प्रमाप लागत विधि क्या है प्रमाप लागत विधि के उद्देश्य ?

प्रमाप लागत नियंत्रण की वह विधि है जिसमें भविष्य में किये जाने वाले उत्पादन के प्रमाप लक्ष्य, पहले से ही पूर्व निर्धारित कर लिए जाते हैं। इसके बाद वास्तविक लागत के कई साधनों (सामग्री, श्रम तथा विचरण) की तुलना प्रमाप लागत (पूर्व निर्धारित लागत) से की जाती है व दोनों के विचरणों या अन्तरों का पता लगाया जाता है। अन्ततः विचरणों के कारणों का विश्लेषण करके इनको दूर करने के उपाय किये जाते हैं। इसके निर्धारण में संस्था की वर्तमान व पूर्व की उत्पादन क्रियाओं को ध्यान में रखा जाता है।

प्रमाप लागत विधि की परिभाषा 

ब्रउन एवं हावर्ड के अनुसार, ‘‘प्रमाप लागत एक पूर्व निर्धारित लागत है, जो यह निर्धारित करती है कि दी हुई परिस्थितियों में प्रत्येक उत्पाद या सेवा पर क्या लागत होनी चाहिए।’’

आई.सी.एम.ए.आफ इंग्लैण्ड के अनुसार,’’प्रमाप लागत एक पूर्व-निर्धारित लागत है जिसकी गणना प्रबन्ध के कुशल संचालक के प्रमापों एवं सम्बद्व आवश्यक व्यय से की जाती है।’’

जे.आर. बाटलीबॉय के अनुसार,’’प्रमाप लागत का आशय ऐसी पूर्व-निर्धारित लागतों से है जो उस समय की जाती हैं जबकि यंत्र,उत्पादन तकनीकी ,सामग्री एवं श्रम आदि से सम्बन्धित क्रियाएं अधिक कार्यक्षमता के साथ संगठित होती हैं और उन दी गई परिस्थितियों में प्रयोग की जाती हैं। जो स्थिर व व्यवहारिक होती है और बहुत आदर्शवादी तथा अप्राप्य नहीं होती हैं।

ब्राउन एवं हावर्ड के अनुसार ‘‘प्रमाप लागत विधि लागत लेखांकन की तकनीकी है जिसमें संचालक की कुशलता निर्धारित करने के लिए प्रत्येक उत्पाद या सेवा के प्रमाप लागत की तुलना वास्तविक लागत से की जाती है, ताकि तुरन्त ही कोई सुधारात्मक कार्यवाही की जा सके।

‘इन्स्टीटयूटूट आफ कास्ट एण्ड मैनेजमैण्ट एकाउण्टेण्ट ऑफ इंग्लैण्ड के अनुसार,’’प्रमाप लागत विधि प्रमाप लागतों की तैयारी और प्रयोग,उनकी वास्तविक लागतों से तुलना और कारणों व प्रभावों के बिन्दुओं को दर्शाते हुए विचरणांशों का विश्लेषण है।’’

प्रमाप लागत विधि के उद्देश्य 

  1. प्रमाप लागत विधि नियन्त्रण का एक औजार है जिसकी सहायता से प्रभावपूर्ण नियन्त्रण सम्पादित कर कार्य क्षमता व उत्पादकता में वृद्वि की जा सकती है। 
  2. इस लागत विधि का दूसरा उद्देश्य ही वास्तविक और प्रमाप लागतों में अन्तर का निर्धारण कर विचरणों के कारणों का पता लगाया जाता है। कारणों की जानकारी के आधार पर विचरणों के लिए उत्तरदायी व्यक्ति/ केन्द्र का पता लगाया जा सकता हैं। 
  3. कभी-कभी बजटरी नियंत्रण के सहायक के रुप में प्रमाप लागत लेखा विधि को अपनाना भी उद्देश्य हो सकता है। इन दोनों के संगम से नियंत्रण व्यवस्था और अधिक प्रभावशाली बन जाती हैं। 
  4. प्रबन्ध को महत्व पूर्ण सूचना प्रदान करना भी लागत लेखा विधि का उद्देश्य होता है। इस विधि के माध्यम से प्रबन्धकों को वह सूचना दी जा सकती है जिसके फलस्वरुप उत्पादन कार्य पूर्व -निर्धारित योजना व प्रमाप के आधार पर संपादित नही हो सका। 
  5. प्रबन्ध में आगे देखने और भावी विचार करने की शक्ति का विकास करना भी प्रमाप लागत लेखाविधि का उद्देश्य होता हैं। 

प्रमाप लागत विधि के लाभ 

  1. प्रमाप लागत एक अमुक क्रिया के मापदण्ड होते हैं, जिससे वास्तविक लागत की तुलना की जा सकती है। वास्तविक लागत की गत वर्ष की वास्तविक लागत से भी तुलना की जा सकती है, परन्तु इस प्रकार की तुलना वैज्ञानिक और परिशुद्ध नहीें हो पाती है क्योंकि इस प्रक्रिया में अनेक ऐसे प्रश्न उठ पड़ते हैं जिनका सन्तोषजनक उत्तर व्यवहार में नहीं मिल पाता है। इसलिए प्रमाप लागत तुलनात्मक अध्ययन में न केवल सहायक बल्कि उचित मार्ग प्रदर्शक भी होते हैं। 
  2. साधारण लेखांकन से नैत्यक रूप में विचरणांश के विश्लेषण द्वारा किये गये खचोर्ं पर सतत् नियन्त्रण रखा जा सकता है। निष्पादन से पूर्व निर्धारित प्रमाप से थोड़ा सा विचलन होने पर उत्तरदायी व्यक्ति की खोज की जा सकती है और उन तथ्यो पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है जो योजना के अनुसार नहीं किये जा रहे हों। इस प्रकार प्रबन्ध व्यवसाय की क्षमता सरलतापूर्वक बढ़ा सकता है।
  3. प्रमाप लागत विधि के अन्तर्गत विभिन्न सूचना हेतु जो विवरण तैयार किये जाते हैं वे अपेक्षाकृत संक्षिप्त एवं महत्वपूर्ण होते हैं। प्रबन्ध को सर्वाधिक महत्वपूर्ण सूचना प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार प्रमाप लागत-विधि के प्रयोग से समय और श्रम की बचत हो सकती है 
  4. प्रबन्धकीय रिपोर्ट का निर्वचन भी अपेक्षाकृत सरल हो जाता है और इस रिपोर्ट के अध्ययन में समय की बचत हो जाती है। चूंकि रिपोर्ट में केवल महत्वपूर्ण सूचनाओं एवं तथ्यों को ही प्रदर्शित किया जाता है अत: प्रबन्ध तुरन्त ही महत्पूर्ण तथ्यों पर ध्यान दे सकता है। 
  5. यदि प्रमाप का सतत् रूप से अध्ययन किया जाय और उसमें सुधार लाया जाय तो नियंन्त्रण का कार्य सुगम हो जाता है। यही नहीं यदि प्रमाप लागत विधि के अध्ययन द्वारा प्राप्त फल के अनुसार तुरन्त कार्य किया जाय तो लागत में कमी भी लायी जा सकती है। इस प्रकार लागत नियन्त्रण और लागत में कमी- ये दोनों उद्देश्य प्रमाप लागत विधि द्वारा पूरे किये जा सकते हैं। 
  6. प्रमाप निर्धारित करने के लिए निर्माण, प्रशासन, विक्रय और वितरण आदि सभी क्रियाओं का विवरणात्मक अध्ययन करना पड़ता है। इस प्रकार के अध्ययन में लागत केन्द्र का स्थापन, अधिकार रेखा का स्पष्टीकरण और उत्तरदायित्व का निर्धारण शामिल होता है। अत: कुछ सीमा तक अक्षम एवं अपूर्ण क्रियाओं को प्रारम्भ में ही दूर किया जा सकता है। 
  7. उत्पादन कार्य प्रारम्भ होने से पूर्व ही निश्चितता के साथ उत्पादन एवं मूल्य सम्बन्धी नीति निर्धारित की जा सकती है। 
  8. प्रमाप लागत विधि के अन्तर्गत श्रमिकों की क्षमता का ज्ञान सरलातापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। इसके आधार पर श्रमिकों को बोनस व प्रेरणा भुगतान की योजना सरलता से बनायी जा सकती है। 

    प्रमाप लागत विधि की सीमाएं 

    प्रमाप लागत विधि हर समय और प्रत्येक स्थिति में लाभदायक यन्त्र के रूप में नहीं कर सकती है। अन्य विधियों की भांति इसकी भी कुछ सीमाएं होती हैं जिन्हें ध्यान में रखना आवश्यक होता है। कुछ सीमाएं हैं :-
    1. प्रमाप लागत विधि को लागू करना बहुत ही खर्चीला होता हैं। प्रमाप निर्धारित करना न केवल खर्चीला होता है बल्कि उच्च स्तर की योग्यता व बुद्धि की जरूरत पड़ती है जो प्रत्येक व्यावसायिक संस्था को सहज ही में उपलब्ध नहीं होती हैं। छोटे आकार की संस्थाओं में इस विधि को लागू करना अति कठिन होता है। 
    2. जिन परिस्थितियों में प्रमाप निर्धारित किये गये हों यदि उनमें परिवर्तन हो जाता है तो प्रमाप का पुनर्निरीक्षण आवश्यक हो जाता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो प्रमाप जड़वत् माने जाते हैं और विचरणांश में प्रयुक्त होने लायक नहीं रह जाते है परन्तु पुनर्निरीक्षण का कार्य इतना पेचीदा व कठिन होता है कि बहुत सी संस्थाएं पुनर्निरीक्षण करती ही नहीं है। 
    3. प्रमाप लागत विधि मनोवैज्ञानिक विपरीत प्रभाव डाल सकती है। कर्मचारी वर्ग में हतोत्साह की भावना पैदा हो सकती है। ऐसा तभी होता है जब प्रमाप काफी उँचे रखे जाते हैं। 
    4. सभी प्रकार की औद्योगिक संस्थाओं के लिए यह विधि उचित नहीं मानी जाती है। 
    5. प्रमाप लागत विधि द्वारा ज्ञात कारकों को दूर करना ही उद्देश्य होना चाहिए। उत्तरदायी व्यक्ति को दण्डित करना इसका उद्देश्य नहीं होना चाहिए।

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