भारतीय विदेश नीति के उद्देश्य एवं सिद्धांत

भारत की भी अपनी विदेश नीति है। विदेश नीति के अंतर्गत कुछ सिद्धांत, हित और वे सभी उद्देश्य आते हैं जिन्हें किसी दूसरे राष्ट्र के सम्पर्क के समय बढ़ावा दिया जाता है। यद्यपि विदेश नीति के कुछ मूल गुण हैं परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय हालात में बदलाव के साथ-साथ विदेश नीति भी बदलते रहती है भारत की विदेश नीति को ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं आर्थिक घटकों ने आकार दिया हैं। 

भारतीय विदेश नीति के उद्देश्य एवं सिद्धांत 

राष्ट्रीय हितों का ध्यान, विश्वशांति की प्राप्ति, नि: शस्त्रीकरण अफ्रीकी एशियाई देशों की स्वतंत्रता आदि भारत की विदेश नीति के मुख्य उद्देश्य रहे है। पंचशील, गुटनिरपेक्षता रंगभेद, विरोध, साम्राज्यवाद विरोध, औपनिवेशिक विरोध संयुक्त राष्ट्र संघ का सशक्तिकरण सिद्धान्त के माध्यम से इन उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

1. पंचशाील का सिद्धांत 

भारत की सभी देशों के साथ विशेष रूप से बडे और पड़ोसी देशो के साथ शांतिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण संबंधो की इच्छा रही है। 28 अप्रैल 1954 को चीन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करते समय भारत ने आपसी संबंधो के लिए पंचशील की पालन की वकालत की।
  1. एक-दूसरें की क्षेत्रीय अखण्डता और संप्रभुता का सम्मान करना । 
  2. परस्पर अनाक्रमण 
  3. एक-दूसरें के आतं रिक मामलों में हस्तक्षपे न करना । 
  4. समानता और पास्परिक हित ।
  5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पंचशील समझौता पड़ोसी राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्तों का सबसे अच्छा निरूपण है। 
यह भारत की विदेश नीति का महत्वपूर्ण घटक है ।

2. गुट निरपेक्षता

गुट निरपक्षेता भारत की विदेश नीति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।  गुट निरपेक्ष आंदालेन को मजबूत बनाने में भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1955 में एशिया और आफ्रीका के 29 देशों का सम्मेलन इंडोनेशिया में हुआ जिसमें शांति, उपनिदेशवाद से मुक्ति, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक सहयोग की दिशा में साथ-साथ कार्य करने का संकल्प लिये । 1961 में पहला गुट निरपेक्ष सम्मेलन बले गडे्र में हुआ जिसमें शीत युद्ध की गुटीय राजनीतिक का विकल्प के रूप में स्वतत्रं विचार रखने वाले देशों का सह अस्तित्व वाला एक समूह तैयार हुआ। यह समूह तीसरे विश्व के देशों को उनके विचार व्यक्त करने का सही मंच है ।

गुट निरपेक्षों में नेहरू ने युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो और मिस्र के नासर से विशेष सबंधों का विकास किया। इन्हें तीनों को गुट-निरपेक्ष आंदोलन का जनक माना जाता हैं। गुट निरपेक्ष आंदोलन नव स्वतंत्र राष्ट्रों का वह समूह था जिसने अपने पूर्व उपनिवेशी स्वामियों की तानाशाही को अस्वीकार कर दिया और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने का निश्चय किया। गुट निरपेक्ष आंदोलन स्वभाव से सामा्राज्यवाद का विरोधी है। गुट निरपेक्षता का मुख्य शिल्पी होने और गुट-निरपेक्ष आंदोलन का अग्रणी सदस्य होने के कारण भारत ने इसके विकास में एक सक्रिय भूमिका निभाई।

गुट निरपेक्ष आंदोलन सभी सदस्य राष्ट्रों को उनके आकार और महत्व के आधार के बिना ही उन्हें विश्व राजनीति और विश्व संबंधी निर्णय लेने के अवसर प्रदान करता हैं। भारत ने 1983 में नई दिल्ली में सातवें गुट निरपेक्ष आंदोलन की बैठक की मेजबानी कीं भारत ने आशा जतायी कि यह आंदोलन विकास नि:शस्त्रीकरण और फिलिस्तीन के प्रश्न पर काम करेगा।

3. रंग भेद, साम्राज्यववाद एवं उपनिदेशववाद विरोधी

भारत सदा से रंग के आधार पर भेदवाद रखने, अपने साम्राज्य की सीमा बढा़ ने के लिए किसी भी प्रयास या किसी भी द्वीप इत्यादि को अपना उपनिदेश बनाने का विरोधी रहा है।

4. संयुक्त राष्ट्र का सशाक्तिकरण

भारत ने संयुक्त राष्ट्र सघं को विश्व राजनीति में शंति एवं शांतिपूर्ण परिवर्तन का एक साधन माना है। भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ से आशा रखता है कि-
  1. वह वार्ताओ द्वारा भेदों को कम करने के लिए देशों को सम्मिलित करने की सक्रिय भूमिका निभाए । 
  2. तीसरे विश्व के देशों के विकास में संयुक्त राष्ट्र संघ सक्रिय प्रयास करे । 
  3. गुट निरपेक्ष देशों की रचनात्मक भूमिका को संयुक्त राष्ट्र संघ महाशक्तियों पर अंकुश की तरह प्रयोग करे। 
संयुक्त राष्ट्र सघं के उपनिवेशवाद को समाप्त करने की प्रक्रिया के कारण कई अफ्रिकी एवं एशियाई देश स्वतंत्र राष्ट्र हुए है। इस प्रकार विश्व शांति कायम रखते में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

शीतयुद्ध काल के बाद भारत की विदेश नीति के प्रमुख मुद्दे

1989 में शीत युद्ध के अंत के बाद अतंर्राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में महत्वपूर्ण बदलाव आए आरै इस प्रकार विकासशील देशों के लिए नीति संबधीं नई समस्याएं आई यह नई स्थिति एक बड़ी अनिश्चितता और जटिलता का परिणाम है।

भारत के लिए सोवियत सघं के विघटन से कई अनिश्चितताएं उत्पन्न हुई जैसे कि युद्ध सामग्री की आपूर्ति, स्पेयर पाट्र्स की आपूर्ति, सयुंक्त राष्ट्र संघ के अंदर और बाहर कश्मीर और अन्य राजनैतिक मामलों में राजनयिक समर्थन और दक्षिण एशिया में अमेरिका का विरोध पक्ष पिछले डेढ़ दशक में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। शीत युद्ध का अंत हो चुका है। विश्व एक ध्रुवीय बन गया है। कई राष्ट्र विघटन हो चुके है। शीत युद्ध सनैय गुटों ने अपनी महत्ता खो दी है इस प्रकार के कुछ गुट भंग हो चुके है; और नये क्षेत्रीय आथिर्ंक गुट बन रहे है वैश्वीकरण ने नई समस्याओं को जन्म दिया है जैसे कि आतकंवाद, मुद्रा स्फीति, युद्ध शस्त्रों की संख्या में वृद्धि, ग्लोबल वार्मिग आदि। ये सभी समस्याएं किसी क्षेत्र विशेष की नहीं हैं। बल्कि सभी देशों को किसी न किसी सीमा तक प्रभावित करती है। इसके कारण वे देश जो अभी तक समस्याओं का हल करने में सहयोग देने को तैयार नही थे और स्वभाव से एक ही प्रकृति के थें वे सभी सहयोग के लिए बाघ्य हो गए। इस परिवर्तित अंतरराष्ट्रीय परिपेक्ष में संयुक्त के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह इन चुनौतियों का प्रभावकारी उत्तर देने के लिए स्वयं को परिवर्तित करे।

हमारी विदेश नीति के लिए कश्मीर में आतंकवाद सबसे बड़ी चुनौती है । पाकिस्तान और पश्चिमी देशों ने भारत पर मानवाधिकारों के हनन और आत्म निर्णय के अधिकारों की अनदेखी करने का आरोप लगाया है । परन्तु धीरे-धीरे भारत इस स्थिति को नियंत्रण में ला रहा है ।

कश्मीर विवाद के कारण भारत-पाक संबध तेजी से बिगड़े है भारत नये पाकिस्तान को सीमापार आतंकवाद और देश के अन्य भागों में आतंकवाद फैसले का जिम्मेदार ठहराया है। 1998 में भारत ने परमाणु परीक्षण किए और उसके बाद पाकिस्तान ने भी ऐसे परीक्षण किए। पाकिस्तान ने संदेहास्पद रूप से कारगिल में अपने सैनिकों को भेजकर कश्मीर घाटी को भारत से अलग करने का एक और अनिष्ट कार्य किया। भारत ने इस चुनौती का दृढ़तापूर्वक सामना किया। अब पाकिस्तान को सकारात्मक और सारगर्भित वार्ता द्वारा समझाना भारत की विदेश नीति के लिए एक अहम चुनौति है, क्योंकि इसके पीछे उसे अमरीका की शह प्राप्त है।

कश्मीर के अतिरिक्त अन्य हिस्सों में भी आतंक वाद को रोकना भी हमारी विदेश नीति के लिए एक अवसर और चुनौती है। भारत की अधिकाधिक देशों के साथ आतंकवाद विरोधी संबंध बनाने में गहरी रूचि है।

शीत युद्ध के अंत के बाद पुराने मित्रों को कायम रखना और नए मित्र तलाशना भी हमारी विदेश नीति के लिए एक अन्य चुनौती है। उदाहरणार्थ, अरब देशों के साथ संबंधों को खराब किए बिना ही भारत इजरायल से अपने संबध मजबूत बनाने का इच्छुक है। इसी प्रकार भारत की विदेश नीति का एक कार्य अमेरीका के साथ आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को मजबूत बनाना है परन्तु इसके साथ ही वह ईराक और युगोस्लाविया के विरूद्ध एक पक्षीय कार्रवाई के विरूद्ध है। अंत में भारत अपनी विदेश नीति में आर्थिक पक्ष के महत्व को महसूस कर रहा है । इसलिए यह अपने पडे़सी देशों-चीन और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ संबंधों का एक नया आधार देने के लिए प्रयासरत है 

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