अनुक्रम
लोकतंत्र के अर्थ पर सर्वाधिक मतभेद है। इसकी अनेक परिभाषाएं व व्याख्याएं की गई हैं। इसको आडम्बरमय कहने से लेकर सर्वोत्कृष्ट तक कहा गया है। सारटोरी तो यहां तक कहने में नहीं हिचकिचाए हैं कि “लोकतंत्र को ऐसी वस्तु के आडम्बरमय नाम के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं है।” अत: लोकतंत्र के अर्थ व परिभाषा पर सामान्य सहमति का प्रयास करना निरर्थक होगा। वर्तमान में हर शासन व्यवस्था को लोकतान्त्रिक कहा जाता है। यहां तक कि एक बार हिटलर ने लोकतान्त्रिक शासन की बात कहते हुए अपने शासन को ‘जर्मन लोकतंत्र‘ कहना पसन्द किया था। आज प्रजातंत्र के नाम कों इतना पवित्र बना दिया गया है कि कोई भी अपने आपको अलोकतांत्रिक कहने का दुस्साहस नहीं कर सकता। मोटे तौर पर लोकतंत्र शासन का वह प्रकार होता है, जिसमें राज्य के शासन की शक्ति किसी विशेष वर्ग अथवा वर्गो में निहित न होकर सम्पूर्ण समाज के सदस्यों में निहित होती है।
डायसी ने लोकतंत्र की परिभाषा करते हुए लिखा है कि “लोकतंत्र शासन का वह प्रकार है, जिसमें प्रभुत्व शक्ति समष्टि रूप में जनता के हाथ में रहती है, जिसमें जनता शासन सम्बन्धी मामले पर अपना अन्तिम नियंत्रण रखती है तथा यह निर्धारित करती है कि राज्य में किस प्रकार का शासन-सूत्र स्थापित किया जाए। राज्य के प्रकार के रूप में लोकतंत्र शासन की ही एक विधि नहीं है, अपितु वह सरकार की नियुक्ति करने, उस पर नियंत्रण रखने तथा इसे अपदस्थ करने की विधि भी है।”
अगर अब्राहम लिंकन की परिभाषा को लें तो “लोकतंत्र शासन वह शासन है जिसमें शासन जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा हो।” इन परिभाषाओं को अस्वीकार करते हुए कुछ विचारक लोकतंत्र को शासन तक ही सीमित न रखकर इसे व्यापक अर्थ में देखने की बात कहते हैं।
गिडिंग्स का कहना है कि “प्रजातंत्र केवल सरकार का ही रूप नहीं है वरन राज्य और समाज का रूप अथवा इन तीनों का मिश्रण भी है।” मैक्सी ने इसे और भी व्यापक अर्थ में लेते हुए लिखा है कि “बीसवीं सदी में प्रजातंत्र से तात्पर्य एक राजनीतिक नियम, शासन की विधि व समाज के ढांचे से ही नहीं है, वरन यह जीवन के उस मार्ग की खोज है जिसमें मनुष्यों की स्वतंत्र और ऐच्छिक बुद्धि के आधार पर उनमें अनुरूपता और एकीकरण लाया जा सके।” डा0 बेनीप्रसाद ने तो लोकतंत्र को जीवन का एक ढंग माना है।
उपर्युक्त अर्थ व परिभाषाओं से लोकतंत्र एक विशद एवं महत्वाकांक्षी विचार लगता है परन्तु उपरोक्त विवेचन से लोकतंत्र का अर्थ स्पष्ट होने के स्थान पर कुछ भ्रांति ही बढ़ी है। लोकतंत्र की अवधारणा या प्रत्यय के रूप में एक अर्थ नहीं है वरन इसके तीन अन्त:सम्बन्धित अर्थ किये जाते हैं। यह अर्थ हैं- (क) यह निर्णय करने की विधि है, (ख) यह निर्णय लेने के सिद्धान्तों का समूह या सेट है, और (ग) यह आदश्र्ाी मूल्यों का समूह है।
इनका तात्पर्य है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र को निर्देशित करने वाले मूल्यों व निर्णय लेने की प्रक्रिया का मोटा उद्देश्य वर्तमान के आदर्शमय नैतिकता के अन्तर्गत ही समस्त सार्वजनिक कार्यो का दिन-प्रतिदिन सम्पादन हो। हर राजनीतिक समाज में अंतिम गन्तव्यों का निर्धारण करना होता है। यह गन्तव्य क्या हों? इन गन्तव्यों का निर्धारण कौन और किस प्रकार करें? हर राजनीतिक समाज के सामने मौलिक प्रश्न यही होते हैं। इन्हीं गन्तव्यों के अन्तिम उद्देश्यों को समाज के आदर्शो का नाम दिया जाता है। हर समाज में इन आदर्शो की रक्षा व प्राप्ति के लिए संरचनात्मक व्यवस्थाएं रहती हैं। यह लोकतंत्रों में ही नहीं, तानाशाही व्यवस्था में भी रहती हैं। परन्तु इन संरचनात्मक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित प्रक्रियाएं लोकतंत्र में और प्रकार की तथा तानाशाही व्यवस्था में और प्रकार की होती हैं। अगर सम्पूर्ण समाज के लिए किए जाने वाले निर्णयों को लेने के सिद्धान्त और विधियां ऐसी हों जिसमें सम्पूर्ण समाज सहभागी रहें तो वह राजनीतिक व्यवस्था लोकतांत्रिक कही जाती है, परन्तु अगर एक ही व्यक्ति या व्यक्ति-समूह सम्पूर्ण समाज के लिए निर्णय लेता है तो वह व्यवस्था तानाशाही मानी जाती है। अत: लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पक्ष निर्णय लेने का ढंग या तरीका है।
(1) निर्णय करने के ढंग में लोकतंत्र-यहां यह प्रश्न उठता है कि किस प्रकार और किसके द्वारा लिये गये निर्णयों को ही लोकतान्त्रिक विधि से लिये गये निर्णय माना जाए? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व अरस्तू ने भी दिया था जो बहुत कुछ आज भी वैध कहा जा सकता है। अरस्तू ने कहा था कि “निर्णय लेने के लोकतान्त्रिक ढंग में पदाधिकारियों का चुनाव सब में से सबके द्वारा तथा सबका हर एक पर और प्रत्येक का सब पर शासन होता है,” अर्थात् लोकतान्त्रिक ढंग से किया गया निर्णय सम्पूर्ण समाज के द्वारा लिया गया निर्णय ही कहा जा सकता है। इससे तात्पर्य यह है कि लोकतंत्र प्रकृति में राजनीतिक समाज में निर्णय लेने का एक विशेष ढंग और उसकी विशेष पूर्व शर्ते होती हैं। इनका विवेचन करके ही यह समझा जा सकता है कि लोकतंत्र का निर्णय लेने के रूप में क्या अर्थ है? अर्थात् वही निर्णय लोकतान्त्रिक ढंग से लिये हुए कहे जाते हैं जिन में-
विचार-विमर्श और सहमति की निर्णय प्रक्रिया में कुछ या अधिकांश लोगों का सम्मिलित होना किसी निर्णय ढंग को लोकतान्त्रिक नहीं बनाता है। इसके लिए निर्णय प्रक्रिया में सारे जन-समाज की सहभागिता का होना अनिवार्य है, अर्थात् निर्णय लेने में राजनीतिक व्यवस्था के सभी नागरिकों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्मिलन आवश्यक है। अगर किसी निर्णय विधि से अधिकांश व्यक्तियों को वंचित रखा गया हो तो वह निर्णय प्रक्रिया लोकतान्त्रिक नहीं कही जा सकती। यहां यह ध्यान रखना है कि जनता के निर्णय प्रक्रिया में सम्मिलित होने के अवसर होने पर भी अगर बहुत बड़ा जन-भाग उससे उदासीन रहकर विलग रहे तो इसे निर्णयों की लोकतान्त्रिका पर आंच नहीं माना जाता है। यहां महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि समाज के कितने लोग निर्णय प्रक्रिया में सहभागी होते हैं वरन यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि कितने लोगों को ऐसा करने के साधन व अवसर प्राप्त हैं। निर्णय प्रक्रिया में सम्पूर्ण समाज को सहभागी बनाने का दूसरा नाम ही लोकतंत्र है। नियतकालिक चुनाव तथा वयस्क मताधिकार, जन-सहभागिता के उपकरण हैं।
विचार-विमर्श तथा जन-सहभागिता के सबको समान अवसर निर्णय विधि को अवश्य ही लोकतान्त्रिक बनाते हैं परन्तु शायद ऐसा सम्भव नहीं कि समाज से सम्बन्धित हर निर्णय पर समस्त जनता की सहमति होती हो। इस सहमति के अभाव में निर्णय लेने की कौन-सी विधि अपनाई जाए कि निर्णय प्रक्रिया की लोकतान्त्रिक प्रकृति बनी रहे और शीघ्रता से निर्णय लिये जा सकें। वैसे तो समस्त जनता की सहमति से लिया गया निर्णय आदर्श कहा जा सकता है, पर व्यवहार में सबके सब निर्णयों पर सहमति असम्भव नही तो दुष्कर अवश्य लगती है। इसलिए सबकी सहमति के अभाव में निर्णय बहुमत के आधार पर किये जाते हैं। इस प्रकार बहुमत के आधार पर किए गए निर्णय लोकतांत्रिक ही माने जाते हैं, क्योंकि इन निर्णयों में अधिकांश लोगों की सहमति सम्मिलित रहती है। यहां यह बात ध्यान देने की है कि बहुमत के आधार पर निर्णय लेना, सबकी सहमति के बाद, निर्णय लेने की श्रेष्ठतम विधि कहा जाता है। अगर बहुमत के आधार पर निर्णय नहीं लिये जाएं तो निर्णय की प्रक्रिया अलोकतान्त्रिक कहलाती है। साथ ही निर्णयों में बहुमत के आधार का परित्याग करना, लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया का ही, परित्याग कहा जा सकता है। यही कारण है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में चुनाव परिणामों से लेकर विधान मण्डलों व मंत्री परिषदों तक में निर्णय बहुमत के आधार पर किये जाते हैं। अभी तक मनुष्य निर्णय लेने का इससे श्रेष्ठतर विकल्प नहीं खोज पाया है। अत: लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की यह आवश्यक शर्त है कि हर स्तर पर निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाएं। यहां यह भी ध्यान रखना है कि बहुमत के अर्थ पर गम्भीर विवाद है। हम इस विवाद में नहीं पड़कर इतना ही कहेंगे कि लोकतंत्र में विभिन्न विकल्पों में से जिसका सापेक्ष बहुमत होता है वही विकल्प निर्णय मान लिया जाता है।
उपरोक्त तथ्य निर्णय के प्रक्रियात्मक पहलुओं से सम्बद्ध है, पर निर्णय प्रक्रियाओं को व्यावहारिकता प्रदान करने के लिए संरचनात्मक आधार भी होना चाहिए। इसलिए ही हर लोकतान्त्रिक समाज में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं के संरचनात्मक आधार संविधान द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। उदाहरण के लिए, यह कहा जा सकता है कि जन-सहभागिता को सम्भव बनाने के लिए सभी लोकतान्त्रिक संविधानों में नियतकालिक चुनावों की व्यवस्था की जाती है। लोकतान्त्रिक ढंग से लिया गया निर्णय संविधान द्वारा व्यवस्थित साधनों की परिधि में ही किया जाता है। हड़ताल, हिंसात्मक तोड़-फोड़ व धरनों के द्वारा शासकों को निर्णय विशेष लेने के लिए बाध्य करना वास्तव में असंवैधानिक साधनों के प्रयोग के कारण निर्णय का अलोकतान्त्रिक ढंग माना जाता है। निर्णय प्रक्रिया को लोकतान्त्रिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएं हों-
लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि एक सीमा तक विचार-विमर्श, बहस व वाद-विवाद की छूट रहे और अन्त में बहुमत के आधार पर निर्णय ले लिए जाएं तथा बहुमत द्वारा लिए गए ऐसे निर्णय सब स्वीकार कर लें। अल्पसंख्यकों को भी बहुमत के ऐसे निर्णय स्वीकार होंगे, क्योंकि इनसे उनके हितों को नुकसान पहुंचने की सम्भावना नहीं होती। परन्तु बहुमत के आधार पर किए गए निर्णय कुछ लोगों का अहित करने वाले होने पर लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया के प्रतिकूल माने जाने लगते हैं। इससे समाज में सहमति तथा आधारभूत मतैक्य समाप्त हो जाता है और समाज के टूटने का मार्ग खुल जाता है। इससे लोकतंत्र का आधार लुप्त हो जाता है।
अगर अब्राहम लिंकन की परिभाषा को लें तो “लोकतंत्र शासन वह शासन है जिसमें शासन जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा हो।” इन परिभाषाओं को अस्वीकार करते हुए कुछ विचारक लोकतंत्र को शासन तक ही सीमित न रखकर इसे व्यापक अर्थ में देखने की बात कहते हैं।
गिडिंग्स का कहना है कि “प्रजातंत्र केवल सरकार का ही रूप नहीं है वरन राज्य और समाज का रूप अथवा इन तीनों का मिश्रण भी है।” मैक्सी ने इसे और भी व्यापक अर्थ में लेते हुए लिखा है कि “बीसवीं सदी में प्रजातंत्र से तात्पर्य एक राजनीतिक नियम, शासन की विधि व समाज के ढांचे से ही नहीं है, वरन यह जीवन के उस मार्ग की खोज है जिसमें मनुष्यों की स्वतंत्र और ऐच्छिक बुद्धि के आधार पर उनमें अनुरूपता और एकीकरण लाया जा सके।” डा0 बेनीप्रसाद ने तो लोकतंत्र को जीवन का एक ढंग माना है।
उपर्युक्त अर्थ व परिभाषाओं से लोकतंत्र एक विशद एवं महत्वाकांक्षी विचार लगता है परन्तु उपरोक्त विवेचन से लोकतंत्र का अर्थ स्पष्ट होने के स्थान पर कुछ भ्रांति ही बढ़ी है। लोकतंत्र की अवधारणा या प्रत्यय के रूप में एक अर्थ नहीं है वरन इसके तीन अन्त:सम्बन्धित अर्थ किये जाते हैं। यह अर्थ हैं- (क) यह निर्णय करने की विधि है, (ख) यह निर्णय लेने के सिद्धान्तों का समूह या सेट है, और (ग) यह आदश्र्ाी मूल्यों का समूह है।
इनका तात्पर्य है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र को निर्देशित करने वाले मूल्यों व निर्णय लेने की प्रक्रिया का मोटा उद्देश्य वर्तमान के आदर्शमय नैतिकता के अन्तर्गत ही समस्त सार्वजनिक कार्यो का दिन-प्रतिदिन सम्पादन हो। हर राजनीतिक समाज में अंतिम गन्तव्यों का निर्धारण करना होता है। यह गन्तव्य क्या हों? इन गन्तव्यों का निर्धारण कौन और किस प्रकार करें? हर राजनीतिक समाज के सामने मौलिक प्रश्न यही होते हैं। इन्हीं गन्तव्यों के अन्तिम उद्देश्यों को समाज के आदर्शो का नाम दिया जाता है। हर समाज में इन आदर्शो की रक्षा व प्राप्ति के लिए संरचनात्मक व्यवस्थाएं रहती हैं। यह लोकतंत्रों में ही नहीं, तानाशाही व्यवस्था में भी रहती हैं। परन्तु इन संरचनात्मक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित प्रक्रियाएं लोकतंत्र में और प्रकार की तथा तानाशाही व्यवस्था में और प्रकार की होती हैं। अगर सम्पूर्ण समाज के लिए किए जाने वाले निर्णयों को लेने के सिद्धान्त और विधियां ऐसी हों जिसमें सम्पूर्ण समाज सहभागी रहें तो वह राजनीतिक व्यवस्था लोकतांत्रिक कही जाती है, परन्तु अगर एक ही व्यक्ति या व्यक्ति-समूह सम्पूर्ण समाज के लिए निर्णय लेता है तो वह व्यवस्था तानाशाही मानी जाती है। अत: लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पक्ष निर्णय लेने का ढंग या तरीका है।
(1) निर्णय करने के ढंग में लोकतंत्र-यहां यह प्रश्न उठता है कि किस प्रकार और किसके द्वारा लिये गये निर्णयों को ही लोकतान्त्रिक विधि से लिये गये निर्णय माना जाए? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व अरस्तू ने भी दिया था जो बहुत कुछ आज भी वैध कहा जा सकता है। अरस्तू ने कहा था कि “निर्णय लेने के लोकतान्त्रिक ढंग में पदाधिकारियों का चुनाव सब में से सबके द्वारा तथा सबका हर एक पर और प्रत्येक का सब पर शासन होता है,” अर्थात् लोकतान्त्रिक ढंग से किया गया निर्णय सम्पूर्ण समाज के द्वारा लिया गया निर्णय ही कहा जा सकता है। इससे तात्पर्य यह है कि लोकतंत्र प्रकृति में राजनीतिक समाज में निर्णय लेने का एक विशेष ढंग और उसकी विशेष पूर्व शर्ते होती हैं। इनका विवेचन करके ही यह समझा जा सकता है कि लोकतंत्र का निर्णय लेने के रूप में क्या अर्थ है? अर्थात् वही निर्णय लोकतान्त्रिक ढंग से लिये हुए कहे जाते हैं जिन में-
- विचार-विनिमय व अनुनयनता,
- जन-सहभागिता,
- बहुमतता,
- संवैधानिकता और
- अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा होती है।
विचार-विमर्श और सहमति की निर्णय प्रक्रिया में कुछ या अधिकांश लोगों का सम्मिलित होना किसी निर्णय ढंग को लोकतान्त्रिक नहीं बनाता है। इसके लिए निर्णय प्रक्रिया में सारे जन-समाज की सहभागिता का होना अनिवार्य है, अर्थात् निर्णय लेने में राजनीतिक व्यवस्था के सभी नागरिकों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्मिलन आवश्यक है। अगर किसी निर्णय विधि से अधिकांश व्यक्तियों को वंचित रखा गया हो तो वह निर्णय प्रक्रिया लोकतान्त्रिक नहीं कही जा सकती। यहां यह ध्यान रखना है कि जनता के निर्णय प्रक्रिया में सम्मिलित होने के अवसर होने पर भी अगर बहुत बड़ा जन-भाग उससे उदासीन रहकर विलग रहे तो इसे निर्णयों की लोकतान्त्रिका पर आंच नहीं माना जाता है। यहां महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि समाज के कितने लोग निर्णय प्रक्रिया में सहभागी होते हैं वरन यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि कितने लोगों को ऐसा करने के साधन व अवसर प्राप्त हैं। निर्णय प्रक्रिया में सम्पूर्ण समाज को सहभागी बनाने का दूसरा नाम ही लोकतंत्र है। नियतकालिक चुनाव तथा वयस्क मताधिकार, जन-सहभागिता के उपकरण हैं।
विचार-विमर्श तथा जन-सहभागिता के सबको समान अवसर निर्णय विधि को अवश्य ही लोकतान्त्रिक बनाते हैं परन्तु शायद ऐसा सम्भव नहीं कि समाज से सम्बन्धित हर निर्णय पर समस्त जनता की सहमति होती हो। इस सहमति के अभाव में निर्णय लेने की कौन-सी विधि अपनाई जाए कि निर्णय प्रक्रिया की लोकतान्त्रिक प्रकृति बनी रहे और शीघ्रता से निर्णय लिये जा सकें। वैसे तो समस्त जनता की सहमति से लिया गया निर्णय आदर्श कहा जा सकता है, पर व्यवहार में सबके सब निर्णयों पर सहमति असम्भव नही तो दुष्कर अवश्य लगती है। इसलिए सबकी सहमति के अभाव में निर्णय बहुमत के आधार पर किये जाते हैं। इस प्रकार बहुमत के आधार पर किए गए निर्णय लोकतांत्रिक ही माने जाते हैं, क्योंकि इन निर्णयों में अधिकांश लोगों की सहमति सम्मिलित रहती है। यहां यह बात ध्यान देने की है कि बहुमत के आधार पर निर्णय लेना, सबकी सहमति के बाद, निर्णय लेने की श्रेष्ठतम विधि कहा जाता है। अगर बहुमत के आधार पर निर्णय नहीं लिये जाएं तो निर्णय की प्रक्रिया अलोकतान्त्रिक कहलाती है। साथ ही निर्णयों में बहुमत के आधार का परित्याग करना, लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया का ही, परित्याग कहा जा सकता है। यही कारण है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में चुनाव परिणामों से लेकर विधान मण्डलों व मंत्री परिषदों तक में निर्णय बहुमत के आधार पर किये जाते हैं। अभी तक मनुष्य निर्णय लेने का इससे श्रेष्ठतर विकल्प नहीं खोज पाया है। अत: लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की यह आवश्यक शर्त है कि हर स्तर पर निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाएं। यहां यह भी ध्यान रखना है कि बहुमत के अर्थ पर गम्भीर विवाद है। हम इस विवाद में नहीं पड़कर इतना ही कहेंगे कि लोकतंत्र में विभिन्न विकल्पों में से जिसका सापेक्ष बहुमत होता है वही विकल्प निर्णय मान लिया जाता है।
उपरोक्त तथ्य निर्णय के प्रक्रियात्मक पहलुओं से सम्बद्ध है, पर निर्णय प्रक्रियाओं को व्यावहारिकता प्रदान करने के लिए संरचनात्मक आधार भी होना चाहिए। इसलिए ही हर लोकतान्त्रिक समाज में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं के संरचनात्मक आधार संविधान द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। उदाहरण के लिए, यह कहा जा सकता है कि जन-सहभागिता को सम्भव बनाने के लिए सभी लोकतान्त्रिक संविधानों में नियतकालिक चुनावों की व्यवस्था की जाती है। लोकतान्त्रिक ढंग से लिया गया निर्णय संविधान द्वारा व्यवस्थित साधनों की परिधि में ही किया जाता है। हड़ताल, हिंसात्मक तोड़-फोड़ व धरनों के द्वारा शासकों को निर्णय विशेष लेने के लिए बाध्य करना वास्तव में असंवैधानिक साधनों के प्रयोग के कारण निर्णय का अलोकतान्त्रिक ढंग माना जाता है। निर्णय प्रक्रिया को लोकतान्त्रिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएं हों-
- जनता के सामने प्रतियोगी पसंदों के अनेक विकल्प,
- मताधिकार की पूर्ण समानता,
- निर्वाचन व निर्वाचित होने की पूर्ण स्वतंत्रता, और
- प्रतिनिधित्व की अधिकतम समरूपता हो।
लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि एक सीमा तक विचार-विमर्श, बहस व वाद-विवाद की छूट रहे और अन्त में बहुमत के आधार पर निर्णय ले लिए जाएं तथा बहुमत द्वारा लिए गए ऐसे निर्णय सब स्वीकार कर लें। अल्पसंख्यकों को भी बहुमत के ऐसे निर्णय स्वीकार होंगे, क्योंकि इनसे उनके हितों को नुकसान पहुंचने की सम्भावना नहीं होती। परन्तु बहुमत के आधार पर किए गए निर्णय कुछ लोगों का अहित करने वाले होने पर लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया के प्रतिकूल माने जाने लगते हैं। इससे समाज में सहमति तथा आधारभूत मतैक्य समाप्त हो जाता है और समाज के टूटने का मार्ग खुल जाता है। इससे लोकतंत्र का आधार लुप्त हो जाता है।
अत: गहराई से देखने पर पता चलता है कि लोकतान्त्रिक राजनीतिक प्रक्रिया वस्तुत: विचार-विमर्श, वाद-विवाद, सामंजस्य और लेन-देन की ही प्रक्रिया है। जिस राजनीतिक समाज में निर्णय लेने का ढंग उपरोक्त तथ्यों के अनुरूप रहता है तो वह राजनीतिक व्यवस्था लोकतान्त्रिक तथा उस समाज के लोगों द्वारा लिए गए निर्णय लोकतान्त्रिक ढंग से लिए गए निर्णय कहे जाएंगे। इन तथ्यों में से किसी एक की अवहेलना या अभाव सम्पूर्ण व्यवस्था की प्रकृति में ही मौलिक परिवर्तन ला देता है।
अत: लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए यह अनिवार्य है कि निर्णय, आपसी विचार-विमर्श, जन सहभागिता और बहुमत के आधार पर लिए जाएं अगर ऐसे निर्णय संवैधानिकतायुक्त व अल्पसंख्यकों के हितों के पोषक हों तो वह लोकतंत्र के सुदृढ़ आधार स्तम्भ हो जाते हैं। इस तरह, निर्णय लेने के ढंग के रूप में लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है जिसमें समाज के लिए व्यवहार के मानदंड स्थापित होते हैं और व्यक्ति की राजनीतिक गतिविधियों का सुनिश्चित प्रतिमान प्रकट होता है।
(2) निर्णय लेने के सिद्धान्तों के रूप में लोकतंत्र- समाज में जो भी राजनीतिक निर्णय लिए जाएं उनका कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होना आवश्यक है अन्यथा निर्णयों में न तो समरूपता रहेंगी और न ही निर्णय दिशात्मक एकता-युक्त बन पाएंगे। इसीलिए हर राजनीतिक समाज में कुछ निश्चित सिद्धान्तों की परिधि होती है जिसके दायरे में लिए गए निर्णय ही दिशात्मक एकता का लक्षण परिलक्षित कर सकते हैं। एक निश्चित सिद्धान्त लोकतंत्रों व निरंकुशतंत्रों में अनिवार्यत: पाये जाते हैं। दोनों प्रकार की प्रणालियों में इन सिद्धान्तों की मौलिक असमानताएं इन दोनों को भिन्न-भिन्न ही नहीं बनाती हैं, अपितु इन्हें एक दूसरे के प्रतिकूल प्रणालियां बना देती हैं। लोकतान्त्रिक प्रणाली उस राजनीतिक व्यवस्था में विद्यमान रह सकती हैं जहां समाज के सम्बन्ध में निर्णय लेने के आधार स्वरूप कुछ सिद्धान्त व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। इन सिद्धान्तों पर आधारित निर्णय ही लोकतान्त्रिक ढंग से लिए गए निर्णय कहे जा सकते हैं।
शासन का प्रतिनिधि स्वरूप ही किसी राजनीतिक व्यवस्था को लोकतान्त्रिक कहने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि शासन-शक्ति के धारक अपने हर निर्णय व कार्य के लिए जनता की धरोहर के रूप में प्राप्त रहती है तथा इस सत्ता का उन्हें जनता के हित में, जनता की उन्नति व प्रगति के लिए ही प्रयोग करना होता है। अगर शासक ऐसा नहीं करते हैं तो वह न जनता के सही प्रतिनिधि रह पाते हैं और न ही उत्तरदायी कहे जा सकते हैं। केवल वही राजनीतिक समाज लोकतान्त्रिक माने जाते हैं। जहां शासक निरन्तर उत्तरदायित्व निभाते हैं। अगर शासक उत्तरदायित्व न निभाएं तो उनको हटाने की व्यवस्था रहती है। नियतकालिक चुनाव शासकों को प्रभावशाली ढंग से नियन्त्रित रखने का अवसर प्रदान करते हैं। यही कारण है कि स्वतंत्र व नियतकालिक चुनाव व्यवस्था को लोकतंत्र की जीवनरक्षक ‘डोर’ का नाम दिया जाता है। चुनाव दोहरे ढंग से किसी व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाने की भूमिका अदा करते हैं। प्रथम, तो इससे लोकप्रिय नियन्त्रण की व्यवस्था होती है तथा दूसरे इससे जनता के प्रतिनिधि ही शासकों के रूप में रहते हैं।
लोकतंत्र में हर व्यक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता रहती है। वह अपने हितों की रक्षा के लिए किसी भी दल का सदस्य बन सकता है तथा किसी भी व्यक्ति को अपने प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित करने के लिए मत दे सकता है। राजनीतिक स्वतंत्रता की व्यावहारिकता ही प्रतियोगी राजनीति कही जाती है। राजनीतिक व्यवस्था में प्रतियोगी राजनीतिक के लिए यह आवश्यक है कि अनेक संगठन, दल व समूह, प्रतियोगी रूप में उस व्यवस्था में सक्रिय रहें। राजनीतिक स्वतंत्रता की अवस्था में ही राजनीतिक दल बनकर जनता के सामने भिन्न-भिन्न प्रकार के दृष्टिकोण एवं नीति सम्बन्धी विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं। इनके द्वारा चुनावों में जनता के सामने अनेक विकल्पों की व्यवस्था होती है तथा जनता इनमें में किसी एक को पसंद करके अपने मन की अभिव्यक्ति करती है। अगर किसी समाज में केवल एक ही विकल्प हो और इस विकल्प के कारण जनता को इसी का समर्थन करना पड़ता हो तो ऐसी राजनीति को प्रतियोगी राजनीति नहीं कहा जा सकता और इसके अभाव में लोकतंत्र नहीं हो सकता है। अत: लोकतंत्र की ‘जीवनरेखा’ ही प्रतियोगी राजनीति है। राजनीतिक समाज में प्रतियोगी राजनीति की व्यवस्था करने के लिए अनिवार्यताएं होती हैं-
लोकतंत्र की परिभाषा में यह स्पष्ट किया गया है कि इस व्यवस्था में शक्ति का स्रोत जनता होती है। जब हम यह कहते हैं कि जनता अपने मत सम्बंधी अधिकार के प्रयोग द्वारा संविधान को अपनी इच्छा के अनुकूल बना सकती है अथवा वह उसके द्वारा अपने प्रतिनिधियों पर नियंत्रण रख सकती है तो इसका तात्पर्य यही होता है कि संप्रभुत्वशक्ति जनता के हाथों में रहती है। इसका यह अर्थ है कि राज्य में जनता सर्वोपरि एवं संप्रभु होती है। क्योंकि उसकी ही इच्छा के अनुसार राज्य शक्ति का प्रयोग करता है। मताधिकार के कारण शासन-सम्बन्धी अन्तिम शक्ति जनता में निहित रहती है। अत: हम जनता को संप्रभु कहते हैं और उसमे निहित शक्ति को जनता की सम्प्रभुता कहा जाता है। लोकतान्त्रिक समाज की पहचान ही जनता की सम्प्रभुता है। इसके माध्यम से ही जनता सरकार को प्रतिनिधि, उत्तरदायी रखने की प्रभावशाली व्यवस्था माना गया है। अत: लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता की सम्प्रभुता का सिद्धान्त अत्यधिक महत्व का है।
मानव समाजों में कुछ आदर्शो व मूल्यों की व्यवस्था से उनसे भी उच्चतर आदर्श उपलब्ध हो जाते हैं। हर समाज में कुछ ऐसे मूल्य होते हैं जिनकी व्यवस्था ही इसलिए की जाती है कि जिससे समाज उनसे भी श्रेष्ठतर मूल्यों को प्राप्त करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकें। व्यक्ति का स्वतंत्रता व सामाजिक समानता में विश्वास ही इसलिए होता है कि इनके सहारे उसके व्यक्तित्व के विकास का सर्वश्रेष्ठ वातावरण प्रस्तुत होता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान किया जाय जिससे हर व्यक्ति अपने ढंग से, बेरोकटोक अपनी पूर्णता के मार्ग पर आगे बढ़ सके। लोकतान्त्रिक समाज का यह आदर्श या मूल्य सर्वाधिक महत्व का माना जाता है। हर व्यक्ति के लिए स्व-अभिव्यक्ति का अवसर व साधन महत्व रखते हैं। मनुष्य के विकास में व्यक्तित्व के भौतिक व बाहरी पहलुओं से कहीं अधिक महत्व उसके आंतरिक पहलुओं का है। मनुष्य चाहता है कि वह परिपूर्ण बने। इसके लिए यह आवश्यक कि उसके व्यक्तिगत व्यक्तित्व का मान-सम्मान हो। इसके अभाव में व्यक्ति के पास सब कुछ होते हुए भी उसे रिक्तता या कुछ कमी महसूस होती है। अत: लोकतंत्र के दृष्टिकोण में, सर्वोच्च मूल्य व राजनीतियों का अन्तिम ध्येय, व्यक्ति की मुक्ति व व्यक्तित्व का सम्मान करना है। यहां यह ध्यान रखना होगा कि व्यक्तिगत व्यक्तित्व के सम्मान का मूल्य राजनीतियों में अन्य मूल्यों की विद्यमानता को अस्वीकार नहीं करता है।
(2) निर्णय लेने के सिद्धान्तों के रूप में लोकतंत्र- समाज में जो भी राजनीतिक निर्णय लिए जाएं उनका कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होना आवश्यक है अन्यथा निर्णयों में न तो समरूपता रहेंगी और न ही निर्णय दिशात्मक एकता-युक्त बन पाएंगे। इसीलिए हर राजनीतिक समाज में कुछ निश्चित सिद्धान्तों की परिधि होती है जिसके दायरे में लिए गए निर्णय ही दिशात्मक एकता का लक्षण परिलक्षित कर सकते हैं। एक निश्चित सिद्धान्त लोकतंत्रों व निरंकुशतंत्रों में अनिवार्यत: पाये जाते हैं। दोनों प्रकार की प्रणालियों में इन सिद्धान्तों की मौलिक असमानताएं इन दोनों को भिन्न-भिन्न ही नहीं बनाती हैं, अपितु इन्हें एक दूसरे के प्रतिकूल प्रणालियां बना देती हैं। लोकतान्त्रिक प्रणाली उस राजनीतिक व्यवस्था में विद्यमान रह सकती हैं जहां समाज के सम्बन्ध में निर्णय लेने के आधार स्वरूप कुछ सिद्धान्त व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। इन सिद्धान्तों पर आधारित निर्णय ही लोकतान्त्रिक ढंग से लिए गए निर्णय कहे जा सकते हैं।
लोकतंत्र के सिद्धांत
- प्रतिनिधि सरकार का सिद्धांत।
- उत्तरदायी सरकार का सिद्धांत।
- संवैधानिक सरकार का सिद्धांत।
- प्रतियोगी राजनीति का सिद्धांत।
- लोकप्रिय सम्प्रभुता का सिद्धांत।
शासन का प्रतिनिधि स्वरूप ही किसी राजनीतिक व्यवस्था को लोकतान्त्रिक कहने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि शासन-शक्ति के धारक अपने हर निर्णय व कार्य के लिए जनता की धरोहर के रूप में प्राप्त रहती है तथा इस सत्ता का उन्हें जनता के हित में, जनता की उन्नति व प्रगति के लिए ही प्रयोग करना होता है। अगर शासक ऐसा नहीं करते हैं तो वह न जनता के सही प्रतिनिधि रह पाते हैं और न ही उत्तरदायी कहे जा सकते हैं। केवल वही राजनीतिक समाज लोकतान्त्रिक माने जाते हैं। जहां शासक निरन्तर उत्तरदायित्व निभाते हैं। अगर शासक उत्तरदायित्व न निभाएं तो उनको हटाने की व्यवस्था रहती है। नियतकालिक चुनाव शासकों को प्रभावशाली ढंग से नियन्त्रित रखने का अवसर प्रदान करते हैं। यही कारण है कि स्वतंत्र व नियतकालिक चुनाव व्यवस्था को लोकतंत्र की जीवनरक्षक ‘डोर’ का नाम दिया जाता है। चुनाव दोहरे ढंग से किसी व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाने की भूमिका अदा करते हैं। प्रथम, तो इससे लोकप्रिय नियन्त्रण की व्यवस्था होती है तथा दूसरे इससे जनता के प्रतिनिधि ही शासकों के रूप में रहते हैं।
लोकतंत्र में हर व्यक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता रहती है। वह अपने हितों की रक्षा के लिए किसी भी दल का सदस्य बन सकता है तथा किसी भी व्यक्ति को अपने प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित करने के लिए मत दे सकता है। राजनीतिक स्वतंत्रता की व्यावहारिकता ही प्रतियोगी राजनीति कही जाती है। राजनीतिक व्यवस्था में प्रतियोगी राजनीतिक के लिए यह आवश्यक है कि अनेक संगठन, दल व समूह, प्रतियोगी रूप में उस व्यवस्था में सक्रिय रहें। राजनीतिक स्वतंत्रता की अवस्था में ही राजनीतिक दल बनकर जनता के सामने भिन्न-भिन्न प्रकार के दृष्टिकोण एवं नीति सम्बन्धी विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं। इनके द्वारा चुनावों में जनता के सामने अनेक विकल्पों की व्यवस्था होती है तथा जनता इनमें में किसी एक को पसंद करके अपने मन की अभिव्यक्ति करती है। अगर किसी समाज में केवल एक ही विकल्प हो और इस विकल्प के कारण जनता को इसी का समर्थन करना पड़ता हो तो ऐसी राजनीति को प्रतियोगी राजनीति नहीं कहा जा सकता और इसके अभाव में लोकतंत्र नहीं हो सकता है। अत: लोकतंत्र की ‘जीवनरेखा’ ही प्रतियोगी राजनीति है। राजनीतिक समाज में प्रतियोगी राजनीति की व्यवस्था करने के लिए अनिवार्यताएं होती हैं-
- राजनीतिक गतिविधियों की पूर्ण स्वतंत्रता,
- दो या दो से अधिक प्रतियोगी दलों या समूहों के रूप में वैकल्पिक पसंदों की विद्यमानता,
- मताधिकार की पूर्ण समानता अर्थात सर्वव्यापी वयस्क मताधिकार की व्यवस्था,
- प्रतिनिधित्व की अधिकतम एकरूपता, और
- नियतकालिक चुनाव।
लोकतंत्र की परिभाषा में यह स्पष्ट किया गया है कि इस व्यवस्था में शक्ति का स्रोत जनता होती है। जब हम यह कहते हैं कि जनता अपने मत सम्बंधी अधिकार के प्रयोग द्वारा संविधान को अपनी इच्छा के अनुकूल बना सकती है अथवा वह उसके द्वारा अपने प्रतिनिधियों पर नियंत्रण रख सकती है तो इसका तात्पर्य यही होता है कि संप्रभुत्वशक्ति जनता के हाथों में रहती है। इसका यह अर्थ है कि राज्य में जनता सर्वोपरि एवं संप्रभु होती है। क्योंकि उसकी ही इच्छा के अनुसार राज्य शक्ति का प्रयोग करता है। मताधिकार के कारण शासन-सम्बन्धी अन्तिम शक्ति जनता में निहित रहती है। अत: हम जनता को संप्रभु कहते हैं और उसमे निहित शक्ति को जनता की सम्प्रभुता कहा जाता है। लोकतान्त्रिक समाज की पहचान ही जनता की सम्प्रभुता है। इसके माध्यम से ही जनता सरकार को प्रतिनिधि, उत्तरदायी रखने की प्रभावशाली व्यवस्था माना गया है। अत: लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता की सम्प्रभुता का सिद्धान्त अत्यधिक महत्व का है।
आदर्श मूल्यों के रूप में लोकतंत्र
लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली की आधारभूत कसौटी इसकी मूल्य व्यवस्था में निहित है। इन्ही मूल्यों के आधार पर किसी व्यवस्था को लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक कहा जा सकता है। कोरी तथा अब्राहम ने लोकतान्त्रिक समाज के निम्नलिखित मूल्यों को आधारभूत बताया है-(1) व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान, (2) व्यक्तिगत स्वतंत्रता, (3) विवेक में विश्वास, (4) समानता, (5) न्याय और (6) विधि का शासन या संविधानवाद।मानव समाजों में कुछ आदर्शो व मूल्यों की व्यवस्था से उनसे भी उच्चतर आदर्श उपलब्ध हो जाते हैं। हर समाज में कुछ ऐसे मूल्य होते हैं जिनकी व्यवस्था ही इसलिए की जाती है कि जिससे समाज उनसे भी श्रेष्ठतर मूल्यों को प्राप्त करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकें। व्यक्ति का स्वतंत्रता व सामाजिक समानता में विश्वास ही इसलिए होता है कि इनके सहारे उसके व्यक्तित्व के विकास का सर्वश्रेष्ठ वातावरण प्रस्तुत होता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान किया जाय जिससे हर व्यक्ति अपने ढंग से, बेरोकटोक अपनी पूर्णता के मार्ग पर आगे बढ़ सके। लोकतान्त्रिक समाज का यह आदर्श या मूल्य सर्वाधिक महत्व का माना जाता है। हर व्यक्ति के लिए स्व-अभिव्यक्ति का अवसर व साधन महत्व रखते हैं। मनुष्य के विकास में व्यक्तित्व के भौतिक व बाहरी पहलुओं से कहीं अधिक महत्व उसके आंतरिक पहलुओं का है। मनुष्य चाहता है कि वह परिपूर्ण बने। इसके लिए यह आवश्यक कि उसके व्यक्तिगत व्यक्तित्व का मान-सम्मान हो। इसके अभाव में व्यक्ति के पास सब कुछ होते हुए भी उसे रिक्तता या कुछ कमी महसूस होती है। अत: लोकतंत्र के दृष्टिकोण में, सर्वोच्च मूल्य व राजनीतियों का अन्तिम ध्येय, व्यक्ति की मुक्ति व व्यक्तित्व का सम्मान करना है। यहां यह ध्यान रखना होगा कि व्यक्तिगत व्यक्तित्व के सम्मान का मूल्य राजनीतियों में अन्य मूल्यों की विद्यमानता को अस्वीकार नहीं करता है।
व्यक्तियों व समूहों के और भी श्रेष्ठतर आदर्श हो सकते हैं। ये मूल्य वास्तव में इनका विरोध नहीं है। यह तो वास्तव में अन्य आदर्शो व मूल्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अनिवार्यत: उन्मुक्त बना देता है। अत: लोकतंत्र व्यवस्था का सबसे अधिक महत्वपूर्ण मूल्य, जिससे अन्य मूल्यों की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है, व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान है। वास्तव में लोकतान्त्रिक व्यवस्था का यह ऐसा आधार स्तम्भ है जिसके सहारे अन्य मूल्य भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
लोकतान्त्रिक समाज का दूसरा महत्वपूर्ण मूल्य स्वतंत्रता का है। लोकतंत्र के विचार के इतिहास में इस शब्द का कई अर्थो में प्रयोग हुआ है। एक राजनीतिक आदर्श के रूप में स्वतंत्रता के नकारात्मक और सकारात्मक दो पहलू माने जाते हैं। इसके नकारात्मक पहलू में स्वतंत्रता का अर्थ बन्धनों का अभाव है, तथा सकारात्मक रूप में इसका अर्थ जीवन की उन परिस्थितियों व स्थितियों के होने से लिया जाता है जिसमें व्यक्ति अपने सही स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। इसके अर्थ के नकारात्मक व सकारात्मक पहलू आपस में बेमेल पड़ते हैं। इसलिए स्वतंत्रता यह अर्थ सभी प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव, अराजकता व अव्यवस्था का मार्ग तैयार करता है जो इसके दूसरे अर्थ को अव्यावहारिक बना देता है। अत: लोकतान्त्रिक मूल्य में स्वतंत्रता का सही अर्थ समझना आवश्यक है।
सीले के अनुसार ‘स्वतंत्रता अति शासन का विलोम है।’ लास्की की मान्यता है कि स्वतंत्रता वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति बिना किसी बाहरी बाधा के अपने जीवन के विकास के तरीके को चुन सकता है। अत: स्वतंत्रता सब प्रकार के प्रतिबंधों का अभाव नहीं, अपितु अनुचित के स्थान पर उचित प्रतिबंधों की व्यवस्था है, अर्थात् स्वतंत्रता का तात्पर्य नियंत्रणों के अभाव, उच्छंृखलता से न होकर उस नियंत्रित स्वतन्त्रता से है जो उचित प्रतिबंधों द्वारा मर्यादित हो। लोकतंत्र में स्वतंत्रता का यही अर्थ लिया जाता है। इसी अर्थ में यह लोकतान्त्रिक समाजों में सर्वप्रिय मूल्य के रूप में अपनाया जाता है। अत: स्वतंत्रता का लोकतान्त्रिक मूल्य के रूप में तात्पर्य वैयक्तिक व्यवहार की नियमितता और मर्यादा से है। इसका सम्बन्ध आवश्यक रूप से समाज की इकाई के रूप में व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से होता है जिससे व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान हो सके।
अब्राहम का कहना है कि ‘लोकतांन्त्रिक आदर्श में यह धारणा सन्निहित है कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है जो कार्य करने के सिद्धान्तों का निर्णय करने और अपनी निजी इच्छाओं को उन सिद्धान्तों के अधीनस्थ बनाए रखने में समर्थ है। वास्तव में यह धारणा अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि व्यक्ति विवेक की पुकार नहीं सुनेंगे तो लोकतंत्र एक स्थायी शासन प्रणाली कभी नहीं बन सकेगी। व्यक्तियों के परस्पर विरोधी दावों, उद्देश्यों और हितों में विवाद और वार्त द्वारा तब तक कभी सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि ऐसे सामान्य स्वीकृत नियमों का अस्तित्व न हो, जिनके आधार पर वार्ता या विवाद में किस पक्ष की जीत मानी जाएगी इसका, निर्णय न किया जा सके। इन नियमों में सबसे साधारण और स्पष्ट नियम तो यही है कि बहुमत का निर्णय और विचार ही मान्य होना चाहिए। यहां यह ध्यान रखना होगा कि बहुमत का कोरा सिद्धांत भी उसी प्रकार अविवेकपूर्ण है जिस प्रकार कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली धारणा। मनुष्य केवल विवेकी यंत्र ही नहीं है अपितु वह भावनाओं का पुतला भी है। अत: लोकतान्त्रिक आदर्श को यह मानकर चलना होगा कि प्रयत्नों से मनुष्य को भावनाओं के स्तर से विवेक के स्तर पर लाया जा सकता है जिससे वह अपने मतभेदों को बातचीत करके या कुछ सिद्धान्तों का सहारा लेकर तय कर सके। इस प्रकार लोकतान्त्रिक आदर्श में मनुष्य की विवेकशीलता की धारणा सन्निहित होनी चाहिए। अगर मनुष्य की विवेकशीलता की बात छोड़ दी जाय तो लोकतान्त्रिक समाज के स्थान पर अराजक समाज ही स्थापित होगा।
ऐसा कहा जाता है कि स्वतंत्रता समानता से अविच्छिन्न रूप से सम्बन्धित है। इसलिए ही शायद आशीर्वादम ने यह कहा है कि ‘फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने जब युद्ध घोषणा करते हुए स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का नारा लगाया था तब वे न तो पागल थे और न मूर्ख। इसका संकेत इस बात की ओर है कि स्वतंत्रता के मूल्य की क्रियान्विति के लिए समानता के मूल्य का अस्तित्व आवश्यक है। समानता प्रजातंत्र की स्थापना का एक प्रधान तत्व है। इसका सामान्य अर्थ उन विषमताओं के अभाव से लिया जाता है जिसके कारण असमानता पनपती है। समाज में दो प्रकार की असमानता पाई जाती है। एक प्रकार असमानता वह है जिसका मूल व्यक्तियों की प्राकृतिक असमानता है, परन्तु इस प्रकार की असमानता का कोई निराकरण सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए इस समानता से किसी को शिकायत नहीं रहती है।
दूसरे प्रकार असमानता वह है जिसका मूल समाज द्वारा उत्पन्न की हुई विषमता होती है। हम देखते है कि बुद्धि, बल और प्रतिभा की दृष्टि से अच्छे होने पर भी निर्धन व्यक्तियों के बच्चे अपने व्यक्तित्व का वैसा विकास नहीं कर पाते, जैसा विकास बुद्धि, बल और प्रतिभा की दृष्टि से निम्नतर स्तर के होते हुए भी, धनिकों के बच्चे कर लेते हैं। इस प्रकार की असमानता का कारण समाज द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों का वह वैषम्य होता है जिसके कारण सब लोगों को व्यक्तित्व विकास का समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है। अत: राजनीतिक समाज में समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है, जिसके कारण सब व्यक्तियों को व्यक्तित्व विकास के समान अवसर प्राप्त हो सकें।
लोकतान्त्रिक दृष्टि से समानता का राजनीतिक पहलू महत्वपूर्ण है। समानता के राजनीतिक रूप का अर्थ यह है कि राजनीतिक व्यवस्था में सभी वयस्क नागरिकों को समान नागरिक और राजनीतिक अधिकार उपलब्ध हों। राजनीतिक समानता का यह आशय नहीं है कि राज्य में प्रत्येक व्यक्ति समान राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग कर सके। समानता का यह पक्ष किसी समाज के नागरिकों को शासन-प्रक्रिया में सम्मिलित करने की व्यवस्था मानता है। इससे सभी व्यक्तियों को समान रूप से शासन में भाग लेने का अवसर मिल जाता है। इसमें वोट देना, निर्वाचित पद के लिए उम्मीदवार होना व सरकारी पद प्राप्त करना प्रमुख है। इन सब में सबको अवसरों की समानता देना ही राजनीतिक समानता कही जाती है। यह लोकतंत्र का आधार मानी जाती है। समानता का दूसरा पक्ष नागरिक समानता है। उसका तात्पर्य सभी को नागरिकता के समान अवसर प्राप्त होने से होता है। नागरिक समानता की अवस्था में व्यक्ति के मूल अधिकार सुरक्षित होने चाहिए तथा सभी को कानून का संरक्षण समान रूप से प्राप्त होना चाहिये।
लोकतंत्र शासन व्यवस्था की श्रेष्ठता को सभी स्वीकार करते हैं। शायद इसलिए ही आज दुनिया का हर राज्य लोकतान्त्रिक होने का दावा करने लगा है। इस प्रणाली के गुणों की विद्वानों ने लम्बी-लम्बी सूचियां प्रस्तुत की हैं। इसके पक्ष में व्यावहारिक तर्को से लेकर नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक तर्क तक दिये गये हैं। प्रो0 डब्लू0 ई0 हाकिंग ने तो लोकतंत्र व्यवस्था के पक्ष को पुष्ट करते हुए यहां तक कहा है कि सी0डी0 बन्र्स ने लोकतंत्र का गुणगान करते हुए लिखा है कि लोकतंत्र आत्म शिक्षा का सर्वोत्तम साधन है। इससे स्पष्ट है कि लोकतंत्र प्रणाली की श्रेष्ठता तथा इससे होने वाले लाभों को सभी स्वीकार करते हैं। संक्षेप में, इस शासन व्यवस्था के गुण निम्नलिखित माने जा सकते हैं-
लोकतान्त्रिक दृष्टि से समानता का राजनीतिक पहलू महत्वपूर्ण है। समानता के राजनीतिक रूप का अर्थ यह है कि राजनीतिक व्यवस्था में सभी वयस्क नागरिकों को समान नागरिक और राजनीतिक अधिकार उपलब्ध हों। राजनीतिक समानता का यह आशय नहीं है कि राज्य में प्रत्येक व्यक्ति समान राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग कर सके। समानता का यह पक्ष किसी समाज के नागरिकों को शासन-प्रक्रिया में सम्मिलित करने की व्यवस्था मानता है। इससे सभी व्यक्तियों को समान रूप से शासन में भाग लेने का अवसर मिल जाता है। इसमें वोट देना, निर्वाचित पद के लिए उम्मीदवार होना व सरकारी पद प्राप्त करना प्रमुख है। इन सब में सबको अवसरों की समानता देना ही राजनीतिक समानता कही जाती है। यह लोकतंत्र का आधार मानी जाती है। समानता का दूसरा पक्ष नागरिक समानता है। उसका तात्पर्य सभी को नागरिकता के समान अवसर प्राप्त होने से होता है। नागरिक समानता की अवस्था में व्यक्ति के मूल अधिकार सुरक्षित होने चाहिए तथा सभी को कानून का संरक्षण समान रूप से प्राप्त होना चाहिये।
लोकतंत्र शासन व्यवस्था की श्रेष्ठता को सभी स्वीकार करते हैं। शायद इसलिए ही आज दुनिया का हर राज्य लोकतान्त्रिक होने का दावा करने लगा है। इस प्रणाली के गुणों की विद्वानों ने लम्बी-लम्बी सूचियां प्रस्तुत की हैं। इसके पक्ष में व्यावहारिक तर्को से लेकर नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक तर्क तक दिये गये हैं। प्रो0 डब्लू0 ई0 हाकिंग ने तो लोकतंत्र व्यवस्था के पक्ष को पुष्ट करते हुए यहां तक कहा है कि सी0डी0 बन्र्स ने लोकतंत्र का गुणगान करते हुए लिखा है कि लोकतंत्र आत्म शिक्षा का सर्वोत्तम साधन है। इससे स्पष्ट है कि लोकतंत्र प्रणाली की श्रेष्ठता तथा इससे होने वाले लाभों को सभी स्वीकार करते हैं। संक्षेप में, इस शासन व्यवस्था के गुण निम्नलिखित माने जा सकते हैं-
- शासक जन-कल्याण के प्रति सजग, अनुक्रियाशील तथा जागरूक रहते हैं।
- जन शिक्षण का श्रेष्ठतम माध्यम है।
- सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सुधार के लिए समुचित वातावरण की व्यवस्था होती है।
- उच्च कोटि का राष्ट्रीय चरित्र विकसित करने में सहायक है।
- स्वावलम्बन व व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की भावना का विकास करता है।
- देशभक्ति का स्रोत है।
- क्रान्ति से सुरक्षा प्रदान करता है।
- शासन कार्यो में जन-सहभागिता की व्यवस्था करता है।
- व्यक्ति की गरिमा का सम्मान तथा समानता का आदर्श प्रस्तुत करता है।
लोकतंत्र शासन व्यवस्थाओं के यह गुण अधिकांशत: सैद्धान्तिक ही रह जाते हैं। व्यवहार में इनकी उपलब्धि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। केवल अवसर या वातावरण ही काफी नहीं होता है। फिर यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यवहार में समानता, न्याय तथा जन-सहभागिता की लोकतंत्र में व्यवस्था हो पाती है? इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि इसमें लोकतंत्र व्यवस्था का कोई दोष नहीं है। अगर कोई सैद्धान्तिक व्यवस्था व्यावहारिक नहीं बन पाती है तो दोष उन व्यक्तियों का है जो उसे क्रियान्वित करते हैं न कि उस व्यवस्था का।
लोकतंत्र के लाभ व्यवहार में प्राप्त हो सकें इसके लिए नागरिकों का ईमानदार, कर्त्तव्यपरायण व समझदार होना ही पर्याप्त नहीं होता है। इसके लिए आर्थिक विषमताओं का अभाव, सामाजिक समानता, राजनीतिक स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता का होना भी अनिवार्य है।
लोकतंत्र के गुण
लोकतंत्र शासन व्यवस्था की श्रेष्ठता को सभी स्वीकार करते हैं। शायद इसलिए ही आज दुनिया का हर राज्य लोकतान्त्रिक होने का दावा करने लगा है। इस प्रणाली के गुणों की विद्वानों ने लम्बी-लम्बी सूचियां प्रस्तुत की हैं। इसके पक्ष में व्यावहारिक तर्को से लेकर नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक तर्क तक दिये गये हैं। प्रो0 डब्लू0 ई0 हाकिंग ने तो लोकतंत्र व्यवस्था के पक्ष को पुष्ट करते हुए यहां तक कहा है कि लोकतंत्र चेतन और उपचेतन मन की एकता है । सी0डी0 बन्र्स ने लोकतंत्र का गुणगान करते हुए लिखा है कि लोकतंत्र आत्म शिक्षा का सर्वोत्तम साधन है। इससे स्पष्ट है कि लोकतंत्र प्रणाली की श्रेष्ठता तथा इससे होने वाले लाभों को सभी स्वीकार करते हैं। संक्षेप में, इस शासन व्यवस्था के गुण निम्नलिखित माने जा सकते हैं-- शासक जन-कल्याण के प्रति सजग, अनुक्रियाशील तथा जागरूक रहते हैं।
- जन शिक्षण का श्रेष्ठतम माध्यम है।
- सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सुधार के लिए समुचित वातावरण की व्यवस्था होती है।
- उच्च कोटि का राष्ट्रीय चरित्र विकसित करने में सहायक है।
- स्वावलम्बन व व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की भावना का विकास करता है।
- देशभक्ति का स्रोत है।
- क्रान्ति से सुरक्षा प्रदान करता है।
- शासन कार्यो में जन-सहभागिता की व्यवस्था करता है।
- व्यक्ति की गरिमा का सम्मान तथा समानता का आदर्श प्रस्तुत करता है।
फिर यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यवहार में समानता, न्याय तथा जन-सहभागिता की लोकतंत्र में व्यवस्था हो पाती है? इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि इसमें लोकतंत्र व्यवस्था का कोई दोष नहीं है। अगर कोई सैद्धान्तिक व्यवस्था व्यावहारिक नहीं बन पाती है तो दोष उन व्यक्तियों का है जो उसे क्रियान्वित करते हैं न कि उस व्यवस्था का। लोकतंत्र के लाभ व्यवहार में प्राप्त हो सकें इसके लिए नागरिकों का ईमानदार, कर्त्तव्यपरायण व समझदार होना ही पर्याप्त नहीं होता है। इसके लिए आर्थिक विषमताओं का अभाव, सामाजिक समानता, राजनीतिक स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता का होना भी अनिवार्य है।
लोकतंत्र के दोष
लोकतंत्र प्रणाली को कार्यरूप देने में व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कुछ विचारक केवल इसके विपक्ष को ही सबल मानते हैं। इन व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण लोकतंत्र की कड़ी आलोचना की जाती रही है। कुछ विद्वान तो यहां तक कहने लगे हैं कि लोकतंत्र का अब कोई उपयोग नही रहा है क्योंकि अब कहीं भी सच्चे अर्थ में लोकतान्त्रिक व्यवस्था नहीं पाई जाती है। यह सही है कि सैद्धान्तिक श्रेष्ठता के बावजूद लोकतंत्र का क्रियान्वयन कई दोषों का सृजन कर देता है। लॉर्ड ब्राइस ने इसके निम्नलिखित दोष बतलाए हैं-- शासन-व्यवस्था या विधान को विकृत करने में धन-बल का प्रयोग।
- राजनीति को कमाई का पेशा बनाने की ओर झुकाव।
- शासन-व्यवस्था में अनावश्यक व्यय।
- समानता के सिद्धान्त का अपव्यय और प्रशासकीय पटुता या योग्यता के उचित मूल्य का न आंका जाना।
- दलबन्दी या दल संगठन पर अत्यधिक बल।
- विधान सभाओं के सदस्यों तथा राजनीतिक अधिकारियों द्वारा कानून पास कराते समय वोटों को दृष्टि में रखना और समुचित व्यवस्था के भंग को सहन करना।
Me Sandeep thanks for you
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