योगवशिष्ठ में योग का स्वरूप || योगवशिष्ठ में यम नियम निरूपण

योगवशिष्ठ में योग का स्वरूप 

योग वशिष्ठ योग का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। अन्य योग ग्रन्थों की भाँति योग वशिष्ठ में भी योग के विभिन्न स्वरूप जैसे- चित्तवृत्ति, यम-स्वरूप, नियम-स्वरूप, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, समाधि, मोक्ष आदि का वर्णन वृहद् रूप में किया गया है।

योग वशिष्ठ के निर्वाण-प्रकरण में वशिष्ठ मुनि श्री राम जी को योग के स्वरूप के बारे में वर्णन करते हुए कहते हैं कि संसार सागर से पार होने की युक्ति का नाम योग है और वह दो प्रकार का है। एक सांख्य बुद्धि ज्ञान योग और दूसरा प्राण से रोकने का नाम योग बताया है।

एको योगस्तथा ज्ञानं संसारोत्तरेणक्रमे।
समावुपामौ द्वावेव प्रोक्तावेक फलदौ।। निर्वाण प्रकरण सर्ग 18/7

 

इन दोनों प्रकार के योग के द्वारा दु:खरूप संसार से तरा जा सकता है। शिव भगवान् ने दोनों का फल एक ही बताया है। ये योग के दोनों युक्तियाँ योग जिज्ञासु पर निर्भर है। किसी जिज्ञासु को योग सरल है और किसी को ज्ञान योग। परन्तु दोनों योग में अभ्यास की अत्यन्त आवश्यकता है। 

असाध्य: कस्यचिद्योग: कस्यचिज्ज्ञान निश्चय:।
ममत्वभिमत: साधो सुसाध्यो ज्ञान निश्चयत:।। निर्वाण प्रकरण सर्ग 13/8

बिना अभ्यास के कुछ नहीं प्राप्त होता। यद्यपि शास्त्रों में ‘योग’ शब्द से उपर्युक्त दोनां ही प्रकार के कहे गये है

तथापि इस ‘योग’ शब्द की प्राण निरोध के अर्थ में ही अधिक प्रसिद्धि है। महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्ति के निरोध को योग की संज्ञा दी है।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। यो0 सू0 1/2

चित्तनिरुपण

योग वशिष्ठ में मन को चित्त की संज्ञा दी गयी है। वशिष्ठ जी कहते है कि हे राम! यह मन भावनामात्र है और भावना का अर्थ है विचार। परन्तु विचार क्रिया का रूप है। विचार की क्रिया से सम्पूर्ण फल प्राप्त होते हैं।

मनोहि भावनामात्रं भावनास्पंदधर्मिणी।
क्रियातद्भावितारूपं फलं सर्वोनु धावति।। उपशम प्रकरण सर्ग 96-1

यह मन स्वयं भी संकल्प शक्ति से युक्त है। इस लोक में जैसे गुणी का गुण से हीन होना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार मन का कल्पनात्मक क्रिया शक्ति से रहित होना असम्भव है। मन जिसका अनुसंधान करता है, उसी का सम्पूर्ण कर्मेन्द्रिय वृत्तियाँ सम्पादन करती है। इसलिए मन को कर्म कहा गया है। मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त, कर्म, कल्पना, स्मृति, वासना, अविद्या, प्रयत्न, संस्मृति, इन्द्रिय, प्रकृति, माया, आदि सभी मन की ही संज्ञा है। 

मनोबुद्धिरहंकारश्रिवतंकर्माथकल्पना।
संस्मृतिर्वासनाविद्याप्रयत्न: स्मृतिरेव च।।
इन्द्रियं प्रकृतिर्मायाक्रियाचेतीतरा अपि।
चित्रा: शब्दोक्रयो ब्रह्मन्संसारभ्रमहेतव:।। उ0 प्र0 सर्ग 96/13-14

संसार का कारण मन की कल्पना ही है। चित्त को चेत्य का संयोग होने पर ही संसार भ्रम होता है। अन्य जितनी संज्ञा मन की कही गयी है वे सब मन के फुरने से एकदम फुरती है।

मन के स्वरूप के बारे में बताते हुए योगवशिष्ठ में कहा गया है कि यह मन न तो जड़ है और न चेतन ही है।

मन इत्युव्यते शमन जडंन चिन्मयम्।। उ0 प्र0 सर्ग 96/41

जड़ और चेतन की गांठ को मन कहते हैं और संकल्प-विकल्प की कल्पना ही मन है। यह संसार उसी मन से पैदा हुआ है। यह जड़ चेतन दोनों में चलायमान है। यह कभी जड़ की तरफ और कभी चेतन की तरफ चला जाता है। इस मन की कई संज्ञा है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और जीव इत्यादि मन की ही संज्ञा है। जैसे कोई नट सवांग रचने से अनेक संज्ञा पाता है, ठीक उसी प्रकार मन संकल्प से अनेक संज्ञा प्राप्त करता है।

यथा गच्छति शैलुषोरूपाण्यलंतथैवहि।
मनोनामान्यनेकानि धत्तककर्मारं व्रजेत्।। उ0 प्र0 सर्ग 96/43

यह सम्पूर्ण विस्तृत जगत् मन से ही व्याप्त है। मन से भिन्न तो केवल परमात्मा ही शेष रहते हैं। मन के नाश होने पर सर्वाश्रयदायक परब्रह्मपरमेश्वर ही अवशिष्ट रहता है और उसी के प्रमाद के कारण मन इस जगत् की रचना करता है। मन ही क्रिया है। मन के द्वारा ही शरीर बनता है और मरता है। मन के नष्ट होने पर कर्म आदि का सम्पूर्ण भ्रम नाश हो जाता है। जिस पुरुष ने मन पर विजय प्राप्त कर लिया है, वह जन्म-मरण के बन्धन से रहित हो जाता है, मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

योग वशिष्ठ में चित्तप्रसादन

योग वशिष्ठ के उपशम प्रकरण के 13 वें सर्ग में चित्त की शान्ति के उपाय का वर्णन करते हुए कहा है कि जैसे पूर्व काल में वेदानुसार अन्य महापुरुषों एवं राजा जनक आदि ने जो आचरण किया है, वैसा ही आचरण करके आप भी मोक्ष पद को प्राप्त करो। बुद्धिमान् पुरुष स्वयं ही परमपद को प्राप्त होते हैं। जब तक आत्मा प्रसन्न नहीं होता तब तक इन्द्रियों को दमन करके अपना काम करते रहो। जब वह आत्मारूपी सर्वगत् परमात्मा और ईश्वर प्रसन्न हो जाएगा तो फिर अपने आप ही प्रकाश दीखेगा। इसलिए हे राम! राजा जनक आदि ने जिस-जिस तरह आचरण किये हैं उसी प्रकार आप भी ब्रह्मलक्ष्मी होकर आत्मपद में स्थित हो और इस संसार में विचरण करो। इससे आपको तनिक भी दु:ख नहीं होगा।

प्रसन्ने सर्वगेदे वेदे वेशे परमात्मनि
स्वयं मालोकिते सर्वा: क्षीयंते दु:खदृष्टय:।। उ0 प्र0 सर्ग 13/4

हे राम! यह मन अति चंचल है। इसको शान्त करने के लिए आप अपने में यह समझों कि न मैं हूँ और न कोई है। अनिष्ठ पदार्थ भी कुछ नहीं है। इससे यह शान्त हो जायेगा। अवस्तित्त्वमिदं वस्तुयस्येति ललितंमन:। उ0 प्र0 सर्ग 13/24 जो राग-द्वेष से मुक्त है, मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण को एक समान समझता है तथा संसार की वासनाओं का त्याग कर चुका है, ऐसा योगी मुक्त कहलाता है। उसकी सब क्रियाओं में अहंभाव नहीं होता, तथा वह सुख-दु:ख में भी समान भाव रखता है। जो इष्ट और अनिष्ट की भावना का त्याग करके प्राप्त हुए कार्य को कर्त्तव्य समझकर ही उसमें प्रवृत्त होता है, उसका कहीं भी पतन नहीं होता। महामते! यह जगत् चेतन मात्र ही है- इस प्रकार के निश्चय वाला मन जब भोगों का चिन्तन त्याग देता है, तब वह शान्ति को प्राप्त हो जाता है। 

चित्सत्तामात्रमेवेदमितिश्रवयवन्मन:
त्यक्तभोगाभिमनशंममेतिमहामते।। उ0 प्र0 सर्ग 13/46

योगवशिष्ठ में यम नियम निरूपण 

योगवशिष्ठ में योग साधना करने वाले साधकों को निर्वाण प्राप्ति के लिए यम-नियमों का अभ्यास आवश्यक बताया है। 

वशिष्ठ जी कहते हैं कि जो अपने पूर्वजों के उपदेश को ध्यान में रखकर उन पर शुभाचरण करते है वह धर्मात्मा कहलाता है और पाप मार्ग से बचता है। धर्मात्मा भी दो प्रकार के होते हैं। एक प्रवृत्ति वाला दूसरा निवृत्ति वाला धर्मात्मा। प्रवृत्ति मार्ग वह है जिसमें शास्त्रोक्त करने योग्य शुभ कर्म करे और दान पूण्य सदाचरण करके अपने कृत्य कर्म का फल चाहे। निवृत्ति मार्ग वह है जिसमें संसार के सभी सुखों को मिथ्या समझे, अपने अन्त:करण को स्वभाव से ही स्वच्छ रखे, अपने पवित्र विचार करके स्वाध्याय द्वारा सत्यशास्त्रों का अध्ययन कर अपनी बुद्धि को तीव्र करे और अपनी दृष्टि समान रखे। योग वशिष्ठ के निर्वाण प्रकरण में आगे कहा है कि जो जिज्ञासु योग साधक है उसे चाहिए कि अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए तीर्थस्थानों में स्नान, दान तथा सत्यशास्त्रों पर विचार करता हुआ सत्संग भी करे। उसका खान-पान तथा लेना देना सभी कुछ विचार युक्त होना चाहिए। साथ ही क्रोध रहित होकर शुभाचरण करे और पवित्र मार्ग पर चले। क्रमश: सभी इन्द्रिय-जन्य विषयों का त्याग करे और अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं को दबाकर केवल दया नाम की इच्छा को अपनावे अर्थात् सब पर दयाभाव रखता हुआ सन्तोष को प्राप्त होवे। ऐसा व्यक्ति लोभ, मोह तथा दंभ आदि से सर्वथा अलग रहता है। समस्त भोगों को त्याग कर देने के कारण उसका हृदय प्रतिक्षण शुभ गुणों से युक्त रहता है। वह फूलों की शय्या को सुखदायी नहीं समझता, इसके विपरीत वन एवं पर्वत की कन्दरा का निवास ही श्रेष्ठ समझता है। इस प्रकार वह कुँआ, बावड़ी, सरोवर एवं नदियों में स्नान तथा भूमि या पत्थर पर शयन करता हुआ, निरन्तर अपने वैराग्य में अभिवृद्धि करता जाता है और फिर धारना व ध्यान द्वारा चित्त में स्थिरता लाकर, आत्मचिन्तन करता हुआ, समस्त सांसारिक भोगों से पूर्णतया विरक्त हो जाता है। 

प्राणायाम निरुपण 

योग वशिष्ठ में प्राणायाम का भी उल्लेख किया गया है। प्राण के सम्बन्ध में कहा गया है कि यह प्राण हृदय देश में स्थित रहता है। अपान वायु में भी निरन्तर स्पन्द शक्ति तथा सत्गति करता है। यह अपान वायु नाभि-प्रदेश में स्थित रहता है।


“प्राणापानसमानाधैस्तत: सहृदयानिल:।” (नि0 प्र0 24/25)

किसी भी प्रकार के यन्त्र के बिना प्राणों की हृदय कमल के कोश में होने वाली जो स्वभाविक बहिर्मुखता है, विद्वान् लोग उसे ‘रेचक’ कहते हैं। बारह अंगुल पर्यन्त बाह्य प्रदेश की ओर नीचे गये प्राणों का लौटकर भीतर प्रवेश करते समय जो शरीर के अंगों के साथ स्पर्श होता है उसे ‘पूरक’ कहते हैं। अपान वायु के शान्त हो जाने पर तब वह हृदय में प्राण वायु का अभ्युदय नहीें होता, तब वह वायु की कुंभकावस्था रहती है, जिसका योगी लोग अनुभवन करते हैं इसी को ‘आभ्यन्तर कुम्भक’ कहते हैं। बाह्य नासिका के अग्रभाग से लेकर बराबर सामने बारह अंगुल पर्यन्त आकाश में जो अपान वायु की निरन्तर स्थिति है, उसे पण्डित लोग ‘बाह्यकुंभक’ कहते हैं। 

अपानस्यबहिष्ठंतमपरं पूरकं विदु:।
बाह्यानाभ्यंतराश्रवैतान्कुंभकादीनारतम्।। नि0 प्र0 25/19

प्राणायाम का फल के बारे में उल्लेख करते हुए योग वशिष्ठ के निर्वाण प्रकरण में कहा गया है कि प्राण और अपान के स्वभावभूत ये जो बाह्य और आभ्यन्तर कुम्भकादि प्राणायाम है, उनका भलीभाँति तत्त्व रहस्य जानकर निरन्तर उपासना करने वाला पुरुष पुन: इस संसार में उत्पन्न नहीं होता। 

प्राणापानस्वभावांस्तान् बृद्धाभूयोन जायते।
अष्टावेते महबुद्धेरात्रिंदिवमनुस्मृता:।। नि0 प्र0 25/20

अपान के रेचक और प्राण के पूरक के बाद जब अपान स्थित होता है तो प्राण का कुम्भक होता है। उस कुम्भक में स्थित होने पर प्राणी तीनों तापों से मुक्त हो जाता है। क्योंकि वह अवस्था आत्मतत्त्व की होती है। उस कुम्भक की अवस्था में जो साक्षी भूत सत्ता है वही वास्तव में आत्मतत्त्व है। उसमें स्थित होने से प्राण की स्थिरता वाली देश, काल आदि की अवस्था में स्थिर हुआ मन का मनत्त्व भाव नष्ट हो जाता है। 

स्वच्छंकुंभकमभ्यनभूय: परितप्यते।
अपानेरेचकाधारं प्राणपूरांतस्थितम्।। नि0 प्र0 25/53

इस प्रकार प्राणायाम का अभ्यास करने वाले पुरुष का मन विषयाकार वृत्तियों के होने पर भी बाह्यविषयों में रमण नहीं करता। जो शुद्ध और तीक्ष्ण बुद्धि वाले महात्मा इस प्राण विषयक दृष्टि का अवलम्बन करके स्थित हैं, उन्होंने प्रापणीय पूर्ण ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लिया है और वे ही समस्त खेदों से रहित हैं।  

प्रत्याहार निरुपण

 महर्षि पतंजलि के अनुसार मन के रुक जाने पर नेत्रादि इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों के साथ सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् इन्द्रियां शान्त होकर अपना कार्य बन्द कर देती है, इस स्थिति का नाम प्रत्याहार है। 

स्वाविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार:। यो0 सू0 2/54

योगवशिष्ठ में प्रत्याहार के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि इस जगत् में कहीं भी चपलता से रहित मन नहीं देखा जाता। जैसे उष्णता अग्नि का धर्म है वेसे ही चंचलता मन का। चेतन तत्त्व में जो यह चंचल क्रिया शक्ति विद्यमान है, उसी को तुम मानसी शक्ति समझो। इस प्रकार जो मन चंचलता से रहित है, वही मरा हुआ कहलाता है। वही तप है और वही मोक्ष कहलाता है। मन के विनाश मात्र से सम्पूर्ण दु:खों की शान्ति हो जाती है और मन के संकल्प मात्र से परम सुख की प्राप्ति होती है। 

मनोविलयमात्रेणदु:खशांतिरवाप्यते।
मनोमननमात्रेण दु:खं परमवाप्यते।। उत्पत्ति प्रकरण 112/9

यह मन की चपलता अविद्या से उत्पन्न होने के कारण अविद्या कही जाती है। उसका विचार के द्वारा नाश कर देना चाहिए। विषय चिन्तन का त्याग कर देने से अविद्या और उस चित्त सत्त्ता का अन्त:करण में लय हो जाता है। और ऐसा होने से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। जिसने मनरूपी पाश को अपने मन के द्वारा ही काटकर आत्मा का उद्धार नहीं कर लिया, उसे दूसरा कोई बन्धन नहीं छुड़ा सकता। विद्वान् पुरुष को चाहिए कि जो-जो वासना, जिसका दूसरा नाम मन है, उदित होती है, उस-उस का परित्याग करे- उसे मिथ्या समझ कर छोड़ दे। इससे अविद्या का क्षय हो जाता है। भावना की भावना न करना ही वासना का क्षय है। इसी को मन का नाश एवं अविद्या का नाश भी कहते हैं।

यायोदेतिम नोनाम्नीवासनासितांतरा।
तांतांपरिहरेत्प्राज्ञस्ततोSविद्याक्षयो भवेत्।। उ0 प्र0 112/22

इस प्रकार से निश्चय मन वाला जब भोगों का चिन्तन त्याग देता है, तब वह शान्ति को प्राप्त हो जाता है। 

ध्यान निरुपण :- 

धारणा वाले स्थान पर एक वस्तु के ज्ञान का प्रवाह बना रहना ध्यान कहलाता है। 

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। यो0 सू0 3/2

योगवशिष्ठ में ध्यान के बारे में वर्णित करते हुए उपशम प्रकरण में कहा है कि प्राणायाम द्वारा अपने मन को नियन्त्रण कर नेत्रों को बन्द करके ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। इसमें ओंकार का ध्यान करना बतलाया है। ओंकार में अकार, उकार और मकार तीन शब्द है जो क्रमश: अकार से ब्रह्मा, उकार से विष्णु तथा मकार से शिव का द्योतक है तथा जो अर्धमात्रा है वह तुरीया है। इस प्रकार अकार से ब्रह्मा का स्मरण करें, उकार से विष्णु का स्मरण करें तथा मकार से शिव का ध्यान करते हुए तुरीयापद को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही ध्यान का स्वरूप है। 

समाधि निरुपण

समाधि के स्वरूप के बारे में वशिष्ठ जी, श्रीराम से कहते हैं कि अब तुम समाधि का लक्षण सुनो। यह जो गुणों का समूह गुणात्मक तत्त्व है, उसे अनात्म तत्त्व मानकर अपने आप को केवल इनका साक्षीभूत चेतन जानो और जिसका मन स्वभाव सत्ता में लगकर शीतल जल के समान हो गया है उसको ही समाधिस्थ जानना चाहिए। 

इमं गुणसमाहारमनात्मत्वेन पश्यत:।
अंत: शीतलतायासौसमाधिरिति कथ्यते।। उ0 प्र0 56/7

इसी का नाम समाधि है। जो मैत्री, करुणा मुदिता और उपेक्षा आदि गुणों में स्थित होकर आत्मा के दर्शन से शान्तिमान् हुआ है, उसको समाधि कहते हैं। 

हे राम! जिसको ऐसा निश्चय हो गया है कि मैं शुद्ध चिदानन्द स्वरूप हँू और दृश्यों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं, उसके लिए घर और बाहर एक समान हैं, फिर वह चाहे कहीं रहे। अन्त:करण का शान्त होना ही महान् तपों का फल है। जिसने उपर से तो इन्द्रियों का हनन कर लिया है मगर मन से संसार के पदार्थों की चिन्ता करता रहता है, उसकी समाधि व्यर्थ है। उसका तो समाधि में बैठना ऐसा है जैसे कोई उन्मत्त होकर नृत्य करे। देखने में तो व्यवहार करे, मगर मन वासना से अलग हो तो उसको बुद्धिमान् पुरुष समाधि के समान मानते हैं। 

वास्तव में वही स्वस्थ आत्मा कहलाने का अधिकारी है और उसी को ‘समाधि’ कहते हैं। जिसके हृदय से संसार का राग-द्वेष समाप्त हो गया और जिसने शान्ति प्राप्त कर ली, उसको सदिव्य समाधिस्थ जानना चाहिए। 

प्रशान्तजगदास्थोंतर्वीतशोकभयैषण:।
स्थोभवतियेनात्मा ससमाधिरितिस्मृत:।। उ0 प्र0 56/20

सम्पूर्ण भाव पदार्थों में आत्मा को अतीत जानना समाहित चित्त कहलाता है। समाहित चित्त वाला व्यक्ति चाहे कितने ही जन समूह में क्यों न रहे, मगर उसका किसी से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, क्योंकि उसका चित्त हमेशा अन्तर्मुख रहता है। वह सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते जगत् को आकाशरूप मानता है। ऐसे प्राणी को अन्तर्मुखी कहते हैं। क्योंकि उसका हृदय शीतल होने के कारण उसको सम्पूर्ण जगत् शीतल ही भासता है। वह जब तक जीता है तब तक शीतल ही रहता है।

मोक्ष (मुक्ति निरुपण) 

मोक्ष का वर्णन करते हुए वशिष्ठ जी, श्री राम से कहते हैं, कि लोक में दो प्रकार की मुक्ति होती है - एक जीवनमुक्ति और दूसरी विदेहमुक्ति। जिस अनाशक्त बुद्धि वाले पुरुष की इष्टानिष्ट कर्मों के ग्रहण त्याग में अपनी कोई इच्छा नहीं रहती, अर्थात् जिस की इच्छा का सर्वथा अभाव हो जाता है, ऐसे पुरुष की स्थिति को तुम जीवनमुक्त अवस्था -सदेहमुक्ति समझो। अर्थात् देह का विनाश होने पर पुनर्जन्म से रहित हुई वही जीवनमुक्ति विदेहमुक्ति कही जाती है। 
असंसक्तमतेर्यत्यागदानेषु कर्मणाम्।
नैषणाताित्स्थतिं विद्धि त्वं जीवन्मुक्तामिह।।
सैव देहक्षयेरामपुनज्र्जननवर्जिता।
विदेहमुक्ता प्रोक्ता तत्स्थानायांति दृश्यताम्।। उ0 प्र0 42/12-13

जिन्हें विदेहमुक्ति हो गई है वे फिर जन्म धारण करके दृष्यता को नहीं प्राप्त होते, ठीक उसी तरह, जैसे भुना हुआ बीज जमता नहीं है। 

मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान से होती है, कर्म से नहीं। वशिष्ठ जी कहते हैं कि- हे रघुनन्दन! परब्रह्म परमात्मा देवताओं के भी देवता हैं। उसके ज्ञान से ही परम सिद्धि (मोक्ष) की प्राप्ति होती है, क्लेशयुक्त सकाम कर्मों से नहीं। संसार बन्धन की निवृत्ति या मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान ही साधन है। 

अयंसदेव इत्येव संपरिज्ञानमात्रत:।
जंतोर्नजायते दु:खजीवन्मुक्तत्त्वमेति च। उ0 प्र0 6/6

सकाम कर्म का इसमें कोई उपयोग नहीं है। क्योंकि मृगतृष्णा में होने वाले जल के भ्रम का निवारण करने के लिए ज्ञान का उपयोग ही देखा गया है। ज्ञान से ही उस भ्रम की निवृत्ति होती है, किसी कर्म से नहीं। सत्संग तथा सत्शास्त्रों के स्वाध्याय में तत्पर होना ही ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में हेतु है। वह स्वाभाविक साधन ही मोह जाल का नाशक होता है जिससे जीव के दु:ख का निवारण होकर वह जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त होता है। 

नन्दलाल दशोरा। योग वशिष्ठ (महारामायण) पृ0 143

इसलिए आत्मा को सत्य जानकर उसी की भावना करो और संसार को असत् जानकर इसकी भावना को त्याग कर दो, क्योंकि सबका अधिष्ठान आत्मतत्त्व ही है। वह आत्मतत्त्व शुद्धरूप परमशान्त और परमानन्द पद है। उसको प्राप्त कर लेने पर परम सुख की प्राप्ति होती है।

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