नारीवाद क्या है || नारीवाद का इतिहास

नारीवाद क्या है

नारीवाद एक आन्दोलन है। यह महिलाओं की हीन प्रस्थिति पर सवाल खड़े करता है। यह आन्दोलन की माँग करता है कि पुरुषों और महिलाओं की प्रस्थिति एक समान हो। यह एक विचारधारा भी है जो महिलाओं को सशक्तीकृत करने की दिशा में कार्य करती है। यह एक सामूहिक चेतना है। 

नारीवादी (फेमिनिस्ट)’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1871 में फ्रांस में चिकित्सकीय पुस्तकों में किया गया था। नारीवाद को उन आन्दोलनों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है, जो विभिन्न ऐतिहासिक अवधियों में उभरे। नारीवाद की पहली लहर की अवधि उन्नीसवीं शताब्दी का भूतपूर्व और बीसवीं शताब्दी का पूर्व थी। उस अवधि के दौरान महिलाओं को मताधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया गया था। 

नारीवाद की दूसरी लहर की गतिविधियाँ 1960 और 1970 के दशकों में मौजूद थी। इसमें लोगों ने महिलाओं के लिए परिवार में, कार्यस्थल पर और सेक्सुअलिटी के सन्दर्भ में पुरुषों के समान अधिकारों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। 

1990 के दशक के प्रारम्भ में नारीवाद की तीसरी लहर शुरू हुई और यह अब तक जारी है।

नारीवाद का इतिहास

पाश्चात्य नारीवादी विद्वान मैगी हॅुंम्म और रिबेका वालकर के अनुसार नारीवादी इतिहास को तीन कालखण्डों में बांटा जा सकता है। पहला कालखण्ड 19वी सदी से 20वी सदी के प्रारंभ तक । दूसरा कालखण्ड 1960 से 1970 तक तथा तीसरा कालखण्ड 1990 से वर्तमान तक। नारीवाद के इतिहास का उदय इन तीनों कालखण्डों के दौरान हुये नारीवादी आन्दोलनों से हुआ है ।

20वी सदी का प्रभातकाल नारी में आये जबरदस्त परिवर्तन का साक्षी रहा है । इस परिवर्तन ने समाज में नारी की स्थिति को घरेलू वातावरण से लेकर सार्वजनिक जीवन तक के समस्त पहलुओं को प्रभावित किया । नारीवादी आन्दोलन की समान अधिकारों के प्रति वकालत, नारीवादी संस्थाओं, नई पीढ़ी के कलाकारों, नारीवादी बुद्धिजीवियों तथा कामकाजी महिलाओं ने सम्पूर्ण विश्व की परंपरागत समाजिक संरचना को रूपांतरित कर दिया । प्रथम महायुद्ध के पश्चात का काल महिलाओं के लिए एक नई सुबह लेकर आया । 

इस काल में महिलायें एक महान कार्यबल के रूप में उभरकर सामने आई, जिसने पुरुष प्रधान वैश्विक आर्थिक ढांचे को हिलाकर रख दिया । यह वह काल था जिसमें घर व समाज में नारी की भूमिका में क्रान्तिकारी बदलाव आये । इसके पूर्व 19वी सदी के अंत में पश्चिमी विश्व में अनेक नारीवादी आन्दोलन हुये जो कि महिलाओं के लिए राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहें थे । यह आन्दोलन विशेष कर अमेरिका और इंग्लैण्ड में हुये ।

20वी सदी में पश्चिम के नारीवादी आन्दोलनों के बीच सर्वाधिक महत्वपूर्ण आन्दोलन अमेरिका में हुये इन आन्दोलनों ने ही आधुनिक युग में कमोवेश सम्पूर्ण विश्व की महिलाओं को प्रभावित किया और इन आन्दोलनों से प्रेरित होकर अन्य महिला आन्दोलन प्रारंभ हुये । अमेरिका में आन्दोलन वास्तव में समाजिक - राजनीतिक आन्दोलन था जो समाज में नारी की समानता को स्थापित करने का प्रयास कर रहा था । 20वी सदी के प्रथम दो दशकों के दौरान नारीवादियों का मुख्य लक्ष्य महिलाओं के लिये मताधिकार प्राप्त करने का था और वह इसमें सफल भी रहा। 1920 में अमेरिका के संविधान में संशोधन करके महिला मताधिकार को सुरक्षित किया गया। 

20वी सदी के उत्रार्द्ध में महिलाओं के लिए समान अधिकारों हेतु संघर्ष चलाया गया। यह संघर्ष तुलनात्मक रूप से लम्बा चला और यद्यपि 1970 तक समान अधिकार संशोधन को संवैधानिक स्वीकृति नहीं मिल पायी तथापि यह आन्दोलन पश्चातवर्ती नारीवादियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बना रहा और इसने राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खिंचा।

1917 से 1960 तक कालखण्ड दो महायुद्वों के साथ-साथ आर्थिक तेजी का दौर था । जिसने विश्व के अनेक देशों की महिलाओं को कार्य स्थल पर जाने के लिए प्रेरित किया । इसका प्रभाव यह हुआ कि इन कार्यस्थलों पर कामकाज करनेवाली महिलाओं में अपने असमान समाजिक और आर्थिक अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ी । 1960 के नागरिक अधिकार आन्दोलन एवं छात्र आन्दोलनों के लक्ष्य अलग-अलग थे किन्तु इन्होने के अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को अपने अधिकारों के लिये लड़ाई लड़ने के प्रेरित किया। 1966 में राष्ट्रीय महिला संगठन (National Organization For Women) की स्थापना की गई । यह प्रथम ऐसी संस्था थी जो अधिकृत रूप से महिलाओं से संबंधित मुद्दों का प्रतिनिधित्व करती थी । इस संस्था के पश्चात अन्य संस्थायें जैसे राष्ट्रीय गर्भपात एवं प्रजनन अधिकार लीग (National Abortion & Reproductive Rights Action League), नारी समानता लीग (Women’s Equity Action League), महिला रोजगार संगठन (Women Organization For Employment) आदि संस्थायें अस्तित्व में आई जिन्होने ने अमेरिकी समाज का महिलाओं की समस्याओं के प्रति ध्यान आकर्षित किया । 

नारीवादी नेता जैसे फ्रेडन, बेला एब्जग, शिर्ले किसॉल्म, और ग्लोरिया स्टीनेम आदि के सतत प्रयासों के बाद आखिरकार 1975 में राष्ट्रपति गेराल्ड फोर्ड के समक्ष महिला एजेण्डा (Women Agenda) प्रस्तुत किया गया । 1977 में नारीवादियों ने हॉस्टन नगर में एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया और महिलाओं से संबंधित मुद्दों के समाधान के लिए एक कार्य योजना तैयार की ।

1980 के दशक में नारीवादी आन्दोलन को अमेरिका एवं पाश्चात्व विश्व में कुछ अन्तरविरोधों का सामना करना पड़ा। नारीवादी आन्दोलन पर श्पाश्चात्य श्वेत महिलाओं के प्रभुत्वश् के लिए इसकी आलोचना की गई । इसकी असफलता के लिये इसके उच्चवर्गीय स्वरूप और गरीब अफ्रो-अमेरिकन, हिस्पेनिक महिलाओं की अवहेलना को उत्तरदायी ठहराया गया। लेकिन अनेक विरोधाभासों के बावजूद नारीवादी आन्दोलन पश्चिमी देशों में एक प्रधान राजनैतिक घटना क्रम बना रहा। 1990 के दशक के बाद निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि समाज में नारी की स्थिति में विज्ञान, राजनीति, लेखन कला, मनोरंजन आदि के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन आयें है और पश्चिम की महिलाओं ने अपने आपको फिर से परिभाषित किया है ।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक परिस्थितियों और मूल्यों ने महिलाओं के मुद्दों को पश्चिमी देशों के सापेक्ष अलग ढंग से प्रस्तुत किया । प्राचीन भारत ने मातृ-सत्तात्मक परिवार की संस्कृति रही है और धार्मिक साहित्य भी भारतीय समाज में नारी की स्थिति के महत्व को रेखांकित करते हैं । लेकिन सहीं मायनों में नारीवादी आन्दोलन का प्रथम चरण 1850 से 1915 के बीच माना जा सकता है जबकि उपनिवेशी शासन की जड़े भारत में मजबूत हुई । उपनिवेशी शासन के आगमन के साथ ही प्रजातंत्र, समानता और व्यक्तिगत अधिकारों की अवधारणा को बल प्राप्त हुआ। राष्ट्रवाद और भेदभावपूर्ण परंपराओं के आत्मविश्लेषण ने जाति व्यवस्था और लैंगिक समानता संबंधी सामाजिक सुधारों के आन्दोलन को जन्म दिया । 

भारत में प्रथम चरण के नारीवादी आन्दोलन को पुरूषो (जैसे की राजाराम मोहन राय ) ने प्रारंभ किया । इस आन्दोलन के केन्द्र में सती प्रथा, विधवा विवाह, महिला साक्षरता, महिला संपत्ति अधिकार आदि ऐसे मुद्दे थे जिनका कानूनी तौर पर समाधान करने के प्रयास किये गये ।

नारीवादी आन्दोलन का दूसरा चरण 1915 से 1947 तक माना जा सकता है । जबकि संपूर्ण देश में उपनिवेशी श्शासन के विरूद्व संघर्ष का वातारण बन गया था । गांधी जी ने महिलाओं की भूमिका को घरेलू एवं पारिवारिक परिवेश से आगे निकाल कर राष्ट्रीय आन्दोलन में समायोजित किया । इस चरण में्र महिलाओं की समस्या से संबंधित विभिन्न संस्थायें जैसे:- अखिल भारतीय महिला कांफ्रेस और भारतीय महिला राष्ट्रीय परिसंघ आदि संस्थाओं का उदय हुआ। इस काल में नारीवादी आन्दोलन के केन्द्र में, राजनीति में महिलाओं की भागीदारी, महिला मताधिकार, कम्युनल अवार्ड, और राजनीतिक पार्टी में नेतृत्व भूमिका आदि मुद्दे थे । 

राष्ट्रवादी आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी ने उन्हे स्वतंत्र भारत में अपने अधिकारों के भविष्य के प्रति सचेत किया । आगे चलकर इस तथ्य ने संविधान में महिलाओं के लिए मताधिकार, नागरिक अधिकार, समान वेतन, स्वास्थ्य एवं शिशु देखभाल आदि से संबंधित रक्षोपाय निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । 

यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि भारतीय महिलाओं को अपने अधिकारों के कानूनी संरक्षण के लिए वो संघर्ष नहीं करना पड़ा जो पश्चिमी देशों की महिलाओं ने किया। यह बात अलग है कि विशिष्ट सामाजिक संरचना और परम्पराओं के चलते अभी भी महिलाअें के प्रजातांत्रिक अधिकारों को व्यावहारिक मान्यता अपेक्षानुरूप नहीं मिल पायी है । संपूर्ण विश्व में नारीवाद की नवीन तरंग के बीच 1974 से लेकर आगे तक के समय काल को भारत में नारीवादी आन्दोलन का तीसरा चरण कहा जा सकता है । इस काल में इन्दिरा गांधी जैसी लौह-महिला का भारतीय राजनीति में पदार्पण हुआ । इस काल में नारीवाद ने अपने परंपरागत स्वरूप को त्यागा और एक नवीन आयाम में उभरकर सामने आया । 

इस काल में महिलाओं ने अपनी स्थिति को बदले हुये गर्भपात ,यौन उत्पीड़न, दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, प्रजनन अधिकार, लैंगिक स्वतंत्रता, वेश्यावृत्ति, समान वेतन, विवाह विच्छेद, शिक्षा आदि अधिकारों के लिए संघर्ष किया और इसमें काफी हद तक सफलता भी प्राप्त की । स्वतंत्र भारत में मेधा पाटकर, मधु किश्वर, वृंदा करात, अमृता प्रीतम, कुसुम अंसल, किरण बेदी, आदि अनेक ऐसी महिलायें हैं जिन्होंने भारतीय महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को आगे बढ़ाया है और महिलाओं के लिए रोल मॉडल बनकर उभरी हैं । वर्तमान में समलैंगिकता और राजनेैतिक आरक्षण ऐसे प्रमुख मुद्दे है जो कि नई पीढ़ी के नारीवादियों के लिए चुनौती के रूप में देखे जा सकतें है ।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

Post a Comment

Previous Post Next Post