प्रथम विश्व युद्ध की कहानी (कारण और परिणाम)

बोस्निया की राजधानी सराजेबो में आस्ट्रियन राजकुमार फ्रांसिस फर्डीनिण्ड की पत्नी सहित हत्या के कारण आस्ट्रिया ने 28 जुलाई, 1914 ई. को सर्बिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। धीरे-धीरे यूरोप के देश इस युद्ध में शामिल होते गये और प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में एक ओर मित्र राष्ट्र (इंग्लैण्ड, फ्रांस एवं अमेरिका) थे तो दूसरी ओर जर्मनी के नेतृत्व में केन्द्रिय शक्तियाँ थीं। युद्ध के प्रारंभ के समय अमेरिका तटस्थ था मगर जब जर्मनी ने अमेरिका के जहाजों को पनडुब्बियों द्वारा डुबाया तो अमेरिका भी जर्मनी के विरूद्ध मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में शामिल हो गया। अमेरिका के मित्र राष्ट्रों के साथ आने से उनकी स्थिति मजबूत हुई। जर्मनी एवं उसके साथी परास्त हुये। 1 नवम्बर, 1918 ई. को युद्ध विराम हो गया।

प्रथम विश्वयुद्ध का प्रारंभ 

28 जुलाई, 1914 ई. को आस्ट्रीया के सर्विया पर आक्रमण के साथ ही प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हो गया। 1 अगस्त, 1914 ई. को जर्मनी ने रूस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 3 अगस्त, 1914 ई. को जर्मनी ने फ्रांस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 4 अगस्त, 1914 ई. को इंग्लैण्ड ने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 4 अगस्त, 1914 ई. को ही अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने तटस्थ रहने की घोषणा की। 6 अप्रैल, 1917 ई. को अन्तत: अमेरिका ने भी मित्र राष्ट्रों के पक्ष में प्रथम विश्व युद्ध में प्रवेश किया। 

इस प्रकार 28 जुलाई, 1914 को प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हो गया। एक के बाद एक देश इस युद्ध में शामिल होते चले गये। प्रारंभिक दौर में जर्मनी एवं उसके साथियों ने मित्र राष्ट्रों को कई मोर्चो पर शिकस्त दी। अमेरिका के युद्ध में प्रवेश होते ही पासा पलट गया। अमेरिकी  मित्र देश जीतेते चले गये जर्मनी एवं उसके साथी परास्त हुये। 

अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन
अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन 

प्रथम विश्व के कारण

जर्मन सम्राट केसर विलियम द्वितीय की अव्यावहारिक विदेश नीति के कारण समस्त यूरोप 2 गुटों में विभाजित हो गया। इन गुटों के बीच बढ़ती प्रतिद्वन्द्विता, ईर्ष्या एवं अविश्वास ने विश्व को प्रथम विश्वयुद्ध की ज्वाला में झोंक दिया। दो गुटों से विभाजित यूरोप में कुछ देशों के मध्य अत्यधिक वैमनस्य की भावना व्याप्त थी। इंग्लैण्ड, जर्मनी की बढ़ती नौ-सेना एवं सैन्य शक्ति से चिन्तित था। फ्रांस जर्मनी से बदला लेना चाहता था। इटली, फ्रांस से नाराज था। बाल्कन क्षेत्र में सर्विया एवं आस्ट्रीया के मध्य अत्यधिक तनाव था। रूस सर्विया का समर्थन कर रहा था। जर्मनी आस्ट्रीया को समर्थन कर रहा था।

सर्विया एवं आस्ट्रीया के मध्य बाल्कन क्षेत्र में बढ़ता तनाव ही प्रथम विश्वयुद्ध का कारण बना। वैसे तो प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ के पीछे कई कारण विद्यमान थे मगर तात्कालिक कारण आस्ट्रीया के राजकुमार फ्रांसिस फर्डीनेण्ड की हत्या बना। आस्ट्रीया ने इस हत्या के लिये सर्विया को दोषी ठहराया। जर्मनी का वरदहस्त पाकर उसने सर्विया पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार 28 जुलाई, 1914 ई. को प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। प्रथम विश्वयुद्ध के प्रमुख कारण निम्नवत थे -

1. राष्ट्रीयता की उग्र भावना - युद्ध का आधारभूत कारण यूरोप के विभिन्न राज्यों में राष्ट्रीयता की भावना थी। कुछ समय के उपरांत इस भावना ने उग्र रूप धारण किया। इसके अंतर्गत राष्ट्रों ने अपनी प्रगति के लिये विशेष रूप से प्रयत्न करने आरंभ किये और उन्होंने अन्य राष्ट्रों के हितों, स्वार्थों तथा उनकी इच्छाओं की और तनिक भी ध्यान नहीं दिया।

2. यूरोप में गुटों की प्रतिद्वन्द्विता - यूरोप में एक के बाद एक गुट निर्मित हुए जिनका जन्मदाता विस्मार्क था। फ्रांस को मित्रहीन बनाये रखने के उद्देश्य से उसने फ्रांस विरोधी कई गुटबंदियाँ निर्मित की। फ्रांस एक तरफ गुटबंदियों से भयभीत था तो दूसरी तरफ वह मित्र पाने के लिये छटपटा रहा था। फ्रांस की मित्र पाने की लालसा इतनी तीव्र थी कि 1890 में विस्मार्क के इस्तीफा देते ही उसकी लालसा पूर्ण हो गई। जर्मन सम्राट विलियम द्वितीय ने रूस के प्रति बेरूखी दिखाई। 1890 में 1887 की जर्मन-रूस पुर्नाश्वासन की संधि को दुहराया जाना था मगर विलियम द्वितीय ने उसे नहीं दुहराया। परिणाम यह हुआ कि फ्रांस एवं रूस के मध्य 1893 ई. में द्विगुट का निर्माण हुआ।

जर्मनी के विलियम द्वितीय ने नौसेना में वृद्धि कर इंग्लैण्ड की नींद उड़ा दी। वह भी मित्र की तलाश में घूमने लगा। 1904 में इंग्लैण्ड ने फ्रांस से मैत्री संधि स्थापित की। इन दो संधियों ने ही 1907 ई. में त्रि-राष्ट्रीय संघ के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। यह संघ फ्रांस-रूस एवं इंग्लैण्ड के मध्य बना था। अब यूरोप में दो प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी गुट थे।
  1. 1882 ई. में निर्मित जर्मनी आस्ट्रिया इटली के मध्य निमित्र त्रिगुट 
  2. 1907 ई. में फ्रांस-इंग्लैण्ड-रूस के मध्य निर्मित त्रिराष्ट्र संघ
अब यूरोपीय राजनीति उक्त दो प्रतिद्वन्द्वी गुटों का शिकार हो गई। इन दोनों गुटों के मध्य अत्यन्त घृणा, ईर्ष्या, विद्वेष एवं सन्देह का वातावरण निर्मित हुआ। 1907 ई. में त्रिगुट एवं त्रिराष्ट्रसंघ एक-दूसरे के अगल-बगल में खड़े हुए थे, 1914 में वे एक-दूसरे के सामने आ गये। 1914 ई. में इन दोनों गुटों के मध्य प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हो गया।

3. बिस्मार्क की नीति - फ्रांस को परास्त कर बिस्मार्क ने फ्रांस के ही प्रदेशों एल्सास और लोरेन पर जर्मनी का अधिकार स्थापित किया था। फ्रांस जर्मनी से अपनी इस पराजय का प्रतिरोध लेना चाहता था। वह अपने खोये हुये प्रदेशों का पुन: प्राप्त करने की हार्दिक इच्छा रखता था। फ्रांस को असहाय बनाने के उद्देश्य से बिस्मार्क ने रूस, आस्ट्रिया और इटली से संधि की। जिसके परिणामस्वरूप उसकी स्थिति बहुत ही दृढ़ हो गई और फ्रांस को हर समय जर्मनी के आक्रमण का भय बना रहा।

4. रूस और फ्रांस की संधि - बिस्मार्क द्वारा सम्पन्न जमर्न -रूस संधि का अंत 1900 ई. में हो गया जिसका दोहराया जाना आवश्यक था किन्तु बिस्मार्क के पतन के बाद जर्मन-सम्राट विलियम द्वितीय ने उस संधि का दोहराना जर्मनी के लिये उपयोगी नहीं समझा। इससे रूस समझ गया कि जर्मनी उसकी अपेक्षा आस्ट्रिया की ओर अधिक आकर्षित है। रूस अकेला रह गया और उसका ध्यान फ्रांस की ओर गया। फ्रांस भी यूरोप में एक मित्र की खाजे में था। इसीलिए परिस्थिति से लाचार होकर उसने 1893 ई. में फ्रांस के साथ संधि की जिसने फ्रांस के अकेलेपन का अंत कर दिया और जर्मनी के विरूद्ध एक गुट का निर्माण हुआ।

5. फ्रांस और इंगलैंड की संधि - फ्रांस और इंगलैंड में पर्याप्त समय से औपनिवेशिक विषयों के संबंध में बड़ी खटास उत्पन्न हो गई थी। किन्तु बीसवीं शताब्दी के शुरुआत  में दोनों जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति से भयभीत होकर एक दूसरे की और आकर्षित हुये। 1904 ई. में दोनों के बीच एक समझौता हुआ जो एंगलो फ्रेचं आंता के नाम से विख्यात है। 1907 ई. में फ्रांस के विशेष प्रयत्नों के परिणामस्वरूप रूस भी इस समझौते में शामिल हो गया। और इस प्रकार 1907 ई. में जर्मनी के विरूद्ध इंगलैंड, रूस और फ्रांस का गुट बन गया। अत: यूरोप दो विरोधी गुटों में विभक्त हो गया।

6. कैसर विलियम द्वितीय की महत्वाकांक्षा - जर्मन सम्राट विलियम द्वितीय जर्मनी को संसार की संसार की श्रेष्ठ शक्ति बनाना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि जर्मनी केवल एक यूरोपीय शक्ति न रहकर अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति का रूप धारण करें। उसमें साम्राज्य विस्तार की भावना का उदय हुआ। अत: उसने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये भरसक प्रयत्न किया। किन्तु उसको इस दिशा में विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। क्योंकि जब जर्मनी इस क्षेत्र में अवतीर्ण हुआ उस समय इंगलैंड, फ्रांस अपने विशाल साम्राज्यों की स्थापना कर चुके थे। किन्तु जर्मनी ने फिर भी इस ओर कदम उठाया। जर्मनी की इस साम्राज्यवादी भावना के कारण ही कई बार यूरोपीय युद्ध की संभावना उत्पन्न हुई। 

उसने जर्मनी के राजकोष का अधिकांश धन सेना पर व्यय करना आरंभ किया। उसने बहुत बड़ा जहाजी बेड़ा तैयार करने की योजना बनाकर उसको कार्यान्वित करने का भरसक प्रयत्न किया। उसने कील नहर को गहरा करवाया जिससे बड़े-बड़े सामुद्रिक जहाज उस नहर में ठहर सकें। जर्मनी ने युद्ध-पोत का निर्माण करना भी आरंभ किया। इंगलैंड ने कई बार युद्ध-पोत तैयार न करने की जर्मनी-सम्राट से प्रार्थना की, किन्तु जर्मनी पर इसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा और वह अपना कार्य पूर्ववत् करता रहा। 

इसके कारण इंगलैंड और जर्मनी में दिन प्रतिदिन विरोध बढ़ने लगा और इस प्रकार जर्मनी-सम्राट की महत्वाकांक्षाओं से बाध्य होकर इंगलैंड को रूस और फ्रांस से इच्छा न होते हुये भी संधि करने पडी़ ।

7. अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों  को नियंत्रित करने वाली किसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का अभाव - 1914 के पूर्व के अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का विश्लेषण करने वाले कतिपय विद्वानों ने उस स्थिति को अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता की स्थिति बताया है। इस समय तक यूरोपीय रंगमंच पर लगभग 25 राष्ट्र थे, मगर इनकी नीतियों को नियंत्रित करने वाली कोई अन्तर्राष्ट्रीय संस्था नहीं थीं। इस अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के अभाव के कारण विभिन्न देश नैतिकता को ताक पर रखकर परस्पर विरोधी गुट बंदियां करते रहे। उदाहरण के लिए इटली एक ओर तो जर्मनी एवं आस्ट्रिया से मित्रता संधि कर चुका था दूसरी ओर उसने चुपचाप जर्मनी के प्रबल शत्रु फ्रांस के साथ गुप्त संधि की। अन्तरराष्ट्रीय संस्था के अभाव में विभिन्न देश इस प्रकार की गुप्त संधियों के मकड़जाल में उलझते चले गये। इन गुटबंदियों ने इन देशों को प्रथम विश्वयुद्ध के द्वार पर ले जाकर पटक दिया।

8. जर्मनी की पूर्वी नीति - जब जर्मनी अपने साम्राज्य की स्थापना करने में सब ओर से निराश हो गया तो उसका ध्यान पूर्व की ओर आकर्षित हुआ। उसने अपने साम्राज्य के विस्तार के अभिप्राय से इस मार्ग का अनुकरण किया। जर्मनी ने टर्की से मित्रता की और वहां अपने प्रभाव का विस्तार करना आरंभ किया। उसने बाल्कन प्रायद्वीप में आस्ट्रिया की नीति का समर्थन कर रूस की नीति का तथा वहां के राज्यों की राष्ट्रीयता की भावना का विरोध किया। जर्मनी ने टर्की के सुल्तान से बर्लिन-बगदाद रेलवे के निर्माण करने की अनुमति मांगी। 

इस रेलवे द्वारा इंगलैंड के भारतीय साम्राज्य के लिए भय उत्पन्न हुआ। इस रेलवे लाइन के निर्माण के लिये जर्मनी के लिये आस्ट्रिया की मित्रता अनिवार्य थी, क्योंकि यह रेलवे लाइन आस्ट्रिया और उसके प्रभाव क्षेत्र के प्रदेशों में से होकर जाती थी। इसी कारण जर्मनी सदा आस्ट्रिया से मित्रता रखने का इच्छुक रहा। 

इस रेलवे लाइन के निर्माण का विरोध यूरोप के अन्य राष्ट्रों ने किया। इसी उद्देश्य से जर्मनी आस्ट्रिया के प्रभाव क्षेत्र को बाल्कन आदि प्रदेशों में अधिक विस्तृत करना चाहता था।

9. सैन्यवाद - मेरियट महोदय ने सैन्यवाद को विश्वयुद्ध का एक प्रमुख कारण माना है। प्रोफेसर लैगसम के अनुसार ”एक सैन्यवादी राष्ट्र वह है जिसमें सैनिक शक्ति सिविल शासन के ऊपर हावी हो जाती है।“

1870 में फ्रांस के विरूद्ध प्रशा की सफलता देखकर यूरोपीय देश सैन्यवाद की तरफ अग्रसर हुए। सभी देश अपनी सैनिक व नौसैनिक शक्ति में वृद्धि करने लगे। रूस के जार ने शस्त्रीकरण पर प्रतिबंध लगाने के लिए हेग में एक सम्मेलन बुलाया मगर जर्मनी के विरोध के कारण शस्त्रीकरण को सीमित करने की योजनाएँ असफल हुई। सभी देशों में सैनिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। जर्मनी एवं फ्रांस ने अपनी राष्ट्रीय आय का 80 प्रतिशत सैन्य तैयारी में खर्च किया। प्रो. फे ने स्पष्ट किया है कि - ”ऐसा विश्वास किया जाता था कि शस्त्रीकरण आत्म सुरक्षा एवं शांति के लिए किया जा रहा था मगर वास्तविकता यह थी कि इससे देशों में संदेह, भय एवं घृणा का वातावरण निर्मित हुआ।

जर्मनी एवं फ्रांस को देखकर रूस, इंग्लैण्ड एवं अन्य देशों ने भी अस्त्र-शस्त्रों को एकत्रित करना प्रारंभ कर दिया। सैन्यवाद एवं शस्त्रीकरण की प्रवृत्ति के चलते हुए यूरोप के बड़े-बड़े राज्य दो परस्पर विरोधी एवं सुसज्जित युद्ध शिविरों में विभाजित हो गया। 1914 ई. में तक यूरोपीय राष्ट्रों के पास इतने अधिक अस्त्र-शस्त्र एकत्रित हो गये कि यह कहा जाने लगा कि सारा यूरोप गद्दों के स्थान पर अस्त्र-शस्त्रों पर ही सोता रहा।“

10. तात्कालिक कारण - आस्ट्रिया, हंगरी और सर्बिया में तनाव तो बोस्निया और हर्जेगोविना की समस्या के कारण ही था, लेकिन इसी बीच 28 जून, 1914 को आस्ट्रिया के राजकुमार ड्यूक पफर्डिनेण्ड की बोस्निया में कुछ क्रांतिकारियों के द्वारा हत्या कर दी गई। इस पर आस्ट्रिया ने जो सर्बिया पर आक्रमण करने के लिए किसी अवसर की ताक में था, इस हत्या का सारा दोष उसी पर लाद दिया और जर्मनी से सहायता का आश्वासन पाकर आस्ट्रिया ने सर्बिया को युद्ध की चुनौती दे दी। इधर सर्बिया को रूस से सहायता का आश्वासन मिल गया। फलतः उसने आस्ट्रिया की अनेक शर्तों को ठुकरा दिया। अतः 28 जुलाई 1914 को आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 

रूस ने सर्बिया का पक्ष लेते हुए अपनी सेना की लामबन्दी की घोषणा कर दी। दूसरी ओर जर्मनी ने आस्ट्रिया का पक्ष लेते हुए 1 अगस्त, 1914 को रूस के विरूद्ध  युद्ध की घोषणा कर दी। 

3 अगस्त, 1914 को जर्मनी ने फ्रांस के विरूद्ध  युद्ध की घोषणा कर दी। 4 अगस्त, 1914 को इंग्लैण्ड ने जर्मनी के विरूद्ध  युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध का भीषण वीभत्स दृश्य देखना पड़ा

प्रथम विश्व युद्ध के कारण
प्रथम विश्व युद्ध 

प्रथम विश्व युद्ध की घटनाएं

आस्ट्रिया के सर्विया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा करते ही क्रमशः एक के बाद एक देश प्रथम महायुद्ध में शामिल होते चले गये। वस्तुतः पूर्व की संधियों के कारण ये देश एक दूसरे से वचनबद्ध थे किसी एक देश के युद्ध में शामिल होने पर दूसरे मित्र को पूर्व संधि के तहत युद्ध में प्रवेश करना ही था।

युद्ध के पूर्व ही विश्व 2 भागों में विभाजित था। प्रथम गुट त्रिगुट था जिसका नेता जर्मनी था। अतः इस गुट को हम घटनाक्रम के दौरान केन्द्रिय शक्तियाँकह कर संबोधित करेंगे। दूसरे गुट में इंग्लैण्ड-फ्रांस एवं रूस थे अतः इन्हें हम मित्र-राष्ट्र कहकर संबोधित करेंगे।

28 जुलाई, 1914 को आस्ट्रिया ने सर्विया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 29 जुलाई, 1914 को सोजोनोव और सैनिक गुट ने जार से आस्ट्रिया एवं जर्मनी के विरूद्ध सेना के कूच करने के आदेश पर हस्ताक्षर का आग्रह किया। 30 जुलाई, 1914 को जार निकोलस ने सेना के लामबंदी के आदेश जारी कर दिये। जार की कार्यवाही से स्थिति जटिल हो गई। जार के आदेश के क्रियान्वयन का समाचार मिलते ही जर्मनी के केसर विलियम ने रूस को 12 घण्टे में सेना लामबंदी रोकने की चेतावनी दी। 3 अगस्त, 1914 को जर्मनी ने फ्रांस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

त्रिगुट के दो सदस्य जर्मनी एवं आस्ट्रिया व्यापक युद्ध में सम्मिलित हो गए थे। इंग्लैण्ड का भी युद्ध से अलग रहना संभव नहीं था। यथार्थ में 29 जुलाई, 1914 को सर एडवर्ड ग्रे ने जर्मनी के राजदूत को मैत्रीपूर्ण एवं व्यक्तिगत चेतावनी दी थी कि यदि वेल्जियम को युद्ध में खींचा जाता है तो इंग्लैण्ड भी युद्ध में प्रवेश करेगा। लेकिन जर्मनी द्वारा वेल्जियम पर आक्रमण करने से ब्रिटेन को म्यान से तलवार निकालने का अवसर मिल गया। सन 1839 को ब्रिटेन ने अन्य महाशक्तियों के साथ वेल्जियम की तटस्थता सुनिश्चित करने की संधि की थी। 4 अगस्त, 1914 को जर्मनी को वेल्जियम की तटस्थता का सम्मान करने के लिए अन्तिम चेतावनी दी गई। जर्मनी का कोई उत्तर न मिलने पर जर्मनी तथा ब्रिटेन परस्पर शत्रु बन गए।

1. रूस का युद्ध में सम्मिलित होना - इस बार भी रूस ने सदा के समान सर्बिया का पक्ष लिया। रूस की यह हार्दिक इच्छा थी कि जिस प्रकार पूर्व में बाल्कन प्रायद्वीप की समस्या का समाधान सम्मेलनों द्वारा किया जाता रहा है उसी समय इस बार भी समस्त यूरोपीय राज्यों के सम्मेलन में इस प्रश्न का समाधान किया जाये, किन्तु जब उसने देखा कि आस्ट्रिया सर्बिया के राज्य की शक्ति का अंत करने पर कटिबद्ध है तो उसने सैनिक तैयारी करने के उपरांत रूसी सेना को सामान्य कूच करने का आदेश दिया। 

उसने सर्बिया की सहायता एवं रक्षा के अभिप्राय से बाल्कन प्रायद्वीप में अपनी सेना भेजी। इस प्रकार उसने आस्ट्रिया के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही की।

2. जर्मनी का युद्ध में सम्मिलित होना - जर्मनी ने वेल्जियम पर आक्रमण कर दिया। लीग और नमूर में वेल्जियम की सेना परास्त हो गई। जर्मनी की सेना फ्रांस तथा ब्रिटेन की सेना को पीछे हटाते हुए फ्रांस वेल्जियम सीमा की ओर आगे बढ़ी, मित्र राष्ट्रों की सेनाएं हट गई और केन्द्रीय शक्तियों का प्रभुत्व हो गया। इसी अवधि में फ्रांस ने अल्साम एवं लारेंस पर असफल आक्रमण किया। जर्मन सेनाएं पेरिस की ओर बढ़ती हुई मार्ने नदी से आगे पहुँच गई। मित्र राष्ट्रों के लिए स्थिति अत्यन्त जटिल हो गई थी लेकिन जनरल फौच के नेतृत्व में सेना ने जर्मन सेनाओं को अस्त-व्यस्त कर भारी हानि पहुँचाई। जनरल कोच ने ब्रिटिश सेना की सहायता से अवसर का लाभ उठाते हुए जर्मन सेना को मार्ने नदी से एथने नदी की उत्तर दिशा में वापस जाने के लिए बाध्य कर दिया।

अब जर्मन सेना ने एशने नदी के तट पर पढ़ाव डाला तथा फ्रांसीसी सेनाओं के समस्त आक्रमणों को असफल कर दिया। तदुपरांत दोनों देशों की सेनाओं ने स्विटजरलैण्ड से उत्तरी सागर तक के विस्तृत क्षेत्र में 4 वर्षों तक भीषण युद्ध किया।

पूर्वी मोर्चा - रूसी सेना ने पूर्वी प्रशा पर आक्रमण किया लेकिन तन्नाबर्ग के स्थान पर हिन्डेन वर्ग ने रूसी सेना को पराजित किया और जर्मनी की सीमा से बाहर निकाल दिया। रूस की सेना को आस्ट्रिया के विरूद्ध अपेक्षाकृत अधिक सफलता मिली थी। रूस ने गैलेसिया को ध्वस्त किया। बाद में जर्मनी ने रूसी सेना को गैलेसिया से खदेड़ दिया और वारसा पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया।

इटली त्रिराष्ट्र संधि द्वारा जर्मनी से बधा हुआ था। मगर वह श्रगाल्ड नीति का परिचय देते हुए 1915 ई. में मित्र राष्ट्रों के गुट में शामिल हो गया। वह आस्ट्रिया से अपने छीने हुए प्रदेश पुनः प्राप्त करना चाहता था।

डार्डेनल्स में युद्ध - जर्मनी तुर्की को मित्र राष्ट्रों के विरूद्ध युद्ध में शामिल करना चाहता था। तुर्की ने डार्डेनल्स पर आधिपत्य कर रूस एवं मित्र राष्ट्रों के बीच संचार प्रणाली ठप्प कर दी। इस स्थिति में इंग्लैण्ड एवं द्रासे ने संयुक्त रूप से डार्डेनल्स पर नियंत्रण करने का असफल प्रयास किया। गैलीपोली प्रायद्वीप में ब्रिटिश को करारी हार का सामना करना पड़ा। 1915 के जर्मन आस्ट्रिया ने सर्विया को पूर्णतः परास्त किया। टाउनशैड के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना को तुर्की के समक्ष आत्म समर्पण हेतु बाध्य होना पड़ा। परन्तु बाद में जनरल माॅड ने तुर्को से बगदाद प्राप्त कर लिया। 1915 का वर्ष मित्र राष्ट्रों के लिए हानिकारक रहा।

वर्ष 1916 - 1916 ई. में जर्मनी ने फ्रांस पर तीव्र गति से आक्रमण किया। बाद में फ्रांस एवं इंग्लैण्ड ने संयुक्त रूप से जर्मनी पर आक्रमण किया।

नौसैनिक युद्ध - नौसैनिक युद्ध में ब्रिटिश सेना को अधिक सफलता मिली। जर्मनी उसकी नौसेना का मुकाबला न कर सका। इसी कारण उसने यू वोंट पनडुब्बी द्वारा जहाज डुबाने की नीति अपनाई।

वर्ष 1917 की गतिविधियाँ - वर्ष 1917 में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए -
  1. अमेरिका का 2 अप्रेल, 1917 में युद्ध में प्रवेश।
  2. 1917 की रूसी क्रांति।
जार के अपदस्थ होने पर सत्ता वोल्शेविक दल के हाथों में आ गई। इन्होंने युद्ध विराम संधि पर हस्ताक्षर किये।

लिटोवस्क की संंधि (3 मार्च 1918) - इस संधि द्वारा रूस युद्ध से पृथक हो गया। रूस ने जर्मनी को पोलैण्ड एवं वाल्टिक प्रान्तों सहित समग्र पश्चिमी प्रान्त दे दिये। इस प्रकार जर्मनी ने अपनी पूरी सेना पश्चिमी मोर्चे पर स्थानान्तरित कर दी।

मित्र राष्ट्रों के साथ से रूस हट गया मगर इसमें पहले ही अमेरिका युद्ध में प्रवेश कर चुका था इससे मित्र राष्ट्रों की स्थिति सुदृढ़ हुई। जर्मनी का समर्थन प्राप्त करने के उपरांत ही आस्ट्रिया ने सर्बिया के प्रति कठोर नीति अपनाई। जर्मनी की हार्दिक इच्छा थी कि आस्ट्रिया और सर्बिया के मध्य का युद्ध स्थालीय क्षेत्र तक ही सीमित रहे, किन्तु जब उसने यह देखा कि रूस ने तैयारी करके सामान्य कचूं का आदेश अपनी सेनाओं को दिया, तो उसने रूस से और सर्बिया से अपनी सेनाओं को हटा लेने के लिये कहा, किन्तु रूस ने जर्मनी की इस प्रार्थना पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। 

इस समय जर्मनी और आस्ट्रिया में संधि थी और उसके परिणामस्वरूप उसको आस्ट्रिया को सहायता करना अनिवार्य था। जर्मनी ने रूस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार यह युद्ध जर्मनी और रूस के मध्य हो गया।

3. फ्रांस का युद्ध में सम्मिलित होना - दूसरी ओर फ्रांस और रूस का द्विगुट था। रूस को पूर्ण विश्वास था कि जर्मनी के विरूद्ध फ्रांस उसकी सहायता को उद्यत होगा। जब जर्मनी ने रूस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की तो फ्रांस ने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

प्रथम विश्व युद्ध के कारण
प्रथम विश्व युद्ध 

4. इंगलैंड का युद्ध में सम्मिलित होना - अभी तक इंगलैंड इस दिशा में प्रयत्नशील था कि वह पारस्परिक समझौते द्वारा यूरोप में शांति की स्थापना करे, किन्तु इसी समय जर्मनी ने लूक्जम्बर्ग पर अधिकार कर बेल्जियम से अपनी सेना के लिये फ्रांस पर आक्रमण करने के लिए मार्ग मांगा, पर जर्मनी ने तनिक भी ध्यान नहीं दिया और अपनी सेनाओं को बेल्जियम में प्रवेश करने की आज्ञा दी। इस घटना के होते ही 4 अगस्त 1914 ई. को इंगलैंड ने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

5. अन्य देशों का युद्ध में सम्मिलित होना - कुछ समय पश्चात निम्न राज्यों ने युद्ध में सक्रिय भाग लिया-
  1. जापान ने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 
  2. नवम्बर 1914 ई. में टर्की जर्मनी और आस्ट्रिया का सहायक बनकर युद्ध-क्षेत्र में कूद पड़ा। 
  3. कुछ समय तक इटली युद्ध में सम्मिलित नहीं हुआ, यद्यपि वह त्रिराष्ट्र गुट का सदस्य था। वह यह कहकर तटस्थ रहा कि जर्मनी और आस्ट्रिया सुरक्षा के लिये युद्ध नहीं कर रहे थे। बाद में मई 1914 ई. में वह इस पक्ष के विरूद्ध इंगलैंड, फ्रांस और रूस का सहायक बनकर युद्ध में प्रविष्ट हुआ। इसका प्रमुख कारण यह था कि वह आस्ट्रिया से अपने कुछ प्रदेश वापिस लेना चाहता था तथा अप्रैल 1915 ई. में मित्र राष्ट्रों से उसने लंदन की संधि की। वास्तव में वह उसमें सम्मिलित होना चाहता था जिसकी विजय अवश्यम्भावी हो।
  4. 1917 ई. में जर्मनी और आस्ट्रिया के विरूद्ध संयुक्त राज्य अमेरिका युद्ध में सम्मिलित हुआ। युद्ध के मध्य में अमेरिका ने जर्मनी से प्रार्थना की कि वह युद्ध-पोतों का प्रयोग स्थगित करे, किन्तु जर्मनी ने उसकी प्रार्थना की और तनिक भी ध्यान नहीं दिया, जिससे बाध्य होकर संयुक्त राज्य अमेरिका युद्ध में सम्मिलित हुआ। 
  5. 1915 ई. में बल्गारिया ने भी जर्मनी और आस्ट्रिया का समर्थक बनकर युद्ध में प्रवेश किया। 
  6. मोन्टीनीग्रो ने सर्बिया का पक्ष लेकर आस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की।
  7. संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रवेश करने के कुछ ही महीनों बाद मध्य तथा दक्षिणी अमेरिका के कई राज्य तथा स्याम, लिबिया तथा चीन भी मित्र राष्ट्रों की और से युद्ध में सम्मिलित हुए। इन सब राष्ट्रों के सम्मिलित होने से प्राय: समस्त संसार मित्र राष्ट्रों की ओर गया और युद्ध ने वस्तुत: विश्व युद्ध का रूप धारण किया।
6. वर्ष 1918 की गतिविधियाँ - अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने अपनी 14 सूत्रीय शांति योजना जारी की। 14 सूत्रीय कार्यक्रम की लाखों प्रतियाँ जर्मनी एवं सहयोगी देशों में बाँटी गयी। अप्रैल, 1918 मित्र राष्ट्रों की संयुक्त कमान मार्शल फौच ने संभाली। सितम्बर, 1908 तक केन्द्रीय शक्तियाँ परास्त होती चली गई। जर्मनी के सहयोगी एक के बाद एक परास्त होते गये अब युद्ध के मोर्चे पर जर्मनी अकेला खड़ा था। 9 नवम्बर, 1918 को जर्मनी में समाजवादी क्रांति हो गई। कैसर विलियम द्वितीय सत्ता त्यागकर हालैण्ड चला गया। समाजवादी दल के नेता फ्रेडरिक एवर्ट ने गणतंत्र की घोषणा की।

11 नवम्बर, 1918 को प्रातः 5 बजे जर्मनी एवं मित्र राष्ट्रों के मध्य शांति संधि पर हस्ताक्षर हुए। इस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो गया।

प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम

प्रथम विश्व युद्ध के परिणामों का वर्णन निम्नलिखित है -

1. युद्ध की व्यापकता - इस युद्ध बहुत व्यापक हुआ। इस युद्ध में जितने लागे सम्मिलित हएु उससे पूर्व के युद्धों में इतने अधिक व्यक्ति सम्मिलित नहीं हुए। यह युद्ध यूरोप और एशिया महाद्वीपों में हुआ। इस युद्ध में 30 राज्यों ने भाग लिया और विश्व के 87 प्रतिशत व्यक्तियों ने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में इसमें भाग लिया।  संसार के केवल 14 देशों ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया और उन्होंने तटस्थ नीति का अनुकरण किया। इसमें लगभग 61 करोड़ व्यक्तियों ने प्रत्यक्ष रूप के भाग लिया। इनमें से 85 लाख व्यक्ति मारे गये, 2 करोड़ के लगभग व्यक्ति घायल हुए, बन्दी हुए या खो गये।

2. धन की क्षति - इस युद्ध में अतुल धन का व्यय हुआ और यूरोप के समस्त राष्ट्रों को आर्थिक संकट का विशेष रूप से सामना करना पड़ा। इसमें लगभग 10 अरब रुपया व्यय हुआ। मार्च 1915 ई. तक इंगलैंड का दैनिक व्यय मध्यम रूप से 15 लाख पौंड, 1915-16 ई. में 40 लाख, 1916-17 ई. में 55 लाख और 1917-18 ई. में 65 लाख पौंड हो गया और उसका राष्ट्रीय ऋण युद्ध के अंत तक 7080 लाख से बढ़कर 74350 लाख पौंड हो गया था। फ्रांस का राष्ट्रीय ऋण 341880 लाख फ्रेंक से बढ़कर 1974720 लाख फ्रेंक और जर्मनी का 50000 लाख मार्क से बढ़कर 1306000 लाख मार्क हो गया था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस युद्ध में अत्यधिक धन का व्यय हुआ।

3. प्रथम विश्व युद्ध के राजनीतिक परिणाम - 
इस युद्ध के राजनीतिक परिणाम बहुत महत्वपूर्ण हुए। इस युद्ध के पश्चात राजतंत्र शासन का अंत हुआ और उनके स्थान पर गणतंत्र या जनतंत्र शासन की स्थापना का युग आरंभ हुआ। जर्मन, रूस, टर्की, आस्ट्रिया, हगं री, बल्गारिया, आदि देशों के सम्राटों को अपना पद त्यागना पड़ा और राजसत्ता पर जनता का अधिकार स्थापित हो गया। प्राचीन राजवंशों का अन्त हुआ। 

यूरोप पर जनता का अधिकार स्थापित हो गया। यूरोप में नये 11 गणतंत्र राज्यों की स्थापना हुई, जिनके नाम इस प्रकार हैं- 
  1. जर्मन, 
  2. आस्ट्रिया, 
  3. पोलैंड, 
  4. रूस, 
  5. चैकोस्लोवाकिया, 
  6. लिथुएनिया,
  7. लेटविया, 
  8. एन्टोनिया, 
  9. फिनलैंड, 
  10.  यूकेन और 
  11. टर्की। 
जिन प्राचीन देशों में राजतंत्र बना भी रहा, वहां भी जनतंत्र का विकास बड़ी शीघ्रता से होना आरंभ हुआ। इंगलैंड, स्पेन, ग्रीस, रूमानिया, आदि इसी अंतर्गत आते है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि इस युद्ध ने जनतंत्र शासन की स्थापना का अवसर प्रदान किया और राजवंशों को समाप्त कर डाला।

4. राष्ट्रीयता की विजय - इस युद्ध के उपरांत राष्ट्रीयता की भावना की विजय हुई और उसका पूर्ण विकास होना आरंभ हुआ। युद्धोपरान्त पेरिस के शांति सम्मेलन में समस्त राष्ट्रों ने राष्ट्रपति विलसन द्वारा प्रतिपादित आत्मनिर्णय के सिद्धांत को आधार मानकर यूरोप का पुनर्संगठन करने का प्रयास किया और उसके अनुसार आठ नये राज्यों का निर्माण किया गया। इसके अंतर्गत चैकोस्लोवाकिया, युगोस्लोवाकिया, हंगरी, पोलैंड, लिथुएनिया, एन्टोनिया और फिन्लैंड हैं।

5. अधिनायकतंत्र की स्थापना - युद्ध के मध्य में मित्र राष्ट्रों की ओर से यह प्रचार किया रहा था कि इस युद्ध के द्वारा संसार में जनतंत्र की स्थापना होगी। आरंभ में ऐसा दिखाई देने लगा था कि युद्ध में जनतंत्र की विजय हुई और इसी आधार पर भविष्य में शासन होगा, किन्तु कुछ ही समय उपरांत यह स्पष्ट हो गया कि यह संभव नहीं। सरकारों को भीषण समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिनका जनतंत्रीय सरकार निराकरण नहीं कर सकी। 

इसका परिणाम यह हुआ कि स्वेच्छाचारी शासकों की स्थापना हुई और उन्होंने जनता पर मनमानी करना आरंभ कर दिया। जनता इसको सहन नहीं कर सकी और जनतंत्र का अंत हुआ तथा इसके स्थान पर अधिनायकतन्त्र की स्थापना हुई।

6. सैनिक शक्ति का विस्तार - शांति सम्मेलन द्वारा जर्मनी की सैनिक शक्ति पर नियंत्रण तो अवश्य कर दिया गया, किन्तु विजयी राज्यों ने अपनी सैनिक शक्ति पर नियंत्रण स्थापित करने की ओर कोई कदम नहीं उठाया, वरन् उन्हौंने सैनिक शक्ति की वृद्धि ही की। जर्मनी में नाजीवाद और इटली में फासीवाद की स्थापना होने पर उन्होंने अपने देशों को उन्नत करने के लिये हर संभव उपाय की शरण ली। उन्होंने अपनी सैनिक शक्ति का बहुत अधिक विस्तार किया।

7. राष्ट्र संघ की स्थापना - इस युद्ध के उपरांत शांति की स्थापना के उद्देश्य से राष्ट्र संघ की स्थापना की गई। यह बड़ा महत्वपूर्ण कदम उठाया गया, किन्तु उसको विश्व-शान्ति की स्थापना में विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। 

वह राष्ट्रों के स्वार्थों पर नियंत्रण स्थापित नहीं कर सकी, जिससे देशों में प्रतिद्विन्दिता बढ़ने लगी।

8. प्रथम विश्व युद्ध के आर्थिक परिणाम - युद्ध के पश्चात साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव बहतु अधिक प्रभाव बढ़ गया और अब लोगों के मन में यह भावना उत्पन्न हो गई कि उद्योग-धन्ध्ज्ञों का राष्ट्रीयकरण करके समस्त उद्योग -धन्धों पर राज्य का सम्पूर्ण अधिकार और नियंत्रण स्थापित किया जाये। इस दिशा में यद्यपि अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई, किन्तु फिर भी प्रत्येक देश में इस संबंध में राज्यों की ओर से विभिन्न प्रकार के हस्तक्षेप किये गये। कारखानों में काम करने वाले मजदूरों का महत्व दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा और उन्होंने राज्य के सामने अपनी मांगे उपस्थित करना आरंभ किया। 

इस प्रकार इस युद्ध के पश्चात मजदूरों ने अपने आपको संगठित करना आरंभ किया और उनका महत्व निरंतर बढ़ने लगा। लगभग समस्त देशों की सरकारों ने उनकी सुविधाओं का ध्यान रखते हुए विभिन्न प्रकार के अधिनियम बनाये।

9. सामाजिक परिणाम - इस युद्ध के सामाजिक क्षेत्रों में भी बड़े महत्वपूर्ण परिणाम हुये। रण क्षेत्रों में लोगों की मांग निरंतर बढ़ती रही, जिसके कारण बहुत से व्यक्ति जो अन्य कार्यों में व्यस्त थे, उनको अपने काम छोड़कर सैनिक सेवायें करने के लिये बाध्य होना पड़ा। उनके कार्यों को पूरा करने के लिये स्त्रियों को काम करना पड़ा। इस प्रकार उन्होनें गृहस्थ जीवन का परित्याग कर मिल और कारखानों में कार्य करना आरंभ किया। उनको अपने महत्व का ज्ञान हुआ तथा नारी जाति में आत्म-विश्वास का उदय हुआ। युद्ध की समाप्ति के उपरांत उन्होंने भी मनुष्यों के समान अपने अधिकारों की मांग की और लगभग प्रत्येक राज्य ने उनकी बहुत सी माँगें को स्वीकार किया।

इस प्रकार महायुद्ध के बहुत अधिक महत्वपूर्ण परिणाम हुये, जिन्होंने भविष्य के इतिहास को बहुत अधिक प्रभावित किया।

अमेरिका का प्रथम विश्वयुद्ध में प्रवेश 

प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारंभ होने पर यूरोपीय देश इसमें शामिल होते जा रहे थे। ऐसे समय में मात्र अमेरिका ही ऐसा देश था जिसने 4 अगस्त, 1914 को युद्ध के दौरान तटस्थता
की घोषणा की। अमेरिका इस समय अपने व्यापार पर ध्यान दे रहा था। तटस्थ रहते हुए भी 2 कारणों
से उसकी सहानुभूति मित्र राष्ट्रों के साथ थी।
  1. अमेरिका स्वतंत्रता संग्राम में फ्रांस ने उसकी मदद की थी।
  2. अमेरिका के अधिकांश निवासी इंग्लैण्ड मूल के ही थे।
मित्र राष्ट्र अमेरिका से काफी संख्या में अस्त्र-शस्त्र एवं अनाज खरीद रहे थे। अमेरिका के जहाज माल लादकर मित्र राष्ट्रों को पहुँचाते थे। इस व्यापार से अमेरिका अत्यन्त लाभान्वित हो रहा था। अमेरिका के साथ ”पांचों ऊँगलियाँ घी में और सिर कढ़ाई में“ की कहावत चरितार्थ हो रही थी।

जर्मनी ने एक नयी प्रकार की पनडुब्बी यू-वोंट का निर्माण किया। यह पनडुब्बी पानी के अन्दर से ही सतह पर तैर रहे जहाज को डुबा देती थी। 1915 में जर्मनी ने इंग्लैण्ड की आर्थिक नाकाबंदी की साथ ही चेतावनी दी कि जो भी जहाज इस निषिद्ध क्षेत्र में प्रवेश करेगा उसे नष्ट कर दिया जायेगा। अमेरिका ने प्रत्युत्तर में चेतावनी दी कि यदि जर्मनी ने तटस्थ अमेरिका के जहाजों को नुकसान पहुँचाया तो गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेगे।

जर्मनी ने ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत पर अमल करते हुए अमेरिकी जहाजों को डुबो दिया, 7 मई, 1915 को यह घटना हुई। जर्मन ‘यू-वोंट’ पनडुब्बियों ने लूसीतानिया नामक अमरीकी जहाज को डुबो दिया। इसमें कुल 128 यात्री मारे गये जिनमें 112 अमरीकी यात्री थे।

संदर्भ -
  1. A. Tardieu, The Truth about the Treaty, 1921.
  2. Brandenburg, From Bismark to the World War, London, 1938.
  3. C. Bluch, The causes of War, 1935.
  4. G.P. Gooch, History of Modern Europe, London, 1951.
  5. Hazen, Modern European History, New York.

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