चिंता क्या है इसके कारण एवं लक्षणों का विस्तृत वर्णन

चिन्ता अपने आप में एक ऐसा मानसिक रोग है जो व्यक्ति के विचारों में लगकर भीतर ही भीतर उसे खोखला करता जाता है। चिन्ता सामान्यतः अज्ञात, अमूर्त एवं व्यक्तिनिष्ठ परिस्थितियों से सम्बन्धित होती है। जो प्रायः इच्छित वस्तु के न प्राप्त होने की दशा में या फिर उसको प्राप्त करने के मार्ग में आने वाले अवरोधों के द्वारा उत्पन्न होती है। चिंता का स्वरूप नकारात्मक होता है, इसमें किसी घटना के घटित होने से पूर्व ही उसके हानिकारक परिणाम की आशंका का विचार मन में उठता है, जो प्रश्रय मिलने पर बढ़ता जाता है। चिन्ता की मनोव्यथा में व्यक्ति के सम्मुख पे्ररक तत्वों का अभाव हो जाता हैं ओेैर आशंकाएँ व नकारात्मक कल्पनाएँ उत्पन्न होकर प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध कर देती है।

चिंता क्या है?

चिंता वस्तुत: एक दु:खद भावनात्मक स्थिति होती है। जिसके कारण व्यक्ति एक प्रकार के अनजाने भय से ग्रस्त रहता है, बेचैन एवं अप्रसन्न रहता है। चिंता वस्तुत: व्यक्ति को भविष्य में आने या होने वाली किसी भयावह समस्या के प्रति चेतावनी देने वाला संकेत होता है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपनी दिन-प्रतिदिन की जिन्दगी में अलग-अलग ढंग से चिंता का अनुभव करता है। 

कुछ लोग छोटी सी समस्या को भी अत्यधिक तनावपूर्ण ढंग से लेते हैं और अत्यधिक चिंताग्रस्त हो जाते है। जबकि कुछ लोग जीवन की अत्यधिक कठिन परिस्थितियों को भी सहजता से लेते है और शान्त भाव से विवेकपूर्ण ढंग से समस्याओं का समाधान करते हैं। वस्तुत: चिंताग्रस्त होना किसी भी व्यक्ति के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

चिंता से न केवल हमारे दैनिक जीवन के क्रियाकलाप प्रभावित होते हैं, वरन् हमारे निष्पादन, बुद्धिमत्ता, सर्जनात्मकता इत्यादि भी नकारात्मक ढंग से प्रभावित होते है। यह कहा जा सकता है कि अत्यधिक चिंताग्रस्त होने के कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व बुरी तरह प्रभावित हो पाता है तथा वह किसी भी कार्य को ठीक ढंग से करने में सक्षम नहीं हो पाता है।

चिंता की परिभाषा

चिंता को अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा चिन्ता के सम्बन्ध में दी गई कुछ परिभाषाएं है-

फ्रायड(1924) के अनुसार-‘’चिन्ता एक ऐसी भावनात्मक एवं दुखद अवस्था होती है, जो व्यक्ति के अहं को आवंबित खतरों से सतर्क करती है ताकि व्यक्ति वातावरण में समायोजित हो सके।’’

स्पाइलबरगर(1960) कहते है- ‘‘चिन्ता उद्दोलन की वह अवस्था है जो भय से बचने के कारण उत्पन्न होती है।’’

काॅलमेन(1969) के अनुसार ‘‘असुरक्षा की भावना के कारण तथा दमित इच्छाओं के कारण अचेतन स्तर पर व्यक्त न हो पाने के कारण चिन्ता उत्पन्न होती है। ’’

हर्नी(1945) के अनुसार ‘‘ चिन्ता एक प्रकार की भावना है जो व्यक्ति में उस समय उत्पन्न होती है जब वह अनुभव करता है कि वह शत्रुता पूर्ण संसार में अकेला असहाय है।’’

फ्रायड - ‘‘चिंता एक ऐसी भावनात्मक एवं दु:खद अवस्था होती है, जो व्यक्ति के अहं को आलंबित खतरा से सतर्क करता है, ताकि व्यक्ति वातावरण के साथ अनुकूली ढंग से व्यवहार कर सके।’’ 

आरफॅफ - ‘‘प्रसन्नता अनुभूति के प्रति संभावित खतरे के कारण उत्पन्न अति सजगता की स्थिति ही चिंता कहलाती है।’’ 

अमेरिकन साइकेट्रिक एसोशियेशन 2005, एवं बारलोप, 1988 - ‘‘चिंता एक ऐसी मनोदशा है, जिसकी पहचान चिन्ह्त नकारात्मक प्रभाव से, तनाव के शारीरिक लक्षणों लांभवित्य के प्रति भय से की जाती है।’’

बारलोव, 1998‘‘चिंता का अवसाद से भी घनिष्ठ संबंध है।’’ 

आर.अग्रवाल, 2001 - ‘‘चिंता एवं अवसाद दोनों ही तनाव के क्रमिक सांवेगिक प्रभाव है। अति गंभीर तनाव कालान्तर में चिंता में परिवर्तित हो जाता है तथा दीर्घ स्थायी चिंता अवसाद का रूप ले लेती है।’’  

चिंता के प्रकार

 मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने चिन्ता के तीन प्रमुख प्रकार बताये है-
  1. वस्तुनिष्ठ चिन्ता
  2. नैतिक चिन्ता
  3. तन्त्रिकातापी या मनस्तापी चिन्ता
वाहृय भौतिक जगत या सामाजिक वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करने में जब व्यक्ति का अहम् दुर्बल पड़ जाता है तो वस्तुनिष्ठ चिन्ता उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ- प्राकृतिक आपदा, निकटतम सम्बन्धी की असाध्य बीमारी, प्रतिष्ठा-क्षति आदि से उत्पन्न चिन्ता। व्यक्ति के अनैतिक इच्छा की अभिव्यक्ति के सम्भावित दुष्परिणामों या कठोर दण्ड की सम्भावना से नैतिक चिन्ता की उत्पत्ति होती है। व्यक्ति के अचेतन संघर्ष के द्वारा तन्त्रिकातापी चिन्ता उत्पन्न होती है।

आयुर्वेदीय मानसरोग चिकित्सा नामक पुस्तक में डा0 गोविन्द प्रसाद उपाध्याय ने चिन्ता के दो प्रकार बताए हैं-
  1. स्वाभाविक चिन्ता व
  2. अस्वाभाविक चिन्ता।
स्वाभाविक चिन्ता का कारक मूलतः वातावरण में विद्यमान मूर्त (स्थूल) वस्तु या मन पर दुष्प्रभाव डालने वाली कोई परिस्थिति होती है। इसमें कारण को हटा देने पर चिन्ता भी दूर हो जाती है। जबकि अस्वाभाविक चिन्ता में रोगी के चिन्तित रहने के कारण अज्ञात होता है। उसकी चिन्ता का कोई प्रत्यक्ष स्रोत नहीं होता है। उसके समक्ष अपने दुःखों, कष्टों का कारण अस्पष्ट होता है। 

अस्वाभाविक चिन्ता, चिन्ता की ऐसी असामान्य एवं विकृत दशा होती है जो व्यक्ति की नकारात्मक कल्पना एवं अन्तर्मन की उपज होती हैं।

चिंता के लक्षण

 चिंता के लक्षणों का विवेचन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

1. चिंता के शारीरिक लक्षण

चिन्ता के शारीरिक लक्षणों के अन्तर्गत मुहँ सूखना, श्वास-प्रश्वास सम्बन्धी कठिनाइयाँ या रूक-रूककर लंबी साँस खींचना, हाथ काँपना, हथेलियों और पैरों के तलवों का ठण्डा होना, सिर दर्द, आँखों के चारों ओर काला घेरा, भौहों का तन जाना, आँखों की पुतलियों का फैल जाना, समस्त शरीर की मांसपेशियों का अकड़ जाना, अनिद्रा, थकान, कमजोरी, चक्कर आना, नाड़ी की गति का बढ़ना, असन्तुलित जठराग्नि, बार-बार पेशाब या शौच करने की इच्छा होना एवं चेहरे पर भय या घबराहट का भाव उभरना प्रमुख हैं।
  1. अत्यधिक शारीरिक थकान
  2. पूरे शरीर में माँसपेशीय तनाव
  3. अत्यधिक पसीना आना
  4. उच्च रक्तचाप
  5. हृदयगति एवं नाहीगति का बढ़ जाना
  6. पेट संबंधी समस्यायें
  7. सिर दर्द
  8. वजन कम होना
  9. हाथ-पैर का ठंडा हो जाना इत्यादि।

2. चिंता के मानसिक लक्षण

चिन्ता के मानसिक लक्षणों के अन्तर्गत छोटी-छोटी बात को लेकर परेशान रहना, मानसिक अस्थिरता, विचारों में द्वन्द की स्थिति, निर्णय लेने की क्षमता का अभाव, हीन भाव, मृत्यु से भय, भविष्य को अन्धकारपूर्ण समझना, असुरक्षा का भाव, असहनशीलता, शीघ्र गुस्सा आना, चिड़चिड़ापन आदि आते है। रात में इन लक्षणों का वेग बढ़ जाने से नींद में विघ्न पड़ता है और रोगी गहरी नींद नहीं ले पाता।

चिन्ता के रोगी किसी कार्य को करने की सोचते है तो उसको पूरा करने के लिए योजना बनाने और उसके लिए साधनों को जुटाने की चिन्ता करते है। कार्य सम्पादन के मार्ग में आने वाली बाधाओं के विषय में सोचना उनका स्वभाव बन जाता है। ऐसी दशा में उनकी रातों की नींद उड़ जाती है और दिन का चैन खो जाता हैं। अनेकों प्रकार की आशंकाएँ उन्हें घेरे रहती है। ऐसी चिन्तित मनोव्यथा में सफलता के बजाए असफलता ही मिलती है।
  1. बेचैन एवं तनावग्रस्त रहना।
  2. उदास एवं निराश
  3. हैरान-परेशान
  4. चिड़चिड़ापन

3. चिंता के संज्ञानात्मक लक्षण

  1. नकारात्मक सोच
  2. भविष्य के बारे में दुःखद कल्पनायें करना।

4. चिंता के व्यावहारात्मक लक्षण

  1. अन्तर्मुखी होना
  2. दूसरे लोगों से अपने आपको छुपाने का प्रयास करना।
  3. नकारात्मक सोच के कारण निर्णय लेने में कठिनाई।
इस प्रकार स्पष्ट है कि चिन्ता न केवल हमारे शरीर वरन् भावनाओं, विचार एवं व्यवहार सभी को अत्यधिक नकारात्मक ढंग से प्रभावित करती है।

चिन्ता के कारण

आप चिन्ता के लक्षणों से परिचित हो गये हैं अब उन लक्षणों को उत्पन्न करने वाले कारणों को जानने का प्रयास करते है। अनेकानेक कारण उत्तरदायी होते हैं-

1. जीवन की जटिल समस्याएं - चिन्ता की दशा में व्यक्ति जीवन की जटिल समस्याओं का सामना करने के बजाए उनसे घबड़ाता है और उनसे बचने का प्रयास करता है।

2. असुरक्षा की भावना - चिंता ग्रस्त व्यक्ति सामान्य परिस्थितियों में भी अपने आपको असुरक्षित महसूस करता है और थोडी़ सी भी प्रतिकूल परिस्थिति के उत्पन्न हो जाने पर घबड़ा जाना उसका सहज स्वभाव बन जाता है।

3. उत्साहहीन जीवन - जीवन में मिलने वाली सतत् असफलताओं एवं अन्तद्र्वन्दों से कुछ व्यक्ति दुःखी हो जाते हैं और अपने भीतर का उत्साह खो बैठते है।

4. मादक द्रव्यों का अत्यधिक सेवन - मानसिक वेदना को कम करने के लिए कुछ लोग मादक पदार्थों का सेवन करते हैं, परन्तु समय बीतने पर मादक द्रव्यों के अत्यधिक उपयोग से भी उन्हें लाभ नहीं मिलता तो चिन्ता के लक्षण प्रत्यक्ष दिखने लगते हैं।

मानव जीवन चुनौतियों से भरा हुआ है। जीवन के विविध पड़ावों पर कुछ ऐसी कष्टपूर्ण परिस्थितिया आती हैं जिससे व्यक्ति में चिन्ता की मनोव्यथा उत्पन्न हो जाती है। इन कष्टजन्य परिस्थितियों में प्रियजन की असामयिक एवं दुःखद मृत्यु, वैधव्य, निराशापूर्ण वैवाहिक जीवन, तलाक, दीर्घकालिक शारीरिक रूग्णता, प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली धन व सम्पंित्त की हानि आदि आते है। जिसके दुष्प्रभाव से जीवन अन्धकार मय एवं आशाविहीन हो जाता है और व्यक्ति में स्थायी चिन्ता अपना अस्तित्व जमा लेती है।

इन कष्टदायी परिस्थितियों के अतिरिक्त उच्च महत्वाकाक्षाएं भी व्यक्ति को चिन्ता ग्रस्त कर देती हैं, क्योंकि उच्च महत्वाकाक्षाओं को पूरा करने के लिए निरन्तर सतर्क रहने की आवश्यकता पड़ती है । इस प्रक्रिया में व्यक्ति की बहुत अधिक मानसिक ऊर्जा का व्यय होता है। ऐसी दशा में व्यक्ति के लिए सामान्य घटनाक्रम का भी मुकाबला करना कठिन हो जाता है और उच्च महत्वाकांक्षा को पूरा करना असम्भव प्रतीत होने पर चिन्ता जीवन का अंग बन जाती है।

संदर्भ -
  1. उपाध्याय, गोविन्द प्रसाद (2000) आयुर्वेदीय मानस रोग चिकित्सा, चैखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी।
  2. विप्लव, विनोद (2006) मानसिक रोग कारण व बचाव, प्रभात पेपर बैक्स, नई दिल्ली।
  3. शर्मा, भगवती देवी(दिसम्बर, 1993) अखण्ड ज्योति, उदासीः गले की फॅासी, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, पृ. 31-32।
  4. पण्डया, डा. प्रणव(अप्रैल, 2008) अखण्ड ज्योति, आप सोचें या न सोचें, मस्तिष्क सोचता रहता है, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, पृ. 39।

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