अधिनायकतंत्र अर्थ, परिभाषा, लक्षण, गुण एवं दोष

आधुनिक युग को ‘लोकतंत्र का युग’ कहा जाता है। परन्तु शायद सत्य बात है कि यह युग अधिनायकतंत्र‘ का युग बनता जा रहा है। यद्यपि हमने लोकतंत्र का मूल्यांकन करते समय यह निष्कर्ष निकाला है कि सुदूर भविष्य में लोकतंत्र व्यवस्थाएं ही लोकप्रिय होंगी, फिर भी आज दुनिया के अनेक राज्य लोकतंत्र शासन प्रतिमान के प्रतिकूल तानाशाही व्यवस्था में जकड़े हुए दिखाई देते हैं। लेटिन अमरीका, अफ्रीका व एशिया के अनेक राज्यों में आजकल निरंकुश व्यवस्थाओं का ही बोलबाला है। इन महाद्वीपों में जहां-जहां लोकतंत्र व्यवस्थाएं दिखाई पड़ती हैं पर उनमें भी निरंकुशता के बीज जमते जा रहे लगते हैं। 

लोकतंत्र व्यवस्था के समान अधिनायकतंत्र के भी कई अर्थ व रूप पाए जाते हैं। संक्षेप में इसके अर्थ, उद्देश्य व लक्षणों का विवेचना की जा रही है। अधिनायकतंत्र किसी न किसी रूप में हमेशा बना रहा है, परन्तु प्राचीन समय में इसका अर्थ आजकल के अर्थ से पूर्णतया भिन्न था। स्पष्टता के लिए हम अधिनायकतंत्र के प्राचीन व अर्वाचीन अर्थो का पृथक-पृथक विवेचन कर रहे हैं।

अधिनायकतंत्र का अर्थ

प्राचीन समय में अधिनायकतंत्र व्यवस्था को दुर्भाव की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। ऐसी व्यवस्था या तो विशेष संकटों का सफलता से मुकाबला करने के लिए या लोक कल्याण के लक्ष्यों को शीघ्रता से प्राप्त करने के लिए अपनाई जाती थी। रोमन साम्राजय में संकट के समय व कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए कभी-कभी विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। संकट का सामना करने के लिए इन अधिकारियों को विशिष्ट शक्तियां दी जाती थीं और इन्हें ‘अधिनायक’ कहा जाता था। इन्हें अधिनायक के नाम से इसलिए पुकारा जाता था क्योंकि उन्हें आदेश देने की असीम शक्तियां प्राप्त रहती थीं। 

इस प्रकार, मूल रूप में अधिनायक शब्द का अर्थ आदेश देने वाला है। रोम में अधिनायक को संकट का सामना करने के लिए ही सर्वोच्च शक्तियां सौंपी जाती थीं। संकट समाप्त होने पर अधिनायक का पद भी समाप्त हो जाता था। अत: रोमन में अधिनायकतंत्र केवल एक अस्थाई प्रयोग हुआ करता था। अधिनायक का कानूनी विधि से चुनाव होता था तथा वह अत्याचारी न बन जाये इसके लिए उस पर कानूनी रोक व्यवस्थाएं लागू रहती थीं। उसके लिए यह आवश्यक था कि वह अपनी शक्ति के प्रयोग को ‘स्थायी अधिकार शक्ति’ की जांच के लिए प्रस्तुत करेगा।

अधिनायकतंत्र का इस अर्थ में प्रयोग पिछली शताब्दी के मध्य तक प्रचलित माना जा सकता है। एमिलिया के शासक फेरिनि ने 1859 में एवं सिसली के शासक गेरिबाल्डी ने 1860 में अपने को इसी प्रकार का अधिनायक घोषित किया था, परन्तु उनके अधिनायक बनने का उद्देश्य अपने देश में जन-कल्याण करना था। कार्ल माक्र्स ने भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र का प्रतिपादन करते समय इसका यही अर्थ लिया था। इस प्रकार के अधिनायकतंत्र के कुछ लक्षणों का उल्लेख’ इसे आजकल के नये अधिनायकतंत्र से भिन्न करने के लिए आवश्यक है। प्राचीन अधिनायकतंत्र में निम्नलिखित लक्षण प्रमुख माने जा सकते हैं-
  1. अधिनायक विधियों द्वारा सीमित रहता था।
  2. लोक कल्याण का लक्ष्य सर्वोपरि रहता था। 
  3. अधिनायक को वैधता प्राप्त रहती थी। 
  4. अधिनायक उत्तरदायी होता था। 
  5. अधिनायक का पद अस्थायी भी हो सकता था। 
  6. समस्त शक्तियां अधिनायक में निहित रहती थीं।
उपरोक्त लक्षणों के संबंध में यह बात ध्यान रखनी है कि अधिनायकतंत्र व्यवस्थाएं विधि द्वारा संचालित व्यवस्थाएं होती थीं तथा शासन शक्ति का प्रयोग जन-कल्याण के लिए किया जाता था। ऐसी व्यवस्थाओं में अधिनायकों का उत्तरदायित्व व वैधता इस रूप में रहती थी कि जनमत उनके अनुकूल रहता था। सामान्यतया जनता का अधिकांश भाग उनके अधिकारों के प्रयोग में सहायक व समर्थक होता था। शासन सही अर्थो में जनता के लिए ही होता था।

आधुनिक समय में ‘अधिनायकतंत्र‘ का अर्थ पूरी तरह बदल गया है। आजकल इससे स्वेच्छाचारी व अत्याचारी शासन का बोध होता है। इसमें राजसत्ता एक व्यक्ति में निहित होती है और शासन सत्ताधारी व्यक्ति की इच्छानुसार ही चलता है। ऐसे अधिनायक पर किसी प्रकार का अंकुश या प्रतिबंध नहीं होता है। आधुनिक अधिनायकों को राष्ट्रीय संकट के समय नहीं चुना जाता है वरन वे तो प्राय: आकस्मिक राज्यक्रान्ति के फलस्वरूप शक्ति प्राप्त कर लेते है। उनके राजनीतिक अधिकार शक्ति का आधार, बल प्रयोग होता है। वे उसी समय तक शक्ति में बने रहते हैं, जब तक बल प्रयोग उन्हें अधिनायक बनाए रखने में सहायक रहता है। वे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। अधिनायकतंत्र में राज्य की सम्पूर्ण शक्ति एक ही व्यक्ति में निहित होती है जो स्वयं को राज्य का मूर्त रूप समझता है।

आधुनिक अधिनायकतंत्र के दो मत माने जाते हैं। साम्यवादी शासन व्यवस्थाओं के उदय ने एकदलीय व्यवस्थाओं की स्थापना की है। इससे एक दल, जो वस्तुत: एक विचाराधारा से अनुप्राणित होता हे, सत्ता का एकाधिकार रखता है तथा दल का सर्वोच्च नेता, दल के समर्थन के द्वारा एक तरह से अधिनायक की तरह शक्ति प्रयोग करता है। इस प्रकार के अधिनायकतंत्र में शासक स्वेच्छाचारी व अत्याचारी नहीं होता है। जबकि वर्तमान में ऐसे शासक भी मिलते हैं जो सेवा के सहयोग से सत्ता में आते हैं और सत्ता में आने के बाद निरंकुश ढंग से शक्तियों का प्रयोग करते हैं। एलेन बाल ने आधुनिक अधिनायकतंत्र के दो रूप माने हैं। उसने एक को सर्वाधिकारी शासन तथा दूसरे को स्वेच्छाचारी शासन के नाम से सम्बोधित किया है। यहां इन दोनों के लक्षणों का विस्तार से विवेचन आवश्यक है-

(1) सर्वाधिकारी शासन मुख्य रूप से बीसवीं सदी में आधुनिक प्रौद्योगिकी तथा संचार में प्रगति होने के कारण अस्तित्व में आयें हैं। अधिकांश सर्वाधिकारी शासन आधुनिकीकरण तथा सुधार लाने के लिए कटिबद्ध क्रान्तिकारी शासन है। स्तालिन का रूस, हिटलर का जर्मनी व मुसोलिनी के समय में इटली इस प्रकार के शासन के उदाहरण हैं। इन तीनों उदाहरणों में एक लक्षण समान था। इस सब में एक व्यक्ति के नेतृत्व पर बल दिया गया था, पर 1945 से बाद की सर्वाधिकारी पद्धतियों में सामूहिक नेतृत्व ही पाया जाता है। यह व्यवस्था अब रूस व चीन के अलावा पूर्वी यूरोप के साम्यवादी राज्यों में पाई जाती है। सर्वाधिकारी शासन व्यवस्थाओं के लक्षणों का विवेचन एलेन बाल ने निम्न बिन्दुओं पर किया है-
  1. सिद्धान्तत: व्यक्तिगत तथा सामाजिक गतिविधि के सभी पहलुओं से सरकार राजनीतिक रूप से सम्बद्ध होती है।
  2. एक ही दल राजनीतिक तथा कानूनी रूप से प्रभावी होता है। सारी राजनीतिक सक्रियता इसी के माध्यम से गुजरती है और प्रतियोगिता, नियुक्तियों तथा विरोध के लिए दल ही एक मात्र संस्थागत आधार प्रस्तुत करता है।
  3. सैद्धान्तिक रूप से एक ही सुस्पष्ट विचाराधारा होती है जो उस व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पूर्ण राजनीतिक सक्रियता का विनिमय करती है। वह शासन तथा जोड़-तोड़ करने का उपकरण होती है।
  4. न्यायपालिका और जन-सम्पर्क के माध्यमों पर सरकार का कठोर नियंत्रण होता है और उदारवादी प्रजातंत्रों में परिभाषित नागरिक स्वतंत्रताएं कठोरतापूर्वक काट-छांट दी जाती है। 
  5. यह शासन प्रजातंत्रीय आधार उपलब्ध करने के उद्देश्य से और शासन के लिए व्यापक जन-समर्थन प्राप्त करने के लिए जन-सक्रियता पर जोर देते हैं। जनता के भाग लेने तथा जनता की स्वीकृति से शासन का वैधीकरण हो जाता है।
उपरोक्त लक्षणों से यह स्पष्ट है कि सर्वाधिकारी शासन व्यवस्थाओं में विचारधारा का सर्वाधिक महत्व होता है तथा विचारधारा के क्रियान्वयन के लिए एकाधिकार युक्त एक राजनीतिक दल होता है। समस्त गतिविधियों का नियंत्रण व निर्देशन यही दल करता है। अत: सर्वाधिकारी शासन व्यवस्थाओं में एक विचारधारा का राजनीतिक दल, प्रतियोगिता का अभाव तथा पूर्णतया नियन्त्रित जीवन इसकी मुख्य विशेषताएं होती है।

(2) स्वेच्छाचारी शासन की सुस्पष्ट परिभाषा करना बहुत कठिन है, क्योंकि सामान्यतया ऐसे शासन अस्थायी होते हैं। यहां यह ध्यान देने की बात है कि उदारवादी व सर्वाधिकारी शासन व्यवस्थाओं में वर्गीकृत न होने वाले शासन स्वत: ही स्वेच्छाचारी शासनों की श्रेणी में सम्मिलित नहीं किए जा सकते हैं। इसी तरह, स्वेच्छाचारी शासन पद्धतियों को ‘तीसरी दुनिया’ या ‘विकासशील राज्यों’ का पर्याय नहीं मान लेना चाहिए। वैसे इन शासन व्यवस्थाओं में बचे हुए अधिकांश राज्य-उदारवादी व सर्वाधिकारी राज्यों को छोड़कर, सम्मिलित किये जा सकते हैं, क्योंकि इनमें लक्षणों की भिन्नता प्रकारात्मक न होकर केवल मात्रात्मक ही होती है। स्वेच्छाचारी शासन व्यवस्थाओं के निम्नलिखित लक्षण उल्लेखनीय हैं। एलेन बाल ने इनके निम्नलिखित लक्षण गिनाए हैं-
  1. मुख्य राजनीतिक प्रतियोगिता (यानी राजनीतिक दल और चुनाव) पर महत्वपूर्ण पाबन्दियां। 
  2. साम्यवाद या फासीवाद जैसी प्रभावी राजनीतिक विचारधारा का अभाव। 
  3. ‘राजनीतिक’ शब्द से सम्बोधित की जाने वाली बातों का सीमित क्षेत्र होता है क्योंकि इन शासन व्यवस्थाओं में सरकार आधुनिक प्रशासकीय तथा औद्योगिक विधियों के अभाव में सभी बातों को राजनीतिक रंग नहीं दे पाती। 
  4. राजनीतिक अनुरूपता तथा आज्ञाकारिता प्राप्त करने के लिए राजनीतिक सत्ताधारी बहुधा जोर जबर्दस्ती तथा बल प्रयोग पर अधिक बल देता है। 
  5. नागरिक स्वतंत्रताओं की अनुमति बहुत कम दी जाती है और जन-सम्पर्क के माध्यमों तथा न्यायपालिका पर सरकार का सीधा नियंत्रण होता है। 
  6. शासक या तो परम्परागत दृष्टि से राजनीतिक श्रेष्ठजन हों या आधुनिक दृष्टिकोण वाले नये श्रेष्ठजन होते हैं। अक्सर सेना ही आकस्मिक राज-परिवर्तन या स्वतंत्रता के औपनिवेशिक युद्ध के फलस्वरूप सत्ता हथिया लेती है। 
  7. एक गुट का राजनीति पर एकाधिकारी नियंत्रण रहता है। लक्षणों की उपरोक्त सूची पूर्ण नहीं कही जा सकती है। इस श्रेणी में सम्मिलित शासनों में इतनी विविधतायें हैं कि सभी लक्षणों को सूचीबद्ध करना अत्यधिक कठिन है। इस श्रेणी में परम्परागत शासक वर्गो वाले राज्य, जैसे- सउदी अरब, इथोपिया और नेपाल तथा सैनिक सरकारों वाले आधुनिकीकृत राज्य जैसे नाइजीरिया और असैनिक सरकारों वाले आधुनिकीकृत राज्य जैसे अलजीिया या मिस्त्र-शामिल कर सकते हैं।
सर्वाधिकारी व स्वेच्छाचारी शासन व्यवस्थाओं में बहुत अंतर हैं। उपरोक्त विवेचन से यह अंतर स्पष्ट हो जाते हैं। इस तरह, अधिनायकतंत्र का अर्वाचीन रूप इसके प्राचीन रूप से बहुत कुछ भिन्न हो गया है। आधुनिक अधिनायकतंत्र व्यवस्थाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध व मनुष्य के जीवन का हर पहलू नियन्त्रित करने के कारण, इन व्यवस्थाओं के लक्षणों का विवेचन करना सरल हो जाता है।

अधिनायकतंत्र के लक्षण

अधिनायकतंत्र के सर्वाधिकारी व स्वेच्छाचारी रूपों का विवेचन पहले किया गया है। इनके लक्षणों के अध्ययन से संकेत मिलता है कि दोनों व्यवस्थाओं में अंतरों के बावजूद मोटी समानताएं हैं। कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो अधिनायकतंत्र के दोनों प्रकारों में पाई जाती है। पीटर मर्कल ने अपनी पुस्तक Political Continuevity Change में अधिनायकतंत्र की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर ध्यान दिलाया है-
  1. असाधारण सत्तायुक्त, अर्द्ध-देवतुल्य एक नेता। 
  2. सरकारी प्रशासन व समाज के समस्त संगठनों के नियन्त्रक के रूप में विशिष्ट ढंग से संगठित व भावात्मक समर्पणता वाला एक जनपंजी दल। 
  3. शिक्षा व्यवस्था तथा जन-सम्पर्क के सभी साधनों पर प्रचार का एकाधिकार।
  4. आतंक तथा भयभीत करने की सुपरिष्कृत व्यवस्था। सर्वाधिकारी व स्वेच्छाचारी शासन व्यवस्थाओं में गन्तव्यों, विचारधाराओं तथा आधुनिकीकरण में उनकी भूमिकाओं को लेकर बहुत कुछ असमानताएं होते हुए भी उनमें उपरोक्त विशेषताएं समान रूप से पाई जाती हैं। 
इनका संक्षेप में विवेचन करने से इन दोनों व्यवस्थाओं के समान लक्षणों को अच्छी तरह समझा जा सकता है।

(1) सामान्यतया निरंकुश व्यवस्थाओं से एक ऐसे अधिनायक का अर्थ लिया जाता है जो सर्वशक्तिमान हो। परन्तु इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है जब किसी तानाशाह ने अकेले समस्त राज्य शक्तियों का प्रयोग किया हो। हिटलर, मुसोलिनी तथा स्तालिन के भी सलाहकार, समर्थक व सहयोगी रहे हैं। क्योंकि अधिनायकतंत्री व्यवस्था में नेता की सर्वोच्चता व असाधारण सत्ता का आधार दल का नेतृत्व होता है। इन व्यवस्थाओं में नेता या तो विचारधारा का प्रवर्तक होता है, या किसी प्रचलित विचारधारा का प्रमुख संशोधक होता है। वह विचारधारा का एक मात्र व्याख्याकार, रक्षक तथा क्रियान्वयन माना जाता है। अत: दल के सदस्यों के लिए जो दल की विचारधारा को पूर्णतया समर्पित होते हैं, वह नेता, देवतुल्य व श्रद्धा का पात्र बन जाता है तथा वही शक्ति परम व सर्वोच्च हो जाती है। यह नेता किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता, किसी से भी आदेश प्राप्त नहीं करता तथा परिस्थितियों के बन्धनों से भी मुक्त रह सकता है। नेता की सत्ता को कोई चुनौती न दे पाए इसके लिए हर अधिनायक तीन साधनों का सहारा लेता है- 
  1. वह समय-समय पर दल में से सभी सम्भावित दुश्मनों व विरोधियों का बर्बरतम तरीकों का उपयोग करके सफाया करता रहता है। 
  2. अपने सभी सहयोगियों व अनुयायियों के दिलों में भय और आतंक फैलाये रखता है। 
  3. सत्ता संरचना को स्थिर नहीं होने देता है। 
 इस तरह, अधिनायकतंत्र में नेता की सर्वोच्चता तथा सत्ता बनाई रखी जा सके इसके लिए नेता उपरोक्त तीन विधियों में से दो विधियों का तो प्रयोग करते ही हैं परन्तु तीसरी विधि के माध्यम से वह उनको चुनौती देने की संस्थागत व्यवस्था को भी नहीं पनपने देते हैं। अधिनायकतंत्र में नेता को सबसे बड़ा खतरा ऐसी संस्थाओं की स्थापना या विकास है जो स्वयं निर्णय लेने लगें। ऐसी अवस्था नेता की सत्ता की क्षीणता का संकेत होती है जो अनिवार्यत: नेतृत्व में परिवर्तन करके रहती है। रूस में खुश्चेव तथा पाकिस्तान में अय्यूबखां के बाद क्रमश: ब्रेजनेव तथा याह्याखान का सत्ता में आना इसी आधार पर समझा जा सकता है।

(2) तानाशाही व्यवस्थाओं में चाहे उसका कोई रूप हो, एक एकाधिकारी राजनीतिक दल का दिखावा अवश्य पाया जाता है। यह राजनीतिक दल सम्पूर्ण जीवन का नियंत्रक होता है। सरकारी, सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन ऐसे दल के नियंत्रण में रहता है। साम्यवादी व्यवस्थाओं में दल सही अर्थो में जनपुंजी होते हैं, पर स्वेच्छाचारी सैनिक या असैनिक तथा परम्परागत शासक वर्गो वाले राज्यों में भी सत्ता की वैधता के लिए दल का गठन किया जाता है। पाकिस्तान में राष्ट्रपति अय्यूबखां ने, बर्मा में जनरल नेविन (आजकल बर्मा के राष्ट्रपति) व नेपाल में सम्राट महेन्द्र ने इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दल का सहारा लिया था। ऐसे शासनों में अधिनायक, दल के नेता के रूप में पूजनीय बन जाता है। 

(3) निरंकुश शासक अपनी सत्ता को स्थायी आधार उपलब्ध कराने के लिए शिक्षण व्यवस्थाओं के माध्यम से नेता के प्रति अगाध आस्था उत्पन्न कराने का प्रयास करता है। सम्पर्क के सभी साधनों का प्रयोग नेता की श्रेष्ठता के गुणगान करने में किया जाता है। जन-सम्पर्क के सभी साधनों पर कड़ी निगरानी रहती है तथा जनता को बार-बार आंतरिक एवं बाहरी दुश्मनों में संघर्ष करने के लिए सचेत रखा जाता है। सारा प्रचार केवल नेता के द्वारा बताये गये तथ्य को ही सही मानने के लिए होता है। अन्य किसी भी प्रकार का प्रचार यहां तक कि बाहर का रेडियो प्रसारण सुनना तक अपराध माना जाता है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय तो जर्मनी में विदेशी रेडियो प्रसारण सुनने वालों को मौत की सजा देने का कानून तक लागू था। प्रसारणों के माध्यम से बार-बार विचारधाराओं से संबन्धित सिद्धान्तों को दोहराया जाता है जिससे लोगों के मस्तिष्कों पर इसकी अमिट छाप अंकित हो जाए तथा इससे आगे सोचने के लिए जनता के मस्तिष्कों पर ताले पड़ जाएं। इस तरह जन-सम्पर्क साधनों का एकाधिकार नेता की सत्ता को स्थायित्व प्रदान करने में प्रयुक्त किया जाता है।

(4) अधिनायकतंत्री व्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए नेताओं द्वारा आतंक तथा डर का साम्राज्य फैला दिया जाता है। इससे व्यक्ति इतना भयभीत बना दिया जाता है कि उसको हर वक्त अपना अस्तित्व खतरे में लगता है। इसके लिए बेबुनियादी प्रचार तक का सहारा लिया जाता है। निरंकुश व्यवस्थाओं में सरकार एक निरंतर चलने वाली क्रान्ति का प्रतीक होती है। इन व्यवस्थाओं में एक अत्यधिक महत्वाकांक्षी व सुनहरे भविष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष में कोई रूकावट नहीं आये इसके लिए सारा शासनतंत्र एक सूत्र में बांधकर रखा जाता है। इस प्रयत्न के विरोध में किसी भी प्रकार का प्रयत्न नहीं हो इसके लिए पहले ही आतंक फैलाये रखा जाता है। इसके लिए गुप्तचर विभागों को पूर्ण अधिकार तथा अप्रत्याशित शक्तियों से युक्त किया जाता है। ऐसी व्यवस्थाओं में ‘रास्ते से हटने वालो’ को अनुनयन से समझाने के बजाय समाप्त किया जाता है।

अन्त मेंयह कहा जा सकता है कि आधुनिक अधिनायकतंत्र प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सैनिकवाद की उपज है। इसमें एक दल या नेता या सेना के झंडे के चारों ओर राष्ट्रीय आत्म-सम्मान, आशाओं और आकांक्षाओं की शक्ति इकट्ठी होती है। अधिनायकतंत्र आन्तरिक विरोध व संघर्ष को कठोरता से दबा देता है। वह इस तरह कार्य करता है जैसे कि वह राष्ट्रीय एकता की मूर्ति हो। अधिनायकतंत्र लोगों को एक स्वर में गूंथने का प्रयत्न करता है। इसमें जनता के किसी विरोध का सहन नहीं किया जाता है। यह इसी बात में विश्वास करता है कि सम्पूर्ण राष्ट्र एक ही ढंग से सोचे, बोले व कार्य करें। अधिनायकतंत्र के अर्थ व विशेषताओं के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि इस शासन व्यवस्था में कुछ गुण हैं तो कुछ दोष भी है। इनका संक्षेप में विवेचन देना मूल्यांकन के लिए आवश्यक है। अत: इनका संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है।

अधिनायकतंत्र के गुण

अधिनायकतंत्र व्यवस्था के व्यवहार में इतने लाभ हैं कि अनेक लोकतांत्रिक राज्यों में जनता लोकतंत्र में कुछ लोगों की मनमानी करने की स्वतंत्रता से ऊबकर अधिनायकतंत्र व्यवस्था की कामना करने लगती है। अगर अधिनायकतंत्र के उत्कर्ष के कारणों की खोज की जाए तो विदित होगा कि जिस-जिस देश में निराशा, अव्यवस्था, असंतोष तथा अभाव था वहीं अधिनायकतंत्र का उदय हुआ है। जिन देशों में लोकतंत्र व्यवस्था लोगों में निराशा तथा अभाव उत्पन्न करने वाली बनी, वहीं इस व्यवस्था की स्थापना हो गई। आज भी अनेक राज्यों में जनता अधिनायकतंत्र को अच्छा मानकर निरंकुश शासकों का पूर्ण समर्थन करती हुई दिखाई देती है। इससे यह स्पष्ट है कि अधिनायकतंत्र में कुछ ऐसे गुण हैं जो अन्य व्यवस्थाओं की सैद्धान्तिक श्रेष्ठता के बावजूद इस व्यवस्था को अपनाने के लिए प्रेरणा के जिम्मेदार हैं। संक्षेप में ऐसे शासन के लाभ हैं-
  1. अधिनायकतंत्र में शासन कुशलता होती है। सारी शासन शक्ति एक व्यक्ति में निहित होने के कारण, न केवल निर्णय शीघ्रता से लिए जा सकते है, वरन निर्णयों के क्रियान्वयन की भी सुव्यवस्था हो जाती है। अधिनायकतंत्री व्यवस्था में शासक से सभी भयभीत रहते हैं इस कारण वे कार्य में देरी या शिथिलता नहीं कर सकते हैं। निरंकुश शासक के प्रति सम्पूर्ण प्रशासन न केवल उत्तरदायी रहता है अपितु हर समय सतर्क, सचेत व सक्रिय भी रहता है। इससे शासन में कार्य-दक्षता आ जाती हैं। 
  2. इस व्यवस्था का दूसरा गुण देश का तेजी से विकास है। देश में एक ही नेता, एक ही योजना तथा एक ही विकास लक्ष्य रहने से देश की सम्पूर्ण शक्ति इसी लक्ष्य के मार्ग को प्रशस्त करने में प्रयुक्त होती है। आर्थिक साधनों का समुचित विकास व उपयोग सम्भव होता है। देश के विकास के लिए एकता, शान्ति व व्यवस्था की आवश्यकता होती है। अधिनायकतंत्र में इनकी ठोस व्यवस्था रहने के कारण देश के सारे साधन विकास में लगाए जा सकते हैं।
  3. देश में एकता की स्थापना में अधिनायकतंत्र बहुत सहायक रहता है। विभिन्न दलों तथा विरोधियों का दमन करके देश में एक दल व एक नेता का शासन स्थापित होने के कारण सारी जनता इसके प्रति वफादार हो जाती है। नेता के चारों तरफ, सारी व्यवस्थाएं गुंथ जाती हैं तथा देश एक ठोस एकता के सूत्र में बंध जाता है। दल या नेता एकता में बांधने का साधन हो जाता है और उसी में सबको अपनत्व का आभास होने लगता है। हिटलर व मुसोलिनी इसी तरह जर्मनी व इटली को एक करने में सफल रहे थे। 
  4. राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने में सहायक है। देश के नागरिकों को पारस्परिकता में बांधने के लिए एक विचारधारा, एक दल व एक नेता का होना पर्याप्त होता हैं। सभी नागरिक बन्धुत्व की भावना से अनुप्राणित रहते हैं। एक राष्ट्र का नारा, एक ही झंडे के नीचे सबको खड़ा कर देता है। देश भक्ति का इतना प्राबल्य होता है कि नागरिक अपने देश तथा नेता के लिए बलिदान तक करने के लिए तैयार हो जाते हैं।
  5. संकट काल में तानाशाही व्यवस्था सर्वोत्तम रहती है। इसमें संकट का सामना करने के लिए सभी निर्णय व आदर्श एक व्यक्ति द्वारा दिये जाने के कारण, आदेशों की एकता रहती है। इससे समय पर उचित कार्यवाही करना सरल हो जाता है। युद्धकालीन संकट में तो यही व्यवस्था विजय दिलाती है। 
  6. अधिनायकतंत्र व्यवस्था में देश का बहुमुखी विकास होता है। आर्थिक क्षेत्र में भी तेजी से विकास की व्यवस्था होती है। एकता, अनुशासन व कर्तव्य-परायणता के कारण विकास की श्रेष्ठ व्यवस्था हो जाती है। रूस, जर्मनी, चीन, इटली, टर्की और स्पेन का अभी तक इतिहास इस बात का साक्षी है। जेक्सन ने अपनी पुस्तक ‘यूरोप सिन्स दी वॉर’ में ठीक ही लिखा है- “स्पेनवासियों के इतिहास में यह पहला अवसर है जबकि रेलें समय पर चली हैं। अधिनायक के अधीन व्यापार और उद्योग समृद्ध हुए हैं। कृषि फलीफूली है। श्रम संकट दूर हो गए हैं।” भारत में कुछ अंशों में अधिनायकवादी कदमों ने देश का हाल ही में काया-पलट कर दिया है।
  7.  कुछ विद्वान अधिनायकतंत्र को मानव-स्वभाव के अनुकूल भी मानते हैं। इसके पक्ष में उनका कहना है कि मनुष्य में स्वभावत: अपने हितों की रक्षा की इच्छा अवश्य होती है। वह अपनी रक्षा चाहता है चाहे यह किसी के द्वारा की जाय। अपनी समस्याओं का समाधान चाहता है। आम जनता को इससे कोई मतलब नहीं होता है कि उसकी रक्षा व्यवस्था कौर करता है? वह तो सुरक्षा चाहती है, अपने हितों की पूर्ति चाहती है। अधिनायकतंत्र में ऐसा सम्भव होने के कारण यह मानव स्वभाव के अनुकूल व्यवस्था भी मानी जाती है।
  8. विकासशील राज्यों के लिए राजनीतिक और आर्थिक विकास की संक्रमणकालीन परिस्थितियों में भी अधिनायकतंत्र उपयोगी माना गया है। विकासशील राज्यों में जनइच्छा की अनुशासित अभिव्यक्ति की समस्या अत्यन्त प्रबल रही है। विकास के विभिन्न चरणों को पार करने के प्रयास में नवोदित राष्ट्र जन आकांक्षाओं को जागृत तो कर देते हैं, परन्तु जन आकांक्षाएं जितनी तेजी से जागृत होती हैं, उतनी तेजी से वे उनकी पूर्ति नहीं कर पाते हैं। इसके कारण राज्य व्यवस्था पर तनाव बढ़ते हैं एवं उसके टूटने का डर रहता है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक अनुशासन बनाए रखने के लिए अधिनायकतंत्र अधिक उपयोगी हो सकता है। हण्ंिटगटन ने ठीक ही कहा है कि ‘नवोदित राष्ट्रों में प्रथम कार्य राजनीतिक सहभाग, शिक्षा आदि की वृद्धि के स्थान पर मूलभूत, संस्थात्मक ढांचे का निर्माण होना चाहिए तथा इसके लिए एकदलीय शासन या सैनिक अधिनायकतंत्र भी उपयुक्त हो सकता है।’

अधिनायकतंत्र के दोष

अधिनायकतंत्र में गुणों के होते हुए भी इस प्रणाली का किसी भी देश में लम्बी अवधि तक प्रचलन नहीं रह पाता है। इतिहास ऐसे प्रमाणों से भरा पड़ा हैं। जहां कहीं भी अधिनायकतंत्र स्थापित होता है वहीं पर एक स्थिति ऐसी आती है जब जनता सत्ता सम्पन्न सर्वोच्च शासक को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसात्मक क्रान्ति तक का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाती है। इससे स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में कुछ कमियां अवश्य पाई जाती हैं। संक्षेप में इस प्रणाली के दोष इस प्रकार हैं-
  1. इस व्यवस्था में व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्मान नहीं होने के कारण व्यक्ति को सब कुछ सुविधाएं होते हुए भी उसे अपने व्यक्तित्व को अपनी इच्छानुसार विकसित करने का वातावरण नहीं मिल पाता है तथा वह अपने जीवन को अपूर्ण ही रखने पर मजबूर हो जाता है। व्यक्ति को किसी भी प्रकार स्वतंत्रता नहीं रहती है। इससे उसका व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। तानाशाही व्यवस्था में मौलिक अधिकारों एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। अत: तानाशाही व्यवस्था का सबसे बड़ा दुर्गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के दमन का वातावरण बनाना है।
  2. अधिनायकतंत्र शासन व्यवस्था में अत्याचार और अनाचार का बोलबाला रहता है। अधिनायक अपनी सत्ता को बना रखने के लि आतंक फैला रखता है। विरोधियों का बर्बर तरीकों से सफाया कर दिया जाता है। इससे मानव भयग्रस्त होकर जेल के सीखचों में बन्द सा हो जाता है। देश हित में कही गई बात भी अगर तानाशाह की इच्छा के प्रतिकूल है तो उसको ठुकरा दिया जाता है तथा उसके विरूद्ध बात कहने वाले को देशविद्रोही कहकर मौत के घाट उतार दिया जाता है।
  3. तानाशाही व्यवस्था देश के लि अहितकर होती है। इस व्यवस्था में निर्णय एक व्यक्ति लेता है जो किसी भी प्रकार का विरोध या सुझाव स्वीकार नहीं करता है। इससे तानाशाह द्वारा लिये गये गलत निर्णयों का अहितकर प्रभाव सारी प्रजा को भुगतना पड़ता है। अधिनायक का हर निर्देश लोगों को मानना पड़ता है, चाहे वह निर्देश राष्ट्रीय हित में हो अथवा नहीं हो। इस प्र्र्र्रकार तानाशाही व्यवस्था में राष्ट्रीय हितों का समुचित संरक्षण नहीं रहता है। 
  4. अधिनायकतंत्र में साधारण व्यक्तियों में आत्म-निर्भरता, क्रियाशीलता तथा स्वतंत्रता की भावना का पूर्णत: लोप हो जाता है, क्योंकि उन्हें बोलने अथवा विचारने आदि की किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं रहती है। इस व्यवस्था में व्यक्ति का तन, धन और यहां तक कि मन भी अधिनायक के लिए हो जाता है और उसे अधिनायक जिधर हांके उधर ही चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
अधिनायकतंत्र के गुण और दोष के विवेचन से स्पष्ट है कि यह व्यवस्था मनुष्य को मनुष्य नहीं बनाती तथा उसे मनुष्य के रूप में रहने भी नहीं देती है। इसमें मानव का व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। उसकी सारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के उपरान्त भी उसको कुछ कमी सी महसूस होती है। उसका जीवन कैदी का सा हो जाता है। इसलिए ही अधिनायकतंत्र के अनेक लाभों के होते हुए भी कोई व्यक्ति इस व्यवस्था के अन्तर्गत रहना पसंद नहीं करता है। इस शासन में व्यक्ति के लिए सब कुछ रहता है परन्तु फिर भी उसको ऐसी व्यवस्था में घुटन होने लगती है, क्योंकि व्यक्ति केवल रोटी के लिये ही जीवित नही रहता है। वह इसके अलावा भी बहुत कुछ पाना व करना चाहता है जो केवल सोचने-विचारने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के वातावरण में ही सम्भव होता है। अत: अधिनायकतंत्र सभी आकर्षणों के बावजूद भी तनाव मस्तिष्क की भूख मिटाने के साधनों पर रोक लगाने वाला होने के कारण जन साधारण द्वारा अमान्य ही रहता है। इस शासन के गुण-दोषों के विवेचन के बाद इसके भविष्य के बारे में संकेत देना सरल हो जाता है। अत: हम इसके भविष्य की संक्षिप्त चर्चा करना प्रासंगिक मान सकते हैं।

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