भाषा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, महत्व

भाषा शब्द संस्कृत के भाषा धातु से बना हुआ है। इसका अर्थ होता है, बोलना; इस प्रकार इसका सामान्य अर्थ है, अपने विचारों या भावों को प्रकट करना। भाषा अपने सामान्य अर्थ में विचारों या भावों को आदान-प्रदान करने का माध्यम है।

मनुष्य या मनुष्येतर प्राणी कुछ विशेष ध्वनियों तथा संकेतों से एक दूसरे की बात समझ लेते हैं तथा अनुकूल आचरण करते हैं; क्या इन ध्वनियों और संकेतों को भाषा कहा जा सकता है? क्या बंदर द्वारा निकाली गई विशेष प्रकार की ध्वनि को भाषा कहा जा सकता है? भाषा वैज्ञानिकों ने इसका उत्तर दिया है- नहीं। तब भाषा से क्या अभिप्राय है? भाषा किसे कहते हैं? सामान्यतः भाषा से अभिप्राय है- जिस साधन द्वारा मनुष्य अपने भावों और विचारों को बोलकर या लिखकर प्रकट करता है, उसे भाषा कहते हैं।

भाषा की परिभाषा

1. डॉ. कामता प्रसाद गुरु : ‘भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों तक भलीभाँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार स्पष्टतया समझ सकता है।’ 

2. आचार्य किशोरीदास : ‘विभिन्न अर्थों में संकेतित शब्द समूह ही भाषा है, जिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।’’

3. डॉ. श्यामसुन्दर दास : ‘मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है उसे भाषा कहते हैं।’ 

4. डॉ. बाबूराम सक्सेना : ‘जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।’ 

5. डॉ. भोलानाथ : ‘भाषा उच्चारणावयवों से उच्चरित यादृच्छिक(arbitrary) ध्वनि-प्रतीकों की वह संचरनात्मक व्यवस्था है, जिसके द्वारा एक समाज-विशेष के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं ।’ 

6. रवीन्द्रनाथ : ‘भाषा वागेन्द्रिय द्वारा नि:स्तृत उन ध्वनि प्रतीकों की संरचनात्मक व्यवस्था है जो अपनी मूल प्रकृति में यादृच्छिक एवं रूढ़िपरक होते हैं और जिनके द्वारा किसी भाषा-समुदाय के व्यक्ति अपने अनुभवों को व्यक्त करते हैं, अपने विचारों को संप्रेषित करते हैं और अपनी सामाजिक अस्मिता, पद तथा अंतर्वैयक्तिक सम्बन्धों को सूचित करते हैं।

7. डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए लिखा है - “भाषा मुख से उच्चरित उस परम्परागत सार्थक एवं व्यक्त ध्वनि संकेतों की व्यक्ति को कहते हैं, जिसकी सहायता से मानव आपस में विचार एवं भावों को आदान-प्रदान करते हैं तथा जिसको वे स्वेच्छानुसार अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं।” 

8. डॉ. सरयू प्रसाद अग्रवाल के अनुसार - “भाषा वाणी द्वारा व्यक्त स्वच्छन्द प्रतीकों की वह रीतिबद्ध पद्धति है जिससे मानव समाज में अपने भावों का परस्पर आदान-प्रदान करते हुए एक-दूसरे को सहयोग देता है।” 

9. श्री नलिनि मोहन सन्याल का कथन है - “अपने स्वर को विविध प्रकार से संयुक्त तथा विन्यस्त करने से उसके जो-जो आकार होते हैं उनका संकेतों के सदृश व्यवहार कर अपनी चिन्ताओं को तथा मनोभावों को जिस साधन से हम प्रकाशित करते हैं, उस साधन को भाषा कहते हैं।”

10 . डॉ. देवीशंकर द्विवेदी के मतानुसार - “भाषा यादृच्छिक वाक्प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से मानव समुदाय परस्पर व्यवहार करता है।” प्लेटो ने विचार तथा भाषा पर अपने भाव व्यक्त करते हुए लिखा है-’विचार आत्मा की मूक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।’

11. मैक्समूलर के अनुसार-”भाषा और कुछ नहीं है केवल मानव की चतुर बुद्धि द्वारा अविष्कृत ऐसा उपाय है जिसकी मदद से हम अपने विचार सरलता और तत्परता से दूसरों पर प्रकट कर सकते हैं और चाहते हैं कि इसकी व्याख्या प्रकृति की उपज के रूप में नहीं बल्कि मनुष्य कृत पदार्थ के रूप में करना उचित है।”

भाषा के प्रकार

1. मूक भाषा -  भाषा की ध्वनि रहित स्थिति में ही ऐसी भावभिव्यक्ति होती है। इसे भाषा का अव्यक्त रूप भी कहा जा सकता है। संकेत, चिह्न, स्पर्श आदि भावाभिव्यक्ति के माध्यम इसी वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। पुष्प की भाषा भी मूक है।

2. अस्पष्ट भाषा - जब व्यक्त भाषा का पूर्ण या स्पष्ट ज्ञान नहीं होता है, तो उसे अस्पष्ट कहते हैं, यथा - चिड़ियाँ प्रात: काल से अपना गीत शुरू कर देती है, किन्तु उनके गीत का स्पष्ट ज्ञान सामान्य व्यक्ति नहीं कर पाता है। इस प्रकार पक्षियों का गीत मानव के लिए अस्पष्ट भाषा है।

3. स्पष्ट भाषा - जब भावाभिव्यक्ति पूर्ण स्पष्ट हो, तो ऐसी व्यक्त भाषा को स्पष्ट कहते हैं। जब मनुष्य मुख अवयवों के माध्यम से अर्थमयी या यादृच्छिक ध्वनि-समष्टि का प्रयोग करता है, तो ऐसी भाषा का रूप सामने आता है। यह भाषा मानव-व्यवहार और उसकी उन्नति में सर्वाधिक सहयोगी है। 

4. स्पर्श भाषा - इसमें विचारों की अभिव्यक्ति शरीर के एक अथवा अधिक अंगों के स्पर्श-माध्यम से होती है। इसमें भाषा के प्रयोगकर्ता और ग्रहणकर्ता में निकटता आवश्यक होती है। 

5. इंगित भाषा - इसे आंगिक भाषा भी कहते हैं। इसमें विचारों की अभिव्यक्ति विभिन्न प्रकार के संकेतों के माध्यम से होती है; यथा - हरी झंडी या हरी बत्ती मार्ग साफ या आगे बढ़ाने का संकेत है या बत्ती मार्ग अवरुद्ध होने या रुकने का संकेत है। 

6. वाचिक भाषा  - इसके लिए ‘मौखिक’ शब्द का भी प्रयोग होता है। ऐसी भाषा में ध्वनि-संकेत भावाभिव्यक्ति के मुख्य साधन होते हैं। इसमें विचार-विनिमय हेतु मुख के विभिन्न अवयवों का सहयोग लिया जाता है, अर्थात इसमें भावाभिव्यक्ति बोलकर की जाती है। यह सर्वाधिक प्रयुक्त भाषा है। 

सामान्यत: इस भाषा का प्रयोग सामने बैठे हुए व्यक्ति के साथ होता है। यंत्र-आधारित दूरभाष (टेलीफोन), वायरलेस आदि की भाषा भी इसी वर्ग के अन्तर्गत आती है। भाषा के सूक्ष्म विभाजन में इसे यांत्रिक या यंत्र-आधारित भाषा के भिन्न वर्ग में रख सकते हैं।

7. लिखित भाषा - भावाभिव्यक्ति का सर्वोत्त माध्यम लिखित भाषा है, इसमें अपने विचार का विनिमय लिखकर अर्थात् मुख्यत: लिपि का सहारा लेकर किया जाता है। इस भाषा में लिपि के आधार पर समय तथा स्थान की सीमा पर करने की शक्ति होती है। एक समय लिपिबद्ध किया गया विचार शताब्दियों बाद पढ़ कर समझा जा सकता है और कोई भी लिपिबद्ध विचार या संदेश देश-विदेश के किसी भी स्थान को भेजा जा सकता है। किसी भी समाज की उन्नति मुख्यत: वहाँ की भाषा-उन्नति पर निर्भर होती है। 

भाषा का माध्यम

1. अभिव्यक्ति का माध्यम - अपने भावों को अभिव्यक्त करके दूसरे तक पहुँचाने हेतु भाषा का उद्भव हुआ। भाषा के माध्यम से हम न केवल अपने, भावों, विचारों, इच्छाओं और आकांक्षाओं को दूसरे पर प्रकट करते हैं, दूसरों द्वारा व्यक्त भावों, विचारों और इच्छाओं को ग्रहण भी करते हैं। 

2. चिन्तन का माध्यम - कुछ सुने, बोले या लिखें-पढे़, इतना पर्याप्त नहीं है, अपितु यह बहुत आवश्यक है कि वे जो कुछ पढे़ं और सुनें, उसके आधार पर स्वयं चिन्तन-मनन करें। भाषा विचारों का मूल-स्रोत है। भाषा के बिना विचारों का कोई अस्तित्व नहीं है और विचारों के बिना भाषा का कोई महत्त्व नहीं। 

3. संस्कृति का माध्यम - भाषा और संस्कृति दोनों परम्परा से प्राप्त होती हैं। अत: दोनों के बीच गहरा सम्बन्ध रहा है। जहाँ समाज के क्रिया-कलापों से संस्कृति का निर्माण होता है, वहाँ सास्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए भाषा का ही आधार लिया जाता है। पौराणिक एवं साहसिक कहानियाँ, पर्व-त्यौहार, मेला-महोत्सव, लोक-कथाएँ, ग्रामीण एवं शहरी जीवन-शैली, प्रकृति-पर्यावरण, कवि-कलाकारों की रचनाएँ, महान विभूतियों की कार्यावली, राष्ट्रप्रेम, समन्वय-भावना आदि सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रभाव भी भाषा पर पड़ता है। दरअसल, किसी भी क्षेत्र विशेष के मानव समुदाय को परखने के लिए उसकी भाषा को समझना आवश्यक है। 

4. साहित्य का माध्यम -  भाषा के माध्यम से ही साहित्य अभिव्यक्ति पाता है। किसी भी भाषा के बोलनेवालों जन-समुदाय के रहन-सहन, आचार-विचार आदि का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने वाला उस भाषा का साहित्य होता है। साहित्य के जरिए हमें उस निर्दिष्ट समाज के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का परिचय मिलता है। 

केवल समकालीन जीवन का ही नहीं, बल्कि साहित्य हमें अपने अतीत से उसे जोड़कर एक विकासशील मानव-सभ्यता का पूर्ण परिचय देता है। साथ ही साहित्य के अध्ययन से एक उन्नत एवं उदात्त विचार को पनपने का अवसर मिलता है तो उससे हम अपने मानवीय जीवन को उन्नत बनाने की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। 

भाषा के कार्य

 भाषा के कार्य इसका वर्गीकरण निम्न प्रकार से है। 
  1. भाषा हमें अपने विचारों, अनुभवों को साझा करने में , दूसरों को समझने में मदद करती है । ऐसे शब्द भावनाओं एवं छापों को व्यक्त करने के लिए किया जाता है । 
  2. भाषा का निर्देशन कार्य कुछ क्रियाओं या प्रतिक्रियाओं को प्रेरित करने के लिए किया जाता है। इसका उदाहरण है-कमांड/आदेश देना, अनुरोध करना आदि। इससे सामाजिक नियंत्रण एवं पारस्परिक संपर्क के कार्य है। 
  3. हम हर स्थिति में भाषा का प्रयोग करते हे। यह संम्प्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, हमारी आवश्यकताएँ हमारी भाषा निर्धारित करती है, क्योंकि हम जिस प्रकार की भाषा चुनते है, जो हमारी जरूरतों के लिए सबसे प्रभावी है। 
  4. यहाँ शब्दों और वाक्यों को भाषाई कलाकृतियों के रूप में माना जाता है। यह काव्य कला के उपकरण के यप में मदद करता है। उदाहरण ‘भव्य’ ‘सुरूचिपूर्ण’ आदि कवि व लेखक। 
  5. मनुष्य अपने ज्ञान, अनुभवों एवं भावों को परिस्थित करता है , अधिगम के द्वारा वह उनको अपने मासिक में संग्रहित /रक्षीत कर, दैनिक जीवन में यथास्थिति पर उनका प्रयोग करता है। 
  6. सामाजिक पृष्ठीाूमि ,दृष्टिकोण एवं लोगों की उत्पति यह सब किसी भी भाषा को निर्धारित करता है। भाषा सामाजिक संगठन के प्रकार से संबंधित है। 
  7. यह हम संदेश देने, चीजों का वर्णन करने तथा श्रोताओं को नई जानकारी देने में मदद करता है। यह सत्य और मूल्य के रूप में भी ऐसे शब्दों से संबंधित है। यह शब्द ज्यादातर वर्णनात्मक होते है।

भाषा का महत्व 

भाषा मनोगत भाव प्रकट करने का सर्वोत्वृफष्ट साधन है। यद्यपि आँख, सिर और हाथ आदि अंगों के संचालन से भी भाव प्रकट किए जा सकते हैं। किंतु भाषा जितनी शीघ्रता, सुगमता और स्पष्टता से भाव प्रकट करती हैं उतनी सरलता से अन्य साधन नहीं। यदि भाषा न होती तो मनुष्य, पशुओं से भी बदतर होता क्योंकि पशु भी करुणा, क्रोध्, प्रम, भय आदि कुछ भाव अपने कान, पूँछ हिलाकर या गरजकर, भूँककर व्यक्त कर लेते हैं। भाषा के अविर्भाव से सारा मानव संसार गूंगों की विराट बस्ती बनने से बच गया।  

ईश्वर ने हमें वाणी दी और बुद्धि भी। हमने इन दोनों के उचित संयोग से भाषा का आविष्कार किया। भाषा ने भी बदले में हमें इस योग्य बनाया कि हम अपने मन की बात एक दूसरे से कह सके। परंतु भाषा की उपयोगिता केवल कहने-सुनने तक ही सीमित नहीं हैं कहने सुनने के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि हम जो कुछ कहना चाहें वह सब ऐसे नपे-तुले शब्दों में इस ढंग से कह सके कि सुनने वाला शब्दों के सहारे हमारी बात ठीक-ठीक समझ जाए। ऐसा न हो कि हम कहें खेत की वह सुने खलिहान की। बोलने और समझने के अतिरिक्त भाषा का उपयोग पढ़ने और लिखने में भी होता है। कहने और समझन भाँति लिखने और पढ़ने में भी उपयुक्त शब्दों के द्वारा भाव प्रकट करने उसे ठीक-ठीक पढ़कर समझने की आवश्यकता होती है। अतः भाषा मनुष्य के लिए माध्यम है ठीक-ठीक बोलने, समझने, लिखने और पढ़ने का।

भाषा की आवश्यकता

यदि शिक्षा-क्रम के ये गुण आ जाएं तो उसके द्वारा एक संतुलित व्यक्ति का विकास हो सकता है। परंतु प्रश्न यह है कि इस प्रकार शिक्षा-क्रम को वहन करने का माध्यम क्या हो? भली-भांति मनन करने से स्प्ष्ट हो जाता है कि भाषा ही राष्ट्र के विचारों तथा भावनाओं को व्यक्त करने का अनुपम साधन है। इसके द्वारा व्यक्ति अपना अभिप्राय दूसरों पर प्रकट करता है। भाषा एक ऐसा माध्यम है, जो समाज या राष्ट्र के रंगमंच पर होने वाले विविध क्रिया-कलापों, घात-प्रतिघातों तथा घटनाक्रमों से उद्वेलित मानव मन के उद्गारों को वाणी प्रदान करती है।

भाषा हमारी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का माध्यम है। उसी के सभ्य-असभ्य की पहचान होती है। इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र आदि कोई भी विषय क्यों न हो, भाषा के बिना उसका प्रकटीकरण संभव नहीं इसीलिए हमारे शिक्षा-क्रम में भाषा का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। इसी कारण सभी देशों में स्नातक स्तर तक भाषा की शिक्षा अनिवार्य है।
जहां एक ओर भाषा अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन है, वहां दूसरी ओर भाषा अपने देश एवं संस्कृति से परिचय प्राप्त कराती है। युगों से संचित ज्ञान-राशि का रसार-वादन हम भाषा के माध्यम से ही कर सकते हैं। भाषा ही एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा हम अपने ज्ञान-विज्ञान को संचित रख सकते हैं। जीवन की यात्रा में भाषा ही हमारा सच्चा साथी है। हम कही भी यात्रा कर रहे हो, कभी भी अध्यापन कर रहे हों, कही भी भाषण देक रहे हो भाषा ही हमारा सहारा बनती है। क्या घर में क्या बाजार में, क्या एकान्त में क्या समाज मं हमें सभी जगह भाषा चाहिए।

जिस राष्ट्र या जाति की अपनी भाषा नहीं, उसकी संस्कृति जीवित नहीं रह सकती। जिस देश या जाति के पास अपनी समृद्ध भाषा नहीं वह समय की दौड़ में पिछड़ जाएगी।

भाषा और बोली में अन्तर 

भाषा और बोली में भाषावैज्ञानिक स्तर पर भेद बतलाना कठिन है। इनमें अन्तर तात्विक न होकर व्यावहारिक है। इसे अनेक विद्वानों ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है। यों सामान्यतः कुछ बातें कही जा सकती हैं- 

1. भाषा का क्षेत्र अपेक्षाकृत बड़ा होता है तथा बोली का छोटा।

2. एक भाषा की (या के अन्तर्गत) एक या अधिक बोलियाँ हो सकती हैं। इसके विपरीत भाषा बोली के अन्तर्गत नहीं आती, अर्थात् किसी बोली में एक या अधिक भाषाएँ नहीं हो सकतीं। 

3. बोली किसी भाषा से ही उत्पन्न होती है। इस प्रकार भाषा बोली में माँ-बेटी का सम्बन्ध् है। 

4. बोधगम्यता के आधार पर भी इस सम्बन्ध में कुछ उपादेय बातें कही जा सकती हैं। यदि दो व्यक्ति जिनका बोलना ध्वनि, रूप आदि की दृष्टि में एक नहीं है, किन्तु वे एक-दूसरे की बातें काफी समझ लेते हैं तो उनकी बोलियां किसी एक भाषा की बोलियाँ हैं, अर्थात् पारस्परिक बोधगम्यता किसी एक भाषा की कसौटी है। इसके विपरीत विभिन्न भाषाओं के बीच या तो यह बोधगम्यता बिलकुल नहीं (अंग्रेजी-हिन्दी) होती, या कम (पंजाबी-हिन्दी) होती है। यों यह बोधगम्यता का आधर भी बहुत तात्त्विक नहीं है। उदाहरण के लिए, हरियाणवी-भाषी पंजाबी-भाषी को काफी समझ लेता है, किन्तु अवधी भाषी उस सीमा तक नहीं समझ पाता, यद्यपि हरियाणवी एवं अवधी हिन्दी भाषा की बोलियाँ हैं, और पंजाबी स्वतंत्र भाषा है। 

5. भाषा प्रायः साहित्य, शिक्षा तथा शासन के कार्यों में भी व्यवहृत होती है, किन्तु बोली लोक-साहित्य और बोलचाल में ही। यद्यपि इसके अपवाद भी कम नीं मिलते, विशेषतः साहित्य में। उदाहरण के लिए, आधुनिक काल से पूर्व के हिन्दी का सारा साहित्य ब्रज, अवध्ी, राजस्थानी, मैथिली आदि तथाकथित बोलियों में ही लिखा गया है। 

6. भाषा का मानक रूप होता है, किन्तु बोली का नहीं।

7. भाषा बोली की तुलना में अधिक प्रतिष्ठित होती है। अतः औपचारिक परिस्थितियों में प्रायः इसी का प्रयोग होता है। 

8. बोली बोलने वाले भी अपने क्षेत्र के लोगों से तो बोली का प्रयोग करते है, किन्तु अपने क्षेत्र के बाहर के लोगों से भाषा का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार भाषा और बोली का अन्तर भाषा वैज्ञानिक न होकर समाजभाषा वैज्ञानिक है। 

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