मानव विकास की अवस्थाओं को गर्भधारण से लेकर पूरे जीवनकाल को इन भागों में विभाजित किया है।

मानव जीवन के विकास का अध्ययन  के अन्तर्गत किया जाता है। विकासात्मक मनोविज्ञान मानव के पूरे जीवन भर होने वाले वर्धन, विकास एवं बदलावों का अध्ययन करता है। 

मानव विकास की विभिन्न अवस्थाएं

मानव विकास की अवस्थाओं को गर्भधारण से लेकर पूरे जीवनकाल को इन भागों में विभाजित किया है।
  1. पूर्वप्रसूतिकाल - यह अवस्था गर्भधारण से प्रारम्भ होकर जन्म तक की होती है।
  2. शैशवावस्था -यह अवस्था जन्म से प्रथम 10-14 दिनों तक की है।
  3. बचपनावस्था - यह अवस्था जन्म के दो सप्ताह से प्रारंभ होकर दो साल तक की होती है।
  4. बाल्यावस्था - यह अवस्था 2 साल से प्रारम्भ होकर 10 या 12 साल तक की होती है। 
  5. किशोरावस्था - लड़कियों में यह अवस्था 11 वर्ष से 13 की तथा लड़कों में यह अवस्था 12 साल 14 की होती है। इस अवस्था में बालिका का शरीर एक वयस्क के शरीर का रूप ले लेता है।
  6. वयस्कता - यह अवस्था 21 साल से 40 साल की होती है। इस अवस्था में व्यक्ति शादी कर अपनी घर-परिवार बसाता है और किसी व्यवसाय में लग जाता है तथा आने आत्मविकास को मजबूत कर आगे बढ़ता है।
  7. मध्यावस्था - यह अवस्था 40-60 साल की होती है । इसमें व्यक्ति द्वारा अपनी पूर्वप्राप्त उपलब्धि तथा आकांक्षाओं को काफी सुदृढ़ किया जाता है।
  8. बुढ़ापा या सठियावस्था - यह अवस्था 60 साल से मृत्यु तक की होती है। इस अवस्था में शरीरिक तथा मानसिक शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती है और सामाजिक कार्याे में व्यक्ति का लगाव कम होता है चला जाता है।
1. पूर्वप्रसूतिकाल - शुक्राणु एवं अंडाणु कोशिका के मिलते ही जाइगोट का निर्माण शुरू हो जाता है एवं जन्म से पूर्व तक इसका अलग-अलग आकारों में विभिन्न अवस्थाओं में विकास होता रहता है इन्हें सारणी के माध्यम से भली प्रकार जाना जा सकता है।

पूर्वप्रसूतिकाल की अवस्थाएं

अवस्थागर्भधारणोपरान्त समयअवस्था की प्रमुख गतिविधियॉं
जाइगोट (zygote) का काल एक से दो सप्ताहजाइगोट यूटेरस से जुड़ जाता है। एवं दो हफ्तों में यह इस वाक्य के अंतिम बिन्दु के बराबर हो जाता है। 
एम्ब्रियो (embryo) का काल 3 से 8 सप्ताहशरीर की संरचना एवं अंगो का के निर्माण का
संकेत मिलने लगता है। पहली अस्थि को शिकादिखलाई पड़ने के साथ ही इस काल का अन्त हो जाता है। आठ हफ्तों के उपरान्त एम्ब्रियो एक इंच
के बराबर  लम्बा हो जाता है, एवं वनज 4 ग्राम।
भ्रूण(fetus)काल 9 सप्ताह से लेकर
जन्म तक (38 सप्ताह) 
इस दौरान अंगों का विकास जैसे हाथ, पैर, सिर एवं धड़ आदि का विकास तीव्रता से होता है, वजन एवं लम्बाई बढ़ती जाती है।

2. शैशवावस्था - शैशवावस्था में शारीरिक विकास बहुत ही तीव्रता से होता है। अपने जीवन के पहले साल में अच्छा पोषण प्राप्त होने पर शिशु अपने जन्म के वजन में तकरीबन तीन गुना ( 20 पौण्ड या 09 किलोग्राम) तथा शारीरिक लम्बाई में एक तिहाई (28 से 29 इंच, 71 से 74 सेंटीमीटर) की वृद्धि कर लेते हैं। यद्यपि शिशु जन्म के तुरंत बाद भोजन करने में सक्षम होते हैं बावजूद इसके एक समय में वे कितना पचा सकते हैं इसकी क्षमता उनमें सीमित होती है। उनका पेट एक समय में ज्यादा भोजन नहीं पचा सकता है। इसकी क्षतिपूर्ति वे दिन में कई बाद थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करने के रूप में करते हैं।  शिशु प्रत्येक तीन से चार घण्टे में थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करते हैं। जन्म के समय अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने की शिशु में बहुत ही कम क्षमता होती है। यथार्थ तो यह है कि आठ से नौ महीने की आयु का होने तक वे अपने शरीर के सामान्य तापक्रम को मेंनटेन करने में भी असमर्थ होते हैं। इसलिए ऐसी अवस्था में उन्हें गर्म रखने के लिए माता-पिता को खास खयाल रखने की जरूरत होती है।

3. शैशवावस्था - आइये अब शैशवावस्था में शिशुओं के क्रमबद्ध विकास के बारे में जानें।

शिशु की आयुशिशु का पेशीय विकास
2 माहइस आयु में शिशु अपना सिर ऊपर उठाना शुरू कर देते हैं। 
3 माहकरवट बदलना एवं तकिये की सहायता प्रदान करने पर बैठना शुरू कर देते हैं।
6 माह छ: माह की आयु में शिशु बिना तकिये की अवलम्बन के हर बैठने लगते हैं।
7 माह सात माह की आयु में शिशु सहारा लेकर खड़े होना सीख लेते हैं। 
9 माह 9 माह आते आते ये शिशु सहारे के साथ चलना शुरू कर देते हैं। 
10 माह दस माह की आयु में शिशु कभी-कभी बिना सहारे खड़े होने लगते हैं।
11 माह ग्यारह माह की आयु में शिशु बिना सहारे के खडे़ होने में समर्थ हो जाते हैं।
12 माह बारह महीने की अवस्था में शिशु बिना अवलम्बन के अकेले चलने में समर्थ हो जाते हैं।
14 माह 14 महीने की आयु में ये इतने कुशल हो जाते हैं कि बिना पीछे देखे ही उल्टा चलने में भी समर्थ हो जाते हैं।
17 माह  इस आयु में शिशु सीढ़ियों पर चढ़ने लगते हैं।
18 माह इस आयु में शिशु गेंद को अपने सामने की दिशा में किक करने में समर्थ हो जाते हैं।

4. बाल्यावस्था - यह अवस्था 2 साल से प्रारम्भ होकर 10 या 12 साल तक की होती है। बालिकाओं में 10 वर्ष तक तथा बालकों में यह 12 वर्ष तक होती है। इसे मनोवैज्ञानिकों ने निम्नांकित दो भागों में बांटा है - (अ) प्रारंभिक बाल्यावस्था: यह अवस्था 2 साल से प्रारंभ होकर साल तक की होती है। (ब) उत्तर बाल्यावस्था: यह अवस्था 6 वर्ष से प्रारंभ होकर बालिकाओं में 10 वर्ष की उम्र तक तथा बालकों में 6 वर्ष से प्रारंभ होकर 12 वर्ष की उम्र तक होती है। इस अवस्था से बालक-बालिकाओं में यौन परिपक्वता आ जाती है । 

5. किशोरावस्था - लड़कियों के लिए 10 वर्ष की आयु में एवं लड़कों के लिए 12 वर्ष की आयु में होती है। प्रत्येक बच्चे के किशोरावस्था में पहुॅंचने का समय प्रमुख रूप से आनुवांशिक गुणों एवं वातावरणीय प्रभावों पर निर्भर करता है। प्यूबर्टी की शुरूआत हार्मोन्स के उत्पादन के साथ होती है एवं यह बहुत सारे शारीरिक बदलावों को जन्म देती है। लड़के एवं लड़कियों दोनों में ही प्रजनन अंगों का विकास होने लगता है एवं साथ ही अन्य गौण विशेषतायें भी परिलक्षित होने लगती हैं जो कि पुरूष एवं महिला के रूप में किशोरों की बाह्य पहचान कराती हैं, जैसे कि लड़कियों में स्तनों एवं कटि प्रदेश के नीचे नितंबों का विकास होने लगता है, लड़कों की आवाज में भारीपन तथा चेहरे पर दाढ़ी-मूॅंछ और छाती पर बाल आने लगते हैं एवं दोनो ही लिंगों में बगल एवं प्रजनन अंगों में बालों का वर्धन शुरू हो जाता है।

प्यूबर्टी के समय का किशोरों के मानसिक विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। जिन बच्चों में अपने साथियों की अपेक्षा प्यूबर्टी की अवस्था जल्दी आ जाती है वे बच्चे अपने साथ के बच्चों की अपेक्षा ज्यादा लम्बे एवं ताकतवर हो जाते हैं जिसका असर उनकी शारीरिक गतिविधियों जैसे कि खेल आदि पर पड़ता है वे इन गतिविधियों में अन्य बच्चों से आगे निकल जाते हैं। परिणामस्वरूप ये बच्चे आत्मविश्वास से भरपूर होते हैं एवं प्राय: अपनी शिक्षा में उत्तम प्रदर्शन करते हैं।

वहीं जिन बच्चों में किशोरावस्था देर से आती है वे बच्चे अपने साथी बच्चों की दृष्टि में पिछड़े एवं कमजोर पड़ जाते हैं जिसके कारण उनमें आत्मविश्वास की कमी एवं पढ़ाई में पिछड़ापन दिखलाई देने लगता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त के अनुसार किशोरावस्था, औपचारिक संक्रिया की अवस्था होती है। इस अवस्था में किशोर तार्किक सोच के नियमों को समझने लगता है वह जटिल समस्याओं का समाधान, परिकल्पित रूप से करने में सक्षम होने लगता है।

6. मध्यावस्था - यह अवस्था 40-60 साल की होती है । इसमें व्यक्ति द्वारा अपनी पूर्वप्राप्त उपलब्धि तथा आकांक्षाओं को काफी सुदृढ़ किया जाता है।

7. बुढ़ापा या सठियावस्था - यह अवस्था 60 साल से मृत्यु तक की होती है। इस अवस्था में शरीरिक तथा मानसिक शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती है और सामाजिक कार्याे में व्यक्ति का लगाव कम होता है चला जाता है।

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