फारसी साम्राज्य का इतिहास। History of Persian Empire

फारसी साम्राज्य

साइरस महान और टेरियस के नेतृत्व में फारसी या इखमनी साम्राज्य विश्व के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक हो गया । बाद के साम्राज्यों ने इसे अनेक मामलों में आदर्श बनाया । साइरस द्वारा अपनाई गई नीति के अनुसार सम्राट की शक्ति लागू करने में है। उसने विजित लोगों का े अपने  रिवाज और धर्म के पालने  की अनुमति दी । बदल े में उसने  उनसे कर और आज्ञाकारिता चाही ।  यह साम्राज्य क्षत्रपी नामक रजवाड़ों में बंटा था, जिसका प्रमुख राज्यपाल होता था जो क्षत्रप कहलाता था । एक फारसी गैरियन (एक छोटी सैनिक टुकड़ी) और राजसी निरीक्षक (जो राजा की आंखें और कान कहे जाते थे) क्षत्रपों के काम का मुआयना करती थी । क्षत्रपों के साथ अलग सचिवालय पत्र व्यवहार करता था । साम्राज्य की एकता बनाए रखने के लिए अनेक उपाय किए जाते थे । एक समान मुद्रा प्रणाली आरम्भ की गई । रजवाड़ों से प्राप्त राशि का एक बड़ा हिस्सा सड़क बनवाने पर व्यय होता था । नियमित अन्तराल पर विश्राम गृहों का निर्माण किया गया ।

फारसी साम्राज्य की महानता उनकी वास्तुकला में प्रतिबिंबित होती है । पर्सीपोलिस के सुन्दर, शानदार खंडहर फेरियस और बाघ के राजाओं द्वारा ऊॅंचे चबुतरों पर निर्मित राज महलों का समूह दिखाते हैं । सीढ़ियों के साथ बनी पट्टियों पर सैनिकों, देशों और राजा के लिए भेंट लाते क्षेत्र के प्रतिनिधि दिखाए गए है । इस साम्राज्य के वैविध पूर्ण चरित्र का पता चलता है । फारसी जीवन का मानवतावाद शायद उनके धर्म जोरास्े त्रेन स े आया  है जो अच्छे विचारों कार्यों, और शब्दों की प्रेरणा देता है । हालांकि फारस से जोरोस्त्रेन का सफाया हो गया है, लेकिन भारत के फारसियों मे वह अभी भी है । इस तरह फारसी साम्राज्य एक वास्तविक महान् साम्राज्य बना, जिसका प्रभाव आगे आने वाले कालों में भी देखा गया ।

फारसी आक्रमणों का प्रभाव

उत्तर पश्चिमी भारत में फारसी शासन लगभग दो शताब्दियों तक रहा । इस दौरान इन दो देशों में नियमित संपर्क रहा होगा । सम्भवत: स्काइलैक्स के समुद्री अभियान ने फारस (ईरान) और भारत के बीच व्यापार और वाणिज्य को बढ़ाया । पंजाब में सोने और चांदी के कुछ प्राीचन सिक्के मिले हैं । हालांकी उत्तर पश्चिमी सीमा के पर्वतीय दरें बहुत पहले से इस्तेमाल किये जाते थे लेकिन ऐसा लगता है कि महान इखमनी शासक टेरियस के नेतृत्व में एक नियमित सेना पहली बार इन दरों से भारत में दाखिल हुई । बाद में सिकंदर की सेना ने जब पंजाब पर आक्रमण किया तो वह इसी रास्ते से आई । इस साम्राज्य की प्रशासनिक संरचना फारस के इखमनी साम्राज्य से बहुत मिलती जुलती थी । फारसी पद सतयप (राज्यपाल) का प्रयोग भारतीय राजाओं के राज्यपाल के लिए क्षत्रप के रूप में काफी लम्बे समय तक होता रहा ।

फारसियों के संपर्क से आए सांस्कृतिक संपर्क भी काफी महत्वपूर्ण हैं । फारसी लेखक भारत में एक नई लेखन शैली लेकर आये । अरमी लिपि से प्राप्त इस शैली को खरोष्ठी कहा जाता है और इसे दाएं से बाए लिखा जाता है । उत्तर पश्चिमी भारत में मिले अशोक के अनेक अभिलेख खरोष्ठों में ही लिखे गए है । यह लिपि उत्तर पश्चिमी भारत में तीसरी शताब्दी ई. तक प्रयुक्त होती रही । अशोक के विज्ञप्तियों की प्रस्तावना में भी फारसी प्रभाव देखा जा सकता है । मौर्य कला और वास्तुकला भी फारसी कला से बहुत प्रभावित हुई । अशोक की लाटों के अखंडित खंभे, जिनके शीर्ष इखमनी घंटियों के आकार के हैं, पर्सीपोलिस में प्राप्त सम्राटों के विजय स्तम्भ के जैसे ही है ।

यूनानी आक्रमण का प्रभाव

मकदूनियां और प्राचीन भारतीयों से संपर्क बहुत कम समय तक रहा, लेकिन उसका प्रभाव बहुत बडे स्तरों पर हुआ । स्मिथ ने लिखा है कि तूफान के सामने भारतीयों ने अपना सिर झुका लिया और उसे गुजर जाने दिया और वे फिर विचारमग्न हो गयें । यह सत्य है कि सिकन्दर भारत में सिर्फ 19 महीने रहा और उसका विशाल साम्राज्य ताश के पत्तो की भॉति शीघ्र ही बिखर गया। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि सिकन्दर का आक्रमण नितान्त महत्व शून्य था ।

राजनैतिक प्रभाव

सिकन्दर के आक्रमण ने उत्तर पश्चिमी भारत के झगडालू जनजातियों पर विजय प्राप्त करके इस क्षेत्र में राजनीतिक एकता का मार्ग प्रशस्त किया । ऐसा प्रतीत होता है कि इस अभियान से सिकन्दर ने चंद्रगुप्त मौर्य के इस क्षेत्र को जीतने के काम को आसान कर दिया । सिकन्दर के प्रस्थान के तुरंत बाद चंद्रगुप्त मौर्य ने उसके सेनापति सेल्युकस निकेटर को हराकर अफगानिस्तान तक उत्तर पश्चिमी भारत को अपने नियंत्रण में कर लिया ।

सांस्कृतिक प्रभाव

यूनानी कला का प्रभाव भारतीय मूर्तिकला के विकास में भी देखा जा सकता है । यूनानी और भारतीय शैली के मेल ने कला के गंधार स्कूल का निर्माण किया । भारतीयों ने जैसे यूनानियों से सुगरित और सुंदर चांदी-सोने के सिक्कों के कला भी सीखी । यूनानियों ने भारतीय ज्योतिष पर भी कुछ प्रभाव छोड़ा ।

पाल मेसन ओर्सेल के अनुसार ‘‘आठ वर्षो के यूनानी आधिपत्य से कई शताब्दियों के युग का आरम्भ हुआ । उन शताब्दियों में यूनानी संस्कृति सभ्यता के क्षेत्र में एक मुख्य अंग रही और भारत के पश्चिमवर्ती प्रदेश में प्रशासन पर भी इसका पर्याप्त प्रभाव पड़ा । भूमध्यसागरीय सभ्यता का पंजाब और मध्य एशिया की सभ्यता से सीधा सम्बन्ध स्थापित हुआ । पूर्व और पश्चिम के मध्य में सैमितिक बेबिलोनिया और ईरानी साम्राज्य दीवार के रूप में खडे न रह सके ।

सामाजिक प्रभाव

तत्कालीन उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के बारे में अनेक मूल्यवान सूचनाएं हमें अरियान, नौसेनापति नियारकस और मेगस्थनीज यूनानियों के विवरणों से मिलती है । वे हमें अनेक शिल्पकार्यो के विकसित रूपों, विदेशों के सक्रिय व्यापार की स्थिति और देश की आय समृद्ध स्थिति के बारे में बताते है । इन लेखों में अनेक स्थानों पर बढ़ईगीरि को बढ़ते-फैलते व्यापार के रूप में उल्लेखित किया गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि सिकन्दर ने नियारकस के नेतृत्व में जो बेड़ा पश्चिमी समुद्र तट के साथ-साथ भेजा था, वह भारत में ही बना था ।

सिकन्दर के साहसिक अभियान के पश्चिम को भारतीय जीवन और विचारों के बारे में जानने में मदद की । ऐसा कहा जाता है कि भारतीय दर्शन और धर्म पर जो विचार रोम साम्राज्य में पहुंचे थे उसी मार्ग के कारण वे जिसे सिकन्दर ने खोला । यूनानी लेखकों ने सिकन्दर के अभियान के स्पष्ट तिथिवार ब्योरे छोडे है । इनसे हमें प्राचीन भारतीय इतिहास का समयवार आयोजित करने में बहुत मदद मिलती है । सिकन्दर के आक्रमण की तिथि 326 ई.पू. एक निश्चित संकेत बिन्दु है जो हमें इसके आसपास पहले और बाद की घटनाओं को व्यवस्थित करने की सुविधा देता है ।

सिकन्दर के आक्रमण के बाद भारत और पश्चिम काफी करीब आ गए । यूनानी और भारतीय कला के मेल से गंधार कला स्कूल का विकास हुआ । इस संपर्क से युरोप में भी भारतीय दर्शन और धर्म के बारे में कुछ सीखा और ग्रहण किया । प्राचीन भारतीय इतिहास की घटनाओं को व्यवस्थित करने में सिकन्दर के आक्रमण की तिथि बहुत मददगार साबित हुई ।

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