पतंजलि योगसूत्र का परिचय || पतंजलि योग सूत्र के चार अध्याय

पतंजलि योगसूत्र का परिचय

योगसूत्र ग्रंथ महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है। यह ग्रंथ सूत्रों के रूप में लिखा गया है। सूत्र-शैली भारत की प्राचीन दुर्लभ शैली है जिसमें विषय को बहुत संक्षिप्त शब्दों में प्रस्तुत किया जाता है। यह चार पादो में विभाजित है जिसमें 196 सूत्र निबद्ध है। इस ग्रंथ में महर्षि पतंजलि ने यथार्थ रूप में योग के आवश्यक आदर्शों और सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है। पतंजलि का “योगसूत्र“, योग विषय पर एकमात्र सबसे प्रामाणिक पुस्तक के रूप में स्थापित है। योगसूत्र ग्रंथ के चार पाद हैंः समाधि पाद, साधन पाद, विभूति पाद, और कैवल्य पाद। 

प्रथम पाद मौलिक योग की प्रकृति और इसकी कुछ तकनीकों से संबंधित है। यह इस प्रश्न का उत्तर देने
का प्रयास करता है कि ‘योग क्या है?’ समाधि की स्थिति योग का सार रूप है। इसलिए, इस खंड में समाधि पर व्यापक चर्चा की गई है। इस अध्याय में भी मानव मन (चित्त) और उसकी सभी अस्थिर
दशाओ  (विचित्ति) की प्रकृति पर प्रकाश डाला गया है।

दूसरे पाद में क्लेश (कष्ट) की प्रकृति पर चर्चा और मानव कष्टों का हल खोजने का प्रयास किया गया है। यह एक प्रश्न उठाता  है कि ‘हमें योगाभ्यास क्यों करना चाहिए?’ यह मानव जीवन और इसकी दशाओं का एक उत्तम विश्लेषण प्रदान करता है।

इस ग्रंथ के इस भाग में अभ्यास के आठ अंग (घटक) प्रस्तुत किए गए हैं जो इस प्रकार हैंः यम, नियम,
आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन आठ घटको के पहल े पांच घटक बहिरगं योग या बाह्य प्रकृति के योग रूप कहे गए है। इन पांच घटको को आरंभिक तैयारी के घटको ं के रूप में जाना जा सकता है। बाद के तीन घटको ( धारणा, ध्यान, समाधि) को अंतरंग योग का घटक कहा गया है क्योंकि वे अंतर्मन को साधने का कार्य करते हैं। इनका अभ्यास हमें अंतरगं योग की ओर उन्मुख करता है जिसमें समाधि की स्थिति सन्निहित है। यह अध्याय हमें योग के धरातल पर मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक और नैतिक रूप से तैयार करता है। 

तीसरा खंड विभूति पाद है जिसका पहला भाग अंतरंग योग, अष्टांग योग के अंतिम तीन घटक (समाधि), पर विस्तार से प्रकाश डालता है। ये उच्च तकनीके ं यौगिक जीवन के रहस्यों को प्रकट करती हैं। दिव्य शक्तियों (विभूतियो ं एवं सिद्धियो) का अनुभव होता है।

कैवल्य पाद इस ग्रंथ का अंतिम अध्याय है। यह योगाभ्यास से संबंधित दार्शनिक समस्याओं की गहरी छानबीन करता है। यह अध्याय मन की आवश्यक प्रकृति, लौकिक अवधारणा, मानव की ऐच्छिक प्रकृति और कैसे इच्छाएँ अनुकूलन और बंधन का कारण हैं; के बारे में भी चर्चा करता है। मुक्ति (कैवल्य) की स्थिति को किस प्रकार अनुभव किया जा सकता है और इस प्रकार की शुद्ध चेतना द्वारा किस तत्त्व की व्युत्पत्ति होती है, को स्पष्ट करता है।

पतंजलि योग सूत्र के चार अध्याय

पतंजलि योगसूत्र को चार अध्यायों के अन्तर्गत रखा गया है जिन्हें ‘पाद’ की संज्ञा दी है-
  1. समाधि पाद 
  2. साधन पाद 
  3. विभूति पाद 
  4. कैवल्य पाद 
समाधि पाद में 51, साधन पाद में 55, विभूति पद में 55 और कैवल्य पाद में 34 सूत्र हैं। कुल मिलाकर सम्पूर्ण योग सूत्र में 195 सूत्रों में उपलब्ध होता है। विषय के अनुसार इन्हीं 195 सूत्रों में योग के विभिन्न विषय संक्षिप्त रूप में समझाए गए हैं जिन्हें समझने के लिए हम उपलब्ध टीकाओं और अनुवादों का सहारा लेते हैं। विषय की दृष्टि से चारों अध्यायों की विषय वस्तु को संक्षिप्त रूप से कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं-

1. समाधि पाद - 

समाधि पाद के अन्तर्गत, समाधि से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य विषयों को लिया गया है। इस अध्याय में सर्वप्रथम योग की परिभाषा बताई गयी है जो कि चित्त की वृत्तियों का सभी प्रकार से निरुद्ध होने की स्थिति का नाम है। यहां पर भाष्यों के अन्तर्गत यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यह योग समाधि है। समाधि के आगे दो भेद- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात बताए गए हैं। जिनको बाद में विस्तार से जानकारी दी गयी है। दोनों ही प्रकार की समाधियों के अन्तर भेदों को भी विस्तार पूर्वक समझाने का प्रयास किया गया है। समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के साधनों के विषय में भी विस्तार से चर्चा की गयी है। विद्वानों के अनुसार इस अध्याय के अन्तर्गत बताए अभ्यास सामान्य योगाभ्यासी के लिए नहीं अपितु उच्च कोटि के अधिकारी के लिए है। जिनका चित्त पहले से ही स्थिर हो चुका है, उन्हीं को ध्यान में रखकर यहाँ अभ्यासों की चर्चा की गयी है। कई सारे अभ्यास दिखने में जितने आसान प्रतीत होते हैं करने में उतने ही कठिन है।

ईश्वर प्रणिधान या ईश्वर भक्ति (ईश्वर प्रणिधान का विस्तृत विवेचन चतुर्थ ईकाइ में किया जायेगा) और ईश्वर के स्वरूप की चर्चा भी इसी अध्याय के अन्तर्गत की गयी है। ईश्वर वर्णन के कारण ही कभी-कभी सांख्य और योग में अन्तर किया जाता है। सांख्य जहां ईश्वर का वर्णन नहीं करता वहीं योग (पातंजल योग) ईश्वर का वर्णन करने के कारण कभी-कभी सेश्वर-सांख्य के नाम से जाना जाता है।

इस प्रकार विभिन्न विषयों की विस्तार से चर्चा करने के साथ-साथ योग के दार्शनिक स्वरूप को बड़े ही सुन्दर ढंग से रखने का प्रयास समाधि पाद के अन्तर्गत किया गया है। चित्त से लेकर समाधि के भेद-प्रभेद एवं चित्त निरोध आदि के उपाय आदि भी इसी अध्याय के अन्तर्गत समझाए गए हैं। जिनके अध्ययन के बाद आपको योग की दार्शनिक पृष्ठभूमि का आकलन स्वत: ही लग जाएगा। इसी अध्याय के अन्तर्गत यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो योग के विभिन्न विषय जो बचे हुए 3 पादों में आने वाले हैं, उनका भी स्पष्ट-अस्पष्ट चित्र दिखाई दे जाता है।

2. साधन पाद 

साधन पाद में योग को प्राप्त करने के लिए कई उपाय आदि बताये गए हैं। भाष्यकारों के अनुसार पहले अध्याय मे  बताए गए अभ्यास उत्तम अधिकार प्राप्त योगियों के लिए सही है। मध्यम और साधारण अधिकारी उन अभ्यासों को करने में सक्षम नहीं है। इसी को ध्यान में रखकर इस अध्याय के प्रारम्भ में यह स्पष्ट कर दिया है कि मध्यम अधिकारी के लिए क्रिया योग ही सर्वोत्तम साधन है। क्रिया योग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का समावेश किया है। इसी की विस्तृत चर्चा के साथ इस अध्याय की शुरुआत होती है। पंचक्लेषों की विस्तृत चर्चा भी इसी अध्याय के अन्तर्गत मिलती है। इसी अध्याय के अन्तर्गत आपको आगे चलकर अष्टांग योग की भी चर्चा मिलेगी जिसे साधारण अधिकारी के लिए अति उत्तम साधन माना गया है। अष्टांग योग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश किया गया है। अष्टांग योग सर्वाधिक प्रचलित साधना पद्धति है जिसको योग विषयक लगभग सभी अध्ययनों में देखा जा सकता है।

अष्टांग योग के विभिन्न अंगों की विवेचना के साथ-साथ यहां उनसे प्राप्त होने वाली सिद्धियों का भी वर्णन किया गया है। जिसके कारण यहाँ प्राप्त होने वाले अष्टांग योग के वर्णन की तुलना किसी अन्य स्थल से नहीं की जा सकती है। इस अध्याय के अन्तर्गत विभिन्न दार्शनिक विषयों का भी वर्णन किया गया है। जिसमें ‘दृष्टा’ और ‘दृश्य’ प्रमुख हैं। दृष्टा यहां पुरुष को एवं दृश्य प्रकृति को कहा गया है। इन दोनों में विवेक ज्ञान हो जाना ही योग की प्राप्ति कराता है। इन दोनों की मिली हुई अवस्था के कारण ही अविद्या की स्थिति बनी रहती है। 

इसके अतिरिक्त ‘चतुव्र्युहवाद’ की भी स्पष्ट विवेचना इसी अध्याय के अन्तर्गत आती है। हेय-दु:ख का वर्णन, हेय-हेतु-दु:ख के कारण का वर्णन, हान-मोक्ष का स्वरूप और हानोपाय-मोक्ष प्राप्ति का उपाय सम्मिलित है। इस प्रकार यह अध्याय स्वयं में पूर्ण रूप से योग के विभिन्न दार्शनिक पहलुओं पर विस्तृत विचार प्रस्तुत करता है। कर्मफल का सिद्धान्त भी इसी अध्याय के अन्तर्गत आता है। 

इन सभी विषयों का ठीक प्रकार से समावेश होने के कारण इस अध्याय का नाम साधन पाद बहुत ठीक जान पड़ता है।

3. विभूति पाद 

धारणा, ध्यान और समाधि से शुरु होने वाले इस अध्याय में बड़े ही रहस्यास्पद एवं रोचक विषयों का समावेश देखने को मिलता है। यहां दार्शनिक विषयों का उल्लेख पहले के अध्यायों की अपेक्षा बहुत कम देखने को मिलता है। फिर भी, दार्शनिक दृष्टि से इस अध्याय का भी महत्व कम नहीं है। दार्शनिक विषयों में धर्म, धर्मी आदि का स्वरूप, चित्त के परिणाम की विवेचना मिलती है। इसके साथ-साथ धारणा, ध्यान और समाधि को यहां सम्मिलित रूप से ‘संयम’ के रूप में बताया गया है। ‘संयम’ योगसूत्र की पारिभाशिक शब्दावली का प्रमुख अंग है। सामान्यतया संयम का अर्थ नियंत्रण से होता है, परन्तु यहां इसका प्रयोग की धारणा, ध्यान और समाधि के सम्मिश्रण को बताया है। इन सभी विषयों के साथ-साथ इस अध्याय का प्रमुख विषय संयमजनित विभूतियों का वर्णन है। जिस कारण इस अध्याय का नाम विभूति पाद रखा गया है। विभूति का अर्थ यहां पर सिद्धियों से ही है। 

4. कैवल्य पाद 

यह अध्याय योग के चरम लक्ष्य ‘कैवल्य’ की स्थिति को बताने वाला है। इस अध्याय में भी योग के दार्शनिक स्वरूप पर चर्चा देखने को मिलती है। इस अध्याय की शुरुआत पांच प्रकार से प्राप्त होने वाली सिद्धियों के वर्णन से होती है जिसमें बताया गया है कि सिद्धियाँ जन्म से, औषधि से, मन्त्र से, तप से और समाधि के द्वारा मिलती है। जिसमें बाद में समाधि जन्य सिद्धि को शुद्ध माना है। जिसका कारण बताया गया है कि समाधि में वासनाजन्य संस्कार नहीं रहते इस कारण समाधि से प्राप्त सिद्धि भी पवित्र संस्कार वाली होती है। 

इस अध्याय मेंनिर्माण चित्त, चतुर्विध कर्म, वासना आदि का बड़ा ही सुन्दर वर्णन मिलता है। इसके आलावा  जीवनमुक्त की मनोवृत्ति पर भी समुचित प्रकाश डाला गया है। अन्त में कैवल्य का स्वरूप बताकर इस अध्याय की समाप्ति के साथ योगसूत्र की भी पूर्णता हो जाती है। पहले के अध्यायों की अपेक्षा यह अध्याय छोटा है। परन्तु, इसके बिना योग सूत्र की पूर्णता भी नहीं होती। इस कारण इस अध्याय का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है।

पतंजलि योगसूत्र का ऐतिहासिक महत्व एवं स्वरूप

पतंजलि ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग को व्यवस्थित स्वरूप देकर अपने ग्रन्थ के माध्यम से सूत्र रूप में संकलित किया। जिसके कारण अन्य दार्शनिक विचारधाराओं में योग की स्थिति को जानने में बहुत सहायता मिली। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से योग सूत्र की प्राचीनता स्पष्ट रूप से बता दी गयी है। यदि बिना किसी विवाद में उलझे योग सूत्र का काल दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व निर्धारित किया जाए तो अन्य दर्शन जो कि इसके बाद विकसित हुए, उन पर इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।

ऐतिहासिक रूप से सांख्य दर्शन को योग से पहले बताया जाता है, परन्तु यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है, कि योग सांख्य दर्शन का क्रियात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है। जिसके कारण कभी-कभी दोनों दर्शनों को एक दूसरे का पूरक या समान तन्त्र भी कहा जाता है। दोनों ही दर्शन एक दूसरे से काफी समानता रखते हैं। इस विषय पर विभिन्न दर्शन ग्रन्थों में विस्तृत चर्चा मिलती है। तथा इस ग्रन्थ पर अनेक टीकायें भी प्राप्त होती हैं। अत: योग सूत्र के महत्त्व को अधिक गहराई से जानने के लिए आपको यह जानना भी आवश्यक है कि उस पर कितनी टीकाएं उपलब्ध है। इनके आधार पर हम इस ओर स्पष्ट संकेत कर सकते हैं कि योग सूत्र की लोकप्रियता और महत्त्व कभी कम नहीं रहा। जिसके कारण हर काल में इस पर भिन्न-भिन्न रूपों में व्याख्यायें सामने आती हैं। ये सारी व्याख्याएं योग सूत्र के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए हैं। जिनके माध्यम से सूत्र रूप में लिखी व्यापक सैद्धान्तिक जानकारी को और अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सके।

यदि आप योगसूत्र के इतिहास पर दृष्टि डालें तो पतंजलि के सूत्रों के पश्चात जिस रचना को सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली वह थी-व्यास भाष्य। व्यास भाष्य, व्यास के द्वारा योग सूत्र की प्रथम टीका या व्याख्या थी। जिसमें योगसूत्र के शास्त्रीय और व्यावहारिक ज्ञान पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इस भाष्य को ‘योग भाष्य’, ‘व्यास भाष्य’, ‘पातंजल भाष्य’ और ‘सांख्य प्रवचन भाष्य’ आदि नामों से जाना जाता है। हालांकि इस बात पर बहुत से विवाद अभी तक बने हुए हैं, कि ये व्यास कौन थे-वेद व्यास या ब्रह्मसूत्रकार बादरायण व्यास? हम यहाँ इन प्रश्नों में न उलझकर केवल यह जानने का प्रयास करेंगे कि ऐतिहासिक दृष्टि से इसका क्या महत्त्व है। यह बात अब तक आपको स्पष्ट हो गयी होगी कि पातंजल योग सूत्र पर पहली टीका व्यास द्वारा लिखी गयी। इसमें योग सूत्र में आए विभिन्न सैद्धान्तिक पक्षों पर विस्तार से चर्चा की गयी है। इसका महत्त्व भी इसी से स्पष्ट हो जाता है कि इसके बाद की सभी रचनाओं मे कहीं न कहीं इसी का अनुसरण करके व्याख्याएं प्रस्तुत की गयी है।

काल की दृष्टि से विद्वानों ने इसे दूसरी शताब्दी ई0 (2nd Century AD) के समय का माना है। जिससे स्पष्ट होता है, कि व्यास की यह रचना योग सूत्र पर पहला उपदेश थी क्योंकि अन्य सारी रचनाएं इस समय के बाद की ही मिलती हैं। यहां आप यह बात भी समझ लें समय के विषय में उक्त जानकारी अभी तक विवादों के घेरे में हैं परन्तु प्रचलित मान्यताओं के आधार पर यही सही समय लगता है, जिससे व्यास भाष्य की रचना हुई। व्यास के बाद योग सूत्र पर अन्य रचना वाचस्पति मिश्र की ‘तत्त्व वैशारदी’ उपलब्ध होती है। वाचस्पति मिश्र का समय 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का माना जाता है। 

इस प्रकार व्यास के कई शताब्दियों बाद योग सूत्र पर दूसरी रचना उपलब्ध होता है। वाचस्पति मिश्र ने अपनी टीका में व्यास के द्वारा दी गयी व्याख्या को और अधिक स्पष्ट किया है, और साथ ही कई अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की भी विवेचना की है। वाचस्पति मिश्र के ठीक बाद लगभग 11वीं शताब्दी में धार के राजा भोजदेव ने योग सूत्र पर अपनी टीका लिखी। जिसे भोजवृत्ति के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त भावागणेश ने 17वीं शताब्दी में एक और टीका लिखी। तथा नागोजी भट्ट (17वीं शताब्दी), रामानन्दयति और नारायण तीर्थ (18वीं शताब्दी) आदि ने भी टीकाएं लिखीं। आजकल उपलब्ध टीकाओं में स्वामी हरिहरानन्द अरण्य की ‘भास्वती’ नामक टीका काफी प्रसिद्ध है। इसके अलावा अंग्रेजी अनुवाद में गंगानाथ झा, राजेन्द्र लाल मिश्र और जे.एच.वुड्स ने भी बड़ा सराहनीय कार्य किया है।

इन सभी विषयों को जानने के बाद आप लोग योग सूत्र के ऐतिहासिक स्वरूप और इसके महत्त्व से भली भांति परिचित हो गए होंगे। इन सारे विषयों पर जानकारी देने का उद्देश्य केवल इतना था कि आप लोग योग सूत्र से सम्बन्धित प्रामाणिक जानकारी प्राप्त कर सकें और यदि भविष्य में इसका विशेष अध्ययन करना चाहें तो उक्त ग्रन्थों के अध्ययन से लाभान्वित हो सकें।

2 Comments

  1. It's very informative !!
    I love to have such more topics like, yoga as per Upanishads

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