परामर्श के प्रकार : निदेशात्मक, अनिदेशात्मक, समन्वित परामर्श

परामर्श के प्रकार

परामर्श के प्रकार paramarsh ke prakar कुछ विद्वानों ने परामर्श के तीन प्रकारों का उल्लेख किया है यथा-
  1. निदेशात्मक परामर्श-इस प्रकार के परामर्श में परामर्शक ही सम्पूर्ण प्रक्रिया का निर्णायक होता है। प्रत्याशी परामर्शदाता के ओदशों के अनुकूल अपने को ढालता है। इसे कभी-कभी आदेशात्मक परामर्श भी कहते हैं। इस क्रिया के मूल में परामर्शक ही रहता है। 
  2. अनिदेशात्मक परामर्श-इस प्रकार के परामर्श में  परामर्श प्रार्थी का विशेष महत्व होता है। इसमें वह अपनी समस्या प्रस्तुत करने तथा समस्या के समाधान की प्रक्रिया में बिना किसी शंका या संकोच के परामर्शक से राय माँगता है। इसे सेवार्थी-केन्द्रित परामर्श कहते हैं। इसकी विषद व्याख्या आगे की जाएगी। 
  3. समन्वित परामर्श-इसमें परामर्शक न अति सक्रिय रहता है और न अति उदासीन रहता है। उसकी भूमिका अत्यन्त मधुर एवं मुलायम होती है।

1. निदेशात्मक परामर्श 

विलियम्सन (1950) नामक विद्वान इसका जनक माना जाता है। उसके अनुसार निदेशात्मक परामर्श में तार्किकता एवं प्रभाव दोनों को ध्यान में रखा जाता है। उसने परामर्श को एक प्रभावकारी सम्बन्ध माना है और बल दिया है कि इस में बहस, विश्लेषण, तर्क-वितर्क आदि सम्मिलित रहता है किन्तु यह परामर्श किसी भी प्रकार औपचारिक नहीं होने पाता। 

इस प्रकार के परामर्श का सिद्धान्त विलियम्सन ने व्यावसायिक परामर्श से लिया और बाद में इसका समन्वयन शैक्षिक एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी निर्देशन से कर दिया। 

यह परामर्श साक्षात्कार एवं प्रश्नावली पद्धति से दिया जाता है विलि एव एण्ड्र ने अपनी पुस्तक ‘‘माडर्न मेथड्स एण्ड टेक्निकस इन गाइडेंस’’ में निदेशात्मक परामर्श की विशेषताएं बतायी हैं -
  1. परामर्शदाता अधिक योग्य, प्रशिक्षित, अनुभवी एवं ज्ञानी होता है वह अच्छा समस्या समाधान दे सकता है। 
  2. परामर्श एक बौद्धिक प्रक्रिया है। 
  3. परामर्श प्रार्थी पक्षपात व सूचनाओं के अभाव में समस्या निदान नहीं कर सकता। 
  4. परामर्श का उद्देश्य समस्या समाधान अवस्था माध्यम से निर्धारित किये जाते हैं। 
निदेशात्मक परामर्श की मूलभूत मान्यताएँ-
  1. इस परामर्श का उद्देश्य सेवार्थी के व्यक्तित्व का अधिकतम विकास है। 
  2. प्रत्येक व्यक्ति की कुछ विशिष्टताएँ होती हैं। जिनका विकास समाज में रहकर ही हो सकता है। 
  3. परामर्श स्वैच्छिक होता है। 
  4. परामर्श की प्रकृति उपचारात्मक होती है। यह तभी उपलब्ध कराया जाता है जब समस्या उत्पन्न होती है। 
  5. परामर्श में मूल्यांकन की व्यवस्था नहीं होती। 
  6. परामर्शदाता की दृष्टि प्रार्थी की समस्याओं तथा वैयक्तिक विकास पर केन्द्रीत रहता है। 
  7. परामर्श प्रार्थी को सम्मान दिया जाता है।
निदेशात्मक परामर्श प्रक्रिया में निहित सोपान-
  1. विश्लेशषात्मक-इसके अन्तर्गत सर्वप्रथम व्यक्ति के मूल्यांकन हेतु परामर्शदाता व्यक्ति से सम्बन्धित सूचनाएँ एवं आँकड़े एकत्र करता है। इसके अतिरिक्त वह संकलित अभिलेख, साक्षात्कार एवं अन्य लोगों की मदद भी लेता है। प्रदत्तों के विश्लेषण हेतु चिकित्सीय मनोमितीय एवं पाश्र्वचित्र का प्रयोग किया जाता है। 
  2. संश्लेषण-विलियम्स के अनुसार प्रार्थी से सम्बन्धित आँकडा़ें एवं सूचनाओं को समझते हुए उसको सारांश रूप में प्रस्तुत करने की क्रिया पर बल दिया जाता है। इसके लिए प्रत्याशी से साक्षात्कार, वार्ता एवं संगोष्ठी करके तथ्यों को इकट्ठा किया जाता है। 
  3. निदान-परामर्शप्रार्थी की समस्याओं की पहचान इस स्तर पर की जाती है। समस्या के कारणों तक पहुंचने का भी प्रयास किया जाता है। 
  4. पूर्वामान-इस सोपान में प्रत्याशी की समस्याओं के सम्बन्ध में पूर्व कथन किये जाते हैं। इसका स्वरूप मूलत: परिकल्पनात्मक होता है। 
  5. परामर्श-निदेशात्मक परामर्श में प्रयुक्त प्राय: यह अन्तिम सोपान हैं जिसमें प्रत्याशी से जानकारी प्राप्त करके समस्या का समाधान किया जाता है। 
  6. अनुगमन-इस स्तर पर प्रत्याशी को दिये गये परामर्श का पुनव्र्यवस्थापन किया जाता है। विलियम्सन ने अनुगमन हेतु कई सोपानों की चर्चा की है, जैसे प्रत्याशी से सम्पर्क करना, प्रत्याशी में आत्म-विश्वास उत्पन्न करना, प्रत्याशी को निर्देशित करना कि वह अपना मार्ग स्वयं निर्धारित कर ले, उसकी समस्याओं की विषद् व्याख्या करना आदि। यदि आवश्यकता हो तो प्रत्याशी को अन्य सक्षम कार्यकर्ताओं के पास भी भेजा जा सकता है।
    1. विलियम्सन एवं डार्ले ने अपनी पुस्तक ‘‘स्टूडेन्टस परसनेल वर्क’’ में सोपानों का स्पष्ट उल्लेख किया है : 
    2. विभिन्न विधियों तथा उपकरणों के माध्यम से आँकड़े संग्रहित कर उनका विश्लेषण करना।
    3. आँकड़ों का यान्त्रिक व आकृतिक संगठन कर उनका संश्लेषण करना । 
    4. छात्र की समस्या के कारणों को ज्ञात कर निदान ज्ञात करना।
    5. परामर्श या उपचार। 
    6. मूल्यांकन या अनुगमन। 
निदेशात्मक परामर्श के लाभ -
  1. इस प्रकार के परामर्श से समय की बचत होती है। 
  2. इस में समस्याओं पर विशेष बल दिया जाता है। 
  3. परामर्शदाता तथा प्रार्थी में आमने-सामने बात होती है। 
  4. परामर्शदाता का ध्यान प्रत्याशी की भावनाओं की अपेक्षा उसकी बुद्धि पर टिकता है। 
  5. परामर्शदाता सहज रूप में उपलब्ध रहता है।
निर्देशात्मक परामर्श की कमियाँ -
  1. प्रत्याशी पूर्णतया परामर्शक पर निर्भर रहता है। 
  2. प्रत्याशी के स्वतन्त्र न होने के कारण उस पर परामर्श का प्रभाव कम पड़ता है। 
  3. प्रत्याशी के दृष्टिकोण का विकास न हो पाने के कारण वह अपनी समस्या का निराकरण स्वयं नहीं कर पाता। 
  4. परामर्शदाता के प्रधान होने से प्रार्थी में अपनी क्षमताओं को उत्पन्न करना कठिन हो जाता है। 
  5. प्रत्याशी के विषय में अपेक्षित सूचनाओं के अभाव में उत्तम परामर्श नहीं मिल पाता। 
  6. परामर्शदाता के अधिक महत्व से मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं हो पाती। 

2. अनिदेशात्मक परामर्श 

निदेशात्मक परामर्श के प्रतिकूल यह प्रत्याशी केन्द्रित परामर्श है। इसमें प्रार्थी के आत्मज्ञान, आत्मसिद्धि तथा आत्मनिर्भरता पर विशेष दृष्टि रखी जाती है। इसे समस्या-केन्द्रित परामर्श भी कहा जाता है। इस प्रकार के परामर्श के प्रमुख प्रवर्तक कार्ल रोजर्स माने जाते हैं। यह परामर्श अपेक्षाकृत नवीन है और इसके अन्तर्गत व्यक्तित्व विकास, समूह-नेतृत्व, शिक्षा एवं अधिगम, सृजनात्मक आदि सम्मिलित है। परामर्शक ऐसे वातावरण का सृजन करता है जिसमें सेवार्थी स्वतन्त्र रूप से इच्छानुसार अपना निर्माण कर सके।

यह परामर्श प्रार्थी के इर्द-गिर्द घूमती हैं। इसमें प्रार्थी को आत्मप्रदर्शन, भावनाओं, विचारों एवं अभिवृित्त्ायों को रखने के लिये स्वतन्त्रता दी जाती है। परामर्शदाता निरपेक्ष रहता है। वह बीच में बाधक नहीं बनता और स्वयं दोनों के मध्य बेहतर समन्वयन का प्रयास करता है। इसमें खुले प्रश्न पूछे जाते हैं और ये प्रश्न हल्की संरचना के होते है। उत्तर परामर्श प्रार्थी स्वयं देता है। परामर्शदाता प्राप्त जानकारी का विश्लेषण कर अर्थ निकालता है। 

प्रार्थी को बोलते समय सही विधा के लिये प्रोत्साहित किया जाता है और प्रार्थी को आभास होता है कि परामर्शदाता उसके विचारों को सम्मान दे रहा है। परामर्शदाता सत्य को जानने हेतु प्रश्न नहीं पूछता। इस प्रक्रिया में सभी को प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक की तरह ही अधिकार होता है और प्रार्थी स्वयं विद्वान तथा समझदार की तरह ही प्रतिक्रिया करता है।

अनिदेशात्मक परामर्श की मान्यताएँ -
  1. व्यक्ति के अस्तित्व में आस्था-राजे र्स व्यक्ति के अस्तित्व को मानता है और उसका यह विश्वास है कि व्यक्ति अपने विषय में निर्णय लेने में सक्षम है। 
  2. आत्मसिद्धि की प्र्रवृित्त-प्रत्याशी में आत्मसिद्धि, आत्मविकास तथा आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति होती है। रोजर्स यह मानते हैं कि व्यक्ति की अन्तर्निहित क्षमता होती है।
  3. मानवता में विश्वास-मनुश्य मूलत: सद्भावी तथा विश्वसनीय होता है। कभी-कभी व्यक्ति के जीवन में ऐसी उत्तेजना उभरती है जो उसे सन्मार्ग से दूर हटाने का प्रयास करती है। ऐसी स्थिति में परामर्श के माध्यम से उनका शमन किया जाता है और व्यक्ति को सन्मार्गोन्मुख किया जाता है।
  4. मानव की बुद्धिमत्ता में विश्वास-इस निमित्त राजेर्स व्यक्ति की बुद्धिमता में अधिक विश्वास रखता है। उसकी मान्यता है कि विषम परिस्थितियों में वह अपनी चैतन्यता का प्रयोग करता है और संगठन से ऊपर उठ कर अपनी कार्य सिद्धि करता है।
उपर्युक्त के अतिरिक्त विलियम स्नाइडर ने चार अन्य मान्यताओं को स्वीकृति दी है-
  1. व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं निर्धारित कर सकता है। 
  2. अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में उसे संतोश होता है। 
  3. अनिदेशात्मक परामर्श में प्रत्याशी अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए स्वतन्त्र रहता है। अत: परामर्श के पश्चात वह स्वयं निर्णय लेने में सक्षम हो जाता है। 
  4. व्यक्ति के समायोजन में उसका सांवेगिक द्वन्द्व बाधक होता है। 
  5. अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में उसे संतोष होता है।
अनिदेशात्मक परामर्श के प्रमुख सिद्धान्त -
  1. प्रार्थी का समादर-अनिदेशात्मक परामर्श में सेवार्थी की सत्यनिष्ठा और उसकी व्यक्तिगत स्वायतत्ता को समाहित किया जाता है। परामर्शक परामर्श देता है किन्तु निर्णय प्रत्याशी पर छोड़ देता है। 
  2. समग्र व्यक्तित्व पर ध्यान-प्रार्थी के व्यक्तित्व के सम्यक् विकास पर परामर्शक का ध्यान रहता है। अनिदेशात्मक परामर्श का यह दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है। इसके अन्तर्गत प्रत्याशी की क्षमता का इस प्रकार विकास किया जाता है कि वह अपनी समस्या का निदान स्वयं कर सके। 
  3. सहिष्णुता का सिद्धान्त-विचार-स्वातंत्र्य की स्थिति में परामर्शक को अपनी सहिश्णुता एवं स्वीकृति का परिचय देना पड़ता है। परामर्शदाता प्रत्याशी में यह भावना उत्पन्न् करना चाहता है कि प्रत्याशी की बातें ध्यान से सुनी जा रही हैं और परामर्शक उसके विचारों से सहमत है। 
  4. परामर्श प्रार्थी में अपनी क्षमताओं को जानने और समझने की शक्ति उत्पन्न् करना-परामर्श प्रार्थी के सम्मुख परामर्शदाता ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करता है कि वह अपने में निहित क्षमताओं को पहचान सके और परिस्थितियों से समायोजन करना सीख सके। परामर्श के माध्यम से ही ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की जाती है।
परामर्श प्रक्रिया में निहित सोपान -
  1. वार्तालाप-परामर्शक तथा प्रार्थी के मध्य कुछ औपचारिक तथा कुछ अनौपचारिक बैठकें होती हैं। बैठकों का उद्देश्य परामर्शक तथा प्रार्थी के मध्य सौहार्दपूर्ण वातावरण का निर्माण करना है ताकि परामर्श प्रार्थी अपनी बात स्वतन्त्र रूप से प्रस्तुत कर सके। इसे मैत्री-उपचार भी कहते है। 
  2. जाँच पड़़ताल-इस सोपान के अन्तर्गत परामर्शक अनके विधियों का प्रयोग करता है। इनमें से कुछ प्रत्यक्ष विधियाँ होती हैं और कुछ परोक्ष विधियाँ होती है। इसका मुख्य उद्देश्य सेवार्थी के सम्बन्ध में हर प्रकार की जानकारी प्राप्त करना है। 
  3. संवेग-विमोचन-परामर्शप्रार्थी एक समस्या युक्त व्यक्ति है जिसके अपने संवेग तथा तनाव होते है। वह अपनी समस्या को परामर्शक के सम्मुख तभी रख पाता है जब उसके मनोभावों को पूर्णतया विमोचित कर दिया जाय। इसलिए तृतीय सोपान में परामर्शक का यह प्रयास होता है कि प्रत्याशी सभी पूर्वाग्रहों तथा तनावों से मुक्त होकर अपनी समस्या प्रस्तुत करें। 
  4. सुझावों पर चर्चा-इसमें प्रत्याशी की भूमिका प्रमुख होती है। परामर्शक द्वारा दिये गये सुझावों पर वह आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाता है और उस पर टीका-टिप्पणी करता है। 
  5. योजना का निर्माण-समस्याओं के प्रस्तुतीकरण के लिए किसी योजना-निर्माण का अवसर प्रत्याशी को दिया जाता है। इस योजना निर्माण में परामर्शदाता एवं प्रार्थी दोनों का सहयोग होता है। 
  6. योजना क्रियान्वयन एवं प्रार्थी-बनायी गयी योजना का क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन इस सोपान के अन्तर्गत होता है। 

निदेशात्मक तथा अनिदेशात्मक परामर्श में अन्तर 

परामर्शप्रार्थी का हित दोनों का लक्ष्य है किन्तु इस लक्ष्य की प्राप्ति के साधन भिन्न है। अन्तर साधन का है, प्रविधि का है, लक्ष्य का नहीं। फिर भी अन्तर के  बिन्दु दृष्ट हैं-
  1. निदेशात्मक परामर्श यह मानकर चलता है कि प्रत्याशी अपनी समस्या से इतना दबा रहता है कि वह अपनी क्षमता को न तो पहचान पाता है और न अपने पूर्वाग्रह से मुक्त हो पाता है। इसके विपरीत अनिदेशात्मक परामर्श यह मानता है कि सेवार्थी क्षमतायुक्त है और स्वतन्त्र वातावरण पाने पर वह अपनी समस्या का समाधान स्वयं कर सकता है। 
  2. व्यक्ति का चिन्तन बुद्धि एवं संवेग का सम्मिश्रण है। वह कभी एक का प्रयोग करता है कभी दूसरे का। निदेशात्मक परामर्श प्रत्याशी की बुद्धि पर अधिक बल देता है और उसी के अनुरूप परामर्श प्रदान करता है। अनिदेशात्मक परामर्श व्यक्ति के संवेग पर बल देता है और प्रयास करता है कि व्यक्ति अपने तनावग्रस्त मनोभावों से मुक्त होकर परामर्षित हो। 
  3. निदेशात्मक परामर्श समस्या-केन्द्रित है और अनिदेशात्मक परामर्श व्यक्ति-केन्द्रित है। एक में समस्या को दृष्टिगत करके और दूसरे में प्रत्याशी को दृष्टि में रखकर परामर्श दिया जाता है। 
  4. निदेशात्मक परामर्श विश्लेषणात्मक है और अनिदेशात्मक परामर्श संष्लेशणात्मक है। 
  5. निदेशात्मक परामर्श समयबद्ध है जबकि अनिदेशात्मक परामर्श है। दूसरे प्रकार के परामर्श में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है। 
  6. निदेशात्मक परामर्श में प्रत्याशी के विगत जीवन का कोई सहारा नहीं लिया जाता जबकि अनिदेशात्मक में उसके अतीत के विषय में जानना आवश्यक होता है।
अनिदेशात्मक परामर्श से लाभ -
  1. अनिदेशात्मक परामर्श निश्चय रूप में स्वीकार करता है कि प्रत्याशी में विकास की क्षमता निहित है। 
  2. प्रत्याशी उन्मुख होने के कारण किसी अन्य प्रकार के परख की आवश्यकता नहीं होती। 
  3. इसमें व्यक्ति को तनाव रहित बनाने का प्रयास किया जाता है और अवचेतन मन की गुत्थियों को उभार कर चेतनमन में लाया जाता है। 
  4. इस प्रकार के परामर्श में जो प्रभाव मानव मस्तिष्क पर छोड़े जाते हैं, वे स्थायी होते हैं। 
सीमाएँ -
  1. यह परामर्श मनोविश्लेषणात्मक तह तक नहीं पहुँच पाता। 
  2. इसमें समस्याओं की अभिव्यक्ति का अवसर दिया जाता है किन्तु समस्याओं की उत्पित्त के कारणों का निदान नहीं होता। 
  3. कभी-कभी प्रत्याशी न तो अपनी समस्या को ठीक से समझ पाता है और न ठीक से प्रस्तुत ही कर पाता है। 
  4. कभी-कभी परामर्शक की उदासीनता के कारण प्रत्याशी अपनी समस्या को स्पष्ट करने में असफल रहता है।
  5. कई बार अधिक लचीलेपन से उचित परिस्थितियाँ नहीं बन पाती। 
  6. परामर्शदाता प्राथ्र्ाी के संसाधन, निर्णय एवं विद्वता पर विश्वास नहीं कर सकता। 
  7. सभी समस्या मौखिक रूप से निदान नहीं हो पाती। 
  8. परामर्शदाता के निरपेक्ष होने से प्राथ्र्ाी सही सूचना नहीं देता। 

3. समन्वित परामर्श 

वह एक मध्यम वर्गीय प्रविधि है। इसके प्रमुख प्रवर्त्त्ाकों में एफ0सी0 टोम का नाम उल्लेखनीय है। समन्वित परामर्श में निदेशात्मक से अनिदेशात्मक की ओर बढ़ते हैं। यह प्रविधि पूर्णतया व्यक्ति, परिस्थिति तथा समस्या पर आधारित होती है। इसके अन्तर्गत जिन तकनीकों का प्रयोग किया जाता है उनमें प्रत्याशी में विश्वास जगाना, उसे सूचनाएँ प्रदान करना, परीक्षण करना आदि हैं। इस प्रविधि में परामर्शदाता व प्राथ्र्ाी दोनों सक्रिय एवं सहयोगी होते हैं और निदेशात्मक व अनिदेशात्मक दोनों ही प्रविधियों के प्रयोग के कारण दोनों बारी-बारी से वार्ता में प्रतिभाग करते हैं और समस्या का समाधान मिलकर निकालते है।

समन्वित परामर्श की प्रक्रिया -
  1. प्रत्याशी के व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं तथा उसकी आवश्यकताओं का अध्ययन-इसके अन्तगर्त परामर्श प्रार्थी की आवश्यकताओं उसकी समस्याओं तथा उसके व्यक्तिगत विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है। परामर्श की प्रक्रिया में आगे बढ़ने के पूर्व परामर्शक प्रत्याशी के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेता है। 
  2. उचित तकनीक का चयन-परामर्शप्रार्थी की आवश्यकताओं समस्याओं तथा अपेक्षाओं से पूर्णतया अवगत हो जाने के उपरान्त परामर्शक उचित प्रविधि या तकनीक का चयन करता है। 
  3. तकनीकों का प्रयोग-तकनीक का चयन परामर्शक किसी विशिष्ट परिस्थिति में ही करता है। परिस्थिति का चयन समस्या की प्रकृति एवं प्रत्याशी का स्वभाव देखकर किया जाता है। 
  4. प्रयुक्त तकनीकों के प्रभावों का मूल्यांकन-अनेक विधियों का प्रयोग करके यह देखा जाता है कि प्रत्याशी को परामर्शित करने में जो तकनीक प्रयोग में लाये गये उनका प्रत्याशी पर क्या प्रभाव पड़ा। 
  5. परामर्श की तैयारी-इस स्तर पर परामर्श एवं निर्देशन हेतु उचित तैयारी की जाती है। 
  6. प्रत्याशी के विचारों से अवगत होना-सम्पूर्ण प्रक्रिया के विषय में प्रत्याशी के विचार जानने के प्रयास किये जाते हैं। 
समन्वित परामर्श की विशेषताएँ - एफ0सी0 टोम के अनुसार समन्वित परामर्श की विशेषताएँ हैं-
  1. इस प्रकार के परामर्श में समन्वयक विधि का प्रयोग किया जाता है। 
  2. मुख्य भूमिका परामर्शप्रार्थी की होती है और परामर्शक प्राय: उदासीन रहता है।
  3. कार्य क्षमता पर अधिक बल दिया जाता है। सम्पूर्ण प्रक्रिया परामर्शक, परामर्शप्रार्थी की समस्या-समाधान की क्षमता के इर्द-गिर्द घूमती है। 
  4. यह प्रक्रिया कम खर्चीली है। प्राय: सभी प्रविधियों का प्रयोग कर लिया जाता है।
  5. प्रत्याशी, उसकी समस्या तथा उसकी स्थिति को देखते हुए परामर्शक के सम्मुख निदेशात्मक तथा अनिदेशात्मक के विकल्प खुले रहते हैं। 
  6. प्रत्याशी को समस्या का समाधान निकालने का पूर्ण अवसर प्रदान किया जाता है। 
समन्वित परामर्श की सीमायें -
  1. अधिकांशत: लोग इस प्रक्रिया को ठीक से समझ नहीं पाते और इसे अवसर प्रधान कहते हैं।
  2. दोनों अनिदेशात्मक व निदेशात्मक प्रविधि को जोड़ा नहीं जा सकता। 
  3. प्रार्थी को स्वतन्त्रता देने के आधार और उसकी सीमा पर कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। 
  4. दोनों प्रविधियों के मिलाने से उचित मार्ग चयन और परिणाम प्राप्ति में भी दुविधा होती है।

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