वैदिक साहित्य के प्रमुख ग्रंथ
1. ऋग्वेद - ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। ऋग्वेद संहिता में कुछ विद्वानों के अनुसार 1017 और कुछ के अनुसार 1028 लोक या सूक्त हैं। सूक्त का अर्थ है। ’’अच्छी उक्ति’’ आर्यों ने अपने देवी देवताओं की स्तृति इन सूक्तों के माध्यम से ही की है इनके द्वारा हमें न केवल उस काल के आर्यों के धार्मिक विचारों का ही पता चलता है।, अपितु उनकी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दशाओं के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती हैं। विद्वानों का मानना है कि भारत में आने के पूर्व ऋग्वेद के सूक्त असंकलित रहे होंगे। भारत में आने के बाद ही इन सूक्तों को संकलित किया गया होगा। इसी कारण वेदों को संहिता कहा गया है।2. सामवेद - साम शब्द का अर्थ - स्वर माधयु। अतः सामवेद उस वेद का नाम है जिनके मंत्र यज्ञांे
में देवताओं की स्तुति के समय मधुर स्वर में गाये जाते थे। वस्तुतः साम-संहिता मधुर गेय पदों का संगह है।
इसमें केवल 75 मंत्र नये हैं। शेष सभी ऋग्वेद के हैं। परंतु स्वर भिन्नता के आधार पर यह मंत्र ऋग्वेद के
मंत्रों से भिन्न समझे जाते हैं। पाठ भेद के कारण सामवेद की तीन शाखाएं मिलती हैंः- कौथुम, जैमिनीय और
राणायनीय। सामवेद संगीत के इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। परंतु मौलिकता के अभाव में इसका
साहित्यिक व ऐतिहासिक महत्व प्रायः नगण्य है।
3. यजुर्वेद - यजसु का अर्थ है- यज्ञ या यज्ञीय प्राथना । फलतः यज्ञ प्रधान यह वेद यजुर्वेद कहलाया।
इनमें विभिन्न प्रकार की याज्ञिक विधियों का उल्लेख है और यह कर्मकांड प्रधान वेद है। यह शुक्ल यजुर्वेद
और कृष्ण यजुर्वेद दो रूपों मे मिलता है। शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता भी कहते हैं। पाठ भेद के कारण
इसकी दो शाखाएं हैं:- कण्व और माध्यन्दनीय। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाओं का उल्लेख मिलता है।
काठक संहिता, कपिश्ठल संहिता मैत्रेयी संहिता और तैत्तिरीय संहिता। इनमें वाजसनेयी संहिता सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इनमें 40 अध्याय है। जिनमें से प्रत्येक का संबंध किसी न किसी याज्ञिक अनुष्ठान से है
अंतिम अध्याय इषोपनिषद का संबध याज्ञिक अनुष्ठान के साथ न होकर अध्यात्म चिंतन के साथ में है।
यजुर्वेद ग्रंथ ऋग्वैदिक काल और उसके बाद में आर्यों के जन जीवन में आ जाने वाले परिवर्तन को प्रगट
करता है।
4. अथर्ववेद - चारों वैदिक संहिन्ताओ मे अथवर्व दे बहतु बाद के काल की रचना है। इसके दो पाठ उपलब्ध है- शौनकीय एवं पिप्पलाद। शौनकीय संहिता अधिक प्रामाणिक मानी जाती है। इनमें कुल 20 काण्ड 731 सूक्त और लगभग 6000 मंत्र है। इस वेद के वार्णित विषयों में ब्रह्मज्ञान, धर्म, शत्रु-संहार, औषधि, प्रयोग रोग-षमन, यंत्र, मंत्र टोना टोटका, मारण, मोहन, उच्चाटन आदि है। इसमें भूत प्रेत आदि अंधविष्वासों का वर्णन है लेकिन आर्यों के दार्शनिक विचारों का संग्रह इनमें है। अतः आर्यों की सभ्यता एवं सस्कृति का ज्ञान प्राप्त करने में यह ग्रंथ बहुत उपयोगी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस वेद की रचना उस काल में हुई जब आर्य- अनार्य संघर्ष समाप्त हो चुका था और दोनों जातियों में विचारों का आदान-प्रदान बढ़ रहा था।
5. ब्राह्मण ग्रंथ - ब्राह्मण ग्रंथों में
याज्ञिक अनुष्ठानों तथा वेद-मंत्रों के अभिप्राय की विषद व्याख्या की गई है। प्रत्येक ब्राह्मण ग्रंथ का किसी
एक वेद के साथ संबंध है अतः उसे उसी वेद का ब्राह्मण ग्रंथ माना जाता है। ऋग्वेद का प्रधान ब्राह्मण ग्रंथ ’’ऐतरेय’’ है। ऋग्वेद का दूसरा ब्राह्मण ग्रंथ ’’कौषितकी’’ अथवा
’’सांख्यायन है। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ ’’तैत्तिरीय’’ है तो शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ शतपथ है।
शत-पथ ब्राह्मण एक विशाल ग्रंथ है जिसमें 100 अध्याय हैं।
सामवेद के तीन ब्राह्मण ग्रंथ हैं:- ताण्ड्य ब्राह्मण, शड़विष ब्राह्मण और जैमिनीय ब्राह्मण अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रंथ गोपथ हैं। यद्यपि ये सभी रचनाएं बाद के काल की हैं, किंतु इनमें वैदिक ऋचाओं की विविध प्रकार से व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इनसे आर्यों के जन जीवन, शासन व्यवस्था तथा उनके भारत में प्रसार का परिचय मिलता है। इनकी भाषा परिष्कृत तथा उच्च कोटि की है।
6. आरण्यक - इन ग्रंथों में हमें आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं पारलौकिक चिंतन देखने को मिलता है इस प्रकार की चितन उन लोगों द्वारा किया गया जो वानप्रस्थी अथवा संन्यासी बनकर जंगलों व अरण्यों में अपना आश्रम बनाकर जीवन व्यतीत कर रहे थे। वस्तुतः आरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथों के ही भाग है। इससे यह पता चलता है। कि आर्य ऋषियों का एक वर्ग आध्यात्मिक चिंतन में संलग्न था। प्रमुख आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, सांखायन या कौषीतकि आरण्यक, तैत्तिरीय आरण्यक बृहदारण्यक, मैत्रायणी आरण्यक, जैमिनीय या तलवकार आरण्यक आदि हैं।
7. उपनिषद - उपनिषद भारतीय तत्व -ज्ञान का मूल स्रोत है। उपलब्ध उपनिषद् ग्रथांे की संख्या
लगभग 200 है कितु उनमें से केवल 12 का स्थान महत्वपूर्ण है। उनके नाम हैं:- ईश, केन, कठ, प्रश्न,
मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, कौषितकी और श्वेताष्वतर। ये उपनिषद विभिन्न
कालों के हैं और इनमें शैली भाषा तथा विचार के अनेक स्तर मिलते हैं। वैसे अधिकांश उपनिषद 7 वीं शताब्दी
पूर्व की रचनाएं है। उपनिषदों का प्रमुख विषय दर्शन है। वेदों में ज्ञानमार्ग संबंधी जो बातें बिखरी हुई पाई जाती
हैं उन्ही का विकास आगे चलकर उपनिषदों में हुआ। असल में उपनिषद वेद के उन स्थलों की व्याख्या है
जिनमें यज्ञों से अलग हटकर ऋषियों ने जीवन के गहन तत्वों पर विचार किया है।
8. वेदांग - व्याकरण वेदांग के अंतर्गत पाणिनीकृत ’’अष्टाध्यायी’’ ही उपलब्ध है। इसमें वैदिक व्याकरण का
उल्लेख स्वरूप परंतु भाषा-व्याकरण का उल्लेख विशेष है। वेदांगों में शिक्षा का प्रथम स्थान है। इसका संबंध वैदिक मंत्रों के शुद्व उच्चारण एवं विराम से है। शिक्षा संबंधी प्राचीनतम ग्रंथ प्रातिषारूप है। जिसका संबंध
वैदिक संहिता की प्रत्येक शाखा से है। शिक्षा ग्रंथ में शौनक कृत ऋग्वेद प्रातिषारूप तैत्तिरीय प्रातिषारूप सूत्र,
कात्यायनकृत वाजसनेयी प्रातिषारूप, अथर्ववेद प्रातिषारूप तथा सामवेद संबंधी पंचविध सूत्र एवं पुष्यसूत्र आदि
मुख्य हैं। निरूक्त वेदांग पर उपलब्ध एक मात्र ग्रंथ यास्क का निरूक्त है। छंद शास्त्र पर पिंगल का ग्रंथ परंपरा
से ऋग्वेद एवं यजुर्वेद का वेदांग माना जाता है। ज्योतिष-वेदांग बाद की रचना है। कल्पसूत्र प्राचीनतम शुद्ध
ग्रंथ है।
9. स्मृति साहित्य - स्मृतियां हमें कई महत्वपूर्ण जानकारियां देती है। तत्कालीन सामाजिक की जानकारी स्मृतियों से ही मिलती है।
(i) प्रमुख स्मृतियां -
- मनुस्मृति - (200ई0पू0 से 200 ई0 तक )
- याज्ञवल्क्य स्मृति - (100ई0पू0 से 300 ई0 तक )
- नारद स्मृति - (300ई0पू0 से 400 ई0 तक )
- पाराशर स्मृति - (300ई0पू0 से 500 ई0 तक )
- बृहस्पति स्मृति - (300ई0पू0 से 500 ई0 तक )
- कात्यायन स्मृति - (400ई0पू0 से 600 ई0 तक )
11. महाकाव्य -
(1) रामायण:- ऐतिहासिक साक्ष्यों तथा भाषा के ऐतिहासिक अध्ययन के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है
कि यह ग्रंथ अपने वर्तमान स्वरूप में ईसवी सन् की द्वितीय शताब्दी में आया था। इस ग्रंथ में वैदिकोत्तर भारत
की राजनीतिक सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामायण के वर्तमान स्वरूप में सात काण्ड
हैं। वर्तमान में रामायण में 24000 श्लोक हैं। पंरतु इसमें मूलरूप से 800 श्लोक रहे होंगे। यह ग्रंथ भारतीय
सांस्कृतिक मूल्यों का सागर कहा जाता है। इसमें धर्म, आध्यात्म, गरिमा, मर्यादा व सदाचरण के श्रेष्ठ उदाहरण
विद्यमान हैं। सत्य की विजय का उद्घोष करता यह ग्रंथ मूल्यों, नैतिकता व सत्कर्म के आदर्शपथ पर चलने
की प्रेरणा देता है।
(2) महाभारत:- इसका रचनाकाल 400 ई0 प0ू से 400 ई. तक माना गया है। यह अनवरत लिखा जाता रहा। इन्हीं अर्थों में यह किसी एक लेखक और एक समय की रचना नहीं है। इसमें दसवीं सदी ई0 पू0 से चौथी सर्दी तक घटनाओं का वर्णन मिलता है। इसमें मूलरूप से 8800 श्लोक थे और इसे यव संहिता कहा जाता था। बाद में जब श्लोकों की संख्या 24000 हुई तो इसका नाम भारत हो गया, और अब जबकि श्लोकों की संख्या 1लाख हुई तो इसका नाम महाभारत हो गया। यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति की दृष्टि से उत्कृष्ट ग्रंथ है।
(2) महाभारत:- इसका रचनाकाल 400 ई0 प0ू से 400 ई. तक माना गया है। यह अनवरत लिखा जाता रहा। इन्हीं अर्थों में यह किसी एक लेखक और एक समय की रचना नहीं है। इसमें दसवीं सदी ई0 पू0 से चौथी सर्दी तक घटनाओं का वर्णन मिलता है। इसमें मूलरूप से 8800 श्लोक थे और इसे यव संहिता कहा जाता था। बाद में जब श्लोकों की संख्या 24000 हुई तो इसका नाम भारत हो गया, और अब जबकि श्लोकों की संख्या 1लाख हुई तो इसका नाम महाभारत हो गया। यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति की दृष्टि से उत्कृष्ट ग्रंथ है।