शासन की शक्तियों का प्रयोग मूल रूप से एक स्थान से किया जाता है या कई स्थानों से। इस आधार पर शासन-प्रणालियों के दो प्रकार हैं-एकात्मक शासन और संघात्मक शासन। जिस शासन-व्यवस्था में शासन की शक्ति एक केन्द्रीय सरकार में संकेन्द्रित होती है, उसे एकात्मक शासन कहते हैं। इसके विपरित जिस प्रणाली में शासन की शक्तियाँ केन्द्र तथा उसकी घटक इकाइयों के बीच बँटी रहती हैं, उसे संघात्मक शासन कहते हैं।
संघात्मक शासन उस प्रणाली को कहते हैं जिसमें राज्य-शक्ति संविधान द्वारा केन्द्र तथा संघ की घटक इकाइयों के बीच विभाजित रहती है। संघात्मक राज्य में दो प्रकार की सरकारें होती है- एक संघीय या केन्द्रीय सरकार और कुछ राज्यीय अथवा प्रान्तीय सरकारें। दोनों सरकारें सीधे संविधान से ही शक्तियाँ प्राप्त करती है। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र रहती हैं। दोनों की सत्ता मौलिक रहती है। और दोनों का अस्तित्व संविधान पर निर्भर रहता है।
गार्नर के शब्दों में, ‘‘संघ एक ऐसी प्रणाली है जिसमें केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक ही प्रभुत्व-शक्ति के अधीन होती हैं। यें सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में, जिसे संविधान अथवा ससंद का कोई कानून निश्चित करता है, सर्वोच्च होती है। संघ सरकार, जैसा प्राय: कह दिया जाता है, अकेली केन्द्रीय सरकार नहीं होती, वरन् यह केन्द्रीय एवं स्थानीय सरकारों को मिलाकर बनती है। स्थानीय सरकार उसी प्रकार संघ का भाग है, जिस प्रकार केन्द्रीय सरकार। वे केन्द्र द्वारा निर्मित अथवा नियन्त्रित नहीं होती।’’
हरमन फाइनर का कथन है कि ‘‘संघात्मक राज्य वह है जिसमें सत्ता एवं शक्ति का एक भाग संघीय इकाइयों में निहित रहता है, जबकि दूसरा भाग केन्द्रीय संस्था में, जो क्षेत्रीय इकाइयों में समुदाय द्वारा जान-बूझकर स्थापित की जाती है।’’
संघात्मक शासन प्रणाली का अर्थ
‘संघ’ शब्द आंग्ल भाषा के ‘फेडरेशन’ शब्द का हिन्दी अनुवाद है। ‘फेड-रेशन’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘फोडस’ से बना है। ‘फोडस’ से अभिप्राय है ‘संधि’ या समझौता। जब दो या दो से अधिक राज्य एक संधि अथवा समझौते के द्वारा मिलकर एक नये राज्य का निर्माण करते हैं। तो वह राज्य ‘संघ राज्य’ के नाम से जाना जाता है। अमरीका, आस्ट्रेलिया और स्विट्जरलैण्ड के संघों का विकास इसी प्रकार से हुआ है।संघात्मक शासन उस प्रणाली को कहते हैं जिसमें राज्य-शक्ति संविधान द्वारा केन्द्र तथा संघ की घटक इकाइयों के बीच विभाजित रहती है। संघात्मक राज्य में दो प्रकार की सरकारें होती है- एक संघीय या केन्द्रीय सरकार और कुछ राज्यीय अथवा प्रान्तीय सरकारें। दोनों सरकारें सीधे संविधान से ही शक्तियाँ प्राप्त करती है। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र रहती हैं। दोनों की सत्ता मौलिक रहती है। और दोनों का अस्तित्व संविधान पर निर्भर रहता है।
संघात्मक शासन प्रणाली की परिभाषा
के0 सी0 व्हीयर के अनुसार, ‘‘संघीय शासन-प्रणाली में सरकार की शक्तियों का पूरे देश की सरकार और देश के विभिन्न प्रदेशों की सरकारों के बीच विभाजन इस प्रकार किया जाता है कि प्रत्येक सरकार अपने-अपने क्षेत्र में कानूनी तौर पर एक-दूसरी से स्वतन्त्रता होती है। सारे देश की सरकार का अपना ही अधिकार क्षेत्र होता है और यह देश से संघटक अंगों की सरकारों के किसी प्रकार के नियंत्रण के बिना अपने अधिकार का उपयोग करती है और इन अंगों की सरकारें भी अपने स्थान पर अपनी शक्तियों का उपयोग केन्द्रीय सरकार के किसी नियंत्रण के बिना ही करती है। विशेष रूप से सारे देश की विधायिका की अपनी सीमित शक्तियाँ होती है और इसी प्रकार से राज्यों या प्रान्तों की सरकारें की भी सीमित शक्तियाँ होती हैं। दोनों में से कोई किसी के अधीन नहीं होती और दोनों एक-दूसरे की समन्वयक होती है।’’गार्नर के शब्दों में, ‘‘संघ एक ऐसी प्रणाली है जिसमें केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक ही प्रभुत्व-शक्ति के अधीन होती हैं। यें सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में, जिसे संविधान अथवा ससंद का कोई कानून निश्चित करता है, सर्वोच्च होती है। संघ सरकार, जैसा प्राय: कह दिया जाता है, अकेली केन्द्रीय सरकार नहीं होती, वरन् यह केन्द्रीय एवं स्थानीय सरकारों को मिलाकर बनती है। स्थानीय सरकार उसी प्रकार संघ का भाग है, जिस प्रकार केन्द्रीय सरकार। वे केन्द्र द्वारा निर्मित अथवा नियन्त्रित नहीं होती।’’
हरमन फाइनर का कथन है कि ‘‘संघात्मक राज्य वह है जिसमें सत्ता एवं शक्ति का एक भाग संघीय इकाइयों में निहित रहता है, जबकि दूसरा भाग केन्द्रीय संस्था में, जो क्षेत्रीय इकाइयों में समुदाय द्वारा जान-बूझकर स्थापित की जाती है।’’
हैमिल्टन के अभिमत में ‘‘संघ राज्यों का एक ऐसा समुदाय होता है जो एक नवीन राज्य की सृष्टि करता है।’’
यथार्थ में संघात्मक शासन-व्यवस्था में विषय स्वतन्त्र राज्य अपनी सहमति से एक केन्द्रीय सरकार की स्थापना करते हैं ।
संघात्मक शासन के लक्षण
किसी शासन-व्यवस्था को संघात्मक तभी कहा जाता है जब उस राजनीतिक व्यवस्था में संविधान तथा सरकार दोनों ही संघात्मक सिद्धान्त पर खरी उतरती हों। संघवाद का मूलभूत सिद्धान्त है- शक्तियों का विभाजन। आम तौर से संघ व्यवस्था के तीन लक्षण या तत्व माने जाते हैं :- संविधान की सर्वोच्चता
- शक्तियो का विभाजन
- न्यायपालिका की सर्वोच्चता
1. संविधान की सर्वोच्चता
संघ के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसका संविधान लिखित एवं सर्वोच्च हो। संघ प्रणाली एक प्रकार की संविदा पर आधारित होती है, जिसमें एक ओर केन्द्रीय सरकार और दूसरी ओर इकाई राज्यों की सरकारें होती है। छोटी-छोटी इकाइयाँ मिलकर एक नया राज्य बनाती है, जो प्रभुत्व-सम्पन्न होता है, किन्तु साथ ही साथ वे स्थानीय मामलों में अपनी स्वायत्ता को भी सुरक्षित रखना चाहती हैं, अत: ऐसी स्थिति में यह नितान्त आवश्यक है कि दोनों पक्षों का क्षेत्राधिकरी तथा शक्तियाँ सुनिश्चित हों।यह लिखित संविधान द्वारा ही सम्भव है जो देश की सर्वोच्च विधि होती है। अलिखित संवैधानिक परम्पराओं के आधार पर संध कायम नहीं रह सकता, क्योंकि उनका विधिक महत्व नहीं होता। यदि किसी संघ का संविधान सुपरिवर्तन हुआ तो इकाई राज्यों को अपने अधिकारों के सम्बन्ध में सदैव शंका बनी रहेगी। लिखित संविधान से ही संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त का उद्भव होता है।
2. शक्तियो का विभाजन
संघ शासन का दूसरा लक्षण यह है कि इसमें सरकार की शक्तियों को इकाई राज्यों तथा संघ सरकार के बीच बाँट दिया जाता है। कुछ काम केन्द्रीय सरकार करती है और कुछ इकाइयों की सरकारें। कायोर्ं के विभाजन करने के दो मुख्य तरीके हैं। पहले के अनुसार संविधान द्वारा संघ सरकार के कार्यो को निश्चित कर दिए जाता है और बचे हुए काम राज्यों की सरकारों के लिए छोड़ दिये जाते है। बचे हुए कार्यों को अवशिष्ट कार्य कहते हैं।जब विभाजन इस प्रणाली से होता है तो कहा जाता है कि अवशिष्ट शक्तियाँ इकाई राज्यों में निहित हैं। अमरीकी संघ इस प्रणाली का महत्वपूर्ण उदाहरण है। दूसरे तरीके के अनुसार संविधान द्वारा राज्यों के काम निश्चित कर दिये जाते हैं और शेष कार्य केन्द्रीय सरकार के लिए छोड़ दिए जाते है। कनाडा का संघ इस प्रणाली का महत्वपूर्ण उदाहरण है। इस सम्बन्ध में भारतीय संघ की अपनी निराली विशेषता है।
संघ प्रणाली में केन्द्र एवं घटक इकाइयों के बीच कार्योें एवं शक्तियों के विभाजन का मुख्य सिद्धान्त यह है कि जो कार्य सार्वदेशिक महत्व के तथा सम्पूर्ण राष्ट्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक होते हैं उनका प्रबन्ध केन्द्रीय सरकार को सौंप शेष राज्य सरकारों को सुपुर्द कर दिये जाते हैं।
3. न्यायपालिका की सर्वोच्चता
चूँकि संघ राज्य में अनेक सरकारें होती हैं और उनके अधिकार एवं शक्तियाँ निश्चित होती है, इसलिये उनके बीच क्षेत्राधिकार के प्रश्न को लेकर विवाद उठ खड़े होने की सदैव गुंजाइश रहती है। संघ व्यवस्था में यह एक आधारभूत प्रश्न रहता है कि केन्द्रीय एवं राज्यीय सरकारें अपनी-अपनी वैधानिक मर्यादाओं के भीतर कार्य कर रही है अथवा नहीं ? इस प्रश्न का निर्माण करने वाले कोई व्यवस्था होनी चाहिए। इसलिए प्राय: संघ राज्य में एक सर्वोच्च न्यायलय की व्यवस्था की जाती है।सर्वोच्च न्यायलय का कार्य यह देखना होता है कि संघ के अन्तर्गत सब विधायिकाएँ वे ही कानून पारित करें, जो सविधान के अनुकूल हों और यदि कोई कानून ऐसा हो जो संविधान के प्रतिकूल हो, तो वह उसे अवैध घोशित कर दे। न्यायपालिका इकाइयों एवं इकाइयों की सरकारों के बीच न्यायाधिकरण का कार्य भी करती है और उनमें यदि कोई संवैधानिक झगड़ा उठ खड़ा होता है, तो उसका निर्णय भी वही करती है।
कुछ विचारक संघात्मक व्यवस्था के तीन गौण लक्षण और मानते हैं। ये तीन लक्षण हैं-
- दोहरी नागरिकता,
- राज्यों का इकाइयों के रूप में केन्द्रीय व्यवस्थापिका के उच्च सदन में प्रतिनिधित्व, और
- राज्यों को संघीय संविधान के संशोधन में पर्याप्त महत्व देना।
इन लक्षणों के समर्थकों की मान्यता है कि प्रभुत्व-शक्ति के दोहरे प्रयोग की भाँति ही संघात्मक शासन में नागरिकता भी दोहरी होनी चाहिए। इसमें साधारणत: प्रत्येक व्यक्ति दो राज्यों का नागरिक होता है, एक तो संघ राज्य का और दूसरे संघ की उस इकाई के राज्य का जिसमें उसका निवास हो। राज्यों के हितों का संरक्षण और अधिक ठोस बनाने के लिए यह आवश्यक है कि राज्यों का केन्द्रीय व्यवस्थापिका के उच्च सदन में समान प्रतिनिधित्व रहे तथा बिना राज्यों की सहमति संविधान में संशोधन न किये जा सकें।
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