फ्रांस के तृतीय गणतंत्र की प्रमुख समस्या || फ्रांस का तृतीय गणतंत्र के सुधार

नैपोलियन तृतीय की पराजय 2 सितम्बर सन् 1870 ई. में सीडान नामक स्थान पर हुई और उसको बाध्य होकर आत्म-समर्पण करना पड़ा। वह बन्दी बना लिया गया। जब अगले दिन अर्थात् 3 सितम्बर को यह समाचार फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुंचा तो पेरिस की सस्त जनता के मुख पर यह प्रश्न था कि अब क्या होगा, क्योंकि उनके द्वारा 20 वर्ष पूर्व स्थापित राज-सत्ता अकस्मात ही नष्ट हो गई। जनता अब इस निणर्य पर पहुंची कि फ्रांस में गणतंत्र शासन की स्थापना की जानी चाहिये। जनता ने व्यवस्थापिका सभा में जिसका उस समय अधिवेशन हो रहा था, यह प्रस्ताव शीघ्र ही पास करवा लिया कि नैपोलियन तृतीय को फ्रांस के सम्राट के पद से पृथक कर दिया जाये। इस प्रकार नेपोलियन तृतीय का पतन हुआ और फ्रांस में तीसरी बार गणतांत्रिक सरकार की स्थापना हुई।

फ्रांस का तृतीय गणतंत्र की समस्या

नेपोलियन तृतीय के पतन के अगले दिन व्यवस्थपिका सभा के सदस्य पेरिस के सिटी हॉल में गेमबेटा के नेतृत्व में एकत्रित हुये, जिन्होंने यह निश्चय किया कि फ्रांस में गणतंत्र शासन की स्थापना की जाये। पेरिस की अधिकांश जनता ने उसका साथ दिया। उस समय फ्रांस में तीन दल प्रमुख थे जो गणतंत्र के समर्थक थे, किन्तु कुछ बातों में उनमें पर्याप्त विभिन्नतायें थीं, किन्तु यह समय पारस्परिक वाद-विवाद और लड़ाई-झगड़े में व्यतीत करने का नहीं था, क्योंकि जर्मन सेना बड़ी तेजी के साथ फ्रांस की ओर बढ़ी चली आ रही थी। अत: समस्त दलों के लोगों ने सम्मिलित रूप से यह निश्चय किया कि गेमबेटा और थीयर्स के नेतृत्व में सरकार का शीघ्रातिशीघ्र निर्माण किया जाये। जर्मनी ने फ्रांस पर जो आक्रमण किया था उसमें फ्रांस पराजित हो रहा था। गमे बटे ा आदि व्यक्तियों की यह इच्छा थी कि युद्ध का अन्त नहीं किया जाये, किन्तु-राजसत्तावादी युद्ध का अन्त करने के पक्ष में थे। यह विवाद इतना तीव्र हो गया कि इसका निर्णय करने के लिये एक राष्ट्र प्रतिनिधि सभा का आयोजन करना पड़ा जिसमें संयोग से राजसत्तावादियों की संख्या अधिक थी जिससे स्पष्ट होता है कि फ्रांस की जनता इस समय युद्ध की अपेक्षा शान्ति चाहती थी।

1. जर्मनी का फ्रांस से सन्धि करना -10 मई 1871 ई. को फ्रांस और जर्मनी में सन्धि हो गई जिसे अनुसार फ्रांस को अपने दो समृद्धिशाली प्रान्तो-ं एल्सेस और लॉरेन से हाथ धोना पड़ा। इनका क्षत्रे फल दस हजार वर्ग मील था और इसकी जनसंख्या 16 लाख थी। उसको युद्ध-क्षतिपूर्ति के रूप में बहुत अधिक धन जर्मनी को देना पड़ा। फ्रांस को मेत्ज और स्ट्रासवर्ग के प्रसिद्ध दुर्गो पर जर्मनी का अधिकार स्वीकार करना पड़ा। जर्मनी से सन्धि होने के उपरातं विविध दलों में झगड़े होने आरम्भ हुये।

2. पेरिस की जनता विद्रोह और उसका दमन - पेरिस की जनता से थीयर्स एवं राष्ट्र प्रतिनिधि सभा के विरूद्ध विद्रोह किया जिसके कारण निम्नलिखित थे-
  1. पेरिस की जनता का गणतन्त्रवादी होना 
  2. फ्रांस की जनता में आर्थिक असंतोष
  3. स्वायत्त शासन के अधिकार की मांग
3. युद्ध-क्षति की पूर्ति करना - पेरिस के विद्रोह का कठोरता से दमन करने के उपरान्त थीयर्स के सामने बड़ी विकट परिस्थिति उत्पन्न हुई। इस विद्रोह के कारण फ्रांस की दशा बहुत ही शोचनीय हो गई थी और अभी तक फ्रांस में वह सेना उपस्थित थी जो जर्मनी की ओर से युद्धक्षति पूर्ति प्राप्त करने के लिये ठहरी हुई थी। उस सेना को तीन अरब रूपया देकर फ्रांस से निकाला जा सकता था। ऐसी परिस्थिति में इतनी बड़ी रकम का प्राप्त करना कोई सरल कार्य नहीं था। थीयर्स इस भीषण परिस्थिति से नहीं घबराया। उसने बड़े उत्साह तथा साहस के साथ धन प्राप्त करना आरंभ किया। दो वर्ष के अंदर जर्मन सेना को समस्त रुपया देकर उसने उनसे फ्रांस खाली कराया। उसके इस कार्य से फ्रांस की जनता का उस पर विश्वास बढ़ गया और वह हर सम्भव रूप से उसकी सहायता करने के लिये उद्यत हो गई।

फ्रांस का तृतीय गणतंत्र की स्थापना

इसके पश्चात थीयर्स का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ कि फ्रांस में अब किस प्रकार की सरकार तथा शासन की स्थापना की जाये। थीयर्स के नेतृत्व में जो सामयिक सरकार निर्मित की गई थी वह गणतंत्र के आधार पर थी, वह उसका राष्ट्रपति था। किन्तु राष्ट्र प्रतिनिधि सभा में राजसत्तावादियों का बहुमत था। देश में शान्ति तथा सुव्यवस्था की स्थापना होने पर राजसत्तावादियों ने राजसत्ता की स्थापना के लिये प्रयत्न करना चाहा। थीयर्स प्रारम्भ में राजसत्तावादी था, किन्तु राजसत्तावादियों में इतना अधिक मतभेद था कि थीयर्स को बाध्य होकर अपने विचारों में परिवर्तन करना पड़ा। अब वह गणतंत्र का समर्थक बन गया जिसके कारण राजसत्तावादी उसके विरोधी हो गये और उन्होंने राजसत्ता की स्थापना के लिये खुले तौर पर आन्दोलन करना आरंभ किया। थीयर्स उनके इस कार्य को सहन नहीं कर सका। 

अत: उसने दिसम्बर 1872 ई. में घोषणा की कि यदि फ्रांस में राजसत्ता की स्थापना का प्रयास किया जायेगा तो फ्रांस में पुन: राज्यक्रान्ति हो जाएगी। इस घोषणा का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि राजसत्तावादी उसके विरूद्ध हो गये। उसको गणतंत्रवादियों का भी समर्थन प्राप्त नहीं हो सका, क्योंकि वे उसको बहुत नरम विचारों वाला व्यक्ति समझते थे। मई 1873 ई. उसके विरूद्ध राजतन्त्रवादियों ने एक प्रस्ताव पास किया, जिससे स्पष्ट हो गया कि राष्ट्र प्रतिनिधि सभा का उस पर विश्वास नहीं है और इस परिस्थिति से बाध्य होकर उसको अपने पद से त्याग-पत्र देना पड़ा। अब राजतन्त्रवादियों ने मार्शन मैक्महोम को राष्ट्रपति के पद पर आसीन किया। वह राजसत्ता का पक्षपाती था और उसने घोषणा की कि वह उसी समय राष्ट्रपति के पद को त्याग देगा जिस समय किसी व्यक्ति को राजा नियत कर दिया जायेगा। राजसत्तावादियों में इस प्रश्न पर कि किस व्यक्ति को राजा बनाया जाये, बड़ा वैमनस्य तथा मतभेद था और वे किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुंच सके।

फ्रांस का तृतीय गणतंत्र के संविधान का निर्माण

अब तृतीय गणतंत्र के संविधान का निर्माण किया जाना आरंभ हुआ। 29 मई सन् 1875 ई. के एक प्रस्ताव द्वारा निश्चित कर दिया गया कि अब फ्रांस में राजतन्त्र की स्थापना न होकर गणतंत्र की स्थापना होगी। यह प्रस्ताव केवल एक वोट के बहुमत से पास हुआ। इसके उपरांत फ्रांस के लिये एक नवीन संविधान बनाया गया जिसके अनुसार -
  1. फ्रांस का एक राष्ट्रपति होगा जिसका कार्यकाल सात वर्ष निश्चित किया गया। 
  2. उसका निर्वाचन व्यवस्थापिका सभा के दोनों सदन सिनेट और प्रतिनिधि सभा संयुक्त बठै क में सम्मिलित रूप से बहुमत के आधार पर करेंगे 
  3. व्यवस्थापिका सभा के दो सदन होंगे-प्रथम सदन चैम्बर ऑफ डैपटु ीज और द्वितीय सदन सीनेट कहलायेगेंं 
  4. प्रथम सदन के सदस्यों का निर्वाचन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होगा और द्वितीय सदन के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रीति से होगा। 
  5. वोट का अधिकार बहुत कम व्यक्तियों को प्रदान किया गया। 
  6. प्रथम सदन के सदस्यों का निर्वाचन चार वर्ष के लिये और द्वितीय सदन के सदस्यों का निर्वाचन 9 वर्ष के लिये किये जाने की व्यवस्था की गई। 
  7. राष्ट्रपति, मन्त्रिमण्डल की नियुक्ति व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों में से करेगा और 
  8. वह व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होगा और 
  9. शासन की वास्तविक सत्ता उसके ही हाथ में निहित होगी। इस प्रकार फ्रांस का राष्ट्रपति केवल वैधानिक प्रधान होगा जिस प्रकार वैध राजतन्त्र वाले राज्य में राजा की स्थिति होती है।

फ्रांस का तृतीय गणतंत्र के सुधार

गणतंत्र सरकार ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के उपरान्त देश की उन्नति की ओर विशेष ध्यान दिया और उसने सुधार किये-
  1. 1884 ई. में यह विधि निर्मित की गई कि फ्रांस की व्यवस्थापिका सभाओं में इस विषय का कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया जायेगा जिसका अभिप्राय गणतंत्र सरकार का अंत करना होगा। 
  2. 1881 ई. में नागरिकों को विभिन्न प्रकार की सुविधायें प्रदान की गई जिनमें भाषण, लेखन और मुद्रण की स्वतन्त्रता विशेष प्रसिद्ध है। 
  3. श्रमिकों के विरूद्ध जो नियम फ्रांस में प्रचलित थे उनका अंत कर दिया गया। उनको अपना संगठन बनाने की स्वतन्त्रता प्राप्त हुइै। 
  4. शिक्षा की दशा को उन्नत करने के लिये शिक्षण कार्य पादरियों से ले लिया गया, क्योंकि वे गणतंत्र सरकार के नवीन विचारधाराओं का विरोध करते थे। 1881 ई. में सरकार ने ऐसी शिक्षण संस्थायें स्थापित कीं जिनका चर्च से कोई संबधं नहीं था। बाद में उन शिक्षण संस्थाओं का अंत किया गया जिनका संचालन कट्टर धार्मिक संस्थायें तथा सभायें कर रही थीं। शिक्षा 12 वर्ष के बालकों के लिये अनिवार्य घोषित कर दी गई। 
  5. नगरपालिकाओं को विशेष अधिकार प्रदान किए गए और उनको अपने सभापतियों के निर्वाचन का अधिकार प्राप्त हुआ। 
  6. परित्याग की प्रथा को पुन: स्थापित किया गया। 
  7. रेल, तार, सड़कों आदि के निर्माण की समस्त फ्रांस में व्यवस्था की गई।

गणतंत्र सरकार और चर्च का संघर्ष

फ्रांस की गणतंत्र सरकार के समक्ष चर्च का प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण था। प्रश्न यह था कि राज्य और चर्च का संबंध किस प्रकार का होना चाहिये। यह केवल धार्मिक प्रश्न ही न होकर एक राजनीतिक प्रश्न भी था। इसका कारण यह था कि फ्रांस का पादरी वर्ग राजतन्त्र का समर्थक था और गणतंत्र का विरोधी था। जितने भी आन्दोलन राजतन्त्र के समर्थन में हुए उन सबमें पादरी वर्ग का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हाथ अवश्य था। इस कारण गणतंत्र के समर्थकों ने चर्च के अधिकारों पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया। 

1877 ई. में ही गेमबेटे ने यह स्पष्ट रूप से कह दिया था कि ‘पादरी वर्ग गणतंत्र का कट्टर विरोधी है।’ इस समय तक फ्रांस की समस्त शिक्षा पर चर्च का अधिकार था। फ्रांस की अधिकांश जनता अपने बच्चों को इस शिक्षा से मुक्त करने के पक्ष में थी। डे्रयफस केस के उपरांत गणतंत्रवादियों ने चर्च के अधिकारों पर आक्रमण करना आरंभ किया। उन्होंने उसकी शक्ति को कम करने के लिए इन कानूनों को पास किया-
  1. 1901 ई. में समुदाय नियम नामक विधि पारित की गई जिसके अनुसार यह निश्चित हुआ कि प्रत्येक संघ को राजकीय आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक होगा। जिन संघ्ज्ञों ने यह आज्ञा प्राप्त नहीं की उनको अवैध घोषित कर दिया गया। इससे शिक्षा चर्च के अधिकार से निकल गई।
  2. 1905 ई. की एक अन्य विधि द्वारा शिक्षा को धर्म निरपेक्ष बना दिया गया और अब किसी भी धार्मिक संस्था को शिक्षा प्रदान करने का अधिकार नहीं रहा।
  3. इसी वर्ष के पृथक्करण विधान के अनुसार चर्च को राज्य से बिल्कुल पृथक कर दिया गया। इसके द्वारा यह निश्चित हुआ कि न तो राज्य पादरियों की नियुक्ति करेगा और न उनको किसी प्रकार का वेतन देगा। 
  4. 1907 के नये कानून द्वारा पादरियों के समस्त अधिकारों का अन्त कर दिया गया। इस प्रकार गणतंत्र द्वारा राज्य और चर्च एक दूसरे से अलग हो गये।

फ्रांस का तृतीय गणतंत्र की विदेश नीति

नेपोलियन तृतीय की पराजय और फेंकफर्ट की सन्धि के कारण अन्तर्राष्ट्रीय जगत में फ्रांस के मान और प्रतिष्ठा को बड़ा आघात पहुंचा। इस समय यूरोपीय राजनीतिक रंग-मंच पर जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क का बोलबाला था, जिसने ऐसी नीति का अनुकरण किया कि यूरोप में फ्रांस का कोई मित्र नहीं बन पाये। फ्रांस की औपनिवेशिक नीति के कारण उसके संबंध ग्रेट-ब्रिटेन से अच्छे नहीं थे और बिस्मार्क ने अन्य महत्वपूर्ण राज्यों के साथ राजनीतिक सन्धियाँ कर रखी थीं। जिस समय तक जर्मनी की शासन-सत्ता पर बिस्मार्क का अधिकार रहा वह अपनी नीति में सफल रहा। परन्तु बाद में यह स्थिति नहीं रह पाई।

1. फ्रांस और रूस की सन्धि - बिस्मार्क के पद त्यागने पर फ्रांस और रूस की संधि हुई जो द्विगुट संधि के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुई। इस सन्धि का कारण यह था कि दोनों को जर्मनी का भय था और अब जर्मनी ने बालकन प्रायद्वीप में आस्ट्रिया का पक्ष खुले तौर पर लेना आरंभ कर दिया था। इसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि आक्रमण के समय दोनों एक दूसरे की सहायता करेंगे।

2. फ्रांस और ग्रेट-ब्रिटेन की सन्धि - इसके पश्चात फ्रांस ने ग्रेट-ब्रिटेन के साथ मित्रता करने का प्रयत्न किया। इंगलैंड जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति से आशंकित रहने लगा था और उसने भी अनुभव किया कि उसको किसी यूरोपीय शक्ति से मित्रता करनी आवश्यक है। फ्रांस और इंगलैंड ने अपने पारस्परिक झगड़ों का अन्त कर आपस में एक सन्धि की जिसको आता कोर्डियल कहते हैं। 1907 ई. में रूस भी इसमें सम्मिलित हो गया। इस प्रकार यूरोप में त्रिगुट मैत्री की स्थापना हुई।

3. मोरक्को - मोरक्को के प्रश्न पर यूरोप के विभिन्न गुटो में संघर्ष होने की संभावना उत्पन्न हो गई थी, किन्तु आपसी समझौते द्वारा इस प्रश्न का निर्णय कर लिया गया। इस प्रकार सतत् प्रयत्न करने के पश्चात फ्रांस ने अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपनी खोई हुई शक्ति तथा प्रतिष्ठा प्राप्त की और उसकी गणना यूरोप के महान राष्ट्रों में पुन: होने लगी।

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