एरिक एरिक्सन एक प्रसिद्ध मनोविष्लेशक थे जिसने
मानव के सम्पूर्ण जीवनकाल के सामान्य विकास का मनोसामाजिक
सिद्धान्त प्रतिपादित किया । एरिक्सन ने व्यक्तित्व विकास के लिए
सामाजिक कारकों के महत्व पर बल दिया । उसने विकास के
विभिन्न अवस्थाओं के नियत निर्धारकों को स्थिरता और स्थायित्व
में भिन्न है , का सम्प्रत्यय विकसित किया । एरिक्सन ने भी फ्रॉयड
की तरह व्यक्तित्व विकास का आधार जैविक और लैंगिक माना
परन्तु उसने फ्रॉयड की विकास सूची को सामाजिक आधार दे
दिया ।
इरिक्सन के सिद्धान्त का केन्द्रीय बिन्दु यह है कि मानव का विकास कई पूर्वनिश्चित अवस्थाएं जो सर्वजनीन होती हैं, से होकर होता है। जिस प्रक्रिया द्वारा वे अवस्थाएं विकसित होती है। वह विशेष नियम द्वारा नियंत्रित होती है। इस नियम को पश्चजात नियम कहा जाता है।
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘चाइल्डहुड एण्ड सोसाइटी’ में एरिक्सन ने विकास की आठ अवस्थाएं बताई जिसमें उसने
व्यक्तित्व विकास के लिए जैविक और सामाजिक कारकों की
अन्तक्रिया के महत्व पर बल दिया।
इरिक एरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत
इरिक्सन द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व सिद्धान्त में मनोसामाजिक विकास की आठ अवस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं:-
- शौशवावस्था: विश्वास बनाम अविश्वास
- प्रारंभिक बाल्यावस्था: स्वतंत्रता बनाम लज्जाशीलता
- खेल अवस्था: पहल शक्ति बनाम दोषिता
- स्कूल अवस्था: परिश्रम बनाम हीनता
- किशोरवस्था: अहं पहचान बनाम भूमिका संभ्रान्ति
- तरूण वयस्कावस्था: घनिष्ठ बनाम विलगन
- मध्यवयस्कावस्था: जननात्मक्ता बनाम स्थिरता
- परिपक्वतारू अहं सम्पूर्णता बनाम निराशा
1. शौशवावस्था: विश्वास बनाम अविश्वास
एरिक्सन के अनुसार मनोसामाजिक विकास की यह प्रथम अवस्था है, जो क्रायड के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त की व्यक्तित्व विकास की प्रथम अवस्था मुख्यावस्था से बहुत समानता रखती है। एरिक्सन की मान्यता है कि शौशवावस्था की आयु जन्म से लेकर लगभग 1 साल तक ही होती है। इस उम्र में माँ के द्वारा जब बच्चे का पर्याप्त देखभाल की जाती है, उसे भरपूर प्यार दिया जाता है तो
एरिक्सन के अनुसार बच्चे में सर्वप्रथम धनात्मक गुण विकसित होता है। यह गुण है- बच्चे का स्वयं तथा दूसरों में विश्वास तथा आस्था की भावना का विकसित होना। यह गुण आगे चलकर उस बच्चे के स्वस्थ व्यक्तित्व के विकास में योगदान देता है, किन्तु इसके विपरीत यदि माँ द्वारा बच्चे का समुचित ढंग से पालन-पोषण नहीं होता है, माँ बच्चे की तुलना में दूसरे कार्यों तथा व्यक्तियों को प्राथमिकता देती है तो इससे उस बच्चे में अविश्वास, हीनता, डर , आशंका, ईर्ष्या इत्यादि ऋणात्मक अहं गुण विकसित हो जाते हैं, जो आगे चलकर उसके व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करते है।
एरिक्सन का मत है कि जब शैशवास्था में बच्चा विश्वास बनाम अविश्वास के द्वन्द्व का समाधान ठीक-ठीक ढंग से कर लेता है तो इससे उसमें “आशा” नामक एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति विकसित होती है।
आशा का अर्थ है-” एक ऐसी समझ या शक्ति जिसके कारण शिशु में अपने अस्तित्व एवं स्वयं के सांस्कृतिक परिवेश को सार्थक ढंग से समझने की क्षमता विकसित होती है।
2. प्रारंभिक बाल्यावस्था: स्वतंत्रता बनाम लज्जा शीलता
यह मनोसामाजिक विकास की
दूसरी अवस्था है, जो लगभग 2 साल से 3 साल की उम्र तक की होती है। यह क्रायड के मनोलैंगिक विकास की “गुदाअवस्था” से समानता रखती है।
एरिक्सन का मत है कि जब शैशवावस्था में बच्चे में विश्वास की भावना विकसित हो जाती है तो इस दूसरी अवस्था में इसके परिणामस्वरूप् स्वतंत्रता एवं आत्मनियंत्रण जैसे शीलगुण विकसित होते है। स्वतंत्रता का अर्थ यहाँ पर यह है कि माता-पिता अपना नियंत्रण रखते हुये स्वतंत्र रूप से बच्चों को अपनी इच्छानुसार कार्य करने दें। जब बच्चे को स्वतंत्र नहीं छोड़ा जाता है तो उसमें लज्जाशीलता, व्यर्थता अपने ऊपर शक, आत्महीनता इत्यादि भाव उत्पन्न होने लगते हैं, जो स्वस्थ व्यक्तित्व की निशानी नहीं है।
एरिक्सन के अनुसार जब बच्चा स्वतंत्रता बनाम लज्जाशीलता के द्वन्द्व को सफलतापूर्वक दूर कर देता है तो उसमें एक विशिष्ट मनोसामाजिक शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे उसने “इच्छाशक्ति (will power) नाम दिया है।
एरिक्सन के अनुसार इच्छा शक्ति से आशय एक ऐसी शक्ति से है, जिसके कारण बच्चा अपनी रूचि के अनुसार स्वतंत्र होकर कार्य करता है तथा साथ ही उसमें आत्मनियंत्रण एवं आत्मसंयम का गुण भी विकसित होता जाता है।
3. खेल अवस्था: पहलशक्ति बनाम दोषिता
मनोसामाजिक विकास की यह तीसरी अवस्था क्रायड के मनोलैंगिक विकास की लिंगप्रधानवस्था से मिलती है। यह स्थिति 4 से 6 साल तक की आयु की होती है। इस उम्र तक बच्चे ठीक ढंग से बोलना, चलना, दोड़ना इत्यादि सीख जाते है। इसलिये उन्हें खेलने-कूदने नये कार्य करने, घर से बाहर अपने साथियों के साथ मिलकर नयी-नयी जिम्मेदारियों को निभाने में उनकी रूचि होती है। इस प्रकार के कार्य उन्हें खुशी प्रदान करते है। और उन्हें इस स्थिति में पहली बार इस बात का अहसास होता हघ्ै कि उनकी जिन्दगी का भी कोई खास मकसद या लक्ष्य है, जिसे उन्हें प्राप्त करना ही चाहिये किन्तु इसके विपरीत जब अभिभावकों द्वारा बच्चों को
सामाजिक कार्यों में भाग लेने से रोक दिया जाता है अथवा बच्चे द्वारा इस प्रकार के कार्य की इच्छा व्यक्त किये जाने पर उसे दंडित किया जाता है तो इससे उसमें अपराध बोध की भावना का जन्म होने लगती है।
इस प्रकार के बच्चों में लैंगिक नपुंसकता एवं निष्क्रियता की प्रवृति भी जन्म लेने लगती है।
एरिक्सन के अनुसार जब बच्चा पहलशक्ति बनाम दोषिता के संघर्ष का सफलतापूर्वक हल खोज लेता है तो उसमें उद्देश्य नामक एक नयी मनोसामाजिक शक्ति विकसित होती है। इस शक्ति के बलबूते बच्चे में अपने जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करने की क्षमता तथा साथ ही उसे बिना की सी डर के प्राप्त करने की सामथ्र्य का भी विकास होता है।
4. स्कूल अवस्था: परिश्रम बनाम हीनता
मनोसामाजिक विकास की यह चौथी अवस्था 6 साल की उम्र से आरंभ होकर लगभग 12 साल की आयु तक की होती है। यह क्रायड के मनोलैंगिक विकास की अव्यक्तावस्था से समानता रखती है। इस अवस्था में बच्चा पहली बार स्कूल के माध्यम से औपचारिक शिक्षा ग्रहण करता है। अपने आस-पास के लोगों, साथियों से किस प्रकार का व्यवहार करना, कैसे बातचीत करनी है इत्यादि व्यावहारिक कौशलों को वह सीखता है, जिससे उसमें परिश्रम की भावना विकसित होती है। यह परिश्रम की भावना स्कूल में शिक्षकों तथा पड़ौंसियों से प्रोत्साहित होती है, किन्तु यदि किसी कारणवश बच्चा स्वयं की क्षमता पर सन्देह करने लगता है तो इससे उसमें आत्महीनता कीभावना आ जाती है, जो उसके स्वस्थ व्यक्तित्व विकास में बाधक बनती है। किन्तु यदि बच्चा परिश्रम बनाम हीनता के संघर्ष से सफलतापूर्वक बाहर निकल जाता है तो उसमें सामथ्र्यता नामक मनोसामाजिक शक्ति विकसित होती है। सामथ्र्यता का अर्थ है- किसी कार्य का पूरा करने में शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं का समुचित उपयोग।
5. किशोरावस्था : अहं पहचान बनाम भूमिका संभ्रान्ति
एरिक्सन के अनुसार किशोरावस्था 12 वर्ष से लगभग 20 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में किशोरों में दो प्रकार के मनोसामाजिक पहलू विकसित होते है। प्रथम है- अहं पहचान नामक धनात्मक पहलू तथा द्वितीय है- भूमिका संभ्रन्ति या पहचान संक्रान्ति नामक ऋणात्मक पहलू।
एरिक्सन का मत है कि जब किशोर अहं पहचान बनाम भूमिका संभ्रान्ति से उत्पन्न होने वाली समस्या का समाधान कर लेता है तो उसमें कर्तव्यनिष्ठता नामक विशिष्ट मनोसामाजिक शक्ति (pyychosocial strength) का विकास होता है। यहाँ कर्तव्यनिष्ठता का आशय है- किशोरों में समाज में प्रचलित विचारधाराओं, मानकों एवं शिष्टाचारों के अनुरूप् व्यवहार करने की क्षमता।
एरिक्सन के अनुसार किशोरों में कर्त्तव्यनिष्ठता की भावना का उदय होना उनके व्यक्तित्व विकास को इंगित करता है।
6. तरूण वयास्कावस्था: घनिष्ठ बनाम विकृति
मनोसामाजिक विकास की इस छठी अवस्था में व्यक्ति विवाह का आरंभिक पारिवारिक जीवन में प्रवेश करता है। यह अवस्था 20 से 30 वर्ष तक की होती है। इस अवस्था में व्यक्ति स्वतंत्र रूप से जीविकोपार्जन प्रारंभ कर देता है तथा समाज के सदस्यों, अपने माता-पिता, भाई-बहनों
तथा अन्य संबंधियों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करता है। इसके साथ ही वह स्वयं के साथ भी एक घनिष्ठ संबंध स्थापित करता हैं, किन्तु इस अवस्था का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि जब व्यक्ति अपने आप में ही खोये रहने के कारण अथवा अन्य किन्हीं कारणों से दूसरों के साथ संतोषजनक संबंध कायम नहीं कर पाता है तो इसे बिलगन कहा जाता है। विलगन (isolation) की मात्रा अधिक हो जाने पर व्यक्ति का व्यवहार मनोविकारी या गैर सामाजिक हो जाता है।
घनिष्ठता बनाम बिलगन से उत्पन्न समस्या का सफलतापूर्वक समाधान होने पर व्यक्ति में स्नेह नामक विशेष मनोसामाजिक शक्ति विकसित होती है। एरिक्सन के मतानुसार स्नेह का आशय है- किसी संबंध को कायम रखने के लिये पारस्परिक समर्पित होने की भावना या क्षमता का होना। जब व्यक्ति दूसरों के प्रति उत्तरदायित्व, उत्तम देखभाल या आदरभाव अभिव्यक्त करता है ते इस स्नेह की अभिव्यक्ति होती है।
7. मध्य वयास्कावस्था जननात्मका बनाम स्थिरता
मनोसामाजिक विकास की यह सातवीं अवस्था है, जो 30 से 65 वर्ष की मानी गई है। एरिक्सन का मत है कि इस स्थिति में प्राणी में जननात्मकता की भावना विकसित होती है, जिसका तात्पर्य है व्यक्ति द्वारा अपनी भावी पीढ़ी के कल्याण के बारे में सोचना और उस समाज को उन्नत बनाने का प्रयास करना जिसमें वे लोग (भावी पीढ़ी के लोग) रहेंगे। व्यक्ति में जननात्मक्ता का भाव उत्पन्न न होने पर स्थिरता उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है, जिसमें व्यिक्त् अपनी स्वयं की सुख-सुविधाओं एवं आवश्यकताओं को ही सर्वाधिक प्राथमिका देता है। जब व्यक्ति जननात्मकता एवं स्थिरता से उत्पन्न संघर्ष का सफलतापूर्वक समाधान कर लेता है तो इससे व्यक्ति में देखभाल नामक एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति का विकास होता है। देखभाल का गुणविकसित होने पर व्यक्ति दूसरों की सुख-सुविधाओं एवं कल्याण के बारे में सोचता है।
8. परिपक्वता: अहं सम्पूर्णता बनाम निराशा
मनोसामाजिक विकास की यह अंतिम अवस्था है। यह अवस्था 65 वर्ष तथा उससे अधिक उम्र तक की अवधि अर्थात् मृत्यु तक की अवधि को अपने में शामिल करती है। सामान्यत: इस अवस्था को वृद्धावस्था माना जाता है, जिसमें व्यिक्त् को अपने स्वास्थ्य, समाज एवं परिवार के साथ समयोजन, अपनी उम्र के लोगों के साथ संबंध स्थापित करना इत्यादि अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस अवस्था में व्यक्ति भविष्य की ओर ध्यान न देकर अपने अतीत की सफलताओं एवं असफलताओं का स्मरण एवं मूल्यांकन करता है।
एरिक्सन के अनुसार इस स्थिति में किसी नयी मनोसामाजिक संक्रान्ति की उत्पत्ति नहीं होती है। एरिक्सन के मतानुसार परिपक्वता ही इस अवस्था की प्रमुख मनोसामाजिक शक्ति है। इस अवस्था में व्यक्ति वास्तविक अर्थों में परिपक्व होता है, किन्तु कुछ व्यक्ति जो अपनी जिन्दगी में असफल रहते है। वे इस अवस्था में चिन्तित रहने के कारण निराशाग्रस्त रहते हैं तथा अपने जीवन को भारस्वरूप समझने लगते हैं। यदि यह निराशा और दुश्चिन्ता लगातार बनी रहती है तो वे मानसिक विषाद से ग्रस्त हो जाते है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि एरिक्सन के अनुसार मनोसामाजिक विकास की आठ अवस्थायें हैख् जिनसे होते हुये क्रमश: मानव का व्यक्तित्व विकसित होता है।
एरिक्सन के सिद्धांत का मूल्यांकन
जैसा कि आप जानते है कि प्रत्येक सिद्धांत की अपनी महत्ता तथा कुछ सीमायें होती है। कोई भी सिद्धान्त अपने आप में सम्पूर्ण नहीं होता है और इसी कारण आगे इन कमियों को दूर करने के लिये नये-नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन होता जाता है।
अत: इरिक एरिक्सन के व्यक्तित्व के मनोसामाजिक सिद्धांत की कुछ कमियाँ एवं विशेषतायें है, जिनकी चर्चा हम अब करेंगे।
तो आइये सबसे पहले हम जानें की इस सिद्धान्त के प्रमुख गुण या विशेषतायें क्या-क्या है?
एरिक्सन के सिद्धांत के गुण
1. समाज एवं व्यक्ति की भूमिका पर बल- एरिक्सन के व्यक्तित्व सिद्धान्त की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इन्होंने व्यक्तित्व के विकास एवं संगठन को स्वस्थ करने में सामाजिक कारकों एवं स्वयं व्यक्ति की भूमिका को समान रूप से स्वीकार किया है।
2. किशोरवस्था को महत्त्वपूर्ण स्थान- एरिक्सन ने मनोसामाजिक विकास की जो आठ अवस्थायें बतायी है उनमें किशोरावस्था को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। एरिक्सन के अनुसार किशोरावस्था व्यक्तित्व के विकास की अत्यन्त संवंदनशीलत अवस्था होती है। इस दौरान अनेक महत्त्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक परिवर्तन होते हैं जबकि क्रायड ने अपने मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त में इस अवस्था को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया था।
3. आशावादी दृष्टिकोण- एरिक्सन के व्यक्तित्व सिद्धान्त की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके सिद्धान्त में आशावादी दृष्टिकोण की झलक मिलती है। एरिक्सन का मानना है कि प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति की कुछ कमियाँ एवं सामथ्र्य होती है। अत: व्यक्ति यदि एक अवस्था में असफल हो गया तो इसका आशय यह नहीं है कि वह दूसरी अवस्था में भी असफल ही होगा, क्योंकि खामियों के साथ-साथ सामथ्र्य भी विद्यमान है, जो प्राणी को निरन्तर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करती है।
4. जन्म से लेकर मृत्यु तक की मनोसामाजिक घटनाओं को शामिल करना- एरिक्सन ने अपने सिद्धान्त में व्यक्तित्व के विकास एवं समन्वय की व्याख्या करने में व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक की मनोसामाजिक घटनाओं को शामिल किया है, जो इसे अन्य सिद्धान्तों से अत्यधिक विशिष्ट बना देता है।
एरिक्सन के सिद्धांत के दोष
आलोचकों ने एरिक्सन के व्यक्तित्व सिद्धान्त की कुछ बिन्दुओं के आधार पर आलोचना की है, जिन्हें हम निम्न प्रकार से समझ सकते है-1. आवश्यकता से अधिक आशावादी दृष्टिकोण- कुछ आलोचकों का कहना है कि एरिक्सन ने अपने सिद्धान्त में जरूरत से ज्यादा आशावादी दृष्टिकोण अपनाया है।
2. क्रायड के सिद्धान्त को मात्र सरल करना- कुछ आलोचक यह भी मानते है कि एरिक्सन कोई नया सिद्धान्त नहीं दिया वरन् उन्होंने क्रायड के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त को मात्र सरल कर दिया है।
3. प्रयोगात्मक समर्थन का अभाव- कुछ आलोचकों का यह भी मानना है कि एरिक्सन ने अपने व्यक्तित्व सिद्धान्त में जिन तथ्यों एवं सप्रत्ययों का प्रतिपादन किया है, उनका आधार प्रयोग नहीं है, मात्र उनके व्यक्तिगत निरीक्षण ही हैं। अत: उनमें व्यक्तिगत पक्षपात होने की अधिक संभावना है।
इन तथ्यों में वैज्ञानिका एवं वस्तुनिष्ठता का अभाव है।
4. सामाजिक परिवेश से प्रभाविक हुये बिना भी व्यक्तित्व विकास संभव- कुछ आलोचकों का मानना है कि एरिक्सन की यह धारणा गलत है कि बदलते हुये सामाजिक परिवेश के साथ जब व्यक्ति समायोजन करता है, तब ही एक स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास संभव है। आलोचकों के अनुसार कुछ ऐसे उदाहरण भी उपलब्ध है, जब व्यक्ति स्वयं सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित नहीं हुये और उन्होंने अपने विचारों से समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिये और उन्होंने अपने व्यिक्त्त्व का उत्तम एवं अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ तरीके से विकास किया।
5. अंतिम मनोसामजिक अवस्था की व्याख्या अधूरी एवं असन्तोष प्रद- शुल्ज का मानना है कि एरिक्सन के व्यक्तित्व सिद्धान्त की अंतिम आठवीं अवस्था परिपक्वता :अहं सम्पूर्णता बनाम निराशा अधूरी एवं असन्तोषप्रद है। इस अवस्था में व्यक्तित्व में उतना संतोषजनक विकास नहीं होता है, जितना एरिक्सन ने बताया है।
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