कार्यशील पूंजी का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, महत्व एवं स्रोत

कार्यशील पूंजी एक महत्वपूर्ण वित्त स्रोत है जिससे संगठन के दैनिक व्ययों या आवश्यकताओं के पूर्ति होती है। इसमें कार्यशील पूंजी का अर्थ, कार्यशील पूंजी की विचारधारा, कार्यशील पूंजी की आवश्यकता एवं कार्यशील पूंजी को प्रभावित करने वाले तत्वों को क्रमानुसार प्रस्तुत किया गया है। आधुनिक व्यवसाय जगत में कार्यशील पूंजी किसी भी संगठन में एक महत्वपूर्ण वित्त का स्रोत है जो अल्पकालीन वित्त के माध्यम से संगठन की आवश्यकता पूर्ति करती है। व्यावसायिक संस्था के सुचारू संचालन के लिए कार्यशील पूंजी का कुशलतापूर्वक संचालन करना ही कार्यशील पूंजी का प्रबन्ध कहलाता है।

कार्यशील पूंजी का अर्थ

व्यवसाय के संचालन से सम्बन्धित दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ सम्पत्तियों की आवश्यकता होती है। इन सम्पत्तियों में रोकड़, प्राप्त विपत्र, विनियोग, कच्चा माल, निर्मित माल एवं अल्पकालीन ऋण आदि को सम्मिलित किया जाता है। इन सम्पत्तियों में विनियोजित पूंजी को कार्यशील पूंजी कहते हैं। कार्यशील पूंजी व्यवसाय के दिन-प्रतिदिन के आवश्यकताओं की पूर्ति एवं प्रगति हेतु स्थिर सम्पत्तियों के लिए आवश्यक पूंजी के साथ-साथ चालू सम्पत्तियों के लिए भी पर्याप्त पूंजी की व्यवस्था करती है। किसी भी कोष की प्राप्ति जो चालू सम्पत्तियों को बढ़ाता है। उस कोष को कार्यशील पूंजी की संज्ञा दी जाती है।

कार्यशील पूंजी का महत्व

व्यवसाय का संचालन उचित मात्रा में स्थायी सम्पत्तियों का प्रबन्ध कर लेने मात्र से ही नहीं किया जा सकता बल्कि इन सम्पत्तियों का पूर्ण उपयोग करके ही व्यवसाय में लाभ अर्जित किया जा सकता है। स्थायी सम्पत्तियों का पूर्ण उपयोग कार्यशील पूंजी के उचित उपयोग पर निर्भर करता है। अत: व्यवसाय की दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं में कार्यशील पूंजी के प्रबन्ध की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इसकी आवश्यकता व्यवसाय की सम्पत्तियों की क्रय शक्ति को सुरक्षा प्रदान करना एवं विनियोगों पर प्रत्याय बढ़ाना है। इस हेतु कार्यशील पूंजी का निर्धारण व्यवसाय की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। 

सामान्यत: किसी भी व्यवसाय में कार्यशील पूंजी की मात्रा न तो आवश्यकता से अधिक होनी चाहिए और न ही कम। दोनों ही स्थितियां व्यवसाय के लिए हानिकारक सिद्ध होती है। एक व्यवसाय में कार्यशील पूंजी का वही स्थान होता है जो मानव शरीर में हृदय का होता है । हृदय को जैसे ही रक्त मिलता है वह कार्य करना प्रारम्भ कर देता है। वैसे ही व्यवसाय में कार्यशील पूँजी स्रोत के एकत्रित होते ही व्यवसाय अपनी गतिविधियाँ आरम्भ करने लगता है और जैसे ही वह प्रवाह रूक जाता है व्यवसाय समापन की ओर अग्रसर होने लगता है। इसलिए कहा जाता है कि व्यवसाय की तरलता की आवश्यकताएँ क्या हैं? और दायित्वों का भुगतान कब और कितने समय बाद करना है?

संस्था के पास जितनी चल सम्पत्तियॉं हैं उन्हें किस दर या सीमा से परिवर्तित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त संस्था की स्कन्ध नियंत्रण प्रणाली एवं स्थायी सम्पत्तियों के प्रशासन का भी अध्ययन करना आवश्यक है।

पर्याप्त कार्यशील पूंजी के लाभ - जिस प्रकार मनुष्य के जिन्दा रहने के लिए भोजन आवश्यक है उसी प्रकार कार्यशील पूँजी की उचित मात्रा व्यवसाय के लिए महत्वपूर्ण होती है। परन्तु कार्यशील पूँजी का आवश्यकता से अधिक या कम होना दोनों ही हानिकारक हैं। अधिक व बिना प्रयोजन कार्यशील पूँजी होने से धन के दुरूपयोग, प्रबन्धकीय अकुशलता, अंशधारियों में असन्तोष, लाभदायकता में कमी, खर्चों में वृद्धि, वित्तीय संस्थाओं का अविश्वास, सट्टेबाजी को जन्म व अंश मूल्यों में कमी की दिक्कतें आती हैं।

इसके विपरीत, कार्यशील पूंजी की कमी होने पर व्यवसाय के संचालन, सरलता, लाभदायकता, व आकस्मिकताओं का सामना करने में कठिनाई आती है। पर्याप्त मात्रा में कार्यशील पूंजी से उपक्रम को लाभ प्राप्त होते हैं -

1. व्यवसाय की शोधनक्षमता - पर्याप्त कार्यशील पूंजी उत्पादन के निर्बाध प्रवाह की व्यवस्था द्वारा कम्पनी की शोधनक्षमता बनाये रखने में सहायक होती है। उच्च शोधन क्षमता तृतीय पक्षों की दृष्टि में कम्पनी की वित्तीय स्थिति की सुदृढ़ता का प्रतीक होती है और आवश्यकता पड़ने पर तत्काल उधार लेने में कोई दिक्कत नहीं होती है।

2. नकद छूट का लाभ - कम्पनी अपने आपूर्तिकर्ताओं को उधार खरीदे गये माल का तुरन्त नकद भुगतान करके आकर्षक छूट प्राप्त कर सकती है। इससे लागत पर नियंत्रण और मूल्यों में कमी सम्भव होती है।

3. आकर्षक लाभांश एवं अंश मूल्यों में स्थिरता  - पर्याप्त कार्यशील पूंजी होने पर कम्पनी के संचालक एवं प्रबन्धक अंशध् ाारियों को आकर्षक लाभांश वितरित कर सकते हैं। ऐसी दशा में अंशधारी तो संतुष्ट रहते ही हैं साथ ही साथ कम्पनी की प्रतिभूतियों का बाजार मूल्य भी स्थिर रहता है।

4. अनुुकूल बाजार अवसरों का लाभ  - केवल वे प्रतिष्ठान ही जिनके पास यथेष्ट कार्यशील पूंजी है अनुकूल बाजार अवसरों का लाभ उठा सकते हैं । अचानक निर्मित माल आपूर्ति का बड़ा आदेश मिलने पर अथवा कच्चे माल के मूल्यों में कमी होने पर कम्पनी कार्यशील पूंजी की पर्याप्तता के आधार पर लाभ उठा सकती है।

5. सकंटों का साभाग -  पर्याप्त कार्यशील पूँजी होने पर कोई भी संस्था छोटे छोटे संकटों, आकस्मिक घटनाओं व व्यापारिक संकटों का सरलतापूर्वक सामना कर सकती हैं।

6. उच्च मनोबल - कार्यशील पूंजी के यथेष्ठ होने से व्यवसाय में सुरक्षा का वातावरण, आत्मविश्वास, उच्च मनोबल, समग्र कार्यदक्षता उत्पन्न होती है। जिससे प्रबन्धक व कर्मचारियों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। अन्ततोगत्वा संस्था की कुशलता एवं लाभार्जन क्षमता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

7. अन्य लाभ  - 
  1. वेतन मजदूरी व अन्य दैनिक कार्यों का नियमित भुगतान,
  2. स्थायी सम्पत्तियों की उत्पादकता में वृद्धि,
  3. विनियोगों पर उचित प्रत्याय,
  4. आकस्मिक भुगतान की सुविधा।

कार्यशील पूंजी के प्रकार

  1. सकल कार्यशील पूंजी
  2. शुद्ध कार्यशील पूंजी 
  3. स्थायी कार्यशील पूंजी
  4. परिवर्तनशील कार्यशील पूंजी 
1. सकल कार्यशील पूंजी - इसका अभिप्राय चालू सम्पत्तियों के कुल योग से होता है। रोकड़ बैंक, शेष, देनदार, प्राप्य विपत्र, पूर्ववत भुगतान, आदि जैसी चालू सम्पत्तियों का योग सकल कार्यशील पूँजी कहा जाता है।

2. शुद्ध कार्यशील पूंजी - यह चालू सम्पत्तियों एवं चालू दायित्वों का अन्तर होता है। शुद्ध कार्यशील पूंजी की मात्रा सकल कार्यशील पूंजी का वह भाग होती है जिसका वित्तीयन दीर्घकालीन कोषों से किया जाता है। इसकी गणना दीर्घकालीन पूंजी में से स्थायी सम्पत्तियों को घटाकर की जा सकती है।

3. स्थायी कार्यशील पूंजी - कार्यशील पूंजी की वह मात्रा जो व्यवसाय के सामान्य संचालन के लिए नियमित रूप से सदैव रखी जानी चाहिए, स्थायी कार्यशील पूंजी कही जाती है। इसकी प्रकृति स्थायी एवं दीर्घकालीन होती है जिसका वित्तीयन भी दीर्घकालीन वित्तीय स्रोतों से किया जाता है।

4. परिवर्तनशील कार्यशील पूंजी  - स्थायी कार्यशील पूंजी के अतिरिक्त वर्ष के कुछ महीनों में व्यापार की अत्तिाकता के कारण परिवर्तनशील कार्यशील पूंजी की आवश्यकता भी पड़ सकती है। चीनी उद्योग, ऊनी वस्त्र उद्योग, फ्रीज, कूलर, आदि मौसमी वस्तुओं को उत्पादित करने वाली संस्थाओं को मौसम के खास महीनों में इस प्रकार की अतिरिक्त पूंजी की आवश्यकता होती है मौसमी प्रकृति के कारण इसकी मात्रा घटती बढ़ती रहती है। जिसकी व्यवस्था अल्पकालीन स्रोतों से की जाती हैं।

कार्यशील पूंजी के स्रोत

कार्यशील पूंजी दो प्रकार के स्रोत (अ) दीर्घकालीन स्रोत, तथा (ब) अल्पकालीन स्रोत से प्राप्त की जा सकती है।

1. कार्यशील पूँजी के दीर्घकालीन स्रोत -

स्थायी कार्यशील पूंजी का वित्त पोषण करने के लिए उपक्रम को दीर्घकालीन साधनों को ही अपनाना चाहिए। दीर्घकालीन साधनों से ही लम्बे समय तक के लिए, वित्त प्राप्त हो सकता है। कार्यशील पूंजी के दीर्घकालीन साधन निम्नलिखित हो सकते हैं -

1. अंश - नये अंशों का निर्गमन कार्यशील पूँजी का मुख्य साधन है। एक कम्पनी समता और पूर्णाधिकार अंशों का निर्गमन कर सकती है। पहले स्थगित अंशों के निर्गमन का अधिकार कम्पनियों को प्राप्त था जिसे भारतीय कम्पनी अधिनियम 1956 के द्वारा रोक दिया गया है। पूर्वाधिकार अंशों को एक निश्चित दर से लाभांश प्राप्ति के सम्बन्ध में और कम्पनी समापन के समय पूंजी के पुनर्भुगतान के लिए प्राथमिकता प्राप्त होती है। समता अंशों को लाभ की उपलब्धता के आधार पर लाभांश प्रदान किया जाता है। कम्पनी को अंशों के निर्गमन से स्थायी कार्यशील पूंजी की अधिकतम राशि की व्यवस्था करनी चाहिए।

2. ऋणपत्र- ऋण पत्र निर्गमन भी अंशों की ही भांति कार्यशील पूंजी का महत्वपूर्ण साधन है। ऋणपत्र किसी भी धारक को ऋण की स्वीकृति का कम्पनी द्वारा निर्गमित प्रपत्र होता है। ऋणपत्र धारक कम्पनी के लेनदार होते हैं और निश्चित दर से ब्याज प्राप्त करने के हकदार होते हैं।

3. प्रतिपादित लाभ - यह वित्त का एक आन्तरिक साधन है जो सर्वाधिक सस्ता और वस्तुत: लागतविहीन स्रोत होता है। यह साधन पूर्व स्थापित संस्थाओं द्वारा अपने विस्तार, आधुनिकीकरण और प्रतिस्थापन आदि के लिये प्रयोग किया जाता है।

4. प्राचीन सम्पत्तियों का विक्रय - बेकार के अप्रयुक्त स्थायी सम्पत्तियों को बेचकर भी कार्यशील पूंजी की व्यवस्था की जा सकती है।प्रबन्धन इस साधन पर कम ही निर्भर रह सकता है। क्योंकि यह सामयिक, अनियमित और अविश्वसनीय होता है।

5. दीर्घकालीन ऋण- बैंकों, विनियोग कम्पनियों व विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं से दीर्घकालीन ऋण प्राप्त करके भी कार्यशील पूंजी का वित्तीयन किया जा सकता है। भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (IFCI), राज्य वित्त निगमों (SFCs), भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI), नाबार्ड (NABARD) आदि इसके उदाहरण है।

2. कार्यशील पूँजी के अल्पकालीन स्रोत -

अल्पकालीन साधनों से अस्थायी कार्यशील पूंजी की व्यवस्था की जाती है। जिसकी लागत भी अपेक्षाकृत कम होती है। प्रमुख अल्पकालीन साधन है

1. वाणिज्यिक बैंकं - अल्पकालीन कार्यशील पूंजी के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत वाणिज्यिक बैक होते हैं। बैंक सामान्यतया अग्र चार रूपों में ऋण प्रदान करते हैं।

2. नकद साख - इस व्यवस्था के अन्तर्गत बैंक तथा ग्राहक के मध्य एक औपचारिक समझौता होता है जिसमें साख की अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी जाती है। ग्राहक निर्दिष्ट सीमा के भीतर आवश्यकतानुसार राशि का आहरण कर सकता है। ब्याज आहरित किए गये ऋण पर ही लगता है न कि सम्पूर्ण अधिकतम सीमा पर ।

3. बैंक अधिविकर्ष - अधिविकर्ष बैंक के साथ की गई ऐसी व्यवस्था है जिसमें चालू खाता के ग्राहक अपने खाते में जमा शेष के अतिरिक्त एक निर्धारित सीमा तक धन के आहरण की स्वीकृति बैंक से लेता है। इससे ग्राहक चेक अनादृत होने पर उत्पन्न विषम स्थिति से बच जाता है और कुछ समय के लिए ऋण सुविधा भी मिल जाती है। व्यवहार में नकद साख और बैंक अधिविकर्ष में कोई खास अन्तर नहीं होता है लेकिन इतना अवश्य है कि अधिविकर्ष अति अल्पकाल के लिए स्वीकृत किया जाता है और यह एक अस्थायी व्यवस्था (Short-gap arrangement) होती है जबकि नकद साख अपेक्षाकृत अधिक अवधि के लिए स्वीकृत होता है।

4. सुरक्षित ऋण - बैंक जब सम्पत्तियों की जमानत के आधार पर एकमुश्त अग्रिम देता है तो उसे सुरक्षित ऋण कहते हैं। प्राय: बैंक बॉण्डस, रहतिया व व्यक्तिगत जमानत के आधार पर इस प्रकार का अल्पकालीन ऋण देती है। ऋण की वापसी एकमुश्त या किस्तों में की जा सकती है। 

5. बिलो की कटौती - इसमें ग्राहक बैंक को अपने प्राप्य बिलों की अपेक्षाकृत कम मूल्य पर बेच देते हैं अथवा वर्तमान ब्याज की दर पर कटौती करा लेता है। परिपक्वता की तिथि पर बैंक सम्बद्ध पक्ष से बिल का पूर्ण अंकित मूल्य प्राप्य कर लेता है। इस प्रकार ग्राहक कटौती की धनराशि की हानि उठाकर आवश्यकतानुसार वित्त प्राप्त कर लेता है।

6. व्यापार साख - प्राय: सभी व्यावसायिक इकाइयों को माल विक्रेता से अल्पकाल के लिए अपनी ख्याति के अनुसार उधार मिल जाता है जिसका भुगतान बाद में एकमुश्त या किश्तों में किया जाता है। कभी-कभी इस उधार माल के लिए विपत्र, प्रतिज्ञा-पत्र, हुण्डी, आदि लिख दिए जाते हैं। इस विधि में उधार पर ब्याज नहीं दिया जाता है परन्तु बहुधा विक्रेता माल की कीमत बढ़ा करके ही बेचता है। इस प्रकार अधिक कीमत लेकर ब्याज की पूर्ति कर ली जाती है। व्यापार साख की अवधि प्राय: 15 दिन से 3 माह तक की होती है।

7. देशी साहूकार  छोटे तथा मध्यम आकार के उपक्रम अपनी कार्यशील पूँजी का महत्वपूर्ण हिस्सा देशी साहूकारों से प्राप्त करते हैं। ये लोग ब्याज की दर अधिक वसूल करते हैं अत: इनकी शरण में व्यावसायिक गृह अन्त में ही जाते हैं। आजकल वाणिज्यिक बैकों का प्रचलन बढ़ने से देशी साहूकारों की महत्ता दिन प्रतिदिन घट रही है।

8. जन निक्षेप - मुम्बई एवं अहमदाबाद की सूती वस्त्र मिलों में जन निक्षेप कार्यशील पूंजी का प्रचलित स्रोत रहे हैं। वर्तमान में निजी व सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां इस साधन का प्रयोग निरन्तर कर रही हैं। इसमें जनता अपना धन तब तक कम्पनियों के पास जमा रखती है जब कि उन्हें ब्याज मिलता है। यह साधन कम्पनियों के लिए सुखद समय का साथी (Fair Weather Friend) सिद्ध होता है और संकट की स्थिति में जमाकर्ता वापसी की मांग कर सकते हैं।

9. ग्राहको से अग्रिम - कुछ व्यावसायिक गृह अपने ग्राहकों से माल के आदेश के साथ सम्पूर्ण या आंशिक भुगतान अग्रिम में प्राप्त कर लेते हैं जो कार्यशील पूंजी का अल्पकालीन साधन होता है । यह पूँजी प्राप्त करने का लागत विहीन साधन है क्योंकि इस पर कोई ब्याज नहीं देना पड़ता है। परन्तु प्राय: एकाधिकारी संस्थाएँ ही इस साध् ान को प्रयोग करने की स्थिति में होती है जहाँ पर ग्राहक कोई भी शर्त स्वीकार करने का बाध्य होता है। प्रतिस्पध्री वातावरण में और जिस संस्था की साख निर्बल हो, इस साधन का सहारा नहीं ले सकती है।

10. आन्तरिक साधन - कार्यशील पूँजी के लिए ह्रास कोष, करों के लिए प्रावधान व उपार्जित व्यय जैसे आन्तरिक साधनों का भी उपयोग किया जा सकता है। लाभ में से कुछ भाग निकालकर बनाए गये ह्रास कोष उस समय तक कार्यशील पूँजी प्रदान करते हैं जब तक कि कोई स्थायी सम्पत्ति न क्रय की जाए अथवा लाभांश के रूप में वितरित न किया जाये। इसी तरह करों के लिए जो प्रावधान किया जाता है वह एक निश्चित अन्तराल पर भुगतान किया जाता है। इस बीच की अवधि में यह अल्पकालीन कार्यशील पूंजी के रूप में प्रयुक्त होता है। उपार्जित व्ययों की राशि भी भुगतान होने तक अल्पकालीन साधन होते हैं।

11. अन्य साधन - कुछ अन्य साधन हैं - (अ)- सरकारी सहायता, (ब)- प्रबंधकों व संचालकों के ऋण (स)- कर्मचारियों की प्रतिभूतियाँ।

कार्यशील पूंजी को निर्धारित करने वाले तत्व

1. व्यवसाय का स्वरूप - कार्यशील पूंजी की मात्रा को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक प्रमुख कारक व्यवसाय का स्वरूप है। रेलवे, सड़क, गैस, आदि जनोपयोगी व सेवा संस्थाओं में निरन्तर मांग और नकद विक्रय होने से कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इनकी माँग सदैव रहने से रोकड़ प्रवाह अनवरत होता रहता है। इसके विपरीत, विलासिता व सौन्दर्य प्रसाधन उत्पन्न करने वाली संस्थाओं एवं व्यापारिक संस्थाओं में अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इनकी परिवर्तनशील माँग होने के कारण रहतिया में बहुत विनियोजन करना पड़ता है।

2. व्यवसाय का आकार -   एक संस्था की कार्यशील पूँजी की मात्रा उसके व्यवसाय के आकार से प्रत्यक्षत: जुड़ी होती है। एक छोटे आकार के व्यवसाय के लिए नकद रोकड़, प्राप्य बिल तथा रहतिया के लिये अपेक्षाकृत कम पूँजी की आवश्यकता होती है। बड़े आकार के व्यवसाय के लिए अधिक कार्यशील पूंजी की आवयकता होती हैं।

3. उत्पादन प्रक्रिया की अवधि -  यदि उत्पादन प्रक्रिया अधिक समय लेने वाली होती है तो स्वाभाविक तौर पर कच्चे माल को निर्मित माल का रूप देने में अधिक समय, लागत और श्रम लगता है जिसके परिणामस्वरूप अधिक कार्यशील पूंजी चाहिए। किन्तु यदि उत्पादन प्रक्रिया की अवधि अपेक्षाकृत छोटी होती है तो कम मात्रा में कार्यशील पूँजी चाहिए।

4. कार्यशील पूंजी चक्र -  कार्यशील पूंजी चक्र कच्ची सामग्री के क्रय से प्रारम्भ होता है तथा निर्मित माल के रूपान्तरण व निर्मित माल के विक्रय से रोकड़ की वसूली के साथ समान होता है। कार्यशील पूंजी चक्र की अवधि जितनी लम्बी होगी, उसकी आवश्यकता भी उतनी ही अधिक होगी।

5. क्रय की शर्ते एव रीतियाँ -  कच्चा माल व अन्य सामान किन महीनों व शर्तों पर क्रय किया जाता है का सीधा प्रभाव कार्यशील पूंजी की मात्रा पर पड़ता है। यदि कच्चे माल की समस्त वार्षिक जरूरत को फसल के ही समय एक साथ खरीद कर रख लिया जाता है तो कार्यशील पूॅंजी की अधिक आवश्यकता होगी, परन्तु वर्ष पर्यन्त स्थानीय बाजार से कच्चा माल क्रय किया जाता है तो कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी। इसी प्रकार यदि कच्चा माल विक्रेता से लम्बी अवधि के उधार पर आपूर्ति किया जाता है तो उसे निर्मित करने के बाद बेचकर कच्चे माल का भुगतान किया जा सकता है। परन्तु यदि कच्चा माल नकद खरीदना पड़ता है तो फिर अधिक कार्यशील पूंजी की व्यवस्था करनी पड़ती होगी।

6. विक्रय की शर्ते - माल का विक्रय नकद एवं उधार किया जा सकता है। यदि निर्मित माल नकद बेचा जाता हो तो कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी। यदि माल उधार बेचा जाता है तो उसके भुगतान में अधिक समय लगता है तो निश्चित तौर पर अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी।

7. व्यवसाय चक्र -  व्यवसाय चक्र भी कार्यशील पूंजी की मात्रा को प्रभावित करते हैं। तेजी काल में विक्रय में वृद्धि, कीमतों में बढ़ोत्तरी व व्यवसाय के आशावादी विस्तार, आदि के कारण अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। मन्दी के समय मांग कम होने के कारण विक्रय में गिरावट आती है, व्यापार में संकुचन होता है व देनदारों से धन वसूली में दिक्कत आती है। ऐसी स्थिति में कार्यशील पूंजी का एक बड़ा भाग निष्क्रिय पड़ा रह सकता है।

8. बैंकिंग सम्बन्ध -  ऐसी संस्थाएं जो बैंकों से अच्छे व मधुर सम्बन्ध विकसित करने में सक्षम होती है तथा बैंक की दृष्टि से जिनकी साख उत्तम होती है वे कम कार्यशील पूंजी से भी व्यवसाय संचालित कर सकती हैं। आवश्यकता होने पर बैंक उन्हें शीघ्रता से वित्त प्रदान कर सकता है।

9. लाभांश नीति - अगर कम्पनी उदार लाभांश नीति अपनाती है तो लाभांश वितरित करने के लिए अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी। दूसरी ओर, यदि कम्पनी नकद लाभांश न वितरित करके बोनस अंशों का निर्गमन करती है तो यह कार्यशील पूँजी की मात्रा में कमी लाएगा।

10. व्यवसाय के विकास की दर -  एक संस्था की कार्यशील पूँजी की आवश्यकताएं इसकी व्यावसायिक क्रियाओं के विस्तार और विकास के साथ-साथ बढ़ती है । यदि व्यापार विस्तार व विकास की दर धीमी है तो कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी जिसकी व्यवस्था लाभों के पुर्नविनियोग (Ploughing Back of Profits) से की जा सकती है। किन्तु यदि व्यापार का विस्तार बड़े पैमाने पर किया जाता है तो तीव्र विकास हेतु अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता पड़ती है।

11. अन्य कारक -  कुछ अन्य तत्व जैसे, मूल्य स्तर परिवर्तन, प्रबन्धकीय योग्यता, राजनीतिक स्थायित्व, युद्ध आशंका, आयात नीति, परिवहन व संचार की सुविधा, आदि भी कार्यशील पूँजी की आवश्यकता प्रभावित करती हैं ।

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