किसी व्यावसायिक उपक्रम की कुल दीर्घकालीन पूंजी में पूंजी प्राप्ति के विभिन्न स्रोतों अर्थात स्वामिगत पूंजी एवं ऋणगत पूंजी के अनुपात का उचित संयोजन ही पूंजी संरचना कहलाता है।
पूंजी संरचना का अर्थ
पूंजी संरचना से अभिप्राय स्वामिगत तथा ग्रहीत निधि उधार कोषों के मिश्रण से
है। एक अनुकूल पूंजी संरचना वह होती है जिसमें ऋण एवं समता का अनुपात
ऐसा होता है जिससे कि समता अंशों के मूल्य तथा अंश धारकों की धनराशि बढ़ती
है।
एक फर्म की सम्मत पूंजी में ऋण के अनुपात को वित्तीय उत्तेलक अथवा पूंजी
मिलान कहा जाता है। जब कुल पूंजी में समता अंशपूजी का भाग कम तथा ऋणों
का भाग अधिक होता है तो इसे उच्च मिलान कहा जाता है। जबकि कुल पूंजी में
ऋणों का भाग कम होने पर निम्न मिलान कहा जाता है।
पूंजी संरचना में प्रमुखत: विभिन्न प्रतिभूतियों के पारस्परिक अनुपात को निर्धारित किया जाता है अर्थात् यह निर्णय लिया जाता है कि कुल आवश्यक पूंजी का कितना भाग अंशों से तथा कितना भाग ऋण-पत्रों से एकत्रित किया जाए। अंश पूंजी में भी कितना भाग समता या साधारण अंशों से तथा कितना भाग पूर्वाधिकारी अंशों से एकत्रित किया जाए। पूर्वाधिकारी अंश तथा ऋण पूंजी कम्पनी की आय पर एक निश्चित भार उत्पन्न करते है, अत: यह स्थायी लागत वाली प्रतिभूतियाँ (Fixed cost bearing securities) कहलाती है।
दूसरी तरफ साधारण अंशों पर लाभांश घोषित करना सदैव आवश्यक नहीं होता है तथा लाभांश कितना घोषित किया जाए यह लाभों पर तथा संचालकों की नीति पर निर्भर करता है। साधारण अंशों पर लाभांश कम या अधिक घोषित किया जा सकता है, अत: ये परिवर्तनशील लागत प्रतिभूतियाँ (Variable Cost Securities) कहलाती हैं। संस्था को उपर्युक्त दोनों ही प्रकार की प्रतिभूतियों के मध्य सन्तुलन स्थापित करना आवश्यक होता है, क्योंकि प्रतिभूति सन्तुलन (Security mix) का संस्था की दीर्घकालीन वित्तीय सुदृढ़ता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि कोई संस्था इस सन्तुलन को कायम नहीं रख पाती है तो वित्तीय ढाँचा असन्तुलित हो जाएगा जो संस्था के लिए हानिकारण हो सकता है।
i. निगम कर की अनुपस्थिति में मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धांत - इस सिद्धांत के अनुसार पूंजी संरचना के अतिरिक्त अन्य दृष्टि से समान दो संस्थाओं की समस्त पूंजी लागत एवं संस्था का मूल्य अन्तरपणन प्रक्रिया (arbitrage process) के कारण अलग-अलग नहीं हो सकते हैं। अन्तरपणन से आशय किसी वस्तु को कम मूल्य वाले बाजार से खरीदने व अधिक मूल्य वाले बाजार में बेचने की क्रिया से है। यह अन्तरपणन की प्रक्रिया वस्तु बाजार से सम्बन्धित है। इस सिद्धांत में एम. एम. अपने तर्क को इसी आधार पर उचित कहते हैं।
एम.एम. सिद्धांत के अनुसार यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रहेगी क्योंकि अन्तरपणन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जायेगी और दोनों कम्पनियों का मूल्य समान स्तर पर आ जायेगा। मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धांत इन मान्यताओं पर आधारित हैं -
इस प्रकार यह सिद्धांत संस्था के अन्दर अनुकूलतम पूंजी संरचना की अवधारणा को स्वीकार करता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी संस्था की पूंजी संरचना में परिवर्तन का पूंजी की लागत एवं कुल मूल्य पर पड़ने वाले प्रभाव को तीन चरणों से विभाजित करके स्पष्ट किया जा सकता है।
पूंजी संरचना की परिभाषा
वैस्टन एवं ब्राइघम के अनुसार, “पूंजी संरचना किसी फर्म का स्थायी वित्त प्रबन्धन होता है, जो
दीर्घकालीन ऋणों, पूर्वाधिकारी अंशों तथा शुद्ध मूल्य से प्रदर्शित होता है।”
आर.एच. वैरूल के अनुसार, “पूंजी संरचना का उपयोग प्राय: किसी व्यावसायिक संस्था में
विनियोजित कोषों के दीर्घकालीन स्रोतों को दर्शाने के लिए किया जाता है।”
पूंजी संरचना के सिद्धांत
पूंजी संरचना के चार प्रमुख सिद्धांत हैं।- शुद्ध आय सिद्धांत -
- शुद्ध परिचालन आय सिद्धांत -
- मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धानत या एम.एम. सिद्धांत -
- परम्परागत सिद्धांत -
1. शुद्ध आय सिद्धांत -
इस सिद्धांत के अनुसार पूंजी की लागत और संस्था के मूल्य में सम्बन्ध होता है। अर्थात पूंजी संरचना के परिवर्तन से संस्था की पूंजी की लागत एवं उसका कुल मूल्य प्रभावित होता है। इस सिद्धांत के अनुसार एक संस्था को अपने पूंजी संरचना में ऋण पूंजी का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिये। ऐसा करने से संस्था की पूंजी की लागत न्यूनतम हो जाती है और समता अंश पूंजी पर प्रत्याय की दर में वृद्धि हो जाती है। यह सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-- पूंजी संरचना में ऋण पूंजी में वृद्धि होने पर समता अंशधारियों की दृष्टि से जोखिम धारणा में कोई परिवर्तन नहीं आता है।
- इस उपागम के अनुसार अनुकूलतम पूंजी संरचना, पूंजी की लागत न्यूनतम और संस्था का कुल मूल्य अधिकतम हो इसी मान्यता पर आधारित है।
- समता पूंजी की लागत ऋण पूंजी की लागत से अधिक होती है।
- आयकर पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
2. शुद्ध परिचालन आय सिद्धांत -
शुद्ध परिचालन आय सिद्धांत का प्रतिपादन भी डेविड (Devid Durand) द्वारा ही किया गया था। शुद्ध परिचालन आय सिद्धांत यह बताता है कि कोई पूंजी संरचना अनुकूलतम नहीं होती है जो कम्पनी की पूंजी लागत एवं कम्पनी के मूल्य को प्रभावित करती हो। शुद्ध परिचालन आय का सिद्धांत इन मान्यताओं पर आधारित है-- ऋण पूंजी की लागत स्थिर रहती है।
- निगम कर का अस्तित्व नहीं होता है।
- संस्था की कुल पूंजी को समता पूंजी एवं ऋण पूंजी में विभाजित करना महत्वहीन है क्योंकि विनियोक्ता संस्था की कुल आय का पूंजीकरण करके संस्था का मूल्य ज्ञात करता है।
- पूंजी संरचना में ऋण पूंजी के अनुपात में वृद्धि होने से अंशधारियों की जोखिम धारणा में परिवर्तन होता है।
- पूंजी की कुल लागत ऋण एवं समता मिश्रण के सभी स्तरों पर एक समान रहती है।
3. मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धानत या एम.एम. सिद्धांत -
मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धांत, शुद्ध परिचालन आय सिद्धांत के समान ही है और इस सिद्धांत के द्वारा प्रस्तुत दृष्टिकोण का समर्थन करता है। इन दोनों ही सिद्धांतों के अनुसार पूंजी संरचना में परिवर्तन का संस्था की समस्त पूंजी लागत एवं संस्था के कुल मूल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है परन्तु एम.एम.सिद्धांत के अन्तर्गत प्रयुक्त कार्य प्रणाली, शुद्ध परिचालन आय सिद्धांत से भिन्न है। जहाँ शुद्ध संचालन आय सिद्धांत संस्था के मूल्य पर पूंजी संरचना की अप्रासंगिकता के पक्ष में कोई संचालनात्मक औचित्य प्रस्तुत नहीं करता है, वहीं एम.एम.सिद्धांत इसके लिए व्यावहारिक औचित्य प्रस्तुत करता है और इसको सिद्ध करने के लिये एम.एम. सिद्धांत इसके लिए व्यावहारिक औचित्य प्रस्तुत करता है। और इसको सिद्ध करने के लिए एम. एम. सिद्धांत में अन्तरपणन (Arbitrage process) नीति का प्रयोग किया गया है-i. निगम कर की अनुपस्थिति में मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धांत - इस सिद्धांत के अनुसार पूंजी संरचना के अतिरिक्त अन्य दृष्टि से समान दो संस्थाओं की समस्त पूंजी लागत एवं संस्था का मूल्य अन्तरपणन प्रक्रिया (arbitrage process) के कारण अलग-अलग नहीं हो सकते हैं। अन्तरपणन से आशय किसी वस्तु को कम मूल्य वाले बाजार से खरीदने व अधिक मूल्य वाले बाजार में बेचने की क्रिया से है। यह अन्तरपणन की प्रक्रिया वस्तु बाजार से सम्बन्धित है। इस सिद्धांत में एम. एम. अपने तर्क को इसी आधार पर उचित कहते हैं।
एम.एम. सिद्धांत के अनुसार यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रहेगी क्योंकि अन्तरपणन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जायेगी और दोनों कम्पनियों का मूल्य समान स्तर पर आ जायेगा। मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धांत इन मान्यताओं पर आधारित हैं -
- व्यक्तिगत विनियोक्ताओं को भी बिना किसी बाधा के उन्हीं शर्तों पर ऋण प्राप्त होता है जिन शर्तों पर किसी संस्था को प्राप्त होता है।
- पूंजी बाजार में प्रतिभूतियों के क्रय-विक्रय करने पर कोई लागत नहीं आती है और विनियोक्ता समान शर्तों पर ही ऋण ले सकता है या ऋण दे सकता है।
- संस्था का मूल्यांकन करने के लिए सभी विनियोजन परिचालन लाभ के सम्बन्ध में समान प्रत्याशा रखते हैं।
- पूंजी बाजार पूर्ण है अर्थात विनियोजक प्रतिभूतियों को ऋण एवं विक्रय करने के लिए स्वतंत्र होते हैं । विवेकशील विनियोजकों को सभी प्रकार की सूचनायें समान रूप से उपलब्ध होती है।
- संस्था अपने समस्त लाभों का वितरण अंशधारियों को कर देती है अर्थात संस्था का लाभाश भुगतान अनुपात 100 प्रतिशत है, कोई प्रतिधारित आय नहीं है।
- संस्था को कोई निगम कर का भुगतान नहीं करता।
- सभी संस्थाओं को सजातीय जोखिम वर्गों (Homogenous Risk Class) में विभाजित किया जा सकता है तथा प्रत्येक वर्ग में वर्गीकृत की गयी संस्था में व्यापारिक जोखिम का स्तर समान होता है।
मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धांत की सीमाएँ -
- निगम कर की अनुपस्थिति - इस सिद्धांत की सीमा यह है कि इसमें निगम कर को ध्यान में नहीं रखा जाता है।
- कारोबार लागत की अनुपस्थिति - एम.एम. सिद्धांत के अनुसार कारोबार अर्थात क्षतिपूर्तियों के लेन-देन की कोई लागत नहीं होती है लेकिन वर्तमान व्यावसायिक जगत में यह सम्भव नहीं है प्रतिभूतियों के लेन देन की लागत होती है।
- जोखिम तत्व - यह सिद्धांत इस विचारधारा पर आधारित है कि एक कम्पनी व व्यक्तिगत विनियोक्ता बाह्य स्रोतों से एक निश्चित राशि एक ही दर पर प्राप्त कर सकते हैं लेकिन व्यवहार में जोखिम तत्व से भी बहुत भिन्नता होती है।
- सस्थागत प्रतिबंध - एम.एम. सिद्धांत अन्तरपणन प्रक्रिया के सफल संचालन पर आधारित है परन्तु अनलीवर्ड कम्पनी से लीवर्ड कम्पनी में परिवर्तन सभी विनियोक्ताओं के लिए सम्भव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत लीवरेज निगम लीवरेज का पूर्ण स्थानापन्न नहीं हो सकता जो कि अन्तरपणन प्रक्रिया के लिये आवश्यक है।
4. परम्परागत सिद्धांत -
परम्परागत सिद्धांत शुद्ध आय सिद्धांत एवं शुद्ध परिचालन सिद्धांत के बीच का सिद्धांत है इस कारण इसे मध्यवर्ती सिद्धांत भी कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार ऋण पूंजी एवं समता पूंजी के विवेकपूर्ण मिश्रण द्वारा एक संस्था अपनी समस्त पूंजी की लागत को कम करके अपने कुल मूल्य को बढ़ा सकती है।इस प्रकार यह सिद्धांत संस्था के अन्दर अनुकूलतम पूंजी संरचना की अवधारणा को स्वीकार करता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी संस्था की पूंजी संरचना में परिवर्तन का पूंजी की लागत एवं कुल मूल्य पर पड़ने वाले प्रभाव को तीन चरणों से विभाजित करके स्पष्ट किया जा सकता है।
capital structure object and fechers aap hme de skte h
ReplyDeletecapital structure object and fechers aap hme de skte h
ReplyDeletecapital structure object and fechers aap hme de skte h
ReplyDelete