पंचायती राज व्यवस्था क्या है भारत में पंचायती राज की स्थिति व सुदृढ़ीकरण के प्रयास।

'पंचायत' का शाब्दिक अर्थ 'पाँच पंचों की समिति' से है। प्राचीनकाल म ग्रामों के झगड़ों के निराकरण हेतु पाँच पंचों की समिति की व्यवस्था को अपनाया गया था। इस व्यवस्था के अंतर्गत 'पंचायत' शब्द का जन्म हुआ है। 

पंचायती राज

ग्राम पंचायत का कार्य ग्रामों तक ही सीमित होता है। प्रायः जनसंख्या एवं क्षेत्र के हिसाब से ग्राम बहुत छोटे होते हैं एवं विभिन्न मजरे, टोले अथवा बस्तियों का समूह होते हैं वे अपनी समस्त आवश्यकता स्वयं पूर्ण नहीं कर सकते हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु, उन्हें निकटस्थ आबादी का सहारा लेना पड़ता है। इस परस्पर अन्योन्नाश्रितता के बिना कोई भी ग्राम अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता है। प्रत्येक ग्राम के लिये अलग से विद्यालय, स्वास्थ्य केंद्र, कृषि, सिंचाई, पीने के पानी की व्यवस्था, स्वच्छता आदि कार्य, स्थानीय शासन द्वारा सुगमता से किये जा सकते हैं । जो व्यक्ति स्थानीय सरकार चलाते हैं, वे जनता द्वारा निर्वाचित होते हैं। स्थानीय सरकार, हमारे देश की सरकार का एक लघु रूप है। स्थानीय स्तर पर कार्य करने वाले प्रतिनिधियों को, शासन चलाने का प्रशिक्षण तथा अनुभव प्राप्त होता है जिससे उनमें आत्मनिर्भरता की भावना का विकास होता है।

आसपास के ग्रामों की कुछ सामान्य समस्याएं होती हैं। अतः कुछ ग्राम पंचायतों को मिलाकर एक विकासखण्ड अथवा जनपद का निर्माण किया जाता है। इस विकासखण्ड अथवा जनपद के लिये एक समिति कार्य करती है, जिसे जनपद पंचायत कहा जाता है। इसी प्रकार, जिला स्तर पर कार्य करने वाली संस्था को जिला पंचायत कहते हैं । इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्र में सामुदायिक विकास के लिये तीन संस्थाएँ कार्य करती है। ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, विकासखण्ड स्तर पर जनपद पंचायत तथा जिला स्तर पर जिला पंचायत। स्थानीय शासन की इन तीनों संस्थाओं को मिलाकर, पंचायती राज कहा जाता है। 

भारतीय संविधान में पंचायती राज व्यवस्था

एक सभ्य राज्य के लिये संविधान का होना आवश्यक है । संविधान के बिना न राज्य का और न ही नागरिकों के जीवन का संपूर्ण विकास संभव है। इसी उद्देश्य से स्वतंत्र भारत के नागरिकों द्वारा एक नवीन संविधान के निर्माण हेतु संविधान सभा (1946) का गठन किया गया।

पंचायती राज की कल्पना स्वाधीनता संघर्ष के दौरान आकल्पित की जा चुकी थी । राष्ट्रपिता महात्मा गाधी ने भी भारत में पंचायतों के माध्यम से स्वराज्य लाने की कल्पना की थी। वे चाहते थे कि प्रत्येक ग्राम में वहाँ के निवासियों का शासन ऐसी पंचायत के माध्यम से हो जिसके पास संपूर्ण सत्ता एवं शक्ति हो । राष्ट्रपिता की इसी कल्पना को साकार रूप देने के लिये के. संथानम के प्रस्ताव पर बहस के पश्चात भारत के संविधान के अध्याय - चार म राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत पंचायत विषयक प्रावधान रखा गया और राज्य को इन शब्दों में निर्देशित किया गया- " राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिये कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिये आवश्यक हो ।”
पंचायती राज व्यवस्था का स्वरूप कैसा हो और उसे किस प्रकार लागू किया जाय? इस संबंध में संविधान मौन है। इस कार्य के लिये 1956 में राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसने 1957 को प्रस्तुत एक प्रतिवेदन में यह स्पष्ट मत प्रस्तुत किया कि - “ग्रामीण क्षेत्रों के सभी विकास कार्यों को वहन करने के लिये एक व्यापक प्रतिनिधि वाली जनतांत्रिक संस्था की स्थापना हो, जिस पर शासन अथवा अभिकर्ता इकाई का बहुत अधिक नियंत्रण न हो ।”

इस तरह समिति ने पंचायती राज संस्था को विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के रूप में तीन स्तरों वाली व्यवस्था कायम करने की पैरवी की। जनवरी 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा इसका अनुमोदन किया गया ।

सर्वप्रथम 02 अक्टूबर 1959 का पं. नेहरू ने राजस्थान के नागौर ज़िले में पंचायती राज का उद्घाटन किया । इस ढाँचे के निम्नतम स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समिति तथा केंद्र स्तर पर ज़िला परिषद् के गठन किया जाना प्रावधानित किया गया। इस प्रकार पंचायती राज की स्थापना भारतीय लोकतंत्र की एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है

मेहता समिति की सिफारिशों को भारत शासन ने स्वीकार कर लिया तथा इसको राज्यों में क्रियान्वित करने हेतु राज्यों से निवेदन किया। सभी राज्यों ने मेहता समिति के प्रस्तावों के आधार व सिद्धांतों के अनुसार अपनी-अपनी विधानसभा के द्वारा निर्मित कानूनों के अनुसार पंचायती राज व्यवस्था का क्रियान्वयन क्षेत्रों की दशा के आधार पर की है । राज्यों द्वारा मेहता समिति की सिफारिशों के अनुसार त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था अपनाये जाने के क्रम में राजस्थान सबसे आगे (1959) में आया। राजस्थान सरकार द्वारा पंचायती राज व्यवस्था अपनाये जाने के बाद भारत में विभिन्न राज्यों में भी इसे लागू किया गया। बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों से अलग हटकर जम्मू-कश्मीर, केरल, मणिपुर तथा त्रिपुरा में केवल एक स्तरीय पंचायत व्यवस्था (केवल ग्राम पंचायतें) हैं। जबकि मेघालय तथा नागालैण्ड में आदिवासी परिषदें गठित की गयी हैं ।

इन विभिन्न राज्यों के पंचायत अधिनियमों द्वारा ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत और जिला पंचायतों के गठन में जनसंख्या के अनुपात में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिये आरक्षण की व्यवस्था को गई है।

भारत में पंचायती राज की स्थिति व सुदृढ़ीकरण के प्रयास

स्वतन्त्रता पूर्व पंचायतों की मजबूती व सुदृढ़िकरण हेतु विशेष प्रयास नहीं हुए इसके विपरीत पंचायती राज व्यवस्था लड़खड़ाती रही। मध्य काल में मुस्लिम राजाओं का शासन भारत के विभिन्न हिस्सों में फैल गया। यद्यपि स्थानीय शासन की संस्थाओं की मजबूती के लिए विशेष प्रयास नहीं किये गये परन्तु मुस्लिम शासन ने अपने हितों में पंचायतों का काफी उपयोग किया। जिसके फलस्वरूप पंचायतों के मूल स्वरूप को धक्का लगा और वे केन्द्र के हाथों की कठपुतली बन गई। सम्राट अकबर के समय स्थानीय स्वशासन कों पुन: मान्यता मिली। उस काल में स्थानीय स्वशासन की इकाइयां कार्यशील बनी। स्थानीय स्तर पर शासन के सारे कार्य पंचायतें ही करती थीं और शासन उनके महत्व को पूर्णत: स्वीकार करता था। लेकिन मुस्लिम काल के इतिहास को अगर समग्र रूप में देखा जाए तो इस काल में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को मजबूती नहीं मिल सकी।

ब्रिटिश काल के दौरान भी प्राचीन पंचायत व्यवस्था लड़खड़ाती रही। अंग्रेजों शासन काल मे सत्ता का केन्द्रीकरण हो गया और दिल्ली सरकार पूरे भारत पर शासन करने लगी। केन्द्रीकरण की नीति के तहत अंग्रेज तो पूरी सत्ता अपने कब्जे में करके एकक्षत्र राज चाहते थे। भारत की विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था उन्हें अपने मनसूबों को पूरा करने में एक रुकावट लगी। इसलिये अंग्रेजो ने हमारी सदियों से चली आ रही स्थानीय स्वशासन की परम्परा व स्थानीय समुदाय की ताकत का तहस-नहस कर शासन की अपनी व्यवस्था लागू की। जिसमें छोट-छोटे सूबे तथा स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं कमजोर बना दी गई या पूरी तरह समाप्त कर दी गई। धीरे धीरे सब कुछ अंग्रेजी सरकार के अधीन होता गया। सरकार की व्यवस्था मजबूत होती गई और समाज कमजोर होता गया। परिणाम यह हुआ कि यहां प्रशासन का परम्परागत रूप करीब-करीब समाप्त प्राय हो गया और पंचायतों का महत्व काफी घट गया।

अंग्रेजी राज की बढ़ती ताकत व प्रभाव से आम आदमी दबाव में था। समाज में असंतोष बढने लगा, जिसके कारण 1909 में ब्रिटिश सरकार द्वारा एक विकेन्द्रीकरण कमीशन की नियुक्ति की गई। 1919 में ‘‘मांटेस्क्यू चेम्सफोर्स सुधार’’ के तहत एक अधिनियम पारित करके पंचायतो को फिर से स्थापित करने का काम प्रांतीय शासन पर छोड दिया । अंग्रेजों की नियत तब उजागर हुई जब एक तरफ पंचायतों को फिर से स्थापित करने की बात कही और दूसरी तरफ गांव वालों से नमक तक बनाने का अधिकार छुड़ा लिया। इसी क्रम में 1935 में लार्ड वैलिग्टन के समय भी पंचायतों के विकास की ओर थोड़ा बहुत ध्यान दिया गया लेकिन कुल मिलाकर ब्रिटिशकाल में पंचायतों को फलने फूलने के अवसर कम ही मिले।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में पंचायती राज 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात पंचायतों के पूर्ण विकास के लिये प्रयत्न शुरू हुए। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी स्वराज और स्वावलम्बन के लिये पंचायती राज के प्रबलतम समर्थक थे। गांधी जी ने कहा था- “सच्चा स्वराज सिर्फ चंद लोगों के हाथ में सत्ता आ जाने से नहीं बल्कि इसके लिये सभी हाथों में क्षमता आने से आयेगा। केन्द्र में बैठे बीस व्यक्ति सच्चे लोकतन्त्र को नहीं चला सकते। इसको चलाने के लिये निचले स्तर पर प्रत्येक गांव के लोगों को शामिल करना पड़ेगा।” गांधी जी की ही पहल पर संविधान में अनुच्छेद 40 शामिल किया गया। जिसमें यह कहा गया कि राज्य ग्राम पंचायतों को सुदृढ़ करने हेतु कदम उठायेगा तथा पंचायतों को प्रशासन की इकाई के रूप में कार्य करने के लिये आवश्यक अधिकार प्रदान करेगा। यह अनुच्छेद राज्य का नीति निर्देशक सिद्धान्त बना दिया गया। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिये विभिन्न कमीशन नियुक्त किये गये, जिन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को पुर्नजीवित करने में महत्वपूर्ण कार्य किया।

भारत में सन् 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम स्थापित किये गये। किन्तु प्रारम्भ में सामुदायिक विकास कार्यक्रमों को कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिल सकी, इसका मुख्य कारण जनता का इसमें कोई सहयोग व रुचि नहीं थी। सामुदायिक विकास कार्यक्रमों को सरकारी कामों के रुप में देख गया और गॉंववासी अपने उत्थान के लिए स्वयं प्रयत्न करने के स्थान पर सरकार पर निर्भर रहने लगी। इस कार्यक्रम के सूत्रधार यह आशा करते थे कि जनता इसमें आगे आये और दूसरी ओर उनका विश्वास था कि सरकारी कार्यवाही से ही यह कार्यक्रम सफल हो सकता है। कार्यक्रम जनता ने चलाना था, लेकिन वे बनाये उपर से जाते थे। जिस कारण इन कार्यक्रमों में लोक कल्याण के कार्य तो हुए लेकिन लोगों की भागीदारी इनमें नगण्य थी। ये कार्यक्रम लोगों के कार्यक्रम होने के बजाय सरकार के कार्यक्रम बनकर रह गये। सामुदायिक विकास कार्यक्रम के असफल हाने के कारणों का अध्धयन करने के एक कमेटी गठित की गयी। जिसका नाम बलवन्त राय मेहता समिति था।

बलवंत राय मेहता समिति 

1957 में सरकार ने पंचायतों के विकास पर सुझाव देने के लिए श्री बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की इस रिपोर्ट में यह सिफारिश की गयी कि सामुदायिक विकास कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए पंचायती राज संस्थाओं की तुरन्त स्थानपा की जानी चाहिए। इसे लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण का नाम दिया गया। मेहता कमेटी के अपनी निम्नलिखित शिफारिशें रखी।
  1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खण्ड(ब्लाक) स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद। अर्थात् पंचायतों की त्रिस्तरीय संरचना बनायी जाये। 
  2. पंचायती राज में लोगों को सत्ता का हस्तानोतरण किया जाना चाहिए।
  3. पंचायती राज संस्थाएं जनता के द्वारा निर्वाचित होनी चाहिए और सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अधिकारी उनके अधीन होने चाहिए। 
  4. साधन जुटाने व जन सहयोग के लिए इन संस्थाओं को पर्याप्त अधिकार दिये जाने चाहिए।
  5. सभी विकास संबंधी कार्यक्रम व योजनाएं इन संगठनों के द्वारा लागू किये जाने चाहिए। 
  6. इन संगठनों को उचित वित्तीय साधन सुलभ करवाये जाने चाहिए। 
राजस्थान वह पहला राज्य है जहां पंचायती राज की स्थापना की गयी।1958 में सर्वप्रथम पंंिडत जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्टूबर को राजस्थान के नागौर जिले में पंचायती राज का दीपक प्रज्जवलित किया और धीरे धीरे गांवों में पंचायती राज का विकास शुरू हुआ। सत्ता के विकेन्द्रीकरण की दिशा में यह पहला कदम था। 1959 में आन्ध्र प्रदेश में भी पंचायती राज लागू किया गया। 1959 से 1964 तक के समय में विभिन्न राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं को लागू किया गया और इन संस्थाओं ने कार्य प्रारम्भ किया। लेकिन इस राज से ग्रामीण तबके के लोगों का नेतृत्व उभरने लगा जो कुछ स्वाथ्र्ाी लोगों की आँखों में खटकने लगा, क्योंकि वे शक्ति व अधिकारों को अपने तक ही सीमित रखना चाहते थे। फलस्वरूप पंचायती राज को तोड़ने की कोशिशें भी शुरू हो गयीं। कई राज्यों में वर्षों तक पंचायतों में चुनाव ही नहीं कराये गये। 1969 से 1983 तक का समय पंचायती राज व्यवस्था के ह्यस का समय था। लम्बे समय तक पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव नहीं करवाये गये और ये संस्थाएं निष्क्रिय हो गयी।

अशोक मेहता समिति 

जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद पंचायतों को मजबूत करने के उद्देश्य से 12 दिसम्बर 1977 को पंचायती राज संस्थाओं में आवश्यक परिवर्तन सुझाने के लिए में श्री “अशोक मेहता” की अध्यक्षा में 13 सदस्यों की कमेटी गठित की गई। समिति ने पंचायती राज संस्थाओं मे आई गिरावट के लिए कई कारणों को जिम्मेदार बताया। इसमें प्रमुख था कि पंचायती राज संस्थाओं को ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों से बिल्कुल अलग रखा गया है। अषोक मेहता समिति ने महसूस किया कि पंचायती राज संस्थाओं की अपनी कमियां स्थानीय स्वषासन को मजबूती नहीं प्रदान कर पा रही है।

इस समिति द्वारा पंचायतों को सुदृढ़ बनाने के लिए निम्न सुझाव दिये गये- 
  1. समिति ने दो स्तरों वाले ढाँचे- जिला परिषद को मजबूत बनाने और ग्राम पंचायत की जगह मण्डल पंचायत की सिफारिश की। अर्थात पंचायती राज संस्थाओं के दो स्तर हों, जिला परिषद व मंडल परिषद। 
  2. जिले को तथा जिला परिषद को समस्त विकास कार्यों का केन्द्र बनाया जाए। जिला परिषद ही आर्थिक नियोजन करें और जिले में विकास कार्यो में सामन्जस्य स्थापित करें और मंडल पंचायतों को निर्देशन दें। 
  3. पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचन में जिला परिषद को मुख्य स्तर बनाने और राजनैतिक दलों की सक्रिय भागीदारी पर बल दिया।
  4. पंचायतों के सदस्यों के नियमित चुनाव की सिफारिश की। राज्य सरकारों को पंचायती चुनाव स्थगित न करने व चुनावों का संचालन मुख्य चुनाव आयुक्त के द्वारा किये जाने का सुझाव दिया।
  5. कमेटी ने यह सुझाव भी दिया कि पंचायती राज संस्थाओं को मजबूती प्रदान करने के लिये संवैधानिक प्रावधान बहुत ही आवश्यक है। 
  6. पंचायती राज संस्थाएं समिति प्रणाली के आधार पर अपने कायोर्ं का सम्पादन करें। 
  7. राज्य सरकारों को पंचायती राज संस्थाओं के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। 
देश के कई राज्यों ने इन सिफारिशों को नहीं माना, अत: तीन स्तरों वाले ढांचे को ही लागू रखा गया। इस प्रकार अशोक मेहता समिति ने पंचायती राज व्यवस्था में सुधार लाने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण शिफारिशें की, किन्तु ग्राम पंचायतों को समाप्त करने की उनकी शिफारिश पर विवाद पैदा हो गया। ग्राम पंचायतों की समाप्ति का मतलब था, ग्राम विकास की मूल भावना को ही समाप्त कर देना। समिति के सदस्य सिद्धराज ढ़ड्डा ने इस विषय पर लिखा कि ‘‘मुझे जिला परिषदों और मंडल पंचायतों से कोई आपत्ति नहीं है किन्तु समिति ने ग्राम सभा की कोई चर्चा नहीं की, जबकि पंचायती राज संस्थाओं की आधारभूत इकाई तो ग्राम सभा को ही बनाया जा सकता था।’ ‘

जी.वी.के. समिति 

पंचायतों के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया में सन् 1985 में जी.वी.के. राव समिति गठित की गई। समिति ने पंचायती राज संस्थाओं को अधिक अधिकार देकर उन्हें सक्रिय बनाने पर बल दिया। साथ ही यह सुझाव भी दिया कि योजना निर्माण व संचालित करने के लिये जिला मुख्य इकाई होना चाहिये। समिति ने पंचायतों के नियमित चुनाव की भी सिफाारिश की।

डा. एल. एम. सिंघवी समिति 

1986 में डा. एल.एम. सिंघवीे समिति का गठन किया गया। सिंघवी सामिति ने ‘गांव पंचायत’(ग्राम-सभा) की सिफारिश करते हुये संविधान में ही नया अध्याय जोड़ने की बात कही जिससे पंचायतों की अवहेलना ना हो सके। इन्होंने गांव के समूह बना कर न्याय पंचायतों के गठन की भी सिफारिश की।

सरकारिया आयोग और पी0 के0 थुंगर समिति 

1988 में सरकारिया आयोग बैठाया गया जो मुख्य रुप से केन्द्र व राज्यों के संबंधों से जुड़ा था। इस आयोग ने भी नियमित चुनावों और ग्राम पंचायतों को वित्तीय व प्रशासनिक शक्तियां देने की सिफारिश की। 1988 के अंत में ही पी0 के0 थुंगर की अध्यक्षता में संसदीय परामर्श समिति की उपसमिति गठित की गयी। इस समिति ने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने की शिफारिश की।

भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की सरकार ने गांवों में पंचायतों के विकास की ओर अत्यधिक प्रयास करने शुरू किये। श्री राजीव गांधीं का विचार था कि जब तक गांव के लोगों को विकास प्रक्रिया में भागीदार नहीं बनाया जाता, तब तक ग्रामीण विकास का लाभ ग्रामीण जनता को नहीं मिल सकता। पंचायती राज के द्वारा वे गांव वालों के, खासकर अनुसूचित जाति, जनजाति तथा महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक स्थिति में बदलाव लाना चाहते थे। उन्होंने इस दिशा में कारगर कदम उठाते हुये 64वां संविधान विधेयक ससंद में प्रस्तुत किया। लोकसभा ने 10 अगस्त 1988 को इस विधेयक को अपनी मंजूरी दे दी। मगर राज्य सभा में सिर्फ पांच मतों की कमी रह जाने से यह पारित न हो सका। फिर 1991 में तत्कालीन सरकार ने 73वां संविधान संशोधन विधेयक को संसद में पेश किया। लोक सभा ने 2 दिसम्बर 1992 को इसे सर्व सम्मति से पारित कर दिया। राज्य सभा ने अगले ही दिन इसे अपनी मंजूरी दे दी। उस समय 20 राज्यों की विधान सभाएं कार्यरत थीं। 20 राज्यों की विधान सभाओं में से 17 राज्यों की विधान सभाओं ने संविधान संशोधन विधेयक को पारित कर दिया। 20 अप्रैल 1993 को राष्ट्रपति ने भी इस विधेयक को मंजूरी दे दी। तत्पश्चात् 73वां संविधान संशोधन अधिनियम 24 अप्रैल से लागू हो गया। 

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