स्वदेशी आंदोलन क्या है?

स्वदेशी आंदोलन क्या है?

बंगाल - विभाजन आंदोलन अंतत: स्वदेशी आंदोलन में परिणत हो गयां बंगालियों ने महसूस किया कि संवैधानिक आंदोलन अर्थात् जनसभाओं में भाषण देना, प्रेस द्वारा प्रचार, निवेदन, आवेदन-पत्र एवं सम्मेलन आदि बेकार है। ब्रिटिश सरकार का विरोध बहिष्कार और स्वदेशी आंदोलन द्वारा किया जाना चाहिए। बहिष्कार के मलू में आर्थिक अवधारणा हैं इसके दो अर्थ हैं - प्रथम,विदेशी वस्तुओं या अंग्रेजी मालों का बहिष्कार कर अंग्रेजों को आर्थिक नुकसान पहुँचाना। द्वितीय, स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग द्वारा स्वदेशी उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन देना।

बंगाल महाप्रान्त में पहले-पहल राजनारायण बसु ने स्वदेशी आन्दोलन शुरू किया। अंग्रेजी की उच्च शिक्षा पाने पर भी उन्होंने शिक्षित लोगों का एक एसे ा संघ बनाया जिसके सदस्य पारस्परिक बातचीत और पत्र-व्यवहार में मातृभाषा के प्रयोग की प्रतिज्ञा करते थे। उस समय अंग्रेजी में भाषण न देने वाला अशिक्षित और गँवार समझा जाता था। लेकिन इसकी परवाह न कर राजनारायण बसू बंगला में भाषण देते थे। 1861 में उन्होंने राष्ट्रीय भावना प्रवर्द्धन समिति स्थापित की जिसका उद्देश्य था बंगाल के शिक्षित भारतीयों में राष्ट्रीय भावना का विकास करना। इसी तरह नवगोपाल मित्र ने 1867 से एक स्वदेशी मेला लगाना शुरू किया जिसे ‘‘हिन्दू मेला’, राष्ट्रीय मेला या ‘‘चेत्र मेला’ कहा जाता था। इसका मुख्य लक्ष्य देशवासियों को स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग और विदेशी वस्तुओं को बहिष्कार करने के लिये कहना था। विपिनचन्द्र पाल के अनुसार ‘‘हिन्दू मेला’’ राजनारायण वसु और नवगोपाल मित्र की संयुक्त संतति था। वे दोनो आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता के दो प्रतिनिधि थे। नवगोपाल मित्र ने भारतीयों नौजवानों को स्वस्थ और चरित्रवान बनने तथा उनमें राष्ट्रीय भावना उत्पन्न करने के लिये कलकत्ता के शंकर घोष लेन में एक व्यायामशाला स्थापित की थी। 1870 में उन्होंने नेशनल सोसायटी कायम की।

स्वदेशी आंदोलन के संदर्भ में पंजाब के रामसिंह कूका (1820-1885) और उनके नामधारी सिखों का उल्लेख भी आवश्यक है। सभी कूका स्वदेशी वस्तुओं का प्रयागे और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते थे। 1873 में लाहौर के स्थानीय कालेज के विद्यार्थियों ने स्वदेशी सभा कायम की जिसका प्रमुख लक्ष्य स्वदेशी आंदोलन चलाना था। बम्बई महाप्रान्त भी स्वदेशी आन्दोलन से अछूता नहीं रहा। 1872 में पूना में बासुदेव जोशी के नेतृत्व में स्वदेशी आंदोलन शरू हुआ। यह आंदोलन शीध्र ही महाप्रान्त के दूसरे भागों में भी फैल गयां अनेक शहरों में देशी उद्यागे ों के लिये समितियां बनाई गई। उसके सदस्य यथासंभव देशी वस्तुओं के प्रयोग की प्रतिज्ञा करते थे। स्वदेशी वस्तुओं की बिक्री के लिये सहकारी समितियों की दुकानें खाले ी गई। इस प्रकार सम्पूर्ण हिन्दी भाषी अंचल में भी स्वदेशी आन्दोलन जारी रहा।

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