क्रिया योग क्यों किया जाये इस प्रश्न का उत्तर महर्षि ने देते हुए कहा है- समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च क्रिया योग का अभ्यास क्लेशों को तनु करने के लिए एवं समाधि भूमि प्राप्त करने के लिये कहा जा रहा है। क्लेश- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश और अभिनिवेश हैं।
क्रिया योग के प्रकार
क्रिया योग के तीन प्रकार महर्षि पतंजलि ने बताये है।- तप
- स्वाध्याय
- ईश्वर प्रणिधान
तप
तप का तात्पर्य बेहतर अवस्था की प्राप्ति के लिए परिवर्तन या रूपान्तरण की एक प्रक्रिया के अनुगमन से है। सामान्य अर्थ में, तप पदार्थ के शुद्ध सारतत्व को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। उदाहरण हेतु जिस प्रकार सोने को बार-बार गर्म कर छोटी हथोड़ी से पीटा जाता है जिसके परिणाम स्वरूप शुद्ध सोना प्राप्त हो सके। उसी प्रकार योग में तप एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति की अशुद्धियों को जला कर भस्म किया जाता है ताकि उसका असली सारतत्व प्रकट हो सके।तप के प्रकार - गीता में 17वें अध्याय में तप के तीन भेद किये गये हैं-
- शारीरिक-देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीर सम्बन्धी तप है। महर्षि पतंजलि ने सूत्र 2.46 में आसन, 2.49 में प्राणायाम की बात की है। वह भी शारीरिक तप के अन्तर्गत वर्णित किया जा सकता है।
- वाचिक - मन को उद्विग्न न करने वाले, प्रिय तथा हितकारक वचनों और स्वाध्याय के अभ्यास को वाचिक तप कहते हैं।
- मानसिक-मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्त:करण के भावों की भलीभाँति पवित्रता- इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।
- सात्विक - मनुष्य का फल की आशा से रहित परम श्रद्धा तथा योगयुक्त होकर इन तीनों प्रकार के तपों को करना सात्विक तप कहलाता है।
- राजसिक - सत्कार, मान, पूजा व पाखण्ड पूर्वक किया गया तप चंचल और अस्थिर राजस तप कहलाता है।
- तामसिक - जो तप मूढ़तापूर्वक हत से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा जाता है।
स्वाध्याय
वेद, उपनिषद्, पुराण आदि तथा विवेकज्ञान प्रदान करने वाले सांख्य, योग, आध्यात्मिक शास्त्रों का नियम पूर्वक अध्ययन तथा अन्य सभी वे साधन जो कि विवेक ज्ञान में सहायक हैं जैसे अन्य धर्मग्रन्थ, श्रेष्ठ पुस्तकें आदि का अध्ययन, मनन स्वाध्याय कहलाता है।ईश्वर प्रणिधान
अपने समस्त कमोर्ं के फल को परम गुरु परमात्मा को समर्पित करना व कर्मफल का पूर्ण रूपेण त्याग कर देना ईश्वर-प्रणिधान है। अनन्य भक्ति भाव से ईश्वर का मनन चिन्तन करनाय अपने आपको पूर्णरूपेण ईश्वर को समर्पित कर देना ही ईश्वरप्रणिधान है।क्रियायोग का उद्देश्य एवं महत्व
महर्षि पतंजलि ने साधनपाद के दूसरे सूत्र में क्रियायोग का फल या क्रियायोग का उद्देश्य बताया है-
‘समाधिभावनार्थ: क्लेशतनुकरणार्थष्च। योगसूत्र 2/2
अर्थात् यह क्रियायोग समाधि की सिद्धि देने वाला तथा पंचक्लेशों को क्षीण करने वाला है।
महर्षि मानते है कि मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार हर जन्म में अपना प्रभाव दिखाते है और ये क्लेश मनुष्य हर जन्म में भोगना पडता है। पूर्व जन्म के संस्कारों से जुडे रहने के कारण के अपना प्रभाव दिखाते है। इन क्लेशों का पूर्णतया क्षय बिना आत्मज्ञान के नहीं होता हैं। परन्तु क्रिया योग की साधना से इन्हें कम या क्षीण किया जा सकता है और मोक्ष प्राप्ति की साधना के मार्ग में बढा जा सकता है।
क्रियायोग की साधना से समाधि की योग्यता आ जाती है। क्रियायोग से यह क्लेश क्षीण होने लगते है क्लेशों के क्षीर्ण होने से ही मन स्थिर हो पाता है। पंचक्लेश यदि तीव्र अवस्था में है तब उस स्थिति में समाधि की भावना नहीं हो पाती है।
तप स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान या कर्म भक्ति ज्ञान के द्वारा क्लेषों को क्षीण कर समाधि का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। क्रियायोग के द्वारा जीवन को उत्कृष्ट बनाकर समाधि की प्राप्ती की जा सकती है। क्रियायोग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्राणिधान की साधना आती है। जिसमें कि कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का सुन्दर समन्वय समाहित है। शास्त्रों में तप के महत्व का वर्णन इस प्रकार किया है-
‘यद् दुश्करं दुराराध्य दुर्जयं दुरतिक्रमम्।
तत्सर्व तपस्या साध्यातपो हि दुरतिक्रमम्।।’
योगाग्निर्दहति क्षिप्रमषेशं पाप पन्जरम।
प्रसन्नं जायतेज्ञानं ज्ञानान्निर्वाणमृच्छति।।’
ईश्वर प्रणिधान र्इंष्वर के प्रति समर्पण ही हमारे समस्त दुखों, कल्मश कशायों का अन्त है। जिसमें की अपना अस्तित्व समाप्त कर उस परमात्मा के अस्तित्व का भान होता। जिसमें कि अपना अस्तित्व मिटने पर समाधि का आनन्द होने लगता है। महर्षि पतंजलि ईश्वर प्रणिधान का फल बताते हुए कहते है-
‘समाधिसिद्धिरीष्वरप्रणिधानात्’। योगसूत्र 2/45
अत: हम कह सकते है कि वर्तमान जीवन में तप स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का अत्यन्त महत्व है। क्योंकि तप कर्म के लिए प्रेरित करते है जो कि कर्मयोग है। कर्मयोगी ही कमोर्ं को कुशलता पूर्वक कर सकता है। तप, कठिन परिश्रम व्यक्ति को कर्मयोगी बनाती है। अत: कमोर्ं में कुशलता लाने के लिए तप नितान्त आवश्यक है।
वही स्वाध्याय साधक के ज्ञानयोगी बनाता है। स्वाध्याय से विवेकज्ञान की प्राप्ति होती है। क्या सही है, क्या गलत है का ज्ञान साधक को होता हे। जो कि प्रगति या उन्नति के मार्ग में अति आवश्यक है। स्वाध्याय के द्वारा श्रेष्ठ साहित्यों का अध्ययन करते हुए आत्मानुसंधान की ओर साधक बढता है। तथा स्वयं ही वह प्रभु की शरण का आश्रय लेते है।
कृया योग को अच्छी तरह समझाया गया है। विवेचना संतुष्ट दायक है।
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