मौर्य वंश का इतिहास (मौर्य वंश की राजकीय व्यवस्था, मौर्य वंश की प्रशासनिक व्यवस्था)

नन्द वंश के पतन के पश्चात मगध में मौर्य वंश की सत्ता स्थापित हुई । मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य (321 ई.पू.) था । यूनानी लेखकों ने उसे सेन्ड्रोकोट्स या एण्ड्रोकोट्स कहा है । इस राजवंश का भारतीय इतिहास में विशिष्ट महत्व है । मौर्य शासकों ने छोटे छोटे राज्यों को समाप्त करके एक वृहद साम्राज्य की स्थापना की और भारत को एकता के सूत्र में आबद्ध किया। मौर्य शासकों ने एक सुदृढ़ केन्द्रीय शासन प्रणाली का विकास किया मौर्यो के आगमन के साथ-साथ भारत का क्रमबद्ध इतिहास प्रारम्भ होता है ।

मौर्यो की उत्पत्ति 

मौर्यो की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है । कुछ विद्वान क्षत्रिय कुछ शुद्र मानते है । मुद्राराक्षस जो मौर्यो के समय लिखा गया उसे मुरा नामक नंद राजा की रूद्र पत्नी से हुआ मानते है । चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था । चन्द्रगुप्त मौर्य बचपन से प्रतिभा शाली था । उस पर जब चाणक्य की नजर पड़ी वह बहुत प्रभावित हुआ और उसे तक्षशिला ले गया और वहीं उसे सभी विद्या में निपुण किया ।

इतिहासकारों का मानना है कि चाणक्य और चन्द्रगुप्त सबसे पहले पश्चिमोत्तर भारत और पंजाब की तात्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों उनके अनूकूल थी और उसे अपने में कर लिया । इस समय मगध राज्य पर नंद वंशीय राजाओं का आधिपत्य था । नन्द वंश के राजाओं से जनता त्रस्त थी, नन्दों के अत्याचार से प्रजा को मुक्त करने के लिये चाणक्य ने योजना बनाई और समूल नंद वंश का नाश कर दिया । चाणक्य की कूटनीति तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के शौर्य के कारण शक्तिशाली नन्द वंश का विनाश कर दिया ।

चन्द्रगुप्त ने उत्तरी भारत पर अधिकार करने के पश्चात् उसने दक्षिण पर विजय की नीति बनाई और उसने दक्षिण भारत को जीता ।

सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् पश्चिमी एशिया में सेल्यूकस ने अपनी शक्ति संगठित कर ली थी एवं भारत पर घात लगाये बैठा था । चन्द्रगुप्त ने उसे पराजित किया और मगध सम्राट को संधि के लिये मजबूर किया और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके उसे अपना राजदूत बनाया चन्द्रगुप्त मौर्य का राजनीतिक एवं प्रश््रशासनिक संगंगठन- चन्द्रगुप्त एक विजेता वरन् एक कुशल प्रशासक भी था इसने और उसके मन्त्री चाणक्य ने सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिये एक सुदृढ़ प्रशासनिक तन्त्र का निर्माण किया ।

मौर्य वंश की राजकीय व्यवस्था

  1. राजा की स्थिति (शक्ति)
  2. प्रशासनिक संरचना (राज कर्मचारी)
  3. प्रान्तीय शासन प्रबन्ध
  4. म्यूिनसिपल प्रबन्ध
  5. सेना
  6. राजस्व
1. राजा की स्थिति (शक्ति) - चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था बहुत व्यापक थी । राजा स्वयं शासन व्यवस्था का प्रमुख था । समस्त शक्तियां उसमें निहित थी । वह स्वयं राज आज्ञाएं जारी करता, योजना बनाता, युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करता था । वित्त (राजस्व) पर उसका नियंत्रण था । वह ही सर्वोच्च न्यायाधीश था । वह स्वयं विदेशी राजदूतों से मिलता था । इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजा की सत्ता असीमित थी । राजा से आशा की जाती थी कि वह निश्चित कर्तव्यों का पालन करें । अर्थशास्त्र में कहा गया है कि जनकल्याण राजा का परम आवश्यक कर्तव्य है । इसलिए आवश्यक था कि राजा हर समय अधिकारियों और जनता से मिल सके । राजा से अपेक्षा की जाती थी कि वह समाज की सुरक्षा पर ध्यान दे और शासन व्यवस्था ऐसी बनाए कि समाज में शान्ति और सुरक्षा बनी रहे ।

2. प्रशासनिक संरचना (राज कर्मचारी) - शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए राजा को राजभवन मंत्री परिषद की सहायता उपलब्ध थी । परामर्श देने वाली परिषद् के सदस्य उच्च कुल में जन्में, ईमानदार और बुद्धिमान व्यक्ति होते थे । ये मंत्री कहलाते थे । इनके अतिरिक्त आमात्य, महामात्र और अध्यक्ष अन्य उच्च अधिकारी थे । अर्थशास्त्र में उच्च अधिकारियों को ‘तीर्थ’ कहा गया है । एक सूची में 18 तीर्थो का उल्लेख किया गया है । इनमें से महत्वपूर्ण कुछ अधिकारी थे- मंत्री पुरोहित, सेनापति, युवराज । इस प्रशासनिक ढांचे में दण्डपाल (पुलिस अधीक्षक), समाहर्ता (जिलाधिकारी) और सन्निधाता (कोषाध्यक्ष) जैसे अधिकारी भी थे । चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था व्यापक थी । समस्त शिक्त्यां राजा में निहित थीं । शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए बहुत से कर्मचारी थे और साम्राज्य की सुरक्षा के लिए विशाल सेना थी । साम्राज्य में आर्थिक स्थिरता थी क्योंकि सभी आर्थिक गतिविधियों पर राज्य का नियंत्रण था ।

3. प्रान्तीय शासन प्रबन्ध - साम्राज्य प्रान्तों में बंटा हुआ था । प्रत्येक राजवंश के व्यक्ति (कुमार) के अधीन होता था । कहा जाता है कि अशोक पहले उज्जैन और बाद में तक्षशिला का गर्वनर रहा । प्रान्त जिलो (आहारों या विषयों) में बंटे हुए थे । गुप्तचर प्रान्त या जिले में होने वाली प्रत्येक घटना की सूचना राजा तक पहुंचाते थे । अर्थशास्त्र में गोप और स्थानिक का उल्लेख किया गया है । ये गांव के शासन प्रबन्ध के लिए उत्तरदायी थे ।

4. म्यूिनसिपल प्रबन्ध - मगैस्थनीज ने पाटलीपुत्र के स्थानीय शासन का विवरण दिया है । सम्भावना है कि अन्य नगरों में भी इसी प्रकार की शासन व्यवस्था रही होगी । नगर का प्रबन्ध 30 सदस्यों को एक परिषद् के हाथ मेंं था । यह परिषद 6 समितियों में बंटी हुई थी । प्रत्येक समिति के पांच सदस्य थे । इन समितियों के कार्य क्षेत्र थे -
  1. उद्योग-धन्धों की देख-भाल और उन्नति करना । 
  2. विदेशियों के लिए सुख-सुविधा का प्रबन्ध करना । 
  3. जन्म-मरण का लेखा रखना । 
  4. व्यापारियों और बाजार पर नियंत्रण रखना । 
  5. उत्पादकों के माल पर दृष्टि रखना और उसे बेचने का प्रबन्ध करना और
  6. कर वसूल करना । 
5. सेना - विशाल सेना चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता थी। रोमन इतिहासकार प्लिनी के अनुसार चन्द्र गुप्त की सेना में 6,00,000 पैदल सैनिक, 30,000 घुड़सवार, 9,000 हाथी और 8,000 रथ थे । उसके पास नौ-सेना भी थी । वर्तमान मापदण्ड के अनुसार यह सेना बहुत अधिक थी । मैगस्थनीज के अनुसार सेना का प्रबन्ध 30 सदस्यों के एक परिषद के हाथ में था । यह परिषद् 6 समितियों में बंटी हुई थी प्रत्येक समिति के पांच सदस्य थे ।

6. राजस्व - समस्त साम्राज्य शासन व्यवस्था का आधार सुदृढ़ राजस्व व्यवस्था था । राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भूमि कर (लगान) था । यद्यपि लगान कुल उत्पादन के 1/4 से 1/6 तक था तथापि युद्ध की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए किसानो को विवश किया जाता था कि वे अधिक उत्पादन करें । राज्य ने भी भूमि के एक बड़े भाग पर खेती कराई । यह भी आय का एक अच्छा साधन बन गया । वित्तीय स्थिरता का अन्य कारण था कि सभी आर्थिक गतिविधियों पर राज्य का नियंत्रण था । खानों, नमक भण्डार, शराब, वन, चुंगी आदि पर राज्य का एकाधिकार था । राज्य ने शिल्पों को प्रोत्साहन दिया था । वास्तव में दण्ड विधान ऐसा था कि यदि काई कलाकार को जख्मी करता था वस्तु का नाम बदल कर बेचता तो मृत्यु दण्ड दिया जाता था । राज्य को जुर्मानों से भी आय होती थी ।

बिन्दुसार (297-272 ईसा पूर्व)र्वचन्द्रगुप्त के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार 298 ई. पूर्व में गद्दी पर बैठा । बिन्दुसार के सम्बन्ध में ऐतिहासिक स्त्रोत मौन हैं, जिससे इस सम्राट के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिल पाती है । पुराणों में कही-कहीं पर नन्दसार या भद्रसार नाम का उल्लेख आता है ।

बिन्दुसार यद्यपि अपने जीवनकाल में कोई विशेष उल्लेखनीय कार्य न कर सका किन्तु पैतृक सम्पत्ति और साम्राज्य को सुरक्षित अवश्य रखा ।

अशोक (273-232 ईसा पूर्व)र्वअशोक न केवल भारतवर्ष का वरन् विश्व का एक महान् सम्राट था । सम्राट बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अशोक मगध के सिंहासन पर बैठा । इतिहासकारों ने लिखा है कि अशोक अपने 99 भाइयों को मारकर गद्दी प्राप्त किया था । अपने पिता बिन्दुसार के समय उसने अनेक विद्रोह को दबाया था । उसकी निष्ठुरता को देखकर उसे ‘कालाशोक’ अथवा चण्डाशोक भी कहा गया है । चीनी यात्री युवावच्यांग ने लिखा है कि अशोक अपने प्रारिम्भक जीवन में क्रूर था । उसका कारागार अशोक के नरक के नाम से जाना जाता था, किन्तु कलिंग युद्ध से उसके जीवन में एक परिवर्तन आया और वह प्रजाहित चिन्तक सम्राट के रूप में विख्यात हुआ ।

मौर्य वंश की प्रशासनिक व्यवस्था 

मगध साम्राज्य के ध्वंशावशेषों पर कौटिल्य के सहयोग से चन्द्रगुप्त मौर्य ने जिस नवीन राजवंश की स्थापना की उसे प्राचीन भारत के इतिहास में मौर्य राजवंश के नाम से जाना जाता है। मौर्य वंश, क्षत्रिय वंश था। यदि चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय न रहा होता तो वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक कौटिल्य उसे नन्दवंश का विनाश कर एक नवीन राजवंश की स्थापना में अस्त्र नहीं बनाता। प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य सर्वाधिक विस्तृत एवं सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध है। मौर्य युगीन प्रशासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक था। राजतंत्रात्मक शासन में राज्य की प्रमुख शक्ति राजा के हाथो में केन्द्रित थी। प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से साम्राज्य अनेक राजनीतिक इकाईयों में बँटा हुआ था -
  1. साम्राज्य 
  2. प्रांत 
  3. मंडल 
  4. आहार 
  5. स्थानीय 
  6. द्रोणमुख 
  7. खार्वटिक 
  8. संग्रहण 
  9. ग्राम 
साम्राज्य का प्रमुख सम्राट था। वह सैनिक, न्यायिक, वैधानिक एवं कार्यकारी मामलों में सर्वोच्च अधिकारी था। सम्राट को अपने कार्यो में अमात्यों, मंत्रियों तथा अधिकारियों से सहायता प्राप्त था। अमात्य से राज्य के सभी प्रमुख पदाधिकारियों का बोध होता था। ‘मन्त्रिण:’ में कुल तीन या चार मन्त्री होते थे। आत्ययिक (जिनके बारे में तुरन्त निर्णय लेना हो) विषयों में ‘मन्त्रिण:’ से परामर्श की जाती थी। संभवत: इसमें युवराज, प्रधान मंत्री, सेनापति तथा सन्निधाता (कोषाध्यक्ष) आदि सम्मिलित थे। मंत्रिण: के अतिरिक्त एक नियमित मंत्रिपरिषद भी होती थी। मंत्रिण: के सदस्य मंत्रिपरिषद के सदस्यों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होते थे। मंत्रिपरिषद के सदस्यों को 12,000 पण वार्षिक वेतन तथा मंत्रिण: के सदस्यों को 48,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। सम्राट प्राय: मंत्रिण: तथा मंत्रिपरिषद की ही परामर्श से शासन कार्य करता था। शासन की सुविधा के लिए केन्द्रीय शासन अनेक विभागों में वंटा हुआ था। प्रत्येक विभाग को ‘तीर्थ’ कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थो और उनके प्रधान अधिकारियों का उल्लेख है। विभाग (तीर्थ) के अध्यक्षो को 1,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था।

साम्राज्य अनेक प्रांतों में विभक्त होते थे। प्रांतों के राज्यपाल प्राय: राजकुल से सम्बन्धित ‘कुमार’ होते थे। राज्यपाल को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। प्रांत अनेक मण्डलों में विभक्त होता था। मण्डल का प्रधान ‘प्रदेष्टा’ नामक अधिकारी होता था। मण्डल अनेक जिलों में विभक्त होता था। जिले का प्रधान ‘विषयपति’ होता था। जिले के नीचे स्थानीय होता था जिसमें 800 ग्राम थे। स्थानीय के अन्तर्गत दो द्रोणमुख थे। प्रत्येक के चार-चार सौ ग्राम थे। द्रोणमुख के नीचे खार्वटिक तथा खार्वटिक के अन्तर्गत 20 संग्रहण होते थे। प्रत्येक खार्वटिक में दो सौ ग्राम तथा प्रत्येक संग्रहण में 10 ग्राम थे। संग्रहण का प्रधान अधिकारी ‘गोप’ कहा जाता था।

नगरों का प्रशासन नगरपालिकाओ द्वारा चलाया जाता था। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगर-परिषद की पाँच-पाँच सदस्यों वाली छ: समितियों का उल्लेख किया है। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होता था। ग्राम का अध्यक्ष ग्रामणी होता था।

सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। न्यायालय मुख्यत: दो प्रकार के थे - (1) धर्मस्थीय (2) मण्टकशोधन। दण्ड विधान अत्यन्त कठोर थे। सामान्य अपराधों में आर्थिक जुर्माने होते थे।

गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में ‘गूढ़ पुरुष’ कहा गया है। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख मिलता है - संस्था: (एक स्थान पर रहने वाले) तथा (2) संचरा: (प्रत्येक स्थानों पर भ्रमण करने वाले)। भूमि पर राज्य तथा कृषक दोनों का अधिकार होता था। राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भूमि-कर था। यह सिद्धान्तत: उपज का 1/6 होता था। भूमिकर को ‘भाग’ कहा जाता था। राजकीय भूमि से प्राप्त आय को ‘सीता’ कहा गया है। सेना में पैदल, अश्वारोही, हाथी और रथ सम्मिलित होते थे। मौर्यो के पास शक्तिशाली नौ सेना (Navy) भी थी।

मौर्य वंश की अर्थव्यवस्था

मौर्य युगीन अर्थव्यवस्था का आधार कृषि, पशुपालन तथा व्यापार-वाणिज्य था। भूमि उर्वरा थी तथा प्रतिवर्ष दो फसलें उगाई जा सकती थी। गेहूँ, जौ, चना, चावल, ईख, तिल, सरसों, मसूर, शाक आदि प्रमुख फसलें थी। सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। पशुओ में गाय-बैल, भेडं -बकरी, मैंस, गधे, सुअर, ऊँट, कुत्ते आदि प्रमुख रूप से पाले जाते थे। आन्तरिक तथा वाहृय दोनों ही व्यापार प्रगति पर थे। भारत का वाहृय व्यापार सीरिया, मिस्र तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ होता था। यह व्यापार पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ तथा पूर्वी भारत में ताम्रलिप्त के बन्दरगाहों द्वारा किया जाता था। अर्थशास्त्र में विदेशी ‘सार्थवाहो’ (व्यापारियों के काफिलो)ं का उल्लेख मिलता है। एक मार्ग बंगाल के समुद्र-तट पर स्थित ताम्रलिप्त नामक बन्दरगाह से पश्चिमोत्तर भारत में पुष्कलावती तक जाता था। इसे ‘उत्तरापथ’ कहा जाता था। कपड़ा बुनना इस युग का एक प्रमुख उद्योग था। चर्म उद्योग, बढ़ईगिरी, धातुकारी उद्योग भी अच्छी अवस्था में थे।

‘धम्म,’ संस्कृत के धर्म का प्राकृत रूपान्तर है। अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए अशोक ने जिन आचारो ं की संि हता प्रस्तुत की उसे उसके अभिलेखो ं में ‘धम्म’ कहा गया है। सातवें स्तंभलेख में वह धम्म के गुणो का उल्लेख करता है जो धम्म का निर्माण करते हैं। इन्हें हम इस प्रकार रख सकते है - ‘अपासिनवे बहुकयाने दया दाने सचे सोचये मादवे-साधवे च।’ अर्थात् अल्प पाप, अत्यधिक कल्याण, दया, दान, सत्यता, पवित्रता, मृदुता और साधुता (सज्जनता) ही वे गुण है जो धम्म का निर्माण करते हैं। इन गुणो को व्यवहार में लान े के लिए मनुष्य को निम्नलिखित बातें आवश्यक बतायी गई हैं -
  1. प्राणियों की हत्या न करना, 
  2. प्रणियो को क्षति न पहुँचाना, 
  3. माता-पिता की सेवा करना, 
  4. वृद्धो की सवे ा करना, 
  5. गुरुजनो का सम्मान करना, 
  6. मित्रो, परिचितो, ब्राह्मणो तथा श्रमणो के साथ अच्छा व्यवहार करना, 
  7. दासों एवं नौकरों के साथ अच्छा बर्ताव करना 
  8. कम खर्च करना
  9. कम संचय करना, में धम्म के विधायक पक्ष हैं। 
इसके अतिरिक्त अशोक के धम्म का एक निषेधात्मक पक्ष भी है जिसके अन्तर्गत कुछ दुर्गुणो की गणना की गयी है। ये दुर्गुण व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधक हैं। अशोक तीसरे स्तम्भलेख में इन्हें पाप (आसिनव) कहता है। जिन दुर्गुणों से पाप हो जाते हैं वे इस प्रकार हैं - प्रचण्डता, निष्ठुरता, क्रोध, धमण्ड और ईष्र्या। अत:, धम्म का पूर्ण परिपालन तभी सभ्ं ाव हो सकता है जब मनुष्य उसके गुणो के पालन के साथ इन विकारो  से भी अपने को मुक्त रखे। इसके लिए आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिए। धम्म के मार्ग का अनुसरण करने वाला व्यक्ति स्वर्ग की प्राप्ति करता है।

मौर्य वंश का पतन

मौर्य समाज की स्थापना प्राचीन भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी । इसके अधीन भारत के लगभग सभी राज्य थे । चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी के रूप में अशोक ने केवल कलिंग पर आक्रमण कर उसे अपने साम्राज्य में मिलाया जो शायद चन्द्रगुप्त के पश्चात् मौर्य साम्राज्य से पृथक हो गया था । उत्कृष्ट सैन्य संगठन, उदार प्रशासन और दूरदश्र्ाी योजनाओं के क्रियान्वयन से इस साम्राज्य की सुदृढ़ता और स्थायित्व बढ़ा था, किन्तु अशोक की मृत्यु के उपरान्त आधी शताब्दी के अन्दर ही मौर्यवंश का पतन हो गया, उसके साथ-साथ पाटलिपुत्र का वैभव भी समाप्त हो गया । इसके निम्नलिखित कारण थे-
  1. साम्राज्य की विशालता विघटन का कारण बना । 
  2. अशोक के उत्तराधिकारी कुणाल, सम्प्रति और दशरथ, वहृद्रभ में इतनी क्षमता नहीं थी कि विशाल साम्राज्य को संभाल सकें । 
  3. मौर्य साम्राज्य विशाल था उसे सम्भालने के लिए यातायात के साधन का अभाव था यह भी पतन के लिए उत्तरदयी था । 
  4. मौर्य साम्राज्य की शक्ति का ह्रास उत्तराधिकार के संघर्ष के कारण भी हुआ । 
  5. प्रान्तपतियों का स्वतंत्र होना भी पतन का कारण बना केन्द्रीय शासन की दुर्बलता का फायदा उठाकर प्रान्तपतियों ने ऐसा किया । 
  6. मौर्य साम्राज्य के पतन में ब्राम्हणों का रोष भी था क्योंकि अशोक ने यज्ञ अनुष्ठान पर प्रतिबंध लगा दिया था ।

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