उत्पादकता किसे कहते हैं उत्पादकता एवं उत्पादन में अंतर ?

सर्वप्रथम उत्पादकता का विचार 1766 में प्रकृतिवाद के संस्थापक क्वेसने के लेख में सामने आया। बहुत समय तक इसका अर्थ अस्पष्ट रहा। एम0एम0 मेहता ने इस संबंध में ठीक ही लिखा है, ‘‘दुर्भाग्य से, उत्पादकता शब्द औद्योगिक अर्थशास्त्र के उन कुछ शब्दों में से है जिन्होनें अनेक विभिन्न एवं विरोधी विवेचन उत्पन्न किये है।’’ उत्पादकता की अवधारणा को भली प्रकार समझने के लिए निम्न प्रमुख विद्वानों के विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
  1. लिटर (Litre, 1883) ‘‘उत्पादकता शब्द, उत्पादन करने की क्षमता है।’’
  2. स्मिथ, (Smith, 1937) ‘‘उत्पादकता का विचार श्रम-विभाजन की अवधारणा में सन्निहित है।’’
  3. मार्शल (Marshell, 1938) ‘‘श्रम उत्पादकता सूचकांक औद्योगिक कुशलता है, जिसका निर्धारण जलवायु एवं प्रजाति जीवन की आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र, आवास तथा आग, विश्राम की आशा, स्वतंत्रता एवं परिवर्तन, व्यवसाय एवं विशेषीकृत योग्यता शिशुक्षता इत्यादि द्वारा किया जाता है।’’
सम्पूर्ण उत्पादकता वस्तुओं एवं सेवाओं के रूप में उत्पाद सम्पत्ति के उत्पादन तथा उत्पादन की प्रक्रिया में प्रयोग किये गये साधनों, की लागत के मध्य अनुपात का द्योतक है।

उत्पादकता को समझने के लिए उत्पादन एवं लागत की स्पष्ट परिभाषा करनी होगी। उत्पादन के अंतर्गत उन सभी वस्तुओं एवं सेवाओं को सम्मिलित किया जाता है, जिनके अंतर्गत न केवल औद्योगीकरण एवं कृषि संबंधी उत्पाद पदार्थ सम्मिलित होते है।, बल्कि चिकित्सकों, शिक्षकों, दुकानों, कार्यालयों, परिवहन संस्थानों तथा अन्य सेवा उद्योगों में रत व्यक्ति भी सम्मिलित होते है।। लागत से हमारा अभिप्राय उत्पादन में सम्मिलित सभी प्रकार के प्रयासों एवं बलिदानों अर्थात् प्रबंधकों, शिल्पियों एवं श्रमिकों के कार्य से है।

सारांश में लागत का अभिप्राय उत्पादन को अपना योगदान देने वाले सभी कारकों का प्रयास एवं बलिदान है। इस प्रकार पूर्ण उत्पादकता की अवधारणा को स्पष्ट करने हेतु निम्न सूत्र को प्रयोग में लाया जा सकता है।

                         समस्त प्रकार का उत्पादन 
          उत्पादकता = -------------
                         समस्त प्रकार की लागत 

दूसरे शब्दों में उत्पादकता को समस्त प्रकार की लागत का प्रति इकाई उत्पादन कहा जा सकता है

उत्पादकता एवं उत्पादन में अंतर 

प्राय: ‘उत्पादकता’ एवं ‘उत्पादन’ शब्द को पर्यायवाची समझे जाने की भूल की जाती है। वास्तव में इन दोनों शब्दों में पर्याप्त अंतर है। ‘उत्पादकता’ साधनों का कुल उत्पत्ति से अनुपात है यानी प्रति साधन की इकाई का उत्पादन से अनुपात है। समस्त साधनों से प्राप्त होने वाला माल एवं सेवाएँ ‘उत्पादन’ है। इसमें व्यय के पहलू पर ध्यान नहीं दिया जाता है क्योंकि साधनों पर अधिक से अधिक व्यय करके उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि उत्पादकता में वृद्धि हो गई हो। उदाहरणार्थ यदि एक कारखाने में 1000 व्यक्ति 500 वस्तुयें बनाते हैं तथा दूसरे कारखाने में समान दशा में 2000 व्यक्ति केवल 800 वस्तुयें बनाते हैं। निश्चय ही दूसरे कारखाने का उत्पादन प्रथम कारखाने से अधिक है, लेकिन दूसरे कारखाने की उत्पादकता प्रथम कारखाने से कम है।

उत्पादकता को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक 

उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारक अत्यंत जटिल तथा अंतसंर्ब ंधित है क्योंकि इन्हें किसी तार्किक एवं क्रमबद्ध क्रम में व्यवस्थित करना कठिन है। यह प्रमाणित करना कठिन है कि उत्पादन में वृद्धि अमुक कारक के परिणाम स्वरूप है अथवा अनेक कारकों के सम्मिलित प्रभाव के कारण है। वर्गीकरण की प्रविधि एवं विधितंत्र में विभेद होते हुए भी कुछ प्रमुख कारकों को सरलतापूर्वक विभेदीकृत किया जा सकता है। इस कारकों पर प्रकाश डालने वाले कुछ प्रमुख विचार है -

1. अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन (I. L. O., 1956) : श्रम उत्पादकता को प्रभावित करने वाले कारकों को सामान्य, संगठनात्मक एवं प्राविधिक तथा मानवीय कारकों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

2. रेनाल्ड (Reynolds, L. G. 1959) : प्राविधिक प्रगति की कारक अनुपातिक दर प्रबंधकीय योग्यता एवं निष्पादन क्षमता तथा श्रम शक्ति का निष्पादन, अर्थ व्यवस्था का आकार, इसकी औद्योगिक संरचना तथा औद्योगीकरण की स्थिति।

3. मेहता (Mehta, M. M. 1959) : (अ) सामान्य कारकों में, प्रोद्योगिकी, आकार, आय, संगठनात्मक कारक, बाजार एवं श्रम कुशलता को सम्मिलित किया जा सकता है। (ब) प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारकों जैसे प्राकृतिक कारकों सहित विशिष्ट कारक। (स) सरकारी आर्थिक, भूगर्भ शास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक कारकों जैसे संस्थागत कारक।

4. संघा (Sangha, K. 1964) प्राद्योगिक प्रगति, श्रम शक्ति की गुणात्मक प्रकृति, पूंजी घनत्व, खनिज पदार्थों की उपलब्धता तथा सामाजिक एवं आर्थिक संगठन। सामाजिक संगठनों के अंतर्गत परिवार, धर्म निषेधों तथा अन्य इसी प्रकार के कारक सम्मिलित है तथा आर्थिक संगठनों के अंतर्गत सम्पत्ति संबंधी अधिकार, निर्णय लेने की भूमिका, व्यक्तियों अथवा व्यक्तियों के समूह की क्षमता उपभोक्ताओं की प्रमुखता इत्यादि सम्मिलित है। उत्पादकता को प्रभावित करने वाले उपर्लिखित कारकों को ‘मानवीय’ एवं ‘प्राविधिक’ दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। 

5. फ्रांसिस (Francis, C. 1948) : मेरा यह विश्वास है कि एक व्यवसाय की सबसे बड़ी पूंजी उसकी मानवीय पूंजी है और उनके महत्व में सुधार, भौतिक लाभ तथा नैतिक उत्तरदायित्व दोनों का ही विषय है इसलिये मेरा यह विश्वास है कि कर्मचारियों के साथ मानवीय व्यक्तियों जैसा वर्ताव किया जाना चाहिए, संगत पुरस्कार प्रदान किया जाना चाहिए, उनकी प्रगति को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, उन्हें पूर्णरूपेण सूचित किया जाना चाहिए, औचित्यपूर्ण कार्यभार का निर्धारण किया जाना चाहिए, कार्य करते समय तथा उसके पश्चात उनके जीवन को अर्थ एवं महत्व प्रदान किया जाना चाहिए।

6. ड्रकर (Drucker, P. F. 1951) : मानव एक औद्योगिक समाज का केन्द्रीय, कठिनता से प्राप्य एवं अत्यधिक मूल्य पर पूंजी संबंधी साधन है। यह औद्योगिक संस्थान की हमारी नवीन अवधारणा में व्यक्तियों के एक संगठन के रूप में, एक संस्थान के रूप में प्रदर्शित होता है। यह हमारी प्रबंध की अवधारणा में मानवीय प्रयासों के समन्वय कर्ता के रूप में प्रदर्शित होता है।

7. गांगे और फलीषमैन (Gange, R. M. Fleishman, E. A., 1959) एक औद्योगिक संगठन के अंतर्गत मानव जीवन मशीन अन्तक्रिया की संपूर्ण जटिलता में मानवीय कारक सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण करते है।। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि औद्योगिक संगठन के अंतर्गत अधिकतम उत्पादकता की दृष्टि से, यद्यपि मानवीय एवं प्राविधिक दोनों कारक मुख्य है।, किन्तु प्राविधिक कारकों की तुलना में मानवीय कारक कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। मानवीय कारकों की यह अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति अनेक कारणों से हैं :
  1. यह मनुष्य ही है जो उत्पादन के आवश्यक निर्माणकारी तत्त्वों-मानव, यन्त्र, पूँजी, खनिज पदार्थ एवं प्रबंध के विषय में नियोजन, संगठन, कर्मचारीगण प्रबंध निर्देशन, समन्वय, आय-व्यय विवरण प्रपत्र का निर्माण एवं प्रतिवेदन तैयार करने से संबंधित निर्णय लेता है। 
  2. यह मनुष्य ही है जो इन निर्णयों को वास्तविक रूप से कार्य रूप में परिणित करते हैं। 
  3. यह मनुष्य ही है जो वास्तव में इन निर्णयों के कार्य रूप में परिणत करने के मार्ग में आने वाले व्यवधानों का पता लगाते है।, इन्है। दूर करने के लिए विविध प्रकार के साधनों एवं ढंगों को विकसित करते हैं तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया को भविष्य संबंधी कार्यकलाप में आवश्यकतानुसार इच्छित दिशा में ले जाने हेतु संशोधित करते हैं। 
मानवीय कारकों की प्राविधिक कारकों की तुलना में उच्च स्थिति किसी भी प्रकार के संदेह से परे हैं क्योंकि मानवीय कारक ही प्राविधिक कारकों के प्रयोगकर्ता, मूल्यांकनकर्ता तथा नियंत्रक के रूप में कार्य करते हैं। भारत वर्ष के अंतर्गत मानवीय साधनों का बाहुल्य होने के कारण इनकी स्थिति और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है किन्तु इस सबका यह अभिप्राय कदापि नहीं कि यान्त्रीकरण द्वारा प्रदत्त योगदान को पूर्णरूपेण भुला दिया जाय। यद्यपि औद्योगिक क्रिया के अनेक क्षेत्रों में यान्त्रीकरण हेतु पर्याप्त विषय क्षेत्र है, फिर भी हमारे देश के अंतर्गत सरलता पूर्वक उपलब्ध बेकार जनशक्ति का श्रम के रूप में सेवाएँ सापेक्षतया अधिक वांछनीय है। ए0 के0 बोस ने अत्यधिक अभिरुचिपूर्ण एवं प्रिय परिणाम निकाले है। इनके मत में एक-एक मशीन घंटे की निश्क्रियता, एक निश्क्रिय मानवीय घंटे की तुलना में साढ़े तीन से लेकर 6 गुने तक महंगा है।

अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन के उत्पादकता मिशन ने जो भारत में 1952-54 में रहा तथा जिसने भारत सरकार को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया इस विचार से सहमति व्यक्त की है कि इस दिशा की संपूर्ण औद्योगिक व्यवस्था में प्राविधिक प्रतिरूपों की तुलना में मानवीय कारकों के सेवायोजन पर अधिक बल दिया जाना चाहिये। इसने यह विचार व्यक्त किया, ‘‘भारत में जनशक्ति का बाहुल्य तथा पूँजी की कमी है। उत्पादन-वृद्धि करने हेतु प्रविधियों का प्रयोग, आवश्यक रूप से बहुलता पूर्ण मानवीय साधनों के सबसे अधिक अच्छे प्रयोग तथा समस्त स्वरूपों में पूँजी की बर्बादी को रोकने की आवश्यकता द्वारा नियंत्रित होना चाहिये। 

उद्योग के क्षेत्र में मनुष्य स्थूल रूप से श्रमिकों, प्रबंधकों एवं अधीक्षकों के रूप में वर्गीकृत किए जा सकते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होने के कारण श्रमिकों का महत्व सर्वोपरि है। वी0 वी0 गिरि ने ठीक ही लिखा है कि औद्योगिक संस्थान के अंतर्गत श्रमिक प्रभुत्व पूर्ण अंशधारी है तथा उनके सहयोग, अच्छे कार्य, अनुशासन, ईमानदारी एवं चरित्र के बिना उद्योग प्रभाव पूर्ण परिणामों अथवा लाभों को प्राप्त करने में समर्थ नही होगा। उद्योग के अंतर्गत मानसिक व्यवस्था चाहे जितनी कुशल क्यों न हो, यदि मानवीय तत्त्व सहयोग करने से इन्कार कर दे तो उद्योग चल पाने में असमर्थ हो जाता है। 

नियोजन, नियंत्रण, समन्वय एवं सम्प्रेरणा से संबंधित नाना प्रकार के कार्यो का संपादन करते हुए प्रबंधकों के प्रतिनिधि भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। कुछ विशेषज्ञों ने तो इन्हें आर्थिक क्षेत्र की युद्ध भूमि में महत्त्वपूर्ण अधिकार कहा है। किन्तु ये दोनों औद्योगिक संगठन के अंतर्गत विरोधी दिशाओं में कार्य करते हैं और इन दोनों को एक दूसरे के समक्ष अधीक्षकगण ही ला सकते हैं जैसा कि इस कथन से स्पष्ट है, ‘‘व्यवसायिक संसार में अधीक्षक विरोधी दिशाओं में कार्य करने वाली दो आर्थिक शक्तियों के मध्य एक विवेचक है। प्रबंधकों को उत्पादन की इकाई को लागत को कम करने हेतु निरंतर संघर्ष करते हुए बचत-पूर्ण मनोवृत्ति वाला होना चाहिए जबकि श्रमिक वैयक्तिक रूप से तथा अपने संगठन दोनों के माध्यम से निरंतर अपनी आर्थिक स्थिति को अधिक अच्छा बनाने के लिए दबाब डालते रहते हैं। अधीक्षक प्रबंध का एक सदस्य है, इसलिए उससे यह आशा की जाती है कि श्रमिकों के साथ अपने दैनिक संपर्को में प्रबंधकों की आर्थिक विचारधारा को परावर्तित करें। श्रमिकों द्वारा अन्य दिशाओं में डाले गये दबाब, मजदूरी बढ़ाने की लगातार मांग तथा श्रमिकों के सामाजिक संगठन द्वारा उत्पादन के चेतन परिसीमन जैसे कारकों में परावर्तित होते हैं। 

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