूप में देखते थे। वे हिन्दुत्व पर आधारित भारतीय संस्कृति का हर तरह से विकास करना चाहते थे।

5. सेवा भावना का विकास- महामना की दृष्टि में सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। वे सभी जीवों में ईश्वर का अंश देखते थे। उनका मानना था कि पीड़ित, वंचित, दुखी व्यक्ति की सेवा वस्तुत: ब्रह्म प्राप्ति का सबसे उपयुक्त साधन है। वे विद्याथ्री में सेवा एवं सदाचार का भाव प्रारम्भ से ही विकसित करना चाहते थे। इस प्रकार महामना मदन मोहन मालवीय ने शिक्षा का अत्यन्त ही विस्तृत उद्देश्य रखा। वे शिक्षा द्वारा राष्ट्रभक्त, सदाचारी, चरित्रवान, स्वावलम्बी भारतीय नागरिक का निर्माण करना चाहते थे।

पाठ्यक्रम 

पाठ्यक्रम का निर्माण शैक्षिक आदर्शों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। पाठ्यक्रम से ही इस तथ्य का निर्धारण होता है कि किस स्तर पर किस चीज की शिक्षा देनी है। पाठ्यक्रम कोई निर्धारित वस्तु नही है जो हर समय हर स्थान पर एक जैसी रहे। हर समाज और देश अपनी आवश्यकतानुसार पाठ्यक्रम निर्धारित करता है। अर्थात् देश, काल और परिस्थिति के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण होता है और नई परिस्थितियों में पाठ्यक्रम में संशोधन और परिमार्जन होता रहता है।

महामना ने यह महसूस किया कि संकुचित पाठ्यक्रम द्वारा राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अत: उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अत्यन्त ही लचीले पाठ्यक्रम को अपनाया। महामना ने अपने विश्वविद्यालय में प्राचीन से लेकर अर्वाचीन- सभी उपयोगी विषयों को स्थान देने का प्रयास किया। महामना देश के विकास हेतु विज्ञान की शिक्षा आवश्यक मानते थे, अत: उन्होंने आधुनिक विज्ञान की शिक्षा पर जोर दिया।

व्यक्ति आत्मनिर्भर बने अत: बुनाई, रंगाई, धुलाई, धातुकर्म, काष्ठ-कला, मीनाकारी आदि की शिक्षा पर मालवीय ने बल दिया। भारत एक कृषि प्रधान देश है अत: महामना ने इस ओर विशेष ध्यान देते हुए कृषि के आधुनिकतम उपकरणों के प्रयोग की शिक्षा की उच्चतम व्यवस्था की। वे चाहते थे कि माध् यमिक स्तर पर कृषि सम्बन्धी शिक्षा दी जाये तथा उच्च स्तर पर भी इस विषय में अनुसन्धान किये जाये।

इसके साथ-साथ महामना ने चिकित्सा विज्ञान, आयुर्वेद, नक्षत्र विज्ञान, भाषा आदि सभी की शिक्षा पर जोर दिया जिससे विद्याथ्री अपनी रूचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सके। महामना ने वस्तुत: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को प्राचीन एवं नवीन ज्ञान का संगम स्थल बना दिया। प्राचीन भारतीय आयुर्वेद के साथ आधुनिक शल्यशास्त्र का मेल, आयुर्वेदिक औषधियों का वैज्ञानिक परीक्षण तथा उन पर अनुसन्धान, विभिन्न विषयों पर प्राच्य और पाश्चात्य ज्ञान का तुलनात्मक और समन्वयात्मक अध्ययन, प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शनशास्त्र, साहित्य और इतिहास के गम्भीर अध्ययन-अध्यापन, वेद-वेदांग तथा संस्कृत साहित्य की शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, धातु विज्ञान, खनन कार्य, इंजीनियरिंग तथा कृषि विज्ञान का अध्ययन इसकी विशेषता थी।

पंडित मदन मोहन मालवीय चाहते थे कि विद्यालय में संगीत, काव्य, नाट्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि ललितकलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध हो। उनके विचार में कला विहीन जीवन शुष्क और नीरस होता है, जबकि ललितकलाओं का ज्ञान उनको परखने की क्षमता तथा शुद्ध भावनाओं के साथ उनके प्रति अभिरूचि और उनका सम्यक अभ्यास जीवन को सरस और आनन्दमय बनाता है।

महामना के अनुसार धार्मिक शिक्षा ही चरित्र निर्माण का आधार है। अत: वे शिक्षा में धर्म को उचित स्थान देना चाहते थे। पर धर्म का उनका संप्रत्यय अत्यन्त ही उदार था। वे धार्मिक असहिष्णुता के विरूद्ध थे। जिस धर्म की शिक्षा वे देना चाहते थे उसके संदर्भ में वे कहते हैं ‘‘धर्म यह है कि प्राणी को प्राणी के साथ सहानुभूति हो, एक-दूसरे को अच्छी अवस्था में रखकर प्रसन्न हों और गिरी हुई अवस्था में सहायता दें।’’

अध्यापकों एवं छात्रों के कर्तव्य 

वे विश्वविद्यालय के माध्यम से काशी को सरस्वती की अमरावती बना देने का पावन उद्देश्य रखते थे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अध्यापकों के कर्तव्य बताये-
  1. धर्म और शास्त्र का पालन करेंगे।
  2. सदाचारी रहेंगे 
  3. देश सेवा के कार्यों में रत रहेंगे। 
  4. विद्याथ्री के सर्वांगिण विकास हेतु हर संभव प्रयास करेंगे। 
छात्रों को कार्यों हेतु निर्देश दिये गये-
  1. व्यायाम करके शरीर को बलशाली बनायें।
  2. पहले स्वास्थ्य सुधारें फिर विद्या पढ़ें। 
  3. शाम को खेलें, मैदान में विचरें। 
  4. जल्दी भोजन करें और नियम से नित्य अध्ययन करें।
  5. धार्मिक उत्सवों, एकादशी कथा तथा गीता प्रवचनों आदि में उपस्थित रहें। 
  6. अपनी रक्षा आप करें। 
  7. समय के पाबन्द बनें और इसे नष्ट न करें। 
महामना अध्यापकों में उच्च चरित्र देखना चाहते थे ताकि छात्र उनसे प्रेरणा ग्रहण कर स्वंय चरित्रवान, सदाचारी और समाजसेवी बन सके। इसी उद्देश्य से विश्वविद्यालय को आवासीय बनाया गया।

इस प्रकार महामना अध्यापक एवं विद्याथ्री दोनों से ही उत्तम चरित्र और श्रेष्ठ व्यवहार की आशा रखते थे।

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