अनुक्रम
भाषा की उत्पत्ति-
भाषा की उत्पत्ति का अध्ययन करने के लिए दो मुख्य आधार है - 1. प्रत्यक्ष मार्ग 2. परोक्ष मार्ग।
1. प्रत्यक्ष मार्ग
भाषा वैज्ञानिकों ने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मतों का उल्लेख किया है। जिनमें प्रमुख इस प्रकार हैं -1. दिव्य उत्पत्ति का सिद्धान्त- भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह सबसे प्राचीन सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को मानने वाले भाषा को ईष्वर की देन मानते है। इस प्रकार न तो वे भाषा को परम्परागत मानते है और न मनुष्यों द्वारा अर्जित। इन विद्वानों के अनुसार भाषा की शक्ति मनुष्य अपने जन्म के साथ लाया है और इसे सीखने का उसे प्रयत्न करना नही पड़ा है। इस सिद्धान्त को मानने वाले विभिन्न धर्म ग्रन्थों का उदाहरण अपने सिद्धान्त के समर्थन में देते है। हिन्दू धर्म मानने वाले वेदों को, इस्लाम धर्मावलम्बी कुरान शरीफ को, ईसाई बाइबिल को। वे भाषा को मनुष्यों की गति न मानकर ईष्वर निर्मित मानते है और इन ग्रन्थों में प्रयुक्त भाषाओं को संसार की विभिन्न भाषाओं की आदि भाषायें मानते है। इसी प्रकार बौद्व अपने धर्मग्रन्थों की भाषा पाली को मूल भाषा मानते है।
2. धातु सिद्धान्त-
भाषा की उत्पत्ति सम्बन्धी दूसरा प्रमुख सिद्धान्त धातु सिद्धान्त है। सर्वप्रथम प्लेटो ने इस ओर संकेत किया था। परन्तु इसकी स्पष्ट विवेचना करने का श्रेय जर्मन विद्वान प्रो0 हेस को है।
इस सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न वस्तुओं की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति प्रारम्भ में धातुओं से होती थी। इनकी संख्या आरम्भ में बहुत बडी थी परन्तु धीरे धीरे लुप्त होकर कुछ सौ ही धातुऐं रही। प्रो. हेस का कथन है कि इन्ही से भाषा की उत्पत्ति हुई है।
3. संकेत सिद्धान्त-
यह सिद्धान्त अधिक लोकप्रिय नही हुआ क्योकि इसका आधार काल्पनिक है और यह कल्पना भी आधार रहित है।
इस सिद्धान्त के अनुसार सर्वप्रथम मनुष्य बन्दर आदि जानवरों की भॉति अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति भावबोधक ध्वनियों के अनुकरण पर शब्द बनायें होगें। तत्पष्चात उसने अपने संकेतों के अंगो के द्वारा उन ध्वनियों का अनुकरण किया होगा। इस स्थिति में स्थूल पदार्थो की अभिव्यक्ति के लिए शब्द बने होगे। संकेत सिद्धान्त भाषा के विकास के लिए इस स्थिति को महत्वपूर्ण मानता है। उदाहरण के लिए पत्ते के गिरने से जो ध्वनि होती है। उसी आधार पर “पत्ता” शब्द बन गया।
4. अनुकरण सिद्धान्त-
भाषा उत्पत्ति के इस सिद्धान्त के अनुसार भाषा की उत्पत्ति अनुकरण के आधार पर हुई है। इस सिद्धान्त के मानने वाले विद्वानों का तर्क है कि मनुष्य ने पहले अपने आसपास के जीवों और पदार्थो की ध्वनियों का अनुकरण किया होगा। और फिर उसी आधार पर शब्दों का
निर्माण किया होगा। उदाहरण के लिए काऊॅं-काऊॅं ध्वनि निकालने वाले पक्षी का नाम इसी ध्वनि के आधार पर संस्कृत में काक, हिन्दी में कौआ तथा अंगेजी में crow पडा। इसी प्रकार बिल्ली की “म्याऊॅ” ध्वनि के आधार पर चीनी भाषा में बिल्ली को “मियाऊ” कहा जाने लगा। इस प्रकार यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि भाषा की उत्पत्ति अनुकरण सिद्वान्त पर हुई है।
5. अनुसरण सिद्धान्त-
यह सिद्धान्त भी अनुकरण सिद्धान्त से मिलता है। इस सिद्धान्त के मानने वालों का भी यही तर्क है कि मनुष्यों ने अपने आस-पास की वस्तुओं की ध्वनियों के आधार पर शब्दों का निर्माण किया है। इन दोनों सिद्धान्तों में अन्तर इतना है कि जहॉ अनुकरण सिद्धान्त में चेतन जीवों की अनुकरण की बात थी, वहीं इस सिद्धान्त में निर्जीव वस्तुओं के अनुकरण की बात है। उदाहरण के लिए नदी की कल-कल ध्वनि के आधार पर उसका नाम कल्लोलिनी पड गया। इस प्रकार हवा से हिलते दरवाजे की ध्वनि के आधार पर लड़खड़ाना,बड़बड़ाना जैसे शब्द बने। अंगे्रजी के Murmur, Thunder जैसे शब्द भी इसी अनुसरण सिद्धान्त के आधार पर बनें।
6. श्रम परिहरण सिद्धान्त-
मनुष्य सामाजिक प्राणी है और परिश्रम करना उसकी स्वाभाविक विषेषता है। श्रम करते समय जब थकने लगता है तब उस थकान को दूर करने के लिए कुछ ध्वनियों का उच्चारण करता है। न्वायर (Noire) नामक विद्वान ने इन्ही ध्वनियों को भाषा उत्पत्ति का आधार मान लिया है। उसके अनुसार कार्य करते समय जब मनुष्य थकता है तब उसकी सांसे तेज हो जाती है। सॉसों की इस तीव्र गति के आने जाने के परिणामस्वरूप मनुष्य के वाग्यंत्र की स्वर -तन्त्रियॉ कम्पित होने लगती है और अनेक अनुकूल ध्वनियॉं निकलने लगती है फलस्वरूप मनुष्य के श्रम से उत्पन्न थकान बहुत कुछ दूर हो जाती है। इसी प्रकार ठेला खींचने वाले
मजदूर हइया ध्वनि का उच्चारण करते है। इस सिद्धान्त के मानने वाले इन्ही ध्वनियों के आधार पर भाषा की उत्पत्ति मानते है।
7. मनोभावसूचक सिद्धान्त-
भाषा उत्पत्ति का यह सिद्धान्त मनुष्य की विभिन्न भावनाओं की सूचक ध्वनियों पर आधारित है। प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक मैक्समूलर ने इसे पूह-पूह सिद्धान्त कहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य विचारषील होने के साथ साथ भावनाप्रधान प्राणी भी है। उसके मन में दु:ख, हर्ष, आष्चर्य आदि अनेक भाव उठते है।
वह भावों को विभिन्न ध्वनियों के उच्चारण के द्वारा प्रकट करता है जैसे प्रसन्न होने पर अहा । दुखी: होने पर आह । आष्चर्य में पडने पर अरे । जैसी ध्वनियों का उच्चारण करता है ।, इन्ही ध्वनियों के आधार पर यह सिद्धान्त भाषा की उत्पत्ति मानता है।
8. विकासवाद का समन्वित रूप- भाषा उत्पत्ति की खोज के प्रत्यक्ष मार्ग का यह सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्वीट ने इस सिद्धान्त को जन्म दिया था। उन्होने भाषा की उत्पत्ति के उपर्युक्त सिद्धान्तों के कुछ सिद्धान्तों को लेकर इनके समन्वित रूप से भाषा की उत्पत्ति की है। यह सिद्धान्त तीन है-
- अनुकरणात्मक, मनोभावसूचक और प्रतीकात्मक । स्वीट के अनुसार भाषा अपने प्रारम्भिक रूप में इन तीन अवस्थाओं में थी। इस प्रकार भाषा का आरम्भिक शब्द समूह तीन प्रकार का था।
- पहले प्रकार के शब्द अनुकरणात्मक थे अर्थात दूसरे जीव जन्तुओं की ध्वनियों का अनुकरण करके मनुष्य ने वे शब्द बनायें थे, जैसे चीनी मियाऊॅ, बिल्ली की मियाऊॅ ध्वनि के आधार पर बना और बिल्ली नामक जानवर का नाम ही पड गया । इसी प्रकार कौए के बोलने से उत्पन्न ध्वनि के आधार पर हिन्दी में कौआ और संस्कृत में उसे काक कहा जाने लगा।
- स्वीट के अनुसार भाषा की प्रारम्भिक अवस्था के दूसरे प्रकार के शब्द मनोभावसूचक थे। मनुष्य अपने अन्तर्मन की भावनाओं को प्रकट करने के लिए इस प्रकार की ध्वनियों का उच्चारण करता होगा और कालान्तर में उन्ही ध्वनियों ने भावों को सूचित करने वाले शब्दों का रूप ले लिया । आह । अहा। आदि शब्द ऐसे ही विभिन्न भावसूचक है।
- तीसरे प्रकार के शब्दों के अन्तर्गत स्वीट ने प्रतीकात्मक शब्दों को रखा। उनके अनुसार भाषा की प्रारम्भिक अवस्था में इस प्रकार के शब्दों की संख्या बहुत अधिक रही होगी। प्रतीकात्मक शब्दों का तात्पर्य ऐसे शब्दों से है जो मनुष्य के विभिन्न सम्बन्धों से जैसे खाना-पीना, हॅसना-बोलना आदि और विभिन्न सर्वनामों जैसे यह, वह, मैं, तुम आदि के प्रतीक बन गये है। स्वीट का मत था कि इन शब्दों की संख्या प्रारम्भ में बहुत व्यापक रही होगी और इसीलिए उन्होने प्रथम तथा द्वितीय वर्ग से बचे उन सभी शब्दों को भी इस तीसरे वर्ग में रखा है जिनका भाषा में प्रयोग होता है।
2. परोक्ष मार्ग -
भाषा की उत्पत्ति का अध्ययन करने के लिए प्रत्यक्ष मार्ग के अतिरिक्त परोक्ष मार्ग भी है । इस मार्ग के अंतर्गत भाषा की उत्पत्ति का अध्ययन करने की दिशा उल्टी हो जाती है अर्थात् हम भाषा के वर्तमान रूप का अध्ययन करते हुये अतीत की ओर चलते हैं । इस मार्ग के अंतर्गत अध्ययन की तीन विधियां हैं -1. शिशुओं की भाषा-
कुछ भाषा वैज्ञानिकों का विचार है कि शिशुओं के द्वारा प्रयुक्त शब्दों के आधार पर हम भाषा की आरंभिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ? शिशुओं की भाषा बाह्य प्रवाहों से उतना प्रभावित नहीं रहती जितनी की मनुष्यों की भाषा । इसलिए बच्चों की भाषा के अध्ययन से यह पता लगाया जा सकता है कि भाषा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई होगी । क्योंकि जिस प्रकार बच्चा अनुकरण से भाषा सीखता है उसी प्रकार मनुष्यों ने भाषा सीखी होगी ।
2. असभ्यों की भाषा-
कुछ भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार भाषा उत्पत्ति की खोज संसार की असभ्य जातियों के द्वारा प्रयुक्त भाषाओं के अध्ययन के द्वारा की जा सकती है । असभ्य जातियांॅ चूंकि संसार के सभ्य क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों के प्रभाव से बची रहती हैं अत: उनकी भाषा भी परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होती । अत: उनकी भाषाओं के अध्ययन और विश्लेषण से भाषा की प्रारंभिक अवस्था का पता चल सकता है ।
3. आधुनिक भाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन-
भाषा की उत्पत्ति की खोज का एक आधार भाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन भी है । इस सिद्धांत के अनुसार हम एक वर्तमान भाषा को लेकर प्राप्त सामग्री के आधार पर भाषा के इतिहास की खोज करते हैं। इस खोज में हमें अतीत की ओर लौटना पडता है । अतीत की यह यात्रा तब तक चलती रहती है जब तक हमें उस भाषा विशेष के प्राचीनतम आधार न मिल जायें ।
भाषा उत्पत्ति का अध्ययन करने के लिए परोक्ष मार्ग का यह सिद्धांत अधिक उपयुक्त है । उपयुक्तता का यह कारण इस खोज की विश्वसनीयता है क्योंकि इस खोज के अंतर्गत हम भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं । यह अध्ययन कई आधारों पर होता है जैसे - रूप ,ध्वनि , अर्थ आदि । अध्ययन के ये आधार वैज्ञानिक हैं फलस्वरूप किसी भाषा विशेष की ऐतिहासिक खोज अधिक विश्वसनीय हो जाती है यही कारण है कि भाषा की उत्पत्ति का यह सिद्धांत अधिक उपयुक्त एवं मान्य है ।
भाषिक प्रकार्य - में भाषा का विश्लेषण सामान्य संरचना के आधार पर नहीं किया जाता । प्रकार्यवादी भाषा के विभिन्न प्रकार्यों के आधार पर भाषा का विश्लेषण करते हैं ।
सामान्यत: भाषा के अंतर्गत आने वाली इकाइयों के अपने प्रकार्य (Function) होते हैं । जिनका अध्ययन भाषा विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है । किंतु प्राग संप्रदाय ने भाषा के अपने प्रकार्यों को अध्ययन का विषय बनाया । रोमन याकोव्यसन के अनुसार भाषा को तीन दृष्टियों से देखना चाहिये ।
इसी प्रकार्यात्मक अध्ययन के आधार पर प्राग स्कूल में भाषा के मानक रूप का अध्ययन हुआ । रोमन याकोव्यसन ने भाषा के प्रकार्यों का निर्धारण करके भाषा के अभिलक्षणेां और ध्वनियों का अध्ययन किया है जो उनकी महत्वपूर्ण देन है ।
भाषा उत्पत्ति का अध्ययन करने के लिए परोक्ष मार्ग का यह सिद्धांत अधिक उपयुक्त है । उपयुक्तता का यह कारण इस खोज की विश्वसनीयता है क्योंकि इस खोज के अंतर्गत हम भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं । यह अध्ययन कई आधारों पर होता है जैसे - रूप ,ध्वनि , अर्थ आदि । अध्ययन के ये आधार वैज्ञानिक हैं फलस्वरूप किसी भाषा विशेष की ऐतिहासिक खोज अधिक विश्वसनीय हो जाती है यही कारण है कि भाषा की उत्पत्ति का यह सिद्धांत अधिक उपयुक्त एवं मान्य है ।
भाषा के प्रकार्य
भाषा का प्रकार्यात्मक अध्ययन प्राग स्कूल की देन है । अत: प्राग संप्रदाय को प्रकार्यवादी संप्रदाय भी कहा जाता है । प्राग संप्रदाय में इस दिशा में कार्य करने वाले भाषा वैज्ञानिक रोमन याकोव्यसन और मार्तिने कर हैं । अत: उन्हें प्रकार्यवादी (Functionalist) भी कहा जाता है ।भाषिक प्रकार्य - में भाषा का विश्लेषण सामान्य संरचना के आधार पर नहीं किया जाता । प्रकार्यवादी भाषा के विभिन्न प्रकार्यों के आधार पर भाषा का विश्लेषण करते हैं ।
सामान्यत: भाषा के अंतर्गत आने वाली इकाइयों के अपने प्रकार्य (Function) होते हैं । जिनका अध्ययन भाषा विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है । किंतु प्राग संप्रदाय ने भाषा के अपने प्रकार्यों को अध्ययन का विषय बनाया । रोमन याकोव्यसन के अनुसार भाषा को तीन दृष्टियों से देखना चाहिये ।
- वक्ता,
- श्रोता,
- संदर्भ
- अभिव्यक्ति प्रकार्य
- इच्छापरक
- अभिधापरक
- संपर्क द्योतक
- आधिभाषिक
- काव्यात्मक
- सांप्रषणिक प्रकार्य - जब वक्ता द्वारा श्रोता को कोई सूचना संप्रषित की जाती है और सीधे विचार विनिमय होता है तो भाषा संरचना का स्तर अलग होता है जिसे हम सांप्रेषणिक प्रकार्य कहते हैं । सामान्य वार्तालाप में इसी प्रकार्य का प्रयोग होता है ।
- अभिव्यक्ति प्रकार्य-भाषा के द्वारा वक्ता अपने आपको अभिव्यक्त करता है ।अत: हर व्यक्ति की भाषा कुछ न कुछ बदल जाती है । जिसे हम उसकी शैली कह सकते हैं ।भाषा के सभी स्तरों पर यह परिवर्तन दिखाई पड़ता है ।यहां तक कि साहित्य-सृजन में भी कथा भाषा और काव्य-भाषा का अंतर साम्य देखा जा सकता है ।इस प्रकार भाषा की संरचना एक स्तर पर नहीं होती । अभिव्यक्तिक प्रकार्यानुसार भाषा संरचना में परिवर्तन आता है ।
- प्रभाविक प्रकार्य - भाषा का प्रयोग जब इस रूप में होता है जिसमें संप्रेषण और आत्माभिव्यक्ति की अपेक्षा श्रोता को प्रभावित करना ही मुख्य उद्देश्य हो तो उसे भाषा का प्रभाविक प्रकार्य कहा जाता है ।भाषणों की भाषा मुख्यत: प्रभाविक होती है जिसका उद्देश्य श्रोता को प्रभावित करना है ।अत: भाषणों की संरचना और उसका अनुमान अलग होता है । इसकी संरचना शब्दावली भी भिन्न होती है ।
- समष्टिक प्रकार्य- भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार भाषा के उपर्युक्त तीन प्रकार अलग अलग अवसरों पर प्रयुक्त होते हैं ।इस प्रकार्यो से समन्वित भाषा का अस्तित्व अलग होता है ।जिससें सामाजिक प्रकार्य कहा जा सकता है ।समन्वित भाषा संरचना का अपना प्रकार्य होता है ।यह उसी प्रकार है जैसे अलग-अलग वस्तुएं अपना स्वतंत्र महत्व रखती हैं लेकिन उन्हे एक साथ प्रस्तुत किया जाये तो किसी अन्य वस्तु का बोध कराती हैं ।उदाहरण के लिए इडली, डोसा स्वयं में अलग खाद्य हैं पर समष्टि रूप में दक्षिण भारतीय व्यंजनों के रूप मे माने जायेंगें ।
इसी प्रकार्यात्मक अध्ययन के आधार पर प्राग स्कूल में भाषा के मानक रूप का अध्ययन हुआ । रोमन याकोव्यसन ने भाषा के प्रकार्यों का निर्धारण करके भाषा के अभिलक्षणेां और ध्वनियों का अध्ययन किया है जो उनकी महत्वपूर्ण देन है ।
भाषा की विशेषताएं
जब हम भाषा का संदर्भ मानवीय भाषा से लेते हैं । तो यह जानना आवश्यक हो जाता है कि मानवीय भाषा की मूलभूत विशेषताएं या अभिलक्षण कौन-कौन से हैं । ये अभिलक्षण ही मानवीय भाषा को अन्य भाषिक संदर्भों से पृथक करते हैं । हॉकिट ने भाषा के सात अभिलक्षणों का वर्णन किया है । अन्य विद्वानों ने भी अभिलक्षणों का उल्लेख करते हुए आठ या नौ तक संख्या मानी है । मूल रूप से 9 अभिलक्षणों की चर्चा की जाती है -- यादृच्छिकता- ‘यादृच्छिकता़’ का अर्थ है -माना हुआ । यहां मानने का अर्थ व्यक्ति द्वारा नहीं वरन् एक विशेष समूह द्वारा मानना है । एक विशेष समुदाय किसी भाव या वस्तु के लिए जो शब्द बना लेता है उसका उस भाव से कोई संबंध नहीं होता । यह समाज की इच्छानुसार माना हुआ संबंध है इसलिए उसी वस्तु के लिए भाषा में दूसरा शब्द प्रयुक्त होता है ।भाषा में यह यादृच्छिकता शब्द और व्याकरण दोनों रूपों में मिलती है । अत: यादृच्छिकता भाषा का महत्वपूर्ण अभिलक्षण है ।
- सृजनात्मकता- मानवीय भाषा की मूलभूत विशेषता उसकी सृजनात्मकता है। अन्य जीवों में बोलने की प्रक्रिया में परिवर्तन नहीं होता पर मनुष्य शब्दों और वाक्य-विन्यास की सीमित प्रक्रिया से नित्य नए नए प्रयोग करता रहता है ।सीमित शब्दों को ही भिन्न भिन्न ढंग से प्रयुक्त कर वह अपने भावों को अभिव्यक्त करता है । यह भाषा की सृजनात्मकता के कारण ही संभव हो सका है । सृजनात्मकता को ही उत्पादकता भी कहा जाता है ।
- अनुकरणग्राहता- मानवेतर प्राणियों की भाषा जन्मजात होती है ।तथा वे उसमें अभिवृद्धि या परिवर्तन नहीं कर सकतें ंिकंतु मानवीय -भाषा जन्मजात नहीं होती । मनुष्य भाषा को समाज में अनुकरण से धीरे धीरे सीखता है ।अनुकरण ग्राह्य होने के कारण ही मनुष्य एक से अधिक भाषाओं को भी सीख लेता है ।यदि भाषा अनुकरण ग्राह्य न होती तो मनुष्य जन्मजात भाषा तक ही सीमित रहता ।
- परिवर्तनशीलता- मानव भाषा परिवर्तनशील होती है । वही शब्द दूसरे युग तक आते आते नया रूप ले लेता है ।पुरानी भाषा में इतने परिवर्तन हो जाते हैं। कि नई भाषा का उदय हो जाता है ।संस्कृत से हिन्दी तक की विकास यात्रा भाषा की परिवर्तनशीलता का उदाहरण है ।
- विविक्तता- मानव भाषा विच्छेद है । उसकी संरचना कई घटकों से होती है ।ध्वनि से शब्द और शब्द से वाक्य विच्छेद घटक होते है। इस प्रकार अनेक इकाइयों का योग होने के कारण मानव भाषा को विविक्त कहा जाता है ।
- द्वैतता- भाषा में किसी वाक्य में दो स्तर होते हैं । प्रथम स्तर पर सार्थक इकाई होती है ।और दूसरे स्तर पर निरर्थक ।कोई भी वाक्य इन दो स्तरों के योग से बनता है ।अत: इसे द्वैतता कहा जाता है । भाषा में प्रयुक्त सार्थक इकाइयों को रूपिम और निरर्थक इकाइयों को स्वनिम कहा जाता है ।स्वनिम निरर्थक इकाइयां होने पर भी सार्थक इकाइयों का निर्माण करती हैं ।इसके साथ ही ये निरर्थक इकाइयांॅ अर्थ भेदक भी होती हैं ।जैसे क+अ+र+अ में चार स्वनिम है जो निरर्थक इकाइयां हैं पर कर रूपिम सार्थक इकाई हैं । इसे ही ख+अ+र+अ कर दे तो खर रूपिम बनेगा किंतु ‘कर’ और ‘खर’ में अर्थ भेदक इकाई रूपिम नहीं स्वनिम क और ख है। इस प्रकार रूपिम अगर अर्थद्योतक इकाई है तो स्वनिम अर्थ भेदक । इन दो स्तरों से भाषा की रचना होने के कारण भाषा को द्वैत कहा गया है ।
- भूमिकाओं का पारस्परिक परिवर्तन- भाषा में दो पक्ष होते हैं - वक्ता और श्रोता। वार्ता के समय दोनों पक्ष अपनी भूमिका को परिवर्तित करते रहते हैं। वक्ता श्रोता और श्रोता वक्ता होते रहते हैं। इसे ही भूमिकाओं का पारस्परिक परिवर्तन कहते है ।
- अंतरणता- मानव भाषा भविष्य एवं अतीत की सूचना भी दे सकती है ।तथा दूरस्थ देश का भी । इस प्रकार अंतरण की विशेषता केवल मानव भाषा में है ।
- असहजवृत्तिकता- मानवेतर भाषा प्राणी की सहजवृत्ति आहार निद्रा भय, मैथुन से ही संबंद्ध होती है और इसके लिए वे कुछ ध्वनियों का उच्चारण करते हैं । किंतु मानव भाषा सहजवृत्ति नहीं होती है ।वह सहजात वृत्तियों से संबंधित नही होती । भाषा के ये अभिलक्षण मानवीय भाषा को अन्य ध्वनियों या मानवेत्तर प्राणियों से अलग करने में समर्थ हैं ।
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