विकास परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही हो सकते हैं। किसी
भी समाज, देश, व विश्व में कोई भी सकारात्मक परिवर्तन जो प्रकृति और मानव दोनों को
बेहतरी की ओर ले जाता है वही वास्तव में विकास है।
अगर हम विश्व के इतिहास में नजर डालें
तो पता चलता है कि विकास शब्द का बोलबाला विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सुनाई
दिया जाने लगा। इसी समय से विकसित व विकासशील देशों के बीच के अन्तर भी उजागर हुए
और शुरू हुई विकास की अन्धाधुन्ध दौड़।
सामाजिक वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, नीति नियोजकों
द्वारा विकास शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। मानव विकास, सतत् विकास, चिरन्तर विकास,
सामुदायिक विकास, सामाजिक विकास, आर्थिक विकास, राजनैतिक विकास जैसे अलग-अलग
शब्दों का प्रयोग कर विकास की विभिन्न परिभाषाएं दी गई।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने विकास की जो
परिभाषा प्रस्तुत की है, उसके अनुसार “विकास का तात्पर्य है सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक
संरचना, संस्थाओं , सेवाओं की बढ़ती क्षमता जो संसाधनों का उपयोग इस प्रकार से कर सके
ताकि जीवन स्तर में अनुकूल परिवर्तन आये”।
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार विकास की प्रक्रिया
जटिल होती है क्यों कि विकास आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासनिक तत्वों के समन्वय
का परिणाम होता है।
आदिमानव युग से लेकर वर्तमान युग तक विकास की प्रक्रिया विभिन्न स्वरूपों में निरन्तर चली आ रही है। देश, काल, परिस्थिति व संसाधनों के अनुरूप इसके अलग-अलग आयाम हो सकते हैं। विकास के इस दौर में, पिछले कुछ दशकों से सामाजिक तथा आर्थिक विकास पर बल दिया जाने लगा है। विकास को लेकर राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों द्वारा कई विकासीय योजनाओं व कार्यक्रमों का शुभारम्भ किया गया। अैाज भी सरकार इस पर करोड़ों रूपये खर्च कर रही है।
आदिमानव युग से लेकर वर्तमान युग तक विकास की प्रक्रिया विभिन्न स्वरूपों में निरन्तर चली आ रही है। देश, काल, परिस्थिति व संसाधनों के अनुरूप इसके अलग-अलग आयाम हो सकते हैं। विकास के इस दौर में, पिछले कुछ दशकों से सामाजिक तथा आर्थिक विकास पर बल दिया जाने लगा है। विकास को लेकर राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों द्वारा कई विकासीय योजनाओं व कार्यक्रमों का शुभारम्भ किया गया। अैाज भी सरकार इस पर करोड़ों रूपये खर्च कर रही है।
यद्यपि आज विकास के नाम पर सतत् विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, लेकिन विश्व
स्तर पर अगर हम देखें तो विकास की वर्तमान दौड़ में आर्थिक विकास ही अपना वर्चस्व बनाये
हुए है। विश्व स्तर पर तेजी से बदलते परिदृश्य व स्थानीय स्तर पर उसके पड़ने वाले प्रभाव को
देख कर यह स्पष्ट हो गया है कि विकास आज एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न बन गया है। वैश्वीकरण
के इस युग में विकास की नई परिभाषाएं तय की जा रही है आज गरीब और गरीब व अमीर
और अमीर बनता जा रहा है। विकास कुछ ही लोगों की जागीर बनता जा रहा है।
विकास का अर्थ
विकास शब्द की उत्पत्ति ही गरीब, उपेक्षित व पिछड़े सन्दर्भ में हुई। अत: विकास को इन्हीं की दृष्टि से देखना जरुरी है। विकास को साधारणतया ढाँचागत विकास को ही विकास के रूप में ही देखा जाता है, जबकि यह विकास का एक पहलू मात्र है। विकास को समग्रता में देखना जरूरी है, जिसमें मानव संसाधन, प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक, सांस्कृतिक, व नैतिक व ढाँचागत विकास शामिल हो।विकास के इन विभिन्न आयामों में गरीब, उपेक्षित व पिछडे
वर्ग व संसाधन हीन की आवश्यकताओं एवं समस्याओं के समाधान प्रमुख रूप से परिलक्षित हों।
वास्तव में विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो सकारात्मक बदलाव की ओर इशारा
करती है। एक ऐसा बदलाव जो मानव, समाज, देश व प्रकृति को बेहतरी की ओर ले जाता है।
विभिन्न बुद्धिजीवियों द्वारा विकास को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया है । क्लार्क जे0 के शब्दों में ‘‘विकास बदलाव की एक ऐसी प्रक्रिया है जो लोगों को इस योग्य बनाती
है कि वे अपने भाग्य विधाता स्वयं बन सके तथा अपने अन्र्तनिहित समस्त सम्भावनाओं को
पहचान सकें।’’
रॉय एंड राबिन्सन के अनुसार ‘‘किसी भी देश के लोगों के भौतिक, सामाजिक व राजनैतिक स्तर
पर सकारात्मक बदलाव ही विकास है।’’
विश्व स्तर पर विकास की प्रक्रिया का संक्षिप्त विवरण
यद्यपि आदि काल से विकास की प्रक्रिया निरन्तर चली आ रही है जिसके हर काल में अलग अलग स्वरूप रहे हैं। यदि हम 19वीं सदी में विश्व स्तर पर विकास की प्रक्रिया को देखें तो हमें यूरोप से इसे देखना होगा। यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत के साथ ही कच्चे माल व मजदूरों की मांग बढ़ने लगी। जिसके साथ ही प्रारम्भ हुआ उपनिवेशवाद का दौर। इस दौरान विश्व स्तर पर विकास का अर्थ विकसित देशों द्वारा अविकसित देशों में अपने उपनिवेश स्थापित करना माना गया।यह युग “कोलोनियल इरा” अर्थात उपनिवेशवाद का युग के रूप में
प्रसिद्ध हुआ। इस युग में विकास का मतलब विकसित देशों द्वारा उन देशों का विकास करना
माना गया जिन देशों में उन्होंने अपने उपनिवेश स्थापित किये थे। और यह विकास उन देशों के
मानव संसाधन, भौतिक संसाधन व प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की कीमत पर किया जाता रहा।
यद्यपि इस विकास को औपनिवेशवाद को बढ़ावा देने वाले देशों ने यह तर्क देकर न्यायोचित
ठहराया कि इन कार्यों से अविकसित देशों की सुरक्षा, प्रगति व विकास होगा। लेकिन
उपनिवेशवाद की इस पूरी प्रक्रिया में शासित की सदियों से चली आ रही स्थानीय विकास की
पारम्परिक व्यवस्थाओं को गहरा धक्का लगा। उपनिवेशवादी देशों के लिए विकास का मतलब था
“अपने अनुसार कार्य करना”।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात विकास को औद्योगिकरण व आर्थिक विकास के रूप में देखा गया। जिसके अन्तर्गत सकल राष्ट्रीय उत्पाद को प्रगति का सूचक माना गया। विकसित देशों द्वारा अविकसित देशों हेतु आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान करने का दौर शुरु हुआ। विश्व बैंक व अन्र्तराश्ट्रीय मुद्रा कोश (इन्टरनैशनल मोनेट्री फंड,) (IMF) जैसे संस्थानों की स्थापना की गई। इनका कार्य युद्ध के पश्चात् चरमराई आर्थिक व्यवस्था को ठीक करना था। इस आर्थिक “वृद्धि” विचारधारा ने केवल आर्थिक विकास को बल दिया। यह बात बल पकड़ने लगी कि ढांचागत व वृहद आर्थिक विकास ही सामाजिक व मानव विकास को लायेगा। राष्ट्रीय स्तर से कार्य योजनाओं का निर्धारण व क्रियान्वयन किया जाने लगा। इस प्रक्रिया ने विकास को लोगों के ऊपर थोपा गया। इसके नियोजन में लोगों की कहीं भागीदारी नहीं थी। विकास के प्रति यही “टॉप डाऊन एप्रोच” अर्थात “ऊपर से नीचे की ओर” विकास का प्रक्रिया थी।
लेकिन इस आर्थिक वृद्धि विचारधारा ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि आर्थिक वृद्धि के लाभ आम गरीब जनता तक नहीं पहंचु पा रहे हैं। सत्तर के दशक से विकास में लोगों की सहभागिता का विचार भी बल पकड़ने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी सामाजिक व आर्थिक विकास को एक साथ लिए जाने पर संस्तुति की। विकास के नियोजन, क्रियान्वयन व निगरानी में जनसमुदाय की सक्रिय भागीदारी लेने के प्रश्न चारों ओर से उठने लगे। नागर समाज संगठनों द्वारा राष्ट्रीय व अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर भी सहभागी विकास की पैरवी की गई।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात विकास को औद्योगिकरण व आर्थिक विकास के रूप में देखा गया। जिसके अन्तर्गत सकल राष्ट्रीय उत्पाद को प्रगति का सूचक माना गया। विकसित देशों द्वारा अविकसित देशों हेतु आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान करने का दौर शुरु हुआ। विश्व बैंक व अन्र्तराश्ट्रीय मुद्रा कोश (इन्टरनैशनल मोनेट्री फंड,) (IMF) जैसे संस्थानों की स्थापना की गई। इनका कार्य युद्ध के पश्चात् चरमराई आर्थिक व्यवस्था को ठीक करना था। इस आर्थिक “वृद्धि” विचारधारा ने केवल आर्थिक विकास को बल दिया। यह बात बल पकड़ने लगी कि ढांचागत व वृहद आर्थिक विकास ही सामाजिक व मानव विकास को लायेगा। राष्ट्रीय स्तर से कार्य योजनाओं का निर्धारण व क्रियान्वयन किया जाने लगा। इस प्रक्रिया ने विकास को लोगों के ऊपर थोपा गया। इसके नियोजन में लोगों की कहीं भागीदारी नहीं थी। विकास के प्रति यही “टॉप डाऊन एप्रोच” अर्थात “ऊपर से नीचे की ओर” विकास का प्रक्रिया थी।
लेकिन इस आर्थिक वृद्धि विचारधारा ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि आर्थिक वृद्धि के लाभ आम गरीब जनता तक नहीं पहंचु पा रहे हैं। सत्तर के दशक से विकास में लोगों की सहभागिता का विचार भी बल पकड़ने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी सामाजिक व आर्थिक विकास को एक साथ लिए जाने पर संस्तुति की। विकास के नियोजन, क्रियान्वयन व निगरानी में जनसमुदाय की सक्रिय भागीदारी लेने के प्रश्न चारों ओर से उठने लगे। नागर समाज संगठनों द्वारा राष्ट्रीय व अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर भी सहभागी विकास की पैरवी की गई।
1980 के दशक में
“स्ट्रकचरल एडजस्टमेंट पॉलिसी^^(Structural Adjustment Polcy) व विश्व बैंक व अन्र्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों ने निर्यात आधारित औद्योगीकरण, आर्थिक छूट, निजीकरण एवं अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापार के नियमों में ढील आदि को बढ़ावा दिया। इस प्रक्रिया में विकास हेतू संसाधनों में
कटौती होने लगी जिससे गरीब वर्ग और अधिक हासिये पर जाता गया। फलस्वरूप सरकार
अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटने लगी और “बाजार” हर क्षेत्र में हावी होने लगा। इस युग में
पर्यावरणीय आन्दोलनों के परिणाम स्वरूप सहभागी सतत् विकास की अवधारणा बल पकड़ने
लगी।
1990 से मानव विकास पर अधिक बल दिया जाने लगा। विकास को लेकर संयुक्त राष्ट्र
संघ ने विकास के मुद्दे पर अनेक अन्र्तराष्ट्रीय कार्यशालाओं व गोष्ठियों का आयोजन किया। इन
गोष्ठियों के परिणाम स्वरूप मानव केन्द्रित सहभागी विकास की अवधारणा को बहुत बल मिला।
विकास पर समझ एवं स्पष्टता
यदि विकास के मूल तत्व को गहराई से समझने का प्रयास किया जाये तो विकास का अर्थ सिर्फ आर्थिक सशक्तता नहीं हैं। मात्र भौतिक सुविधायें जुटाने से हम विकसित नहीं हो जाते। यदि पूर्व के ग्रामीण जीवन का अध्ययन किया जाये तो आज के और पूर्व के जीवन की बारीकी को समझने का अवसर मिलेगा। आज भले ही ढांचागत विकास ने अपनी एक जगह बनाई हो किन्तु प्राचीन काल में सहभागिता अर्थात मिलजुल कर कार्य करने की प्रवृति गहराई से लोगों की भावनाओं एवं संवेदानाओं के साथ जुड़ी थी। चाहे कृषि कार्य हो या फिर अपने प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, प्रबन्धन, अथवा संरक्षण का कार्य हो , गांव के लोग सामूहिक रूप से इन कार्यों को सम्पन्न किया करते थे। इस तरह के सामूहिक कार्यों के साथ-साथ लोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन करते थे।यही नहीं, उनकी अपनी न्याय प्रक्रिया भी थी जिस पर उनकी गहरी
आस्था थी। सच पूछो तो उस समय लोगों की सीमित आवश्यकतायें थी, इसलिये एक दूसरे से
विचार विमर्श हेतु उनके पास पर्याप्त समय भी था। इस तरह से कार्य करने से कार्य के प्रति
उत्साह बढ़ता था और लोग एक दूसरे से खुलकर विचारों का आदान प्रदान करते थे।
परिणामस्वरूप नियोजन स्तर पर सबकी भागीदारी स्वत: ही सुलभ हो जाती थी और नियोजन में
मजबूती थी।
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लेकिन धीरे-धीरे लोगों में विकास की अवधारणा बदलने लगी। लोगों की आवश्यकतायें भी बढ़ने
लगी और धीरे-धीरे उनका झुकाव ढ़ांचागत विकास की ओर होने लगा। विकास का अर्थ
लम्बी-लम्बी सड़कों का जाल, बड़े बांध, पावर हाउस, बड़ी-बड़ी आकाश चुम्भी भवनों का निर्माण
माना जाने लगा। सम्पूर्ण विश्व में विकास के नाम पर शुरू हुई ढ़ांचागत विकास की दौड़। इस
दौड़ में मानव विकास कहीं खो गया।
विकास का वास्तविक अर्थ समझने के लिए हमें यह
जानना जरूरी है कि हम विकास किसे कहेंगे? ढ़ांचागत विकास ही सम्पूर्ण विकास नहीं है, अपितु
यह विकास का केवल एक महत्वपूर्ण पहलू है। विकास मात्र लोगों को आर्थिक सशक्तता देने का
नाम भी नहीं है, मात्र गरीबी दूर करने या, मात्र आज की जरूरतों को पूरा कर देने भर से ही
सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता है। आर्थिक विकास भी विकास का एक आयाम ही है।
सतत् एवं
संतुलित विकास के लिए यह जरूरी है कि विकास का केन्द्र बिन्दु मानव हो। मानव के
अन्र्तनिहित गुणों व क्षमताओं का विकास कर उनके अस्तित्व, क्षमता, कौशल व ज्ञान को मान्यता
देना, उन्हें अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक करना, लोगों की सोचने की शक्ति को
बढ़ाना, उनके चारों तरफ के वातावरण का विश्लेषण करने की क्षमता जागृत करना, समाज में
उनको उनकी पहचान दिलाना व उन्हें सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक सशक्तता के अवसर
प्रदान करना ही वास्तविक विकास है।
विकास की वही प्रक्रिया मानव को बेहतरी की ओर ले जा
सकती है, जिसमें नियोजन और क्रियान्वयन स्तर पर लोग स्वयं अपनी प्राथमिकतायें चयनित करें,
स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बने और अपने विकास व सशक्तता की राह भी तय करें। लेकिन इन
समस्त प्रक्रियाओं के साथ-साथ मानव व प्रकृति के बीच उचित सामंजस्य व संतुलन बनाना
विकास की पहली शर्त है। वास्तविक विकास केवल वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही
नहीं है अपितु भविष्य की आवश्यकताओं पर भी ध्यान देना है।
1950 से पंचववर्षीय योजनाओं के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। लगभग 50-60 के दशक तक सरकार की प्राथमिकता ढांचागत विकास पर ही केन्द्रित रही, जैसे- सड़कों का निर्माण, विद्यालय, अस्पताल, प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र तथा सामुदायिक केन्द्र आदि। सामुदायिक विकास योजनाओं का केन्द्र बना रहा। लेकिन 70 का दशक आते-आते सरकार ने विकास की प्रक्रिया को लक्ष्य समूहों पर केन्द्रित करना आरम्भ किया। लक्ष्य समूहों के अन्र्तगत मुख्यत: भूमिहीनों, छोटे किसानों तथा आदिवासियों के लिये विकास योजनायें बनाई गई।
भारत में आजादी के बाद विकास का बदलता स्वरूप
वर्षों गुलामी की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद वर्ष 1947 में जब हमारा देश आजाद हुआ तो नई सरकार हमारी बनी। लोगों ने वर्षों की गुलामी के बाद स्वतंत्रता मिली। नई सरकार से सबकी ढेर सारी आशायें थी, बहुत सी अपेक्षायें थी। जब हमारा देश आजाद हुआ तो बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, कमजोर कृषि और जीर्ण-क्षीण उद्योग धन्धे, आदि कई सारी समस्यायें हमारे सामने मंहु बाये खड़ी थी। इन सारी परिस्थितियों को देखते हुये सरकार ने देश से अशिक्षा, गरीबी तथा अज्ञानता को जड़ से मिटाने को अपनी प्राथमिकता बनाया। इस उद्देश्य की पूर्ति तथा लोगों को अधिक से अधिक सुविधायें प्रदान करने के लिये सरकार ने विकास की कई योजनायें लागू की।1950 से पंचववर्षीय योजनाओं के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। लगभग 50-60 के दशक तक सरकार की प्राथमिकता ढांचागत विकास पर ही केन्द्रित रही, जैसे- सड़कों का निर्माण, विद्यालय, अस्पताल, प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र तथा सामुदायिक केन्द्र आदि। सामुदायिक विकास योजनाओं का केन्द्र बना रहा। लेकिन 70 का दशक आते-आते सरकार ने विकास की प्रक्रिया को लक्ष्य समूहों पर केन्द्रित करना आरम्भ किया। लक्ष्य समूहों के अन्र्तगत मुख्यत: भूमिहीनों, छोटे किसानों तथा आदिवासियों के लिये विकास योजनायें बनाई गई।
70-80 का दशक आते-आते विकास की
रणनीति का केन्द्र बिन्दू भौगोलिक आधार बना। जलागम विकास की अवधारणा भी सूखा तथा
बाढ़ आदि रहे जिसके पीछे मूल भावना भी यही थी कि लोगों को सुविधा सम्पन्न बनाया जाये।
इस पूरी प्रक्रिया में जितनी भी विकास योजनायें बनी अथवा लागू की गई उनमें मूल उद्देश्य
ढांचागत विकास पर ही केन्द्रित रहा जबकि मानव संसाधन विकास पूरी तरह से प्रक्रिया पटल से
अदृश्य रहा।
यही कारण है कि इतना अधिक भौतिक एवं ढांचागत विकास हो जाने के बावजूद
लोगों के जीवन में अपेक्षित सुधार नहीं आ सके।
हमारे देश में एक लम्बे समय तक विकास को लेकर यह सोचा गया कि अगर देश में बड़ी-बड़ी
योजनाएं बनेंगी तो जो विकास होगा उसका प्रतिफल गरीबों को पहुंच जायेगा।
फलस्वरूप देष में
खूब योजनाएं बनीं उनके लाभ भी मिले परन्तु वे गरीबों तक नहीं पहुंच सकीं। लोग सहभागी
बनने के बजाय धन लेने वाले बन गये। सरकार कल्याणकारी छवि वाली बनी परन्तु गरीब गरीब
ही रह गये। गरीबों को बेचारा मानकर उनके कल्याण के बारे में एक विशेष वर्ग ही योजनाएं
बनाता रहा।
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में यह भूल गये कि गरीबों में सोचने एवं समझने की शक्ति छिपी
हुई है। परन्तु अवसर एवं अनुकूल परिस्थितियों के अभाव में यह उभर कर नहीं आ पाती हैं।
विकास के इस स्वरूप एवं रणनीति का विश्लेश्णात्मक अध्ययन करने के बाद कुछ महत्वपूर्ण बातें
उभर कर आर्इं।
लोग पूरी तरह से सरकार पर आश्रित हो गये तथा उनकी सरकारी कार्यक्रमों एवं
सरकारी योजनाओं पर आश्रित रहने की मानसिकता बन गई। उनमें कहीं पर यह बात घर कर
गइंर् कि उनका विकास उनके द्वारा नहीं अपितु कहीं ऊपर से आयेगा और केवल सरकार ही है
जो उनका विकास कर सकती है। विकास की इस प्रक्रिया से निम्न बातें उभर कर आयी।
1. यद्यपि लोगों में पूर्व से ही परम्परागत ज्ञान का अथाह सागर मौजूद रहा है। लेकिन विकास की इस प्रक्रिया में लोगों की पुरातन संस्कृति, उनके परम्परागत ज्ञान को स्थान न मिलने से उनका इसके प्रति अपेक्षित जुड़ाव न बन सका जिसका सीधा असर विकास योजनाओं की सार्थकता पर पड़ा। लोग पहले भी संगठित होकर कार्य करते थे तथा उनमें सहभागिता की भावना गहराई से जुड़ी थी । लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने सहयोग की अपनी यह क्षमता खो दी। ग्रामीण संगठनों, जिनकी कि समाज में स्वीकार्यता भी थी, को विकास की प्रक्रिया से बाहर रखा गया।
2. जितनी भी विकास योजनायें बनीं, वे सब ऊपरी स्तर से बन कर आई और लोगों की भागीदारी के बिना ही उन पर थोपी गई। पहले लोग आपस में मिल बैठकर गांव के विकास की बात पर चर्चा करते थे तो नियोजन भी मजबूत था। लेकिन बाद में लोगों को नियोजन से बिल्कुल बाहर रखा गया। परिणामस्वरूप लोगों में विकास के उस ढांचागत स्वरूप के प्रति अपनत्व एवं स्वामित्व की बात तो आ ही नहीं सकी, फिर संरक्षण भी कैसे संभव हो सकता था।
3. पूरी प्रक्रिया का विश्लेषण करने के पश्चात इस बात की प्रबल रूप से आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि विकास को लोगों के ईर्द गिर्द घूमना चाहिये न कि लोगों को विकास के ईर्द गिर्द। लोक केन्द्रित विकास की अवधारणा धीरे-धीरे मजबूती पकड़ने लगी। यह महसूस किया जाने लगा कि विकास की इस पुरानी अवधारणा को किसी तरह से बदलना होगा।
ढ़ॉंचा गत विकास के परिणाम योजनायें बनीं, पूरी भी हुi लेकिन लोगों का विकास नहीं हो पाया। लोगों की सहभागिता के बिना ढांचागत विकास की चिरन्तरता पर प्रश्नचिन्ह लगा तथा योजना समाप्त होंने पर लोगों की स्थिति यथावत बनी रही। लोगों की संसाधन प्रबन्धन की परम्परागत व्यवस्था धीरे-धीरे क्षीण हो गई। विकेन्द्रीकरण के स्थान पर केन्द्रीकरण ने जड़ पकड़ी तथा लोगों की सरकारी तंत्र पर निर्भरता बढ़ी। दूसरे पर निर्भर रहने की प्रवृति ने लोगों में आत्मविश्वास को समाप्त किया।
1. यद्यपि लोगों में पूर्व से ही परम्परागत ज्ञान का अथाह सागर मौजूद रहा है। लेकिन विकास की इस प्रक्रिया में लोगों की पुरातन संस्कृति, उनके परम्परागत ज्ञान को स्थान न मिलने से उनका इसके प्रति अपेक्षित जुड़ाव न बन सका जिसका सीधा असर विकास योजनाओं की सार्थकता पर पड़ा। लोग पहले भी संगठित होकर कार्य करते थे तथा उनमें सहभागिता की भावना गहराई से जुड़ी थी । लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने सहयोग की अपनी यह क्षमता खो दी। ग्रामीण संगठनों, जिनकी कि समाज में स्वीकार्यता भी थी, को विकास की प्रक्रिया से बाहर रखा गया।
2. जितनी भी विकास योजनायें बनीं, वे सब ऊपरी स्तर से बन कर आई और लोगों की भागीदारी के बिना ही उन पर थोपी गई। पहले लोग आपस में मिल बैठकर गांव के विकास की बात पर चर्चा करते थे तो नियोजन भी मजबूत था। लेकिन बाद में लोगों को नियोजन से बिल्कुल बाहर रखा गया। परिणामस्वरूप लोगों में विकास के उस ढांचागत स्वरूप के प्रति अपनत्व एवं स्वामित्व की बात तो आ ही नहीं सकी, फिर संरक्षण भी कैसे संभव हो सकता था।
3. पूरी प्रक्रिया का विश्लेषण करने के पश्चात इस बात की प्रबल रूप से आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि विकास को लोगों के ईर्द गिर्द घूमना चाहिये न कि लोगों को विकास के ईर्द गिर्द। लोक केन्द्रित विकास की अवधारणा धीरे-धीरे मजबूती पकड़ने लगी। यह महसूस किया जाने लगा कि विकास की इस पुरानी अवधारणा को किसी तरह से बदलना होगा।
ढ़ॉंचा गत विकास के परिणाम योजनायें बनीं, पूरी भी हुi लेकिन लोगों का विकास नहीं हो पाया। लोगों की सहभागिता के बिना ढांचागत विकास की चिरन्तरता पर प्रश्नचिन्ह लगा तथा योजना समाप्त होंने पर लोगों की स्थिति यथावत बनी रही। लोगों की संसाधन प्रबन्धन की परम्परागत व्यवस्था धीरे-धीरे क्षीण हो गई। विकेन्द्रीकरण के स्थान पर केन्द्रीकरण ने जड़ पकड़ी तथा लोगों की सरकारी तंत्र पर निर्भरता बढ़ी। दूसरे पर निर्भर रहने की प्रवृति ने लोगों में आत्मविश्वास को समाप्त किया।
विकास की नई दिशा
धीरे-धीरे नब्बे का दशक आते-आते लोगों की अपेक्षाओं तथा समय की मांग को देखते हुये विकास की अवधारणा ने एक नई दिशा ली। अब यह स्वत: ही महसूस किया जाने लगा कि-भौतिक तथा ढ़ांचागत विकास दोनों ही विकास के पहलू मात्र हैं। वास्तविक विकास तो समुदाय की मानसिकता, सोच का विकास तथा लोक संगठनों का विकास है। गरीब व पिछड़े शोषित लोग असंगठित रहकर कभी परिवर्तन नहीं कर सके हैं। इस बात पर भी विचार किया जाने लगा कि लोग कोई समस्या नहीं अपितु संसाधन हैं।अत: मानव संसाधन विकास को
विकास की प्राथमिकता बनाया जाना चाहिये। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने 1990 में प्रथम
मानव विकास प्रतिवेदन का प्रकाशन किया। इस प्रतिवेदन में मानव विकास को विशेष महत्व दिया
गया। जिसके अनुसार विकास का लोगों के विकास के विकल्पों को बढ़ाना है। मानव विकास का
अर्थ है कि विकास के केन्द्र में लोग रहें विकास लोगों के इर्द-गिर्द चुना जाये न कि लोग
विकास के इर्द-गिर्द।
यह बात प्रबल रूप से महसूस की जाने लगी कि लोगों के परम्परागत ज्ञान, उनकी लोक संस्कृति एवं उनके अनुभवों को भी विकास की नियोजन प्रक्रिया में शामिल किया जाये तभी समाज चिरन्तर विकास की ओर बढ़ सकता है। विकास योजनायें लोगों की सहभागिता से ही लोगों के जीवन में वास्तविक परिवर्तन ला सकती हैं। समाज में परिवर्तन लाने के लिये नियोजन तथा निर्णय स्तर पर लोगों की सहभागिता नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी आवश्यकता महसूस ही गई कि स्थानीय स्वशासन को मजबूती प्रदान करने के लिए पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाना आवश्यक है। स्थानीय स्वशासन की मजबूती ही नियोजन एवं निर्णय स्तर पर लोगों की सहभागिता की अवधारणा को मूर्तरूप दे सकती है।
यह बात प्रबल रूप से महसूस की जाने लगी कि लोगों के परम्परागत ज्ञान, उनकी लोक संस्कृति एवं उनके अनुभवों को भी विकास की नियोजन प्रक्रिया में शामिल किया जाये तभी समाज चिरन्तर विकास की ओर बढ़ सकता है। विकास योजनायें लोगों की सहभागिता से ही लोगों के जीवन में वास्तविक परिवर्तन ला सकती हैं। समाज में परिवर्तन लाने के लिये नियोजन तथा निर्णय स्तर पर लोगों की सहभागिता नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी आवश्यकता महसूस ही गई कि स्थानीय स्वशासन को मजबूती प्रदान करने के लिए पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाना आवश्यक है। स्थानीय स्वशासन की मजबूती ही नियोजन एवं निर्णय स्तर पर लोगों की सहभागिता की अवधारणा को मूर्तरूप दे सकती है।
जब तक पंचायतें एवं ग्रामसभा
सक्रिय नहीं होंगी तब तक वास्तविक विकास की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं। यहीं से भारत
में पंचायती राज के माध्यम से जन विकास की कल्पना को साकार करने के लिए गांव स्तर तक
विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था को लाने के लिए प्रयास शुरू हुए और भारत में 73वें संविधान संशोधन
के द्वारा पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई ।
बहुत ही बारीकी से विकास को समझाया गया है। इस शोधपूर्ण लेख से असंख्य लोग लाभान्वित होंगे । इसके लिए आपको साधुवाद !
ReplyDeleteGreat work
Deleteअति सुन्दर
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