Otto von Bismarck (बिस्मार्क) ऑटो एडवर्ड लियोपोल्ड बिस्मार्क का जन्म 1815 ई. में ब्रेडनबगर् के एक कुलीन परिवार में हुआ
था। बिस्मार्क की शिक्षा बर्लिन में हुई थी। 1847 ई. में ही वह प्रशा की प्रतिनिधि-सभा का सदस्य चुना गया। वह जर्मन राज्यों की संसद में प्रशा का प्रतिनिधित्व करता था। वह नवीन विचारों का प्रबल
विरोधी था। 1859 ई. में वह रूस में जर्मनी के राजदूत के रूप में नियुक्त हुआ। 1862 ई. में वह पेरिस
का राजदूत बनाकर भेजा गया। इन पदों पर रहकर वह अनेक लोगों के संपर्क में आया। उसे यूरोप की
राजनीतिक स्थिति को भी समझने का अवसर मिला। 1862 ई. में प्रशा के शासक विलियम प्रथम ने उसे
देश का चाँसलर (प्रधान मंत्री) नियुक्त किया।
बिस्मार्क ‘रक्त और लोहे’ की नीति का समर्थक था। उसकी रुचि लोकतंत्र ओर संसदीय पद्धति में नहीं थी। वह सेना और राजनीति के कार्य में विशेष रुचि रखता था। इन्हीं पर आश्रित हो, वह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहता था। वह प्रशा को सैनिक दृष्टि से मजबूत कर यूरोप की राजनीति में उसके वर्चस्व को कायम करना चाहता था। वह आस्ट्रिया को जर्मन संघ से निकाल बाहर कर प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना चाहता था। वह सभाओं और भाषणों में विश्वास नहीं करता था। वह सेना और शस्त्र द्वारा देश की समस्याओं का सुलझाना चाहता था। वह अवैधानिक कार्य करने से भी नहीं हिचकता था।
प्रशा की सैनिक शक्ति में वृद्धि कर तथा कूटनीति का सहारा लेकर उसने जर्मन राज्यों के
एकीकरण के कार्य को पूरा किया। इस कार्य को पूरा करने के लिए उसने तीन प्रमुख युद्ध लड़े। इन
सभी युद्धों में सफल होकर उसने जर्मन-राज्यों के एकीकरण के कार्य को पूरा किया। इससे यूरोपीय
इतिहास का स्वरूप ही बदल गया।
जर्मनी के एकीकरण के लिए बिस्मार्क के युद्ध
उसने तीन प्रमुख युद्ध लड़े। इन सभी युद्धों में सफल होकर उसने जर्मन-राज्यों के एकीकरण के कार्य को पूरा किया।
1. डेनमार्क से युद्ध (1864 ई.)
सर्वप्रथम बिस्मार्क ने अपनी शक्ति का प्रहार डेनमार्क के राज्य पर किया। जर्मनी और डेनमार्क के बीच दो प्रदेश विद्यमान थे, जिनके नाम शलेसविग और हॉलस्टीन थे। ये दोनों प्रदेश सदियों से डेनमार्क के अधिकार में थे, पर इसके भाग नहीं थे। हॉलस्टीन की जनता जर्मन जाति की थी, जबकि शलेसविग में आधे जर्मन और आधे डेन थे।19वीं सदी में अन्य देशों की तरह डेनमार्क में भी राष्ट्रीयता की लहर फैली, जिससे प्रभावित होकर डेन देशभक्तों ने देश के एकीकरण का प्रयत्न किया। वे चाहते थे कि उक्त दोनों राज्यों को डेनमार्क में शामिल कर उसकी शक्ति को सुदृढ़ कर लिया जाए। फलस्वरूप 1863 ई. में डेनमार्क के शासक क्रिश्चियन दशम् ने उक्त प्रदेशों को अपने राज्य में शामिल करने की घोषणा कर दी। उसका यह कायर् 1852 ई. में संपन्न लंदन समझौते के विरूद्ध था, इसीलिए जमर्न राज्यों ने इसका विरोध किया। उन्होंने यह मांग की कि इन प्रदेशों को डेनमार्क के अधिकार से मुक्त किया जाए। प्रशा ने भी डेनमार्क की इस नीति का विरोध किया।
बिस्मार्क ने सोचा कि डेनमार्क के खिलाफ युद्ध करने का यह
अनुकूल अवसर है। वह इन प्रदेशों पर प्रशा का अधिकार स्थापित करने का इच्छुक था। इस कार्य को
वह अकेले न कर आस्ट्रिया के सहयोग से पूरा करना चाहता था, ताकि प्रशा के खिलाफ कोई विपरीत
प्रतिक्रिया न हो। आस्ट्रिया ने भी इस कार्य में प्रशा का सहयोग करना उचित समझा। इसका कारण यह
था कि यदि प्रशा इस मामले में अकेले हस्तक्षेप करता तो जर्मनी में ऑस्ट्रिया का प्रभाव कम हो जाता।
इसके अतिरिक्त वह 1852 ई. के लंदन समझौते का पूर्ण रूप से पालन करना चाहता था। इस प्रकार
प्रशा और ऑस्ट्रिया दोनों ने सम्मिलित रूप से डेनमार्क के खिलाफ सैनिक कार्यवाही करने का निश्चय
किया। फलस्वरूप 1864 ई. में उन्होंने डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया। डेनमार्क पराजित हो गया और
उसने आक्रमणकारियों के साथ एक समझौता किया। इसके अनुसार उसे शलेसविग और हॉलस्टील के
साथ-साथ लायनबुर्ग के अधिकार से भी वंचित होना पड़ा।
2. ऑस्ट्रिया-प्रशिया युद्ध
वास्तव में बिस्मार्क की इच्छा ऑस्ट्रिया को युद्ध में परास्त कर उसे जर्मन संघ से बहिष्कृत करना था। इस दिशा में उसने तैयारी करनी आरंभ कर दी थी पर यह कार्य सरल न था, क्योंकि ऑस्ट्रिया यूरोप का एक महत्वपूर्ण राज्य था और उस पर आक्रमण करने से अंतर्राश्ट्रीय संबंधों पर असर पड़ सकता था। अत: ऑस्ट्रिया के खिलाफ सैनिक कार्यवाही करने के पूर्व बिस्मार्क अन्य राज्यों की मंशा जान लेना चाहता था। इस प्रकार युद्ध के पूर्व उसने कूटनीतिक चाल द्वारा अन्य राज्यों की संभावित प्रतिक्रिया को समझ लेना आवश्यक समझा। गे्रटब्रिटेन के इस युद्ध में हस्तक्षेप करने की संभावना न थी, क्योंकि वह एकाकीपन की नीति पर चल रहा था। रूस बिस्मार्क का मित्र था। उसने फ्रांस को लालच देकर युद्ध में तटस्थ रहने का आश्वासन प्राप्त कर लिया। नेपोलियन तृतीय ने तटस्थ रहना राष्ट्रीय हित में उचित समझा। उसने यह सोचा कि ऑस्ट्रिया और प्रशा के युद्धों से उनकी शक्ति क्षीण होगी और उस स्थिति से फ्रांस को विकास करने का अवसर प्राप्त होगा।1866 ई. में प्रशा और इटली के
बीच संधि हो गयी, जिसके अनुसार इटली ने युद्ध में प्रशा का साथ देने का आश्वासन दिया। इसके
बदले बिस्मार्क ने युद्ध में सफल होने के पश्चात इटली को वेनेशिया देने का वचन दिया। इस संधि की
सूचना पाकर ऑस्ट्रिया बड़ा चिंतित हुआ। अब ऑस्ट्रिया और प्रशा की सैनिक तैयारियाँ तीव्र गति से
चलने लगीं। इस प्रकार प्रशा और ऑस्ट्रिया के बीच युद्ध की स्थिति निर्मित हो गयी। अब युद्ध के लिए
केवल अवसर ढढूंने की आवश्यकता थी। ॉलेसविग और हॉलस्टीन संबधी समझौते में युद्ध के कारणों
को ढूँढ़ निकालना कोई कठिन कार्य न था। 1866 ई. में प्रशा को यह अवसर प्राप्त हुआ और उसने
ऑस्ट्रिया के खिलाफ युद्ध घोशित कर दिया। इटली प्रशा का साथ दे रहा था। यह युद्ध सेडोवा के
मैदान में दोनो के बीच सात सप्ताह तक चला, जिसमें ऑस्ट्रिया पराजित हुआ। इस युद्ध की समाप्ति
प्राग की संधि द्वारा हुई, जिसकी शर्तें इस प्रकार थीं-
फ्रांस के राश्ट्रपति नेपोलियन तृतीय ने अपनी गिरती हुई प्रतिश्ठा को पुन: जीवित करने के लिए फ्रासं की सीमा को राइन-नदी तक विस्तृत करने का विचार किया, किन्तु वह इस कार्य में सफल नहीं हो सका। बिस्मार्क अपनी कूटनीतिक चालों द्वारा फ्रांस की हर इच्छा को असफल करता रहा। नेपालियन ने हॉलैण्ड से लक्जेमबर्ग लेना चाहा, पर बिस्मार्क के विरोध के कारण वह संभव न हो सका। इसमें दोनों के बीच कटुता की भावना निर्मित हो गयी। फ्रांस समझता था कि प्रशा के उत्कर्श के कारण उसकी स्थिति नाजुक हो गयी है। उधर प्रशा भी फ्रांस को अपने मार्ग का बाधक मानता था।
- ऑस्ट्रिया के नेतृत्व में जो जर्मन-संघ बना था, वह समाप्त कर दिया गया।
- शलेसविग और हॉलस्टीन प्रशा को दे दिये गये।
- दक्षिण के जर्मन-राज्यों की स्वतंत्रता को मान लिया गया।
- वेनेशिया का प्रदेश इटली को दे दिया गया।
- ऑस्ट्रिया को युद्ध का हरजाना देना पड़ा।
3. फ्रेंको पर्शियन युद्ध
जर्मनी के एकीकरण के लिए बिस्मार्क ने फ्रासं से अंतिम युद्ध किया, क्योंकि उसे पराजित किये बिना दक्षिण के चार जर्मन राज्यों को जर्मन संघ में शामिल करना असंभव था। उधर फ्रासं ऑस्ट्रिया के विरूद्ध प्रशा की विजय से अपने को अपमानित महसूस कर रहा था। उसका विचार था कि दोनों के बीच चलने वाला युद्ध दीघर्क ालीन होगा किन्तु आशा के विपरीत यह युद्ध जल्दी समाप्त हो गया, जिसमें प्रशा को सफलता मिली।फ्रांस के राश्ट्रपति नेपोलियन तृतीय ने अपनी गिरती हुई प्रतिश्ठा को पुन: जीवित करने के लिए फ्रासं की सीमा को राइन-नदी तक विस्तृत करने का विचार किया, किन्तु वह इस कार्य में सफल नहीं हो सका। बिस्मार्क अपनी कूटनीतिक चालों द्वारा फ्रांस की हर इच्छा को असफल करता रहा। नेपालियन ने हॉलैण्ड से लक्जेमबर्ग लेना चाहा, पर बिस्मार्क के विरोध के कारण वह संभव न हो सका। इसमें दोनों के बीच कटुता की भावना निर्मित हो गयी। फ्रांस समझता था कि प्रशा के उत्कर्श के कारण उसकी स्थिति नाजुक हो गयी है। उधर प्रशा भी फ्रांस को अपने मार्ग का बाधक मानता था।
फलस्वरूप
दोनों देशों के अखबार एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलने लगे। एसेी स्थिति में दोनों के बीच युद्ध
आवश्यक प्रतीत होने लगा।
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