प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध के कारण, घटनाएँ एवं परिणाम

प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध (1824-1826 ई.) के कारण

युद्ध का वास्तविक कारण अंग्रेजों और साम्राज्यवादी तथा व्यापारिक आकांक्षाएँ थीं। इसके अतिरिक्त अन्य कारण भी थे -
  1. बंगाल और अराकान की सीमायें निर्धारित नहीं थी। बर्मियों द्वारा जीते हुए प्रदेश से लुटेरे भाग कर अंग्रेजी क्षेत्र में शरण लेते थे। बर्मी सरकार उनके समर्पण की माँग करती थी लेकिन अंग्रेजों ने इसे स्वीकार नहीं किया। 
  2. इस समय कंपनी के सिपाहियों से कभी-कभी बर्मी सैनिकों की मुठभेड़ हो जाती थी, इसमें उन्हें सफलता प्राप्त होती थी। इससे आवा नरेश को विश्वास हो गया कि वह अंग्रेजों को पराजित कर सकता था।
  3. अंग्रेजों ने 1795 से 1811 ई. तक कई राजदूत बर्मी सरकार से संबंध स्थापित करने के लिए भेजे। किन्तु बर्मा द्वारा इन राजदूतों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया गया। 
  4. मणिपुर (1813 ई.) पर अधिकार करकने बाद बर्मी सेनाओं ने आसाम (1816 ई.) को भी जीत लिया। अंग्रेजों ने आसाम के राजा को शरण दी। अंग्रेजों की सहायता से आसाम और अराकान पर छापेमार हमले होते थे। 
  5. 1818 ई. आवा नरेश ने लार्ड हेस्टिंग्स को पत्र भेजकर चटगाँव, मुर्शिबाद, ढाका और कासिमबाजार को समर्पित कर देने की माँग की। इस समय हेि स्ंटग्स पिण्डारियों का दमन करने में व्यस्त था। अत: उसने पत्र को जाली मानकर लौटा दिया। 
  6. युद्ध का तात्कालिक कारण चटगाँ के निकट शाहपुरी द्वीप क विवाद था। 1823 ई. में बर्मियों ने इस द्वीप पर अधिकार कर लिया। गवर्नर जनरल एमहस्र्ट ने आवा नरेश से माँग की कि वह द्वीप को लौटा दे। उसके मना करने पर एमहस्र्ट ने युद्ध की घोषणा कर दी। शाहपुरी द्वीप के अतिरिक्त कछार का विवाद भी था। एमहस्र्ट कछार पर बर्मियों की सत्ता स्वीकर करने को तैयार नहीं था क्योंकि बर्मा से बंगाल का सरल मार्ग कछार होकर था। इस समय कछार का राजा गोविन्दचन्द्र था जो बर्मा के राज्य का करद राजा था। उसे बर्मियों ने सहायता देकर राजा बनाया था। एमहस्र्ट ने कछार पर बर्मियों की सत्ता को स्वीकार कर दिया। 
  7. युद्ध का वास्तविक कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद था। भारत में अंग्रेजों की सर्वोच्च सत्ता स्थापित हो चुकी थी। अब वे बंगाल के पूर्व में विस्तार चाहते थे। उनकी दृष्टि अराकान, कछार और आसाम पर थी। इसके अलावा वे बर्मा में बिना किसी बाधा के व्यापार चाहते थे। बर्मा ठीक लकड़ी और लाख की माँग इंग्लैण्ड और यूरोप में बढ़ रही थी।

प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध की घटनाएँ

बर्मा की सेनाओं को सर्वोत्तम सुरक्षा प्रकृति ने प्रदान की थी। घने जंगल, पहाड़ और अनेक नदियाँ होने के कारण अंग्रेजों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। उनका देश जंगल और दलदल का एक विस्तृत फैलाव था। बर्मी सैनिक अंग्रेजी सेना की तरह प्रशिक्षित सैनिक नहीं थे किंतु अपने देश की जटिल प्राकृतिक अवस्था में लड़ने में अत्यंत कुशल थे।

आक्रमण की पहल बर्मी सेनापति महाबंदूला ने की। उसने बंगाल की पूर्वी सीमा पर आक्रमण कर दिया और चिटगाँव के पास रामू नामक स्थान पर अधिकार कर लिया।

अंग्रेजों की योजना यह थी कि समुद्र मार्ग से आक्रमण करके रंगून पर कब्जा कर लिया जाये और वहाँ से दरावती नदी के मार्ग से जहाज आवा पहुँच जाये। इसके लिए सर आर्चोबाल्ड केम्पबेल के सेनापतित्व में सेना भेजी गयी। इसमें ग्यारह हजार सैनिक थे जिनमें अधिकांश मद्रास के सिपाही थे। इस सेना के साथ जहाज भी भेजे गये थे। इस सेना ने जल मार्ग से रंगून पहुँचकर बंदरगाह व नगर पर अधिकार कर लिया।

अंग्रेजों ने दूसरी सेना उत्तर-पूर्व के स्थल मार्ग से भेजी। इस सेना का उद्देश्य रक्षात्मक युद्ध के द्वारा उन प्रदेशों को जीतना था जिन पर हाल में बर्मियों ने अधिकार कर लिया था अर्थात् आसाम, कछार और मणिपरु । ब्रिटिश सैनिकों ने आसाम से बर्मियों को खदेड़ दिया लेकिन सहाबन्दूला ने चिटगाँव की सीमा रामू पर एक ब्रिटिश सैन्य दल को मार भगाया। अंग्रेजों को आशा थी कि इस क्षेत्र के मोन लागे बर्मियों के विरूद्ध विद्राहे कर देगें जिससे उन्हें आगे बढ़ने में सहायता मिलेगी लेकिन बर्मियों ने मोन लोगों को यहाँ से हटा दिया। फलस्वरूप अंग्रेजों को खाद्य पदार्थों की कमी का सामना करना पड़ा और उनके सैनिकों को बहुत कष्ट उठाना पड़ा। वर्षा के कारण अस्वास्थ्यकर जलवायु से भी सैनिकों को कष्ट हुआ। वर्षा समाप्त होने के बाद महाबन्दूला बर्मी सेना के साथ पुन: आया। वह फिर पराजित हुआ और भागकर दोनाब्यू पहुँचा। 15 दिसम्बर, 1825 ई. को यहाँ युद्ध हुआ जिसमें वह मारा गया। इसके बाद केम्पबेल ने प्रोम पर अधिकार कर लिया। इस स्थान से वह राजधानी आवा की ओर बढ़ा। बर्मियों में युद्ध करने की शक्ति नहीं रह गयी थीं। अत: यान्दबू नामक स्थान पर संधि हो गयी। इसकी शर्तें केम्पबले ने लिखवायी थीं।

यान्दबू की संधि 24 फरवरी, 1826 ई. को यह संधि हुई। इसकी शर्तें इस प्रकार थीं -
  1. बर्मा के शासक ने अराकान और टिनासिरम के प्रांत अंग्रेजों को दे दिये। 
  2. बर्मा की सरकार ने आसाम, कछार, जेन्तिया में हस्तक्षपे न करने का वचन दिया और मणिपरु की स्वतंत्रता स्वीकार कर ली। 
  3. बर्मा के शासक ने अपने दरबार में अंगे्रजों को एक कराडे  रूपया देना स्वीकार किया। 
  4. बर्मा के शासक ने अपने दरबार में अंग्रेज रेजीडेण्ट रखना स्वीकार किया। 
  5. बर्मा के शासक ने अंग्रेजों से व्यापारिक संधि करने तथा व्यापारिक सुविधाएँ देना स्वीकार किया। एक बर्मा दूत को कलकत्ता आने की अनुमति मिली।
1826 ई. में बर्मा के साथ अंग्रेजों ने एक व्यापारिक बोदौपाया संधि की जिसमें अंगे्रजों की सभी माँगें स्वीकार कर ली गयीं। बर्मी राजा विक्षिप्त हो गया। 1837 ई. में गद्दी से उतार दिया गया और उसके भाई थारावादी को गद्दी पर बिठाया गया। वास्तव में, बर्मा की सरकार अंग्रेजों से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहती थी। अत: उसने अपना दूत कलकत्ता नहीं भजे ा। 1837 ई. में जब थारावादी गद्दी पर बैठा, तब उसने यान्छबू की संधि को अस्वीकार कर दिया। बर्मी परम्परा के अनुसार नये राजा को पहले की गयी संधियों को स्वीकार या अस्वीकार करने करने का अधिकार होता था।

प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध की समीक्षा 

आंग्ल-बर्मा युद्ध की कटु आलोचना की गयी है। कहा गया है कि एमहस्र्ट ने युद्ध की ठीक व्यवस्था नहीं की और अंग्रेजों को जन-धन की बड़ी बर्बादी उठानी पड़ी है। अकुशलता के साथ एमहस्र्ट की यह भी आलोचना भी की गयी है कि उसने स्थिति का दृढ़ता से सामना नहीं किया लेकिन उसकी नीति सफल रही और अंग्रेजों का बर्मा के समुद्रतीय प्रदेश, व्यापार के अधिकार, आसाम, कछार, मणिपुर के प्रदेश प्राप्त हुए।

यान्दबू की संधि से बर्मी-अंग्रेज शत्रुता का अंत नहीं हुआ। बर्मा के नये राजा ने संधि को मानने से इंकार कर दिया। दूसरी ओर, अंग्रेजों को केवल तात्कालिक लाभ प्राप्त हुए थे लेकिन वे बर्मा पर प्रभावपूर्ण नियंत्रण चाहते थे। अत: द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध अवश्यम्भावी था।

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