मोक्ष का सामान्य अर्थ भारतीय दर्शन में मोक्ष की अवधारणा

मोक्ष का सामान्य अर्थ दुखों का विनाश है। दुखों के आत्यन्तिक निवृत्ति को ही मोक्ष या कैवल्य कहते हैं। प्राय: सभी भारतीय दर्शन यह मानते हैं कि संसार दुखमय है। दुखों से भरा हुआ है। किन्तु ये दुख अनायास नहीं है, इन दुखों का कारण है। उस कारण को समाप्त करके हम सभी प्रकार के दुखों से मुक्त हो सकते है। दुख मुक्ति की यह अवस्था ही मोक्ष है, मुक्ति है, निर्वात है, अपवर्ग है, कैवल्य है। और यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। जब तक इस लक्ष्य की प्राप्ति नही हो जाती तब तक संसार में जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा और जीव दुख भोगता रहेगा।

भारतीय दर्शन सिर्फ मोक्ष की सैद्धान्तिक चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसकी प्राप्ति के व्यावहारिक उपाय भी बताता है इसीलिए भारतीय दर्शन कोरा सैद्धान्तिक दर्शन न होकर एक व्यावहारिक दर्शन है। यद्यपि विभिन्न दर्शनों में मोक्ष के स्वरूप एवं उसके प्राप्ति के उपाय को लेकर मतेभेद है किन्तु चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन इस बात में एक मत हैं कि-
  1. मोक्ष दुखों की पूर्ण निवृत्ति है। 
  2. यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। 
  3. इस लक्ष्य को इसी जीवन में पाया जा सकता है। 
  4. मोक्ष जन्म मरण चक्र का समाप्त हो जाना है। 
मोक्ष का विचार बन्धन से जुड़ा हुआ है। आत्मा का सांसारिक दुखों से ग्रस्त होना ही उसका बन्धन है और इन दुखों से सर्वथा मुक्त हो जाना मोक्ष। व्यावहारिक जीवन में प्राय: हर कोई कहता है कि मैं दुखी हँु, मुझे दुख है। यहाँ प्रश्न यह है कि ‘मैं’ का अर्थ क्या है? दुख क्या है? दुख क्यों है दुख का अन्त सम्भव है या नहीं? इन सब प्रश्नों पर भारतीय दर्शन में गहराई से विचार किया गया है।

चार्वाक को छोडकर प्राय: सभी भारतीय दर्शनों में ‘मैं’ का अर्थ आत्म तत्व से है जिसे आत्मा या पुरुष कहा गया है यह आत्मा सुख दुख से परे है फिर भी सुख दुख का अनुभव करती है। इसका अनुभव का कारण अज्ञान या अविवेक है जिसके प्रभाव से आत्म का अनात्म से संयोग हो जाता है फलस्वरूप त्रिगुणातीत आत्म तत्व त्रिगुणात्मक अनात्म तत्व को ही अपना स्वरूप समझने लगता है उदाहरण के लिए ‘मैं’ विशुद्ध आत्म तत्व (पुरुष) है किन्तु व्यवहार में अज्ञान वश व्यक्ति अपने शरीर मन, बुद्धि को ही ‘मैं’ समझने लगता है और इनसे सम्बन्ध वश सुख-दुख को भोगता है। यह सम्बन्ध ही बन्धन है और इस सम्बन्ध से मुक्ति (छुटकारा पाना) ही मोक्ष या कैवल्य। बन्धन का कारण अज्ञान है। इसलिए मोक्ष का उपाय इस अज्ञान का नाश करना है जो ज्ञान से सम्भव है इसीलिए कहा गया है- ज्ञानात् मुक्ति:।

अधिकांश भारतीय दर्शन बन्धन और मोक्ष सम्बन्धी उपर्युक्त विचार से सहमत है। यदि कोई अपवाद है तो वह है- चार्वाक दर्शन।

चार्वाक दर्शन घोर नास्तिक एवं भौतिक वादी दर्शन है। इसका मानना है कि न तो कोई ईश्वर है न ही आत्मा। बन्धन और मोक्ष की कल्पना भी निरर्थक है। यह शरीर ही आत्मा है और शरीर का विनाश ही मोक्ष क्योंकि शरीर का नाश होते ही सभी दुखों का नाश हो जाता है। इस जीवन के बाद कोई दूसरा जन्म नहीं होता, कोई स्वर्ग नरक नहीं होता। जीवन का उद्देश्य है सुखों का भोग करना। चार्वाक का मूल मत है-

यावज्जीवते् सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतम् पीवेत।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम्: कुत:।।

अर्थात्- जब तक जियों सुख से जिओं, कर्ज लेकर भी धी पीओ (यानी मौज-मस्ती करो)। एक दिन यह शरीर भस्म हो जायेगा फिर पुन: लौट कर कहाँ आना है। यानी पुनर्जन्म नहीं होगा।

इस प्रकार चार्वाक दर्शन तो जीवित रहते दुखों से पूर्ण छुटकारा या पूर्ण विनाश सम्भव ही नहीं मानता। जब तक जीवन है सुख दुख लगे ही रहेंगे। दुख के भय से सुख का भी त्याग कर देना यानी मोक्ष की कल्पना में तपस्या आदि करना मूर्खता है-

त्याजयं सुखं विषय संगम जन्म पुंसा।
दु:खोपसृष्टमिति मूर्ख विचारणैषा।। (सर्वदर्शन संग्रह)

जंगली पशुओं (मृग) के भय से क्या खेती करना छोड़ देना चाहिए।
 
न हि मृगा: सन्तीति शालयों नोप्यन्ते।

 जीवन के चार पुरुषाथोर्ं में से चार्वाक दर्शन केवल दो ही पुरुषार्थ को मान्यता देता है- अर्थ और काम। वह धर्म और मोक्ष को नहीं मानता। इसलिए चार्वाक दर्शन में मोक्ष एवं मोक्ष मार्ग पर विचार करना निरर्थक है।

चार्वाक का विचार न तो दार्शनिक दृष्टि से उपयुक्त है न ही व्यावहारिक सामाजिक दृष्टिकोण से। यदि व्यक्ति अपने निहित सुख तक ही सोचे तो ऐसे घोर स्वाथ्र्ाी समाज में किसका भला हो सकता है? आज समाज में बढ़ रहे अपराध बलात्कार, भ्रष्टाचार घोटाले जैसी घटनाएं नैतिक मूल्यों के हृास का ही परिणाम है जिसका समर्थन चार्वाक विचार धारा से होता है। जबकि मोक्ष या कैवल्य के आदर्श का मूल आधार ही नैतिकता है। योग का प्रारम्भिक चरण ही यम-नियम का पालन है। यही कारण है कि मोक्ष को मानने वाले सभी दर्शन सदाचार पर बल देते हैं।

चार्वाक के अतिरक्ति अन्य सभी भारतीय दर्शनों में कैवल्य या मोक्ष को जीवन का परम पुरुषार्थ मानते हुए इसे प्राप्त करने के उपाय बताये गये हैं और इस हेतु किसी न किसी रूप में योग साधना पर बल देते है।

भारतीय दर्शन में मोक्ष की अवधारणा

वेद में आस्था रखने वाले आस्तिक एवं वेद विरोधी नास्तिक, दोनों प्रकार के भारतीय दर्शन (चार्वाक को छोड़कर) मोक्ष को स्वीकार करते हैं और अपने-अपने दृष्टिकोण से कैवल्य या मोक्ष के स्वरूप एवं साधनो को जन कल्याण हेतु बताते हैं।

नास्तिक कहे जाने वाले बौद्ध दर्शन में भी मोक्ष की अवधारणा है और मोक्ष को निर्वाण कहा गया है। निर्वाण का अर्थ है दुखों से मुक्ति। अविद्या का नष्ट हो जाना, समस्त पाप कर्मो का समाप्त हो जाना, तृष्णा की अग्नि का बुझ जाना और पुनर्जन्म से छुटकारा पा जाना ही ‘निर्वाण की अवस्था’ है। निर्वाण प्राप्त व्यक्ति को बौद्ध धर्म में अर्हत या तथागत कहा गया है। बौद्ध दर्शन का चतुर्थ आर्य सत्य (दुख निरोध मार्ग या अष्टांगिक मार्ग) निर्वाण प्राप्ति का यौगिक उपाय है-

‘‘शील-समाधि-प्रज्ञा रूपी तीन स्कन्धों वाले इस स्पष्ट अष्टांगिक अविनाशी और आर्य मार्ग पर आरूढ़ होकर मनुष्य दुख के हेतु रूप दोषों को छोड़ता है और उस अत्यन्त मंगलमय निर्वाण पद को प्राप्त करता है।’’ (सौन्दरनंद 16/37)

जैन दर्शन भी मोक्ष के आदर्श को स्वीकार करते हुए इसे जीवन का चरम लक्ष्य कहते है। मोक्ष का अर्थ है आत्मा का अपनी वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति। मोक्षावस्था में जीवात्मा दुख के कारणों कषाय आदि से मुक्त होकर पुन: अपने अनन्त चतुष्टय स्वरूप (अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्द) को प्राप्त कर लेती है। मोक्ष की प्राप्ति हेतु सम्यक् दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक् चरित्र का पालन आवश्यक है- 

सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष मार्ग:। (उमास्वामी, तत्वार्थ अधिगम सूत्र 2.3)
 
जैन दर्शन में सम्यक दर्शन ज्ञान और चरित्र को त्रिरत्न कहते हैं। सम्यक चरित्र के अन्तर्गत पंचमहाव्रत का पालन अनिवार्य है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रहमचर्य ही पंचमहाव्रत हैं। इन्हें ही बौद्ध दर्शन में पंचशील तथा योग दर्शन मे यम कहा गया है जिनका पालन दुखों से मुक्ति हेतु आवश्यक है।

अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति न्याय वैशेषिक दर्शन का उद्देश्य भी मनुष्य को मानव जीवन का परम श्रेय मोक्ष की उपलब्धि कराना है न्याय और वैशेषिक दोनों दर्शन समान तन्त्र कहे जाते हैं। क्योंकि अनेक बातो में इनमें समान मत है न्याय वैशेषिक में मोक्ष को अपवर्ग तथा नि:श्रेयस भी कहा गया है।

न्याय एवं वैशेषिक दर्शन मोक्ष को दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति की अवस्था मानते हैं, महर्षि गौतम कहते हैं- 

तदत्यन्तविमोक्षोSपवर्ग: (न्याय सूत्र 1/1/22)
 
किन्तु न्याय वैशेषिक दर्शन में मोक्ष को आनन्द की अवस्था नहीं माना गया है। न्याय वैशेषिक के अनुसार मोक्षावस्था में आत्मा अचेतन हो जाती है क्योंकि चेतना आत्मा का आगन्तुक गुण है। आत्मा में चेतना तब आती है जब आत्मा का सम्बन्ध शरीर से होता है। मोक्षावस्था में आत्मा शरीर से अलग हो जाती है। इसलिए मोक्षावस्था अचेतन अवस्था है। न्याय वैशेषिक दर्शन में परम नि:श्रेयस की प्राप्ति मृत्यु के बाद ही मानी गई है। न्याय वैशेषिक दर्शन केवल विदेह मुक्ति को ही मानते हैं। जीवन मुक्ति (यानी जीवित रहते ही मोक्ष प्राप्त कर लेना) जिसे महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य सांख्य एवं योग दर्शन मानते हैं। न्याय वैशेषिक दर्शन को मान्य नहीं है। अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति तत्वज्ञान से ही सम्भव है जिसके लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन की साधना आवश्यक है।

मीमांसा दर्शन को मोक्ष विचार न्याय-वैशेषिक के लगभग समान हैं। मोक्ष दुख के अभाव की अवस्था है। मोक्षावस्था में आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेती है, जो अचेतन है। इसलिए मोक्ष में सुख-दुख-आनन्द का अभाव है। इस अवस्था में आत्मा में ज्ञान का भी अभाव रहता है। मीमासा दर्शन में विदेह मुक्ति को ही माना गया है, जीवन मुक्ति को नहीं। मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान और कर्म दोनों आवश्यक हैं।

शंकराचार्य के अद्वैतवेदान्त में भी मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का परम पुरुषार्थ है। शंकराचार्य आत्मा और ब्रह्म को अद्वैत मानते हैं। आत्मा ही ब्रह्म है इसलिए ब्रह्म रूप में वह दुखों से सर्वथा परे है किन्तु अज्ञान वश अपने स्वरूप को भूलकर सुख दुख के चक्र में भ्रमण करती रहती है इसलिए शंकराचार्य के अनुसार- मोक्ष का अर्थ है आत्मा का अपने वास्तविक स्वरूप में अवस्थित हो जाना। 

स्वात्मन्यमवस्थानम् मोक्ष:। (तैतिरीय उपनिषद भाष्य 1/11)

पुन: ब्रह्म भाव ही मोक्ष है-

ब्रहम भावश्च मोक्ष:।

ब्रह्म और मोक्षावस्था एक ही है-

 
ब्रह्म एव ही मुक्त्यावस्था।

अज्ञान या अविद्या के कारण ही जीवात्मा अपने मुक्तावस्था: ब्रह्मस्वरूप को भूलकर दुख भोगती है इसलिए इस अज्ञान से मुक्ति ही मोक्ष है-

अविद्या: निवृत्ति: एव मोक्ष:।

मोक्ष के दो रूप हैं- 1. जीवन्मुक्ति और 2. विदेह मुक्ति। शंकराचार्य इन दोनों रूपों को स्वीकार करते है। जीवित रहते ही ज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो जाना-जीवन मुक्ति है। विदेह मुक्ति मृत्यु के बाद उपलब्ध होती है। मोक्ष प्राप्ति का मार्ग ज्ञान योग साधना है। ज्ञान से ही मुक्ति होती है-

ज्ञानात् एव मुक्ति:
 
बिना ज्ञान के मुक्ति सम्भव नहीं है-

ऋते ज्ञानात् न मुक्ति:।

मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधन चतुष्टय आवश्यक है- 1. विवेक 2. वैराग्य 3. “ाड् सम्पत्ति (शम, दम, श्रद्धा, समाधान उपरति एवं तितीक्षा) और 4. मुमुक्षुत्वं, ये चार साधन चतुष्टय हैं-

नित्यानित्यवस्तुविवेक:।
इहमुत्रार्थ भोग विराग:।
शमदमादिषट्क सम्पत्ति:।
मुमुक्षुत्वं चेति।। (शंकराचार्य तत्वबोध)

इन चार साधनों से युक्त साधक को श्रवण, मनन और निदिध्यासन से ज्ञान की प्राप्ति होती है।

शंकराचार्य के अनुसार आत्मा वस्तुत: मुक्त है। मोक्ष अपने आत्म स्वरूप का ज्ञान होना है इसलिए मोक्ष कोई नई चीज नहीं है अपितु जो पहले से प्राप्त था उसी की पुन: प्राप्ति यानी ज्ञान होना है। इसलिए शंकर ने मोक्ष को ‘प्राप्तस्व प्राप्ति’ कहा है। शंकर ने बन्धन को प्रतीति मात्र माना है।

सांख्य एवं योग दर्शन में मोक्ष का अर्थ तीन प्रकार के दुखों से छुटकारा पाना है। बन्धन का कारण अविवेक है। पुरुष प्रकृति एवं उसकी विकृतियों से भिन्न है परन्तु अज्ञान वश पुरुष इन्हे अपना स्वरूप समझने लगता है और दुख भोगता, जन्म-मरण के चक्र में धूमता है। मोक्ष का अर्थ है- पुरुष का अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान जिससे जन्म-मरण चक्र एवं दुखों से निवृत्ति मिल जाती है। इस विवेक ज्ञान की प्राप्ति योग साधना से सम्भव है।

सांख्य दर्शन के अनुसार कैवल्य (मोक्ष) तीनों प्रकार के दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति मात्र है-

आत्यन्तिको दु:खत्रयाभाव: कैवल्यम्।

इसलिए सांख्य-योग दर्शन में कैवल्य के स्वरूप को ठीक से समझने से पूर्व आवश्यक है कि दुखत्रय को पहले समझा जाय। इसलिए अगले उपखण्ड में दुखत्रय की विवेचना की जा रही है।

2 Comments

  1. बहुत ही सुंदर लेख...बहुत बहुत धन्यवाद आपका..कृपया ऐसे ही आगे भी लिखते रहें

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