केंचुआ खाद बनाने का आसान विधि

पौधों के अवशेष पदार्थों, पशुओं का बचा हुआ चारा, कू़ड़ा करकट आदि पदार्थों के बैक्टीरिया तथा फफूंद द्वारा विशेष विच्छेदन से बना हुआ पदार्थ कम्पोस्ट कहलाता है। सड़ी हुई यह खाद प्रायः गहरे भूरे रंग की होती है कम्पोस्ट को प्रयोग करने से भूमि की भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। मृदा संरचना सुधरती है, मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ती है यह मृदा की ऊष्मा शोषण क्षमता भी बढ़ाती है। पौधों के पोषक तत्वों की पूर्ति करती है। कम्पोस्ट में असंख्य फंजाई तथा बैक्टिरिया होते हैं, अतः खेतों में इसके प्रयोग से इनकी संख्या बढ़ जाती है। सूक्ष्म जीवों की सक्रियता में वृद्धि होती है, फलतः नाइट्रीकरण, अमोनीकरण तथा नाइट्रोजन स्थरीकरण में वृद्धि होती है। कम्पोस्ट में मुख्य रुप से वर्मीकम्पोस्ट प्रमुख हैं। 

वर्मीकम्पोस्ट (Vermi Compost) को वर्मीकल्चर (Vermi Culture) भी कहा जाता है। यह मुख्यतः केचुओं द्वारा तैयार होती है। केचुए कार्बनिक निरर्थक पदार्थ को अपने शरीर के भार के दो से पाॅच गुना तक ग्रहण करते हैं तथा उसमें से केवल 5-10 प्रतिशत अपनी शरीर की आवश्यकता के लिए प्रयोग करके शेष पदार्थ को अपचाहित पदार्थ के रुप में बाहर कर देते हैं जिसे वर्म कास्ट कहते हैं। अतः गोबर, सूखे हरे पत्ते, घास-फूस, धान का पुआल, डेयरी पदार्थ, कुक्कुट निरर्थक पदार्थ खाकर केचुओं द्वारा प्राप्त मल से तैयार खाद ही केंचुआ खाद कहलाती है यह भूमि की उर्वरता, भौतिक दशा जैविक पदार्थों, लाभदायक जीवाणुओं में वृद्धि एवं सुधार करती है। भूमि की जल सोखने की क्षमता में वृद्धि करता है तथा मृदा संरचना में सुधार करता है। इससे खरपतवार की कमी होती है। जहां केंचुएं पाले जाते हैं वहां मटर व जई में 70 प्रतिशत, घासों में 28-112 प्रतिशत, सेब में 25 प्रतिशत, बीन्स में 291 प्रतिशत गेहूँ में 300 प्रतिशत की उत्पादन वृद्धि मिली केंचुओं के कारण वातावरण स्वस्थ रहता है और खेती लाभकारी बनी रहती है।

केंचुआ खाद बनाने की विधि 

केंचुआ खाद बनाने के लिए चार संसाधनों की आवश्यकता होगी-

1. उपयुक्त प्रजाति के केंचुआ - केंचुआ मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं- एन्डोजीइक या नाइट कालर्स तथा ईपीजीइक या सरफेस फीडर्स। इनमें से एन्डोजीइक (नाईट कालर्स) जमीन के अंदर रहते हैं। ये 8 से 10 इंच लंबे होते हैं, इनका वज़न लगभग 5 ग्राम तक होता है तथा ये 90 प्रतिशत मिट्टी एवं 10 कार्बनिक पदार्थ खाते हैं। अधिकांशत: हमारे आसपास यही केंचुए पाए जाते हैं तथा बहुधा ये वर्षात में दिखाई देते हैं। ये केंचुआ केंचुआ खाद बनाने में काम नहीं आते। 

केंचुओं की दूसरी किस्म ईपीजीइक या सरफेस फीडर्स कहलाती है। ये अपेक्षाकृत कम लम्बाई के होते हैं तथा इनका वजन लगभग 0.5 से 1 ग्राम तक होता है। इनका रंग लालिमा लिए हुए बैंगनी होता है। ये वनस्पतिक अवशेष तथा गोबर खाते हैं, ये मिट्टी पसंद नहीं करते। केंचुआ खाद बनाने हेतु यही उपयुक्त होते हैं। इनमें से केंचुआ खाद बनाने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त प्रजाति ‘‘आइसिनिया फेटिडा’’ है। ये केंचुआ टाइगर केंचुआ अथवा ब्राण्डलीग केंचुए के नाम से भी जाने जाते हैं। इनका शरीरा लम्बा, पतला, गोल तथा दोनों सिरों पर नुकीला होता है। तथा यह 100 से 122 खण्डों में विभाजित होता है। 

इस प्रजाति के केंचुआ प्रकाश, तीव्र तापक्रम तथा गैसीय द्रव्यों जैसे एसिटिक एसिड आदि के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। इनकी सक्रियता के लिए मध्यम तापक्रम तथा आर्द्रता ज्यादा अनुकूल रहती है। इनका जीवन चक्र 130 से 150 दिन का होता है तथा जन्म के छ: से सात सप्ताह के बाद ये प्रजनन योग्य हो जाते हैं। ये केंचुआ 6 सेल्सियस से 35 अंश सेल्सियस तक का तापक्रम सह लेते हैं।

2. गोबर अथवा कार्बनिक अवशेष -केंचुआ खाद बनाने के लिए दूसरी आवश्यकता होगी- अधपका वनस्पतिक कचरा, अधपका गोबर (ताजा गोबर कदापि नहीं) या गोबर गैस से निकली स्लरी, बची हुई शाक सब्जियां, घास-फूस एवं कूड़ा कचरा, सब्जियों के छिलके, सूबबूल की पत्तियां, नीम की पत्तियां आदि।

3. पानी - केंचुआओं के संवर्धन तथा उन्हें जिन्दा बनाए रखने के लिए नमी बनाई रखी जाना आवश्यक होती है जिसके लिए पानी की आवश्यकता होगी। एक 3×15 फीट के गड्ढे के लिए प्रति दिन लगभग 15 से 45 लीटर पानी की आवश्यकता होती है।

4. औजार - केंचुआ खाद की इकाई स्थापित करने के लिए किन्हीं सामान्य औज़ारों की भी आवश्यकता होगी जैसे फावड़ा, परात, टोकरी, झारा, प्लास्टिक पाइप, छानने हेतु छलना, कचरे अथवा पत्तों अथवा मुलायम टहनियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने के लिए कुट्टी मशीन, हाथ ट्राली आदि।

5. उपयुक्त स्थान -केंचुआ के संवर्धन हेतु ऐसे उपयुक्त स्थान की आवश्यकता होगी जिसमें उपयुक्त नमी तथा उपयुक्त तापमान स्थिर रखा जा सके, अत: इसके लिए एक टापरी अथवा शेड अथवा अस्थाई छाया तैयार करनी उपयुक्त होती है। इस प्रकार की टापरी स्थानीय रूप से उपलब्ध घास-फूस तथा बांस-बल्ली की सहायता से बनाई जा सकती है। ऐसा छप्पर अथवा टापरी 5 फीट चौड़ा तथा 20 फीट लम्बा होना चाहिए तथा यह इतना ऊंचा होना चाहिए कि इसमें घुस कर पानी दिया जा सके।

केंचुआ खाद की प्रक्रिया

  1. सर्वप्रथम उपयुक्त स्थान (छप्पर आदि) बना लेने के उपरान्त इसके नीचे 3 फीट चौड़ा, एक फीट गहरा तथा 15 फीट लम्बा गड्ढे बनाएं। 
  2. इस गड्ढे के तल को कंकर पत्थर या ईट के टुकड़े आदि डालकर इसे अच्छी प्रकार मजबूत कर लें। (इसे पक्का करने की आवश्यकता नहीं है) ताकि केंचुए जमीन में नीचे न जा सकें। एक छप्पर अथवा शेड के अंदर बनाए जाने वाले गड्ढे की संख्या तो एक से अधिक हो सकती है परन्तु प्रत्येक गड्ढे के बीच कम से कम एक फीट की दूरी रखी जानी चाहिए। 
  3. प्रत्येक गड्ढे में अधपके नमीयुक्त वनस्पतिक कचरे की छ: इंच की समान रूप की तह लगा दें। यदि कचरा अधपका न हो तो उसमें पहले थोड़ा गोबर मिलाकर उस पर 15 दिनों तक अच्छी प्रकार पानी डालें ताकि इसके सड़ने पर बनने वाली गर्मी को समाप्त किया जा सके। 
  4. इस छ: इंच ऊँचे वनस्पतिक कचरे की तह पर लगभग छ: इंच पका हुआ गोबर समान रूप से फैलाएं। 
  5. इस गोबर की तह पर 100 केंचुआ प्रति वर्गफीट के मान से डाल दें। उदाहरणार्थ 3×15 फीट (45 वर्गफीट) के बेड पर 4500 केंचुओं की आवश्यकता होगी। 
  6. इस तह के ऊपर 1 फीट ऊँची वनस्पतिक कचरे की तह समान रूप से फैला दें। यह वनस्पतिक कचरा जितना बारीक तथा अधसड़ा होगा, केचुओं के लिए यह उतना ही उपयुक्त आहार होगा। 
  7. अब इस ढेर को, जो कि डोम के आकार का होगा, जूट के बोरों से ढंक दें तथा इस पर नियमित रूप से (ठंड के मौसम में दिन में एक बार तथा गर्मी के मौसम में दिन दो बार) पानी का छिड़काव करते रहें ताकि गड्ढे में नमी बनी रहे तथा कचरा नर्म रहे जिसे केंचुआ आसानी से खा सकें। 
  8. गङ्ढे में डाले गए समस्त वनस्पति कचरे एवं गोबर को लगभग 30-35 दिन में हाथों से अथवा पंजे की सहायता से (फावड़ा अथवा गेती का इस्तेमाल किए बिना) धीरे-धीरे पलटते रहे। इससे गोबर से निकलने वाली गैस भी बाहर निकल जाएगी, वायु का संचार भी ठीक होगा तथा गोबर का तापमान भी ठीक रहेगा। 
  9. ढेर सदा केले के पत्तों अथवा बोरियों से ढंका रहना चाहिए तथा शेड में सदा अंधेरा बना रहना चाहिए क्योंकि अंधेरे में केंचुआ ज्यादा क्रियाशील रहते हैं। 
  10. उपरोक्त क्रियाएं विधिवत कर लेने पर जब 50-60 दिनों के उपरान्त ढेर पर से जूट के बोरे हटाए जाते हैं तो ढेर में चाय की पत्ती के समान केंचुआओं द्वारा विसर्जित कास्टिंग की ढेरियां दिखाई देंगी। यदि केंचुए पर्याप्त संख्या में डाले गए होंगे (अथवा जीवित बने होंगे) तो सारा कचरा कास्टिंग के रूप में परिवर्तित हो चुका होगा। 
  11. अब 10-15 दिनों तक पानी का छिड़काव बंद कर दें तथा तैयार केंचुआ खाद को बैड से बाहर निकालकर पौलीथीन शीट पर ढेर लगा दें। दो-तीन घंटे के उपरान्त केंचुए पौलीथीन के फर्श पर नीचे चले जायेंगे। इस स्थिति में केंचुआ खाद को अलग करके नीचे इकट्ठे हुए केंचुआओं को आगे केंचुआ खाद खाद बनाने के काम में लिया जा सकता है। यदि ऐसा न करना हो तो जितनी भी केंचुआ खाद तैयार हो जाए उसे निकालते रहें। आखिर में थोड़ी सी खाद की मात्रा तथा कुछ केंचुए बच जाते हैं। इसी बैड के पास नई बैड लगा दी जाती है तथा जैसे ही केंचुआओं को उपयुक्त वातावरण मिलता है, वे अपने आप ही नई बैड में आ जाते हैं। इस विधि से मात्र 60-70 दिन में 3×1×10 फीट की एक बैड से लगभग 6 से 10 क्विंटल अच्छी प्रकार पकी हुई केंचुआ खाद तैयार हो जाती है तथा इसमें डाले गए 3000 केंचुए बढ़कर लगभग 9000 तक हो जाते हैं। 

केंचुआ खाद बनाते समय रखी जाने वाली प्रमुख सावधानियां 

  1. केंचुआ खाद के निर्माण के लिए गाय का गोबर सर्वोतम होता है परन्तु कभी भी आंकड़ा के पत्ते तथा धतूरे के पत्ते इस मिश्रण में नहीं डालने चाहिए क्योंकि आंकड़े तथा धतूरे के पत्ते केंचुआओं के लिए जहरीले होते हैं।
  2. केंचुआ खाद का बैड छायादार जगह पर ही बनाया जाना चाहिए तथा इसे जमीन से ऊंचा रखा जाना चाहिए अन्यथा बरसात में इसमें से केंचुए बहकर बाहर जा सकते हैं। 
  3. केंचुआ खाद के बैड पर अंधेरा बनाए रखना चाहिए क्योंकि अंधेरे में केंचुए ज्यादा क्रियाशील होते हैं। 
  4. सड़े-गले कार्बनिक पदार्थ व गोबर को अच्छी प्रकार मिलाना चाहिए ताकि कार्बन-नाइट्रोजन का अनुपात संतुलित रहे। 
  5. कभी भी ताजा गोबर इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि इसमें से निकलने वाली गर्मी (गैस) से केंचुआ मर सकते हैं। इस प्रकार गोबर 10 से 15 दिन पुराना होना चाहिए। 
  6. केंचुआ खाद बैड का तापमान 25 से 300 सेल्शियस बनाए रखना चाहिए तथा इसमें 30 से 35 प्रतिशत तक नमी रहनी चाहिए। ऐसा बेड में से केंचुआ खाद पदार्थ को मुट्ठी में लेकर उसको लड्डू बनाकर देखने से किया जा सकता है। सही स्थिति में लड्डू बन जाना चाहिए परन्तु हाथ गीला नहीं होना चाहिए। 
  7. कठोर टहनियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा खरपतवार अवशेषों को भी फूल आने से पूर्व ही काम में ले लेना चाहिए। 
  8. खरपतवार तथा कूड़े कचरे में प्लास्टिक, कांच तथा पत्थर आदि नहीं होने चाहिए। 
  9. केंचुआ खाद बेड को तैयार कर लेने के 5-6 दिन बाद ही केंचुआ छोड़े जाने चाहिये क्योंकि तब तक बेड का तापमान उपयुक्त हो जाता है। इसी प्रकार माह में कम से कम एक बार बेड में पंजा चलाते रहना चाहिए। जिससे बेड में वायु का संचार होता रहे। केंचुआओं को उनकी बढ़त के लिए उपयुक्त वातावरण मिलता रहे। 
  10. केंचुआओं को पालने के लिए बनाए जाने वाले गड्ढों के तले पक्के नहीं करने चाहिये क्योंकि यदि छिड़काव के दौरान गड्ढे में पानी अधिक हो गया तो गड्ढे पक्का होने के कारण पानी रिसेगा नहीं जिससे केंचुआ मर सकते हैं। अत: गड्ढे के तले को सख्त तो बनाएं, पक्का नहीं। यदि पक्का बनावें तो प्रति फीट फर्श का ढलाव कम से कम दो इंच रखें जिससे पानी निकाल कर नीचे आ जाएगा जोकि वर्मीवाश के रूप में भी प्रयुक्त हो सकता है। 
  11. जूट के थैलों से केंचुआ खाद के गड्ढे अनिवार्यत: ढंक कर रखें जिससे गड्ढे की नमी सुरक्षित रहे। 
  12. गड्ढे को चीटियों, मकोड़ों, मुर्गियों, कौओं तथा पक्षियों आदि से सुरक्षित रखें। 
  13. गड्ढे की लंबाई तो सुविधानुसार कुछ हो सकती है परन्तु इनकी चौड़ाई तीन फीट से ज्यादा नहीं होनी चाहिए अन्यथा कार्य करने में असुविधा होगी

केंचुआ खाद के लाभ

  1. जैविक कचरे/फसल/पशु अवशेषों से 1.5 -2.5 महीने के भीतर केंचुआ खाद तैयार हो जाता है।
  2. केंचुआ खाद पादप पोषक तत्वों का भंडार है।
  3. यह मृदा के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों को बढ़ाता है और इसलिए फसल उत्पादकता में सुधार होता है।
  4. यह जैविक खाद उत्पादन के लिए आर्थिक रूप से लाभप्रद और पर्यावरण की –ष्टि से सुरक्षित पोषक तत्व पूरक है।
  5. यह एक आसानी से ग्रहणीय कम लागत की तकनीक है।
  6. 10 गड्ढे (10×3×1.5) से 3 टन केंचुआ खाद का उत्पादन किया जाता सकता है। केंचुआ की लागत 400 रुपये प्रति किलाग्राम है। केंचुआ खाद का एक 50 किलोग्राम का बैग 250 रुपये में बेचा जा सकता है। (5000 रुपये प्रति टन) यह तकनीक पारंपरिक पद्धति की अपेक्षा कचरे को तेजी से विघटित के मामले में बेहतर है।
  7. केंचुआ खाद में पोषक तत्वों की मात्रा परंपरागत खाद की तुलना में अधिक होती है। केंचुआ खाद को 5 टन प्रति हैक्टर की दर से डालना चाहिए। वृक्षों में 1-10 किलोग्राम प्रति वृक्ष (वृक्ष के आकार के अनुसार) डालना चाहिए।

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