अथर्ववेद के अनेक स्थलों पर साम की विशिष्ट स्तुति ही नहीं की गई है, प्रत्युत
परमात्मभूत ‘उच्छिष्ट’ (परब्रह्म) तथा ‘स्कम्भ’ से इसके आविर्भाव का भी उल्लेख किया गया
मिलता है। एक ऋषि पूछ रहा है जिस स्कम्भ के साम लोभ हैं वह स्कम्भ कौन सा है?
दूसरे मन्त्र में ऋक् साथ साम का भी आविर्भाव ‘उच्छिकष्ट’ से बतलाया गया है। एक
तीसरे मन्त्र में कर्म के साधनभूत ऋक् और साम की स्तुति का विधान किया गया है।
इस
प्रशंसा के अतिरिक्त विशिष्ट सामों के अभिधान प्राचीन वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते है जिससे इन सामों की प्राचीनता नि:संदिग्ध रूप से सिद्ध होती है।
ऋग्वेद में वैरूप, वृहत्,
रैवत, गायत्र भद्र आदि सामों के नाम मिलते हैं। यजुर्वेद में रथन्तर, वैराज, वैखानस,
वामदेव्य, शाक्व, रैवत, अभीवर्त तथा ऐतरेय ब्राह्मण में नौधस, रौरय यौधराजय,
अग्निष्टोमीय आदि विशिष्ट सामों के नाम निर्दिष्ट किये गये मिलते हैं।
इससे स्पष्ट प्रतीत
होता है कि साम-गायन अर्वाचीन न होकर अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है। यहाँ
तक कि ऋग्वेद के समय में भी इन विशिष्ट गायनों का अस्तित्व स्पष्ट रूप से सिद्ध होता
है।
सामवेद का अर्थ
साम शब्द का प्रयोग दो अर्थो में किया गया मिलता है। ऋक् मन्त्रों के ऊपर गाये जाने वाले गाान ही वस्तुत: ‘साम’ शब्द के वाच्य हैं, परन्तु ऋक् मन्त्रों के लिए भी ‘सम’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। साम-संहिता का संकलन उद्गाता नामक ऋत्विज के लिये किया गया है, तथा यह उद्गाता देवता के स्तुतिपरक मन्त्रों को ही आवश्यकतानुसार विविध स्वरों में गाता है।अत: साम का
आधार ऋक् मन्त्र ही होता है यह निश्चित ही है- (ऋचि अध्यूढं
साम-छाव्म्उ01/6/1)। ऋक् और साम के इस पारस्परिक गाढ़ सम्बन्ध को सूचित
करने के लिये इन दोनों में दाम्पत्य-भाव की भी कल्पना की गई है। पति संतानोत्पादन
के लिये पत्नी को आख्यान करते हुए कह रहा है कि मैं सामरूप पति हूँ, तुम ऋक्रूपा
पत्नी हो; मैं आकाश हूँ और तुम पृथ्वी हो। अत: आवो, हम दोनों मिलकर प्रजा का
उत्पादन करें।
गीतिषु सामाख्या’ इस जैमिनीय सूत्र के अनुसार गीति को ही ‘साम’
संज्ञा प्रदान की गई है। छान्दोग्य उपनिषद् में ‘स्वर’ साम का स्वरूप बतलाया
है। अत: निश्चित है कि ‘साम’ शब्द से हमें उन गानों को समझना चाहिये जो
भिन्न-भिन्न स्वरों में ऋचाओं पर गाये जाते है।
‘साम’ शब्द की एक बड़ी सुन्दर निरुक्ति बृहदारण्यक उपनिषद् में दी गई है-’’सा च अमश्चेति तत्साम्न: सामत्वम्’’-वृहव्म्उ01/3/22। ‘सा’ शब्द का अर्थ है ऋक् और ‘अम’ शब्द का अर्थ है गान्धार आदि स्वर। अत: ‘सम’ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ हुआ ऋक् के साथ सम्बद्ध स्वरप्रधान गायन-’’तया सह सम्बद्ध: अमो नाम स्वर: यत्र वर्तते तत्साम।’’ जिन ऋचाओं के ऊपर ये साम गाये जाते हैं उनको वैदिक लोग ‘साम-योनि’ नाम से पुकराते है।
‘साम’ शब्द की एक बड़ी सुन्दर निरुक्ति बृहदारण्यक उपनिषद् में दी गई है-’’सा च अमश्चेति तत्साम्न: सामत्वम्’’-वृहव्म्उ01/3/22। ‘सा’ शब्द का अर्थ है ऋक् और ‘अम’ शब्द का अर्थ है गान्धार आदि स्वर। अत: ‘सम’ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ हुआ ऋक् के साथ सम्बद्ध स्वरप्रधान गायन-’’तया सह सम्बद्ध: अमो नाम स्वर: यत्र वर्तते तत्साम।’’ जिन ऋचाओं के ऊपर ये साम गाये जाते हैं उनको वैदिक लोग ‘साम-योनि’ नाम से पुकराते है।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि जिस साम-संहिता
का वर्णन किया जा रहा है वह इन्हीं सामयोनि ऋचाओं का संग्रहमात्र है, अर्थात्
साम-संहिता मेकं केवल सामौपयोगी ऋचाओं का ही संकलन है, उन गायनों का नहीं,
जो साम के मुख्य वाच्य हैं। ये साम ‘गान-संहिता’ में संकलित किये गये है।
सामवेद का स्वरूप
सामवेद के दो प्रधान भाग होते है-आर्चिक तथा गान। आर्चिक का शाब्दिक अर्थ है ऋक्-समूह जिसके दो भाग हैं-पूर्वाचिक तथा उत्तरार्चिक। पूर्वाचिक में 6 प्रपाठक या अध्याय है। प्रत्येक प्रपाठक में दो अर्ध या खण्ड है और प्रत्येक में एक ‘दशति’ और हर एक ‘दशति’ में ऋचायें है। ‘दशति’ शब्द से प्रतीत होता है कि इनमें ऋचाओं की संख्या दश होनी चाहिए, परन्तु किसी खण्ड में यह दस से कम है और कहीं दस से अधिक। दशतियों मेंं मन्त्रों का संकलन छन्द तथा देवता की एकता पर निर्भर है।ऋग्वेद के
भिन्न-भिनन मण्डलों के भिन्न-भिन्न ऋषियों के द्वारा दृष्ट भी ऋचायें एक देवता-वाचक
होने से यहाँ एकत्र संकलित की गई है। प्रथम प्रपाठक को आग्नेय काण्ड (या पर्व) कहते
हैं, क्योंकि इसमें अग्नि-विषयक ऋग् मन्त्रों का समवाय उपस्थित किया गया है। द्वितीय
से लेकर चतुर्थ अध्याय तक इन्द्र की स्तुति होने से ‘ऐन्द्र-पर्व’ कहलाता है। पंच्चम
अध्याय को ‘पवमान पर्व’ कहते हैं, क्योंकि यहाँ सोम-विषयक ऋचायें संगृहीत हैं, जो पूरी
की पूरी ऋग्वेद के नवम् (पवमान) मण्डल से उद्धृत की गई है।
षष्ठ प्रगाठक को
‘आरण्यक पर्व’ की संज्ञा दी गई है; क्योंकि देवताओं तथा छन्दों की विभिन्नता होने पर भी
इनमें गान-विषयक एकता विद्यमान है। प्रथम से लेकर पंच्चमाध्याय तक की ऋचायें तो
‘ग्राम-गान’ कही जाती है, परन्तु षष्ठ अध्याय की ऋचायें अरण्य में ही गाई जाती है।
उत्तरार्चिक में 9 प्रपाठक है। पहले पाँच प्रपाठकों में दो-भाग है, जो ‘प्रपाठ-कार्घ कहे जाते हैं, परन्तु अन्तिम चार प्रपाठकों में तीन-तीन अर्ध है। राणायनीय शाक्षा के अनुसार है। कौथुम शाक्षा में इन अर्ध को अध्याय तथा दशतियों को खण्ड कहने की चाल है। उत्तरार्चिक के समग्र मन्त्रों की संख्या बारह सौ पच्चाीस (1225) हैं अत: दोनों आर्चिकों की सम्मिलित मन्त्र-संख्या अठारह सौ पचहत्तर (1875) है। ऊपर कहा गया है कि साम ऋचायें ऋग्वेद से संकलित की गई है, परन्तु कुछ ऋचायें नितान्त भिन्न हैं, अर्थात् उपलब्ध शाकल्य-संहिता में ये ऋचायें बिलकुल नहीं मिलती। यह भी ध्यान देने की बात है कि पूर्वाचिक के 267 मन्त्र (लगभग तृतीयांश से कुछ ऊपर ऋचायें) उत्तरार्चिक में पुनरुल्लिखित किये गये हैं।
उत्तरार्चिक में 9 प्रपाठक है। पहले पाँच प्रपाठकों में दो-भाग है, जो ‘प्रपाठ-कार्घ कहे जाते हैं, परन्तु अन्तिम चार प्रपाठकों में तीन-तीन अर्ध है। राणायनीय शाक्षा के अनुसार है। कौथुम शाक्षा में इन अर्ध को अध्याय तथा दशतियों को खण्ड कहने की चाल है। उत्तरार्चिक के समग्र मन्त्रों की संख्या बारह सौ पच्चाीस (1225) हैं अत: दोनों आर्चिकों की सम्मिलित मन्त्र-संख्या अठारह सौ पचहत्तर (1875) है। ऊपर कहा गया है कि साम ऋचायें ऋग्वेद से संकलित की गई है, परन्तु कुछ ऋचायें नितान्त भिन्न हैं, अर्थात् उपलब्ध शाकल्य-संहिता में ये ऋचायें बिलकुल नहीं मिलती। यह भी ध्यान देने की बात है कि पूर्वाचिक के 267 मन्त्र (लगभग तृतीयांश से कुछ ऊपर ऋचायें) उत्तरार्चिक में पुनरुल्लिखित किये गये हैं।
अत: ऋग्वेद की वस्तुत: पन्द्रह सौ चार (1504) ऋचायें ही
सामवेद में उद्धृत हैं। सामान्यरूपेण 75 मन्त्र अधिक माने जाते हैं, परन्तु वस्तुत: संख्या
इससे अधिक है। 99 ऋचायें एकदम नवीन हैं, इनका संकलन सम्भवत: ऋग्वेद की अन्य
शाखाओं की संहिताओं से किया गया होगा। यह आधुनिक विद्वानों की मान्यता है।
ऋग्वेद की ऋचायें 1504 + पुनरुक्त 267 = 1771
नवीन ‘‘ 99 + ‘‘ 5 = 1771
सामसंहिता की सम्पूर्ण ऋ़चायें = 1675 (अठारह सौ पचहत्तर)
ऋक् - साम के सम्बन्ध की मीमांसा
ऋग्वेद तथा सामवेद के परस्पर सम्बन्ध की मीमांसा यहाँ अपेक्षित है। वैदिक विद्वानों की यह धारणा है कि सामवेद उपलब्ध ऋचायें ऋग्वेद से ही गान के निमित्त गृहीत की गई है, वे कोई स्वतन्त्र ऋचायें नहीं है। यह बद्धमूल धारणा नितान्त भ्रान्त है। इसके अनेक कारण है-
1. सामवेद की ऋचाओं में ऋग्वेद की ऋचाओं से अधिकतर आंशिक साम्य है। ऋग्वेद
का ‘अग्नेयुक्ष्वा हि ये तवाSश्र्वासो देव साधव:। अरं बहन्ति मन्यवे (6/16/43) सामवेद में
‘अग्ने युक्ष्वा हि ये तवाश्र्वासों देव साधव:। हरं वहन्त्याशव:’ रूप में पठित है। ऋग्वेद का
मन्त्रांश
अपो महि व्ययति चक्षसे तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी’ (7/81/1)
सामवेद में ‘अपो
मही वृणुते चक्षुषा तमो ज्योतिष् कृणोति सूनरी’ रूप धारण करता है। इस आंशिक साम्य
के तथा मन्त्र में पादव्यत्यय के अनेक उदाहरण सामवेद में मिलते है। यदि ये ऋचायें
ऋग्वेद से ही ली गई होती, तो वे उसी रूप में और उसी क्रम में गृहीत होतीं, परन्तु
वस्तुस्थिति सभी नहीं है।
2. यदि ये ऋचायें गायन के लिए ही सामवेद में संगृहीत है, तो कवेल उतने ही मन्त्रों
का ऋग्वेद से सकलन करना चाहिए था, जितने मन्त्र गाान या साम के लिए अपेक्षित
होते। इसके विपरीत हम देखते हैं कि सामसंहिता में लगभग 450 ऐसे मन्त्र है, जिन पर
गान नहीं है। ऐसे गानानपेक्षित मन्त्रों का सकलन सामसंहिता में क्यों किया गया है?
3. सामसंहिता के मन्त्र ऋग्वेद से ही लिए गये होते, तो उनका रूप ही नहीं, प्रत्युत
उनका स्वरनिर्देश भी, तद्वत् होता। ऋग्वेद के मन्त्रों में उदात अनुदात्त तथा स्वरित स्वर
पाये जाते हैं, जब सामवेद निर्देश 1, 2, तथा 3 अंकों के द्वारा किया गया है जो
‘नारदीशिक्षा’ के अनुसार क्रमश: मध्यम, गान्धार और ऋषभ स्वर हैं। ये स्वर अंगुष्ठ, तर्जनी
तथा मध्यमा अंगुलियों के मध्यम पर्व पर अंगुष्ठ का स्पर्श करते हुए दिखलायें जाते हैं।
साममन्त्रों का उच्चारण ऋक्मन्त्रों के उच्चारण से नितान्त भिन्न होता है।
4. यदि सामवेद ऋग्वेद के बाद की रचना होती, (जैसा आधुनिक विद्वान् मानते है), तो
ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर साम का उल्लेख कैसे मिलता? अंगिरसा सामभि: स्तूयमाना:
(ऋव्म् 1/107/2), उद्गातेव शकुने साम गायति (2/43/2), इन्द्राय साम गायत विप्राय
बृहते वृहत् (8/98/1)-आदि मन्त्रों में सामान्य साम का भी उल्लेख नहीं है, प्रत्युत
‘बृहत्साम’ जैसे विशिष्ट साम का भी उल्लेख मिलता है।
ऐतरेय ब्राह्मण (2/23) का तो
स्पष्ट कथन है कि सृष्टि के आरम्भ में ऋक् और साम दोनों का अस्तित्व था (ऋक् च वा
इदमग्रे साम चास्ताम्)। इतना ही नहीं, यज्ञ की सम्पन्नता के लिए होता, अध्वर्यु तथा ब्रह्म
नामक ऋत्विजों के साथ ‘उद्गाता’ की भी सत्ता सर्वथा मान्य है। इन चारों ऋत्विजों के
उपस्थित रहने पर ही यज्ञ की समाप्ति सिद्ध होती है और ‘उद्गाता’ का कार्य साम का
गायन ही तो है? तब साम की अर्वाचीनता क्यों नहीं विश्वसनीय है।
मनु ने स्पष्ट ही
लिखा है कि परमेश्वर ने यज्ञसिद्धि के लिए अग्नि, वायु तथा सूर्य से क्रमश: सनातन ऋक्
यजु: तथा सामरूप वेदों का दोहन किया (मनुस्मृति 1/23) ‘त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ में वेदों
के लिए प्रयुक्त ‘सनातन’ विशेषण वेदों की नित्यता तथा अनादिता दिखला रहा है।
‘दोहन’ से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है।
5. साम का नामकरण विशिष्ट ऋषियों के नाम किया गया मिलता है, तो क्या वे ऋषि
इन सामों के कर्ता नहीं है? इसका उत्तर है कि जिस साम से सर्वप्रथम जिस ऋक् को
इष्ट प्राप्ति हुई, उस साम का वह ऋषि कहलाता है। ताण्डय ब्राह्मण में इस तथ्य के
द्योतक स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध है। ‘‘वृषा शोणों ‘अभिकनिक्रदत्’ (ऋव्म्9/97/13) ऋचा पर
साम का नाम ‘वसिष्ठ’ होने का यही कारण है कि बीडु के पुत्र वसिष्ठ ने इस साम से
स्तुति करके अनायास स्वर्ग प्राप्त कर लिया (वसिष्ठं भवति, वसिष्टों वा एतेन वैडव:
स्तुत्वाSज्जसा स्वर्ग लोकमपश्यत्-ताण्डय ब्राव्म् 11/8/13) ‘तं वो दस्ममृतीषहं
(9/88/1) मन्त्र पर ‘नौधस साम’ के नामकरण का ऐसा ही कारण अन्यत्र कथित है
(ताण्डत्त्ा 7/10/10)। फलत: इष्टसिद्धिनिमित्तक होने से ही सामों का ऋषिपरक नाम
है, उनकी रचना के हेतु नहीं।
सामवेद की शाखाएं
भागवत, विष्णुपुराण तथा वायुपुराण के अनुसार वेदव्यासजी ने अपने शिष्य जैमिनि को साम की शिक्षा दी। कवि जैमिनि ही साम के आद्य आचार्य के रूप में सर्वत्र प्रतिष्ठित है। जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने अपने पुत्र सुन्वान को और सुन्वान ने स्वकीय सूनु सुकर्मा को सामवेद की संहिता का अध्ययन कराया। इस संहिता के विपुल विस्तार का श्रेय इन्हीं सामवेदाचार्य सुकर्मा को प्राप्त है इनके दो पट्ट-शिष्य हुए-(1) हरिण्यनाभ कौशल्य तथा (2) पौष्यज्जि, जिनसे सामगायन की द्विविध धारा-प्राच्य तथा उदीच्य-का आविर्भाव सम्पन्न हुआ। प्रश्न उपनिषद् (6/1) में हिरण्यनाभ कोशल-देशीय राजपुत्र के रूप में निर्दिष्ट किये गये है।भागवत (12/6/78) ने सामगों की दो
परम्पराओं का उल्लेख किया है-प्राच्यसामगा: तथा उदीच्यसामगा:। ये दोनों भौगोलिक
भिन्नता के कारण नाम निर्देश हैं। इन भेदों का मूल सुकर्मा नामक सामाचार्य के शिष्यों के
उद्योगों का फल है। भागवत ने सुकर्मा के दो शिक्ष्यों का उल्लेख किया है-(1) हिरण्यनाथ
(या हिरण्यनाभी) कौशल्य, (2) पौष्यज्जि जो अवन्ति देश के निवासी होने से ‘आवन्त्य’ कहे
गये है। इनमें से अन्तिम आचार्य के शिष्य ‘उदीच्य सामग’ कहलाते थे। हिरण्यनाभ
कौशल्य की परम्परा वाले सामग ‘प्राच्य सामगा:’ के नाम से विख्यात हुए।
प्रश्नोपनिषद्
(6/1) के अनुसार हिरण्यनाभ कोशल देश के राजपुत्र थे। फलत: पूर्वी प्रान्त के निवासी
होने के कारणउनके शिष्यों को ‘प्राच्यसामगा:’ नाम से विख्याति उचित ही है। हिरण्यनाभ
का शिष्य पौरवंशीय सन्नतिमान् राजा का पुत्र कृत था, जिसने सामसंहिता का चौबीस
प्रकार से अपने शिष्यों द्वारा प्रवर्तन किया।
इसका वर्णन मत्स्यपुराण (49 अ., 75-76
श्लो.) हरिवंश (20/41-44), विष्णु (4/19-50); वायु (41/44), ब्रह्मण्ड पुराण
(35/49-50), तथा भागवत (12/6/80) में समान शब्दों में किया गया हैं। वायु तथा
ब्रह्मण्ड में कृत के चौबीस शिष्यों के नाम भी दिये गये हैं। कृत के अनुयायी होने के
कारण ये साम आचार्य ‘कार्त’ नाम से प्रख्यात थे-(मस्त्य पुराण 49/76)-
चतुर्विशतिधा येन प्रोक्ता वै सामसंहिता:।
स्मृतास्ते प्राच्यसामान: कर्ता नामेह सामगा:।।
इनके लौगक्षि, माष्लि, कुल्य, कुसीद तथा कुक्षि नामक पाँच शिष्यों के नाम श्रीमभागवत (12/6/69) में दिये गये हैं, जिन्होंने सौ-सौ सामसंहिताओं का अध्यापन प्रचलित कराया। वायु तथा ब्राह्मण्ड के अनुसार इन शिष्यों के नाम तथा संख्या में पर्याप्त भिन्नता दीख पड़ती है। इनका कहना है कि पोष्पिज्जि के चार शिष्य थे-इन पुराणों में, विशेष रूप से दिया गया है। नाम धाम में जो कुछ भी भिन्नता हो, इतना तो निश्चित सा प्रतीत होता है कि सामवेद के सहस्र शाखाओं से मण्डित होने में सुकर्मा के ही दोनों शिष्य-हिरण्यनाभ तथा पौष्पिज्जि-प्रधानतया कारण थे। पुराणोपलब्ध सामप्रचार का यही संक्षिपत वर्णन है।
सामवेद की कितनी शाक्षायें थी? पुराणों के अनुसार पूरी एक हजार, जिसकी पुष्टि पतज्जलि के ‘सहस्रवत्र्मा सामवेद:’ वाक्य से भली-भॉति होती है। सामवेद गानप्रधान है। अत: संगीत की विपुलता तथा सूक्ष्मता को ध्यान में रखकर विचारने से यह संख्या कल्पित सी नहीं प्रतीत होती, परन्तु पुराणों में कहीं भी इन सम्पूर्ण शाखाओं का नामोल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इसलिये अनेक आलोचकों की दृष्टि में ‘चत्र्म’ शब्द शाखावाची न होकर केवल सामगायनों की विभिन्न पद्धतियों को सूचित करता है। जो कुछ भी हो, साम की विपुल बहुसंख्यक शाखायें किसी समय अवश्य थीं, परन्तु दैवदुर्ग से उनमें से अधिकांश का लोप इस ढंग से हो गया कि उनके नाम भी विस्मृति के गर्त में विलीन हो गये।
आजकल प्रपच्चहृदय, दिव्यावदान, चरणव्यूह तथा जैमिनि गूह्यसूत्र (1/14) के पर्यालोचन से 13 शाखाओं के नाम मिलते है। सामतर्पण के अवसर पर इन आचार्यों के नाम तर्पण का विधान मिलता है- ‘राणायन -सातयमुगि ्र-व्यास -भागुरि -औलुण्डि -गौल्मुलवि-भानु-मानौपमन्यव-काराटि-मशक-गाग्र्य-वार्षगण्यकौथुमि-शालिहोत्र-जैमिनि -त्रयोदशैते ये स्रामगाचार्या: स्वस्ति कुर्वन्तु तर्पिता:’। इन तेरह आचार्यों में से आजकल केवल तीन ही आचार्यों की शाखायें मिलती हैं-(1) कौथुमीय (2)राणायनीय तथा (3) जैमिनीय।
एक बात ध्यान देने योग्य है कि पुराणों में उदीच्य तथा प्राच्य सामगों के वर्णन
होने पर भी आजकल न उत्तर भारत में साम का प्रचार है, न पूर्वी भारत में, प्रत्युत दक्षिण
तथा पश्चिम भारत में आज भी इन शाखाओं का यत्किन्चित प्रकार है। संख्या तथा प्रचार
की दृष्टि से कौथुम शाखा विशेष महत्वपूर्ण हैं इसका प्रचलन गुजरात क ब्राह्मणों में,
विशेषत: नागर ब्राह्मणों में है।
राणायनीय शाखा महाराष्ट्र मेंं तथा जैमिनीय कर्नाटक में
तथा सुदूर दक्षिण के तिन्नेवेली और तज्ज्ाौर जिले में मिलती जरूर है, परन्तु इनके
अनुयायियों की संख्या कौथुमों की अपेक्षा अल्पतर है।
कौथुम शाखा
इसकी संहिता सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसी का विस्तृत वर्णन पहले किया जा चुका है। इसी की ताण्डÓ नामक शाक्षा भी मिलती है, जिसका किसी समय विशेष प्रभाव तथा प्रसार था। शंकराचार्य ने वेदान्त-भाष्य के अनेक स्थलों पर इसका नाम निर्देशन किया है, जो इसके गौरव तथा महत्त्व का सूचक है। पच्चीस काण्डात्मक विपुलकाय ताण्डÓ -ब्राह्मण इसी शाक्षा का हैं सुप्रसिद्ध छान्दोग्य उपनिषद् भी इसी शाखा से सम्बन्ध रखती है। इसका निर्देश शंकराचार्य ने भाष्य में स्पष्टत: किया है।राणायनीय शाखा
इसकी संहिता कौथुमों से कथमपि भिन्न नहीं है। दोनों मन्त्र-गणना की दृष्टि एक ही है। केवल उच्चारण में कहीं-कहीं पार्थक्य उपलब्ध होता है। कौथुमीय लोग जहाँ ‘हाउ’ तथा ‘राइ’ कहते हैं, वहाँ राणयनीय गण ‘हाबु’ तथा ‘रायी’ उच्चारण करते हैं। राणायनीयों की एक अवान्तर शाखा सात्यमुग्रि है जिसकी एक उच्चारणविशेषता भाषा-विज्ञान की दृष्टि से नितान्त आलोचनीय है। आपिशली शिक्षा तथा महाभाष्य ने स्पष्टत: निर्देश किया है कि सत्यमुग्रि लोग एकार तथा ओंकार का स्वर उच्चारण किया करते थे।आधुनिक भाषाओं के जानकारी को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि
प्राकृत भाषा तथा आधुनिक प्रान्तीय अनेक भाषाओं में ‘ए’ तथा ‘ओ’ का उच्चारण ह्रस्व भी
किया जाता है। इस विशेषता की इतनी प्राचीन और लम्बी परम्परा है; भाषाविदों के लिए
यह ध्यान देने की वस्तु है।
जैमिनीय शाखा
हर्ष का विषय है कि इस मुख्य शाखा के समग्र अंश संहिता, ब्राह्मण श्रोत तथा गृहृसूत्र-आजकल उपलब्ध हो गये है। जैमिनीय संहिता नागराक्षर में भी लाहौर से प्रकाशित हुई हैं इसके मन्त्रों की संख्या 687 है, अर्थात् कौथुम शाक्षा से एक सौ बयासी (182) मन्त्र कम हैं। दोनों में पाठभेद भी नाना प्रकार के हैं। उत्तरार्चिक में ऐसे अनेक नवीन मन्त्र है जो कौथुमीय संहिता में उपलबध नहीं होते, परन्तु जैमिनीयों के सामगान कौथुमों से लगभग एक हजार अधिक है। कौथुमगान केवल 2722 है परन्तु इनके सथान पर जैमिनीय गान छत्तीस सौ इक्यासी (3681) है।इन गानों के प्रकाशन होने पर दोनों
की तुलनात्मक आलोचना से भाषाशास्त्र के अनेक सिद्धान्तों का परिचय मिलेगा। तवलकर
शाखा इसकी अवान्तर शाखा है, जिससे लघुकाय, परन्तु महत्वशाली, केनोपनिषद् सम्बद्ध
है। ये तवलकार जैमिनि के शिष्य बतलायें जाते हैं।
ब्राह्मण तथा पुराण के अध्ययन से पता चलता है कि साममन्त्रों, उनके पदों तथा सामगानों की संख्या अद्यावधि उपलब्ध अंशों से कहीं बहुत अधिक थी। शतपथ में साममन्त्रों के पदों की गणना चार सहस्र बृहती बतलाई गई है, अर्थात् 4 हजार × 36 = 1,44,000, अर्थात् साममन्त्रों के पद एक लाख 44 हजार थे। पूरे साभों की संख्या थी आठ हजार तथा गायनों की संख्या थी चौदह हजार आठ सौ बीस 1480 (चरण ब्यूह) अनेक स्थलों पर बार-बार उल्लेख से यह संख्या अप्रामाणिक नहीं प्रतीत होती।
ब्राह्मण तथा पुराण के अध्ययन से पता चलता है कि साममन्त्रों, उनके पदों तथा सामगानों की संख्या अद्यावधि उपलब्ध अंशों से कहीं बहुत अधिक थी। शतपथ में साममन्त्रों के पदों की गणना चार सहस्र बृहती बतलाई गई है, अर्थात् 4 हजार × 36 = 1,44,000, अर्थात् साममन्त्रों के पद एक लाख 44 हजार थे। पूरे साभों की संख्या थी आठ हजार तथा गायनों की संख्या थी चौदह हजार आठ सौ बीस 1480 (चरण ब्यूह) अनेक स्थलों पर बार-बार उल्लेख से यह संख्या अप्रामाणिक नहीं प्रतीत होती।
इस गणना में
अन्य शाखाओं के सामों की संख्या अवश्य ही सम्मिलित की गई है।
कौथुम शाखीय सामगान दो भागों में है-ग्रामगान तथा आरण्यगान। यह औंधनगर
से श्री ए. नारायण स्वामिदीक्षित के द्वारा सम्पादित होकर 1999 विक्रम सं0 में प्रकाशित
हुआ है।
जैमिनीय साम-गान का प्रथम प्रकाशन संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से 2033 विक्रम सं0 में हुआ है। यह सामगान पूर्वाचिक से सम्बद्ध मन्त्रों पर ही है। इसके तीन भाग है-आग्नेय, ऐन्द्र तथा पावमान। इनमें आदिम तथा अन्तिम पर्व का विशेष विभाग नहीं है, परन्तु ऐन्द्रपर्व के चार है। पूरे ग्रन्थ में गान संख्या 1224 है (एक सहस्र दो सौ चौबीस)। कौथुमीय सामसंहिता से जैमिनीय साम संहिता के पाठ में सर्वथा भेद नहीं है, परन्तु गान प्रकार सर्वथा भिन्न हैं अभी तक केवल प्रथम भाग ही प्रकाशित है। द्वितीय खण्ड हस्तलेख में ही है।
जैमिनीय साम-गान का प्रथम प्रकाशन संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से 2033 विक्रम सं0 में हुआ है। यह सामगान पूर्वाचिक से सम्बद्ध मन्त्रों पर ही है। इसके तीन भाग है-आग्नेय, ऐन्द्र तथा पावमान। इनमें आदिम तथा अन्तिम पर्व का विशेष विभाग नहीं है, परन्तु ऐन्द्रपर्व के चार है। पूरे ग्रन्थ में गान संख्या 1224 है (एक सहस्र दो सौ चौबीस)। कौथुमीय सामसंहिता से जैमिनीय साम संहिता के पाठ में सर्वथा भेद नहीं है, परन्तु गान प्रकार सर्वथा भिन्न हैं अभी तक केवल प्रथम भाग ही प्रकाशित है। द्वितीय खण्ड हस्तलेख में ही है।