नैदानिक परीक्षण क्या है अच्छे नैदानिक परीक्षण की विशेषताएँ?

नैदानिक परीक्षण उपलब्धि परीक्षण का ही एक प्रकार है, जिसका महत्व उपलब्धि परीक्षण से अधिक है। नैदानिक परीक्षण का प्रयोग मुख्य रुप से निर्देशन एवं सुधार के लिए किया जाता है।

नैदानिक परीक्षण उपलब्धि परीक्षण का ही एक रुप है जिसका महत्व उपलब्धि परीक्षणों की तुलना में कहीं अधिक है। उपलब्धि परीक्षण एक ऐसा अभिकल्प है जो एक विषय या पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों में विद्यार्थियों के समझ, कौशल एवं ज्ञान का मापन करता है। इसके उद्देश्यों के रुप में ज्ञान संबोधन अनुप्रयोग विश्लेषण संश्लेषण एवं मूल्यों की ओर संकेत किया जा सकता है जबकि निदानात्मक परीक्षण वे परीक्षण कहे जाते हैं जो सुधार, निदान आदि से संबंधित होते हैं। नैदानिक परीक्षण विद्यार्थियों के गुणों एवं अवगुणों दोनों से ही संबंधित ज्ञान प्रस्तुत करते है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यही परीक्षण ऐसे अधिक संपूर्णक प्रदान करते हें। 

कुछ शिक्षाशास्त्री इस परीक्षणो को नैदानिक मानते हैं, वहीं कुछ शिक्षाशास्त्री परीक्षण में नैदानिक विशेषताओं का अभाव देखकर उसे न प्रयोग करने की सलाह देते हैं। यदि एक विद्याथ्री गणित परीक्षण के एक भाग गणितीय गणना पर अधिक अंक नहीं प्राप्त करता है। वरन् वह परीक्षण के दूसरे भाग गणितीय तर्कना पर अधिक अंक प्राप्त करता है तो नि:संदेह यह परीक्षण उसके कमियों की और संकेत करता है तथा हमें यह संकेत प्रदान करता है कि गणितीय तर्कना में अधिक अंक प्राप्त करने के कारण वह अपने जीवन में समस्याओं का समाधान अधिक तर्कपूर्ण ढंग से करेगा। इस सूचना से एक निदानात्मक संकेत मात्र होता है।

निदान वास्तव में मात्रा का विषय है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि एक या अधिक क्षेत्रों की विशेषताओं, कमियों, कठिनाइयों, हीनता आदि के बारे में नैदानिक परीक्षणों के द्वारा सूचना प्राप्त की जा सकती है। यह सत्य है कि नैदानिक परीक्षण भी एक प्रकार के उपलब्धि परीक्षण ही हैं, परन्तु दोनों के उद्देश्यों में भिन्नता पाई जाती है। नैदानिक परीक्षणों में संपूर्ण प्राप्तांक महत्वपूर्ण होते हैं जो विद्याथ्री में पाये जाने वाली विशेषताओं तथा कमियों को इंगित करते हैं। नैदानिक परीक्षण प्राय: परीक्षण माला के रुप में होते हैं जिसके अलग-अलग खण्डों से हमें भिन्नतापरक जानकारी प्राप्त होता हैद्य जिससे शिक्षक आवश्यकतानुसार अपने शिक्षण शैली में परिवर्तन लाकर विद्यार्थियों का समुचित विकास कर सकता है। पठन-पाठन की क्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिए नैदानिक परीक्षणों का अधिकतम उपयोग शिक्षकों द्वारा किया जाता रहा है। 

 नैदानिक परीक्षणों के निर्माण में उपलब्धि परीक्षण के सभी सोपानों का ही प्रयोग किया जाता है परन्तु इसमें विद्याथ्री की विशिष्टता अथवा कमजोरी का पता लगाने का प्रयास किया जाता है। इसका विस्तार क्षेत्र अपेक्षाकृत संकीर्ण होता है क्योंकि यह विद्याथ्री के विशिष्टता अथवा हीनता से ही संबंधित होता है। नैदानिक परीक्षण में ज्ञान को नहीं, वरन कौशल के अर्जन एवं विकास की दिशा हीपहचानी जा सकती है। यह व्यक्ति केन्द्रित भी होता हे और समूह केन्द्रित भी। विद्याथ्री केन्द्रित वैज्ञानिक परीक्षण विद्याथ्री की कमजोरी से संबंधित है जबकि समूह केन्द्रित नैदानिक परीक्षणों को संबंध समूह विशेष की कमजोरियों अथवा विशिष्टताओं से होता है।

विद्याथ्री केन्द्रित नैदानिक परीक्षणों में विद्याथ्री संबंधित परीक्षण पद होते है जबकि समूह केन्द्रित नैदानिक परीक्षणों-समूह केन्द्रित तथा व्यक्ति-केन्द्रित दो प्रकार की त्रुटियाँ-व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्राप्त होती हैं जिनके निवारण के लिए क्रमश: वैयक्तिक उपचारात्मक अध्यापन प्रणाली तथा सामूहिक उपचारात्मक अध्यापन प्रणाली का प्रयोग किया जाता हैं। इस परीक्षण के द्वारा विद्यार्थियों के कौशल विशेष के संदर्भ में विद्याथ्री की कमजोरी ज्ञान करना ही शिक्षक का उत्तरदायित्व नहीं है, वरन उन कमजोरियों/हीनता/ त्रुटियों का उनमूलन करना भी मनोवैज्ञानिक का पुनीत कर्तव्य है। अत: नैदानिक परीक्षण वह क्रिया है, जो शिक्षक द्वारा अपने विद्याथ्री के असंतुलित व्यक्तिव, कुसमायोजित व्यवहार, आदि परिस्थितियों को दूर करने में की जाने वाली क्रिया है, इसमें संयम, धर्य की बहुत आवश्यकता होती है, जिस तरह चिकित्सक अपने मरीज की बीमारी सुनकर, बीमारी के कारणों की जाँच करता है, ताकि उसका सही उपचार किया जा सके, उसी तरह शिक्षक भी विद्याथ्री के अध्ययन में रुकावट या मंद गति के कारणों का अध्ययन करता है, ताकि वह उसको दूर कर विद्याथ्री की अधिगम क्रिया का विकास कर सके।

जैसा कि हम जानते है कि नैदानिक परीक्षण उपलब्धि परीक्षण का ही प्रकार है जिसका उपयोग उपलब्धि परीक्षणों की तुलना में कही अधिक है। नैदानिक परीक्षण सुधार, निदान, सुझाव आदि से संबंधित होते है ये विद्याथ्री के गुणों एवं अवगुणों का चित्र प्रस्तुत करते है।

नैदानिक परीक्षण की परिभाषा

1. योकम व सिम्पसन - ‘‘निदानात्मक परीक्षण वह साधन है, जो शैक्षिक वैज्ञानिकों के द्वारा विद्यार्थियों की कठिनाईयों को ज्ञात करने और यथासंभव उन कठिनाइयों के कारणों को व्यक्त करने के लिए निर्मित किया गया है।’’

2. क्रो व क्रो - ‘‘निदानात्मक परीक्षणों का निर्माण, विद्यार्थियों की अधिगम संबंधी विशिष्ट कठिनाइयों का ज्ञान प्राप्त करने या निदान करने के लिए किया जाता है। पूर्ण सावधानी से निर्मित किए गए निदानात्मक परीक्षण में किसी विशेष विषय के अधिगम के किसी विशेष पक्ष पर बल दिया जाता है ताकि छात्र की योग्यताओं और कमजोरियों को ज्ञान किया जा सके और उपचारात्मक शिक्षण का प्रयोग किया जा सके।’’

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते है, कि विद्याथ्री की अधिगम संबंधी कुछ कठिनाईयाँ ऐसी होती हैं, जिनको शिक्षक साधारण अवलोकन या निरीक्षण से ज्ञान नहीं कर सकता है। उसे इस कार्य में सहायता देते हैं - प्रमापीकृत नैदानिक परीक्षण।

नैदानिक परीक्षण की आवश्यकता

यदि विद्यार्थियों की कठिनाईयाँ का पता लगाकर उसको दूर किया न गया तो वह कक्षा में पिछड़ जायेगा। यदि किसी विषय के शिक्षण में इकाई योजना को सफल बनाना चाहते हैं तो प्रत्येक विद्याथ्री की आवश्यकताओं का ध्यान रखना पड़ेगा और उस दशा में प्रत्येक विद्याथ्री की शैक्षिक प्रगति में कमी का दायित्व शिक्षक का ही होगा। नैदानिक परीक्षण द्वारा शिक्षक को उन विद्यार्थियों का पता लगाना होगा, जो किसी विषयक को सीखने में कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं। उसे यह भी पता लगाना होगा कि उन विद्यार्थियों को किस-किस स्थल पर कठिनाई होती है? उन कठिनाइयों और दोषों का क्या कारण है? जैसे - किस शासक ने कब शासन कियाए महत्वपूर्ण घटनाएँए नागरिक जीवन में व्यक्ति के अधिकार एवं कर्तव्य क्या हैं? नैदानिक विद्यार्थियों द्वारा उन सभी सम्भव कारणों का विश्लेषण करना होगा, जिनके कारण कोई विद्याथ्री त्रुटियाँ करता है।

नैदानिक परीक्षण के उपयोग

कक्षा में पाठन करते समय विद्याथ्री जो अशुद्धियाँ करते है, उन्हें दूर करने के लिए शैक्षिक निदान की आवश्यकता होती है, हम कह सकते हैैं, कि शिक्षक अधिगम संबंधी कठिनाईयों का निदान कर उपयुक्त उपचार देता है। शैक्षिक निदान हेतु नैदानिक परीक्षण बनाए जाते हैैं।

कुप्पूस्वामी ने नैदानिक परीक्षण की उपयोगिता के विषय में लिखा है कि ‘‘ नैदानिक परीक्षणों को हमें यह बतलाना चाहिए कि बालक क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता है क्योंकि जब हमें इस बात का ज्ञान हो जाएगा कि वे विषयों में उनकी रुचियाँ और अभियोग्यताएं हैं, तब हम उनके प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर सकेगें। जैसा कि हम जानते है कि स्कूलों में उपलब्धि परीक्षणों को उपयोग किया जाता है जिससे यह पता चलता है कि विद्याथ्री ने क्या और कितना सीखा। इसी आधार पर सफल एवं असफल घोषित किया जाता है तथा वर्गीकरण भी किया जाता है। लेकिन जो विद्याथ्री असफल हो गये उसका क्या कारण है? इसका पता उपलब्धि परीक्षणों से नहीं होता है। इसके लिए नैदानिक परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है। ये परीक्षण एक दूसरे के पूरक होते है। शैक्षिक मापन में दोनों परीक्षाओं को सम्मिलित किया जाता है। नैदानिक परीक्षण के उपयोग निम्नलिखित है -
  1. अधिगम की प्रक्रिया के अवरोधक कारणों को ढूंढ़ना। 
  2. विद्यार्थियों एवं अभिभावकों अभिभावकों को उचित सुझाव या निर्देशन देना। 
  3. शिक्षक - शिक्षण प्रक्रिया में सुधार लाना। 
  4. कमजोर विद्यार्थियों की पहचान करना। 
  5. विद्यार्थियों की विषयगत कठिनाईयों के कारण का पता करना। 
  6. शिक्षण प्रक्रिया में सुधार हेतु उपचारात्मक शिक्षण की दिशा निदेर्शित करना। 
  7. विद्यार्थियों की कमियों को जानने हेतु उपयुक्त मूल्यांकन प्रक्रिया को अपनाना। 
  8. भाषा के संदर्भ में विद्यार्थियों की न्यूनताओं एवं विशिष्टताओं का मूल्यांकन करना। 
  9. सामाजिक पर्यावरणीय अध्ययन में सुधार लाना। यह छात्र तथा शिक्षक दोनों के लिये लाभप्रद होता है। यदि छात्र सामाजिक पर्यावरण के किन्हीें प्रत्ययों को स्पष्ट नहीं समझते तो शिक्षक को अपनी विधि में परिवर्तन लाना होता है। 
  10. सामाजिक पर्यावरणीय विषय के अंतर्गत पिछड़े छात्रों को पहचानना, जिससे सुधार हेतु निदान संभव हो सके। 
  11. विद्यार्थियों के विषय संबंधित विकास में रुकावट आने वाले तत्वों को जानना तथा उपचारात्मक सुझाव देना। 
  12. अध्ययन पद्धतियों को दिशा-निर्देशन करना। 
  13. सामाजिक पर्यावरणीय विषयक दुर्बलता को आंकना और उसके आधार पर सामूहिक उपचारात्मक पद्धति अपनाना। 
  14. विद्यार्थियों की कमियों को जानने हेतु उपयुक्त मूल्यांकन प्रक्रिया का प्रयोग करना। 
  15. पाठ्यक्रम तथा पाठ्य-वस्तु में कमियों के आधार पर परिवर्तन लाना, जिससे वे विद्यार्थियों के लिये उपयोगी हो। 
  16. नैदानिक परीक्षण को प्रयोग से शिक्षण एवं मूल्यांकन दोनों में गतिशीलता बनी रहती है। यह गतिशीलता शिक्षक तथा विद्यार्थियों दोनों में समयानुकूल आचरण का विकास करती है। उन्हें पिछड़ेपन से बचाती हैं।  
  17. शिक्षक तथा विद्यार्थियों के आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है और वह आगे बढ़ने के लिये स्व-प्रेरणा संचालित होती है। 
  18. इससे सुधारवादी दृष्टिकोण का प्रार्दुभाव होता है। इसके आयोजन से विद्यार्थियों की क्षमताओं का उच्चतम सीमा तक किया जा सकता है तथा उसको अधिकतम समाजोपयोगी बनाया जा सकता है।

कुछ नैदानिक परीक्षण

विभिन्न विषयों में विद्यार्थी की कमियों तथा कमजोरियों का पता लगाने के लिए हम नैदानिक परीक्षणों का प्रयोग करते हैं। अपने उद्देश्य के लिये या तो हम स्वयं नैदानिक परीक्षण का निर्माण करते हैं अथवा किसी निर्मित परीक्षण का प्रयोग कर नैदानिक परीक्षणों के नाम नीचे दिये गये हैं -
  1. कम्पास डायगोनिस्टिक अरिथमैटिक टेस्ट, 
  2. गेट्स-मैककिलोप रीडिंग डायगोनिस्टिक टेस्ट्स, 
  3. स्टेनफोर्ड डायगोनिस्टिक रीडिंग टेस्ट 
  4. ड्युरेल अनालेसिस ऑफ रीडिंग डिफीकल्टी, 
  5. प्रायमरी रीडिंग प्रोफाइल, 
  6. ग्रेज ओरल रीडिंग पैसेजेज, 
  7. लग्स ऐंजिल्स डायगोनिस्टिक टेस्ट इन मैथमैटिक्स, 
  8. डायगोनिस्टिक टेस्ट एण्ड सेल्फ-हेल्प इन अरिथमेटिक, 
  9. एम.एस. रावत का ‘रसायनशास्त्र में नैदानिक परीक्षण। 
  10. एम.आर. शाह का गणित नैदानिक परीक्षण।
शिक्षक को यदि कोई निदानात्मक परीक्षण अपने उद्देश्य के लिए उपलब्ध न हो पाये तो वह स्वयं ही अपना परीक्षण बना सकता है। इस कार्य हेतु शिक्षक को नीचे लिखे सोपानों की आवश्यकता पड़ेगी -
  1. उद्देश्यों का निर्धारण, 
  2. उपयुक्त विद्यार्थियों का चयन, 
  3. कठिनाई या कमजोरियों का पता लगाना, 
  4. कमजोरियों के क्षेत्र का विश्लेषण करना, 
  5. उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था।

नैदानिक परीक्षण की रचना

नैदानिक परीक्षण की योजना बड़ी ही सावधानीपूर्वक की जानी चाहिए। इस परीक्षण के निर्माण के लिए अनुभवी व्यक्ति या शिक्षक की जरुरत होती है। निम्नलिखित पदों को ध्यान में रखते हुए नैदानिक परीक्षण की तैयारी की जानी चाहिए:-
  1. विद्याथ्री को जिस विषय में कठिनाइयाँ हैं या इकाई विषय जिसमें कठिनाई है, उसमें किस प्रकार की भूल होती है उसका विश्लेषण करना। 
  2. जब विश्लेषण द्वारा यह पता चल जाता है कि अमुक कौशल की कमी है तो उसके लिए परीक्षण तैयार करना। 
  3. अधिकतर प्रश्न वस्तुनिष्ठ या लघुतारात्मक होने चाहिए। 
  4. विशिष्ट अधिगम एवं व्यवहारगत परिवर्तन के रुप में सम्प्रत्यय का विश्लेषण करें।

अच्छे नैदानिक परीक्षण की विशेषताएँ

  1. नैदानिक परीक्षण किसी पाठ्यक्रम विशेष तक ही सीमित होते है तथा सबसे संबंधित होते हैं। 
  2. नैदानिक परीक्षण विद्याथ्री की विषय-संबंधियों तथा योग्यताओं का माप नहीं करता हैं वरन् किसी विषय विशेष में उस विषय के किसी क्षेत्र में छात्र की कमजोरियों का पता लगाता है। 
  3. नैदानिक परीक्षण इस बात को महत्व नहीं देता है कि विद्याथ्री के परीक्षा में कितने प्राप्तांक आये हैं। यहाँ तो इस बात पर महत्व दिया जाता है कि विद्याथ्री किस क्षेत्र या प्रकार की विषय-वस्तु से संबंधित प्रश्नों को हल कर लेता है अथव हल नहीं कर पाता है। 
  4. नैदानिक परीक्षण स्वभाव से विश्लेषणात्मक होते है। परिणामस्वरुप विद्याथ्री की उपलब्धियों तथा कमजोरियों का विस्तृत तथा स्पष्ट विश्लेषण कर देता है। 
  5. इन परीक्षणों की व्याख्या किन्हीं सुस्थापित मानकों के आधार पर की जाती है। 
  6. ये परीक्षण पूर्णरुपेण उद्देश्य आधारित होते है। 
  7. स्वभाव से ये शक्ति परीक्षण वर्ग में आते हैं जिनमें प्रश्नों का कठिनाई स्तर क्रमश: बढ़ता चला जाता है। इनमें समय सीमा भी लगभग अनिश्चित होती है।

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