भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का दिसंबर 1916 में लखनऊ में अधिवेशन होना तय था। अधिवेशन के अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार ने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की विभाजित कांग्रेस के खेमों ने अलगाववाद को त्याग दिया है, और एकता के मार्ग पर चलने का निर्णय लिया है। लखनऊ अधिवेशन का महत्व इसलिये भी है क्योंकि इस अधिवेशन में
काँग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य एक समझौता हुआ, इसे लखनऊ समझौता कहा जाता है।
लखनऊ समझौता क्या है?
1913 ई. में मुस्लिम लीग पर राष्ट्रवादी मुसलमानो का प्रभाव अत्यन्त प्रबल हो
गया। इसी वर्ष लीग ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसके अनुसार लीग का उदेश्य
औपनिवेशिक राज्य की प्राप्ति निश्चित हुआ। 1914 ई. में लीग ने भारत के अन्य जातियों
के राजनीतिक नेताओं से मिलकर काम करने का निश्चय किया। काँग्रेस एवं लीग को
समीप लाने में मुहम्मद अली जिन्ना के कार्य अत्यन्त प्रशसंनीय है।
1915 ई. में मुस्लिम
लीग ने अपने बम्बई अधिवेशन में शामिल होने के लिए काँगे्रस के दो नेताओं को
आमन्त्रित किया। इस अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने एक समिति नियुक्त की। समिति का
कार्य, काँग्रेस के साथ भारत के लिए राजनीतिक सुधारों की योजना का निर्माण करना
था।
1916 ई. में दोनों संस्थाओं के लखनऊ अधिवेशन में एक योजना स्वीकृत हुई। इस
योजना को ‘काँग्रेस लीग स्कीम’ योजना या ‘लखनऊ समझौता’ कहते है। इस समझौते की मुख्य मुद्दे थे-
- केन्द्रीय व प्रांतीय विधान सभाओं में 80 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित और 20 प्रतिशत सदस्य मनोनित होने चाहिए।
- केन्द्रीय विधान सभा की सदस्य संख्या 150 मुख्य प्रांतो की विधान सभाओं की सदस्य संख्या कम से कम 125 और अन्य प्रांतो की विधान सभाओं की सदस्य संख्या 50 से 75 तक हो।
- विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों को जनता द्वारा चुना जाए।
- विधानसभाओं में मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया जाए।
- केन्द्रीय सरकार का शासन गर्वनर जनरल कार्यकारिणी परिषद की सहायता से करे जिसके आधे सदस्य भारतीय हो।
- अल्पसंख्यक को किसी विधेयक निविद्ध करने का अधिकार दिया जाए।
- भारत मंत्री की परिषद को समाप्त कर दिया जाए और भारत सरकार के साथ उसके वही संबंध रहे जो औपनिविशक सरकार के साथ है।
लखनऊ समझौता सभी को कांग्रेस की महान विजय लग रहा था। कालांतर में लेकिन लीग भारात्मक प्रतिनिधित्व को लेकर कांग्रेस को दबाने लगती है।
लखनऊ समझौते की मुख्य बातें
सुरेन्द्र नाथ
बनर्जी ने इसे भारत के इतिहास में स्वर्णिम दिन माना है लखनऊ समझौते की मुख्य बातें
निम्नलिखित थी-
- प्रान्तों पर से केन्द्रीय नियन्त्रण का अन्त कर उन्हें अधिकाधिक स्वायत्तता देना, प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं का स्थानीय महत्व के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्रदान करना। यह भी मांग रखी गई कि प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषद के आधे सदस्य प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं द्वारा निर्वाचित है।
- केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हो और उनके कम-से-कम आधे सदस्यों का निर्वाचन हो। केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद मे व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचित सदस्य हो। केवल विदेश-विभाग और प्रतिरक्षा-विभाग वायसराय के अधीन रहे।
लखनऊ समझौता के उपबंध
1914 में महात्मा गांधी जी और जिन्ना के प्रभाव के कारण कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने अपना अपना अधिवेशन एक ही दिन बंबई में आयोजित किया। मुस्लिम लीग ने काँग्रेस के नेताओं को सम्मेलन में आमंत्रित भी किया। काँग्रेसी नेताओं ने अपने भाषण में राष्ट्रीय एकता पर विशेष बल दिया। काँग्रेस और लीग की एक संयुक्त कमेठी गठित की गई। जिसमें दोनों दलो के बीच सौहार्द और सहयोग उत्पन्न करने के लिये एक योजना प्रस्तुत की, जिसे ’’काँग्रेस लीग योजना’’ कहते हैं।1916 के लखनऊ अधिवेशन में इस योजना को स्वीकार कर लिया गया इसलिये यह ’’लखनऊ समझौता’’ भी कहलाता है। लखनऊ समझौता मुख्य रूप से दो भाग में विभाजित था-
प्रथम- मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के संबंध में काँग्रेस ने सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली एवं अधिक प्रतिनिधित्व की मांग को स्वीकार कर लिया।
प्रथम- मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के संबंध में काँग्रेस ने सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली एवं अधिक प्रतिनिधित्व की मांग को स्वीकार कर लिया।
- मुसलमानों के निर्वाचित सदस्यों की संख्या पंजाब में 50 प्रतिशत, बंगाल में 40 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में प्रतिशत में 30 प्रतिशत, बंबई में 33 प्रतिशत, मध्य प्रांत में 15 प्रतिशत और बिहार में 25 प्रतिशत सुरक्षित कर दिया गया।
- केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में मुसलमानों के लिये निर्वाचित सदस्यों की संख्या का 1/3 भाग निश्चित कर दिया गया।
- यह भी व्यवस्था की गई कि समस्त निर्वाचन सांप्रदायिक निर्वाचित क्षेत्रों के आधार पर होंगे।
द्वितीय- द्वितीय भाग में निम्नलिखित प्रशासनिक सुधारों का वर्णन था-
- ब्रिटिश सरकार भारत को शीघ्र ही अधिराज्य का दर्जा देने की घोषणा करें।
- केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारों को कम से कम 1/2 सदस्य अपनी-अपनी व्यवस्थापिका सभा द्वारा निर्वाचित होना चाहिये।
- केन्द्रीय और प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं में कम से कम 80 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित एवं 20 प्रतिशत सदस्य मनोंनीत होने चाहिये।
- प्रशासन और वित्त का अधिक से अधिक विकेन्द्रीकरण होना चाहिये।
- भारतीय सेवा पर भारतीयों की नियुक्ति होनी चाहिये।
- कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों का पृथ्क्कीकरण होना चाहिए।
- भारत की सचिव परिषद समाप्त कर दी जानी चाहिये और उसका वेतन भारतीय कोष से नहीं दिया जाना चाहिये। भारत सरकार पर उसका नियंत्रण समाप्त कर देना चाहिये।