मनोचिकित्सा का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, विधियां

मनोचिकित्सा शब्दार्थ में मन की चिकित्सा है। मन की प्रवृत्ति को भी सकारात्मक एवं नकारात्मक दो प्रकार का माना जाता है। जब मन की प्रवृत्ति सकारात्मक होती है तब व्यक्ति का सृजनात्मक मानसिक विकास होता है। वहीं जब मन की प्रवृत्ति नकारात्मक हो जाती है तब यही मन रोगमय हो जाता है फलत: इसकी चिकित्सा की आवश्यकता प़ड़ती है जिसे मनोचिकित्सा कहा जाता है।

मनोचिकित्सा की परिभाषा 

मनोचिकित्सा को मनोवैज्ञानिकों ने परिभाषित कर समझाने का प्रयास किया है इन परिभाषाओं के अवलोकन से हम मनोचिकित्सा को भली भॉंति समझ सकते हैं।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक नेविड, राथुस एवं ग्रीन (2014) ने अपनी पुस्तक ‘एबनॉरमल साइकोलॉजी इन ए चैलेंजिंग वल्र्ड’ में मनोचिकित्सा को एक संरचित स्वरूप के रूप में परिभाषित किया है उनके अनुसार मनश्चिकित्सा उपचार का एक संरचित स्वरूप है जो कि ऐसे मनोवैज्ञानिक फ्रेमवर्क से विनिर्मित होता है जिसमें क्लायंट एवं चिकित्सक के बीच एक या एक से अधिक शाब्दिक अंत:क्रियायें एवं उपचार सत्र संचालित किये जाते हैं।’

वोलबर्ग (1967) के अनुसार - ‘मनोचिकित्सा सांवेगिक स्वरूप की समस्याओं के उपचार का एक ऐसा प्रारूप है जिसमें एक प्रशिक्षित व्यक्ति निश्चय पूर्वक एक रोगी के साथ पेशेवर संबंध इस उद्देश्य के साथ कायम करता है कि उसके व्यक्तित्व में सकारात्मक उन्नति एवं विकास हो, व्यवहार के विक्षुब्ध पैटर्न के वर्तमान लक्षणों को दूर किया जा सके या उसमें परिमार्जन किया जा सके।

रौटर ने अपनी पुस्तक ‘क्लीनिकल साइकोलॉजी’ में मनोग्रस्तता को मनोवैज्ञानिकों की एक योजनाबद्ध गतिविधि के रूप में परिभाषित किया है- उनके अनुसार ‘मनोचिकित्सा मनोवैज्ञानिकों की एक सुनियोजित गतिविधि होती है जिसका उद्देश्य व्यक्ति के जीवन में ऐसा बदलाव लाना होता है जो उसके जीवन समन्वय को खुशियों की संभावना से भर दे, और भी अधिक संरचनात्मक बना दे या दोनों ही बनाये।’

नीटजेल, वर्नस्टीन एवं मिलिक के अनुसार - ‘मनोचिकित्सा में कम से कम दो प्रतिभागी होते हैं जिसमें एक को मनोवैज्ञानिक समस्याओं के सुलझाने का विशेष प्रशिक्षण तथा सुविज्ञता प्राप्त होती है और उसमें से एक समायोजन में कठिनाई का अनुभव करता है और ये दोनों ही समस्या को कम करने के लिए संबंध कायम करते हैं। मनोचिकित्सकीय संबंध एक पोषक किन्तु उद्देश्यपूर्ण संबंध होता है जिसमें मनोवैज्ञानिक स्वरूप की कई विधियों का उपयोग क्लायंट में वॉंछित बदलाव लाने के लिए किया जाता है।

रोनाल्ड जे कोमर ने अपनी पुस्तक ‘फण्डामेंटल्स ऑफ एबनॉरमल साइकोलॉजी’ में एक उपचार तंत्र के रूप में परिभाषित किया है उनके अनुसार ‘मनोचिकित्सा एक ऐसा उपचार तंत्र है जिसमें क्लायंट की मनोवैज्ञानिक संमस्याओं को सुलझाने में मदद करने के लिए क्लायंट (रोगी) एवं चिकित्सक द्वारा शब्दों एवं अभिनय का उपयोग किया जाता है।’

किसकर के मतानुसार, ‘‘मनोचिकित्सा में मनोवैज्ञानिक विधियों से संवेगात्मक व व्यवहार विक्षोभों का उपचार किया जाता है। ये विधियाँ विभिन्न प्रकार की होती है जिनमें से कुछ व्यक्तियों से सम्बन्धित होती है तो कुछ समूहों से।’’ किसकर की यह परिभाषा मुख्यत: निम्न विशेष बातों पर जोर देती है।

लैंडिस व बॉल्क के अनुसार, ‘‘मनोचिकित्सा का अर्थ है- रोग का निवारण या कम करने के इरादे के साथ मानव मन पर मानसिक क्रिया उपायों की क्रिया .... विस्तृत अर्थ में मनोचिकित्सा से चिकित्सक या मनोवैज्ञानिक का ही पूर्ण सम्बन्ध नहीं है, बल्कि प्रत्येक मनुष्य का सम्बन्ध है, जो दूसरे व्यक्ति के आक्रान्त मन, कष्टों को दूर करने की कोशिश करता है।’’ इसमें संवेगात्मक एवं व्यवहार सम्बन्धी विक्षोभों से ग्रस्त व्यक्तियों का उपचार किया जाता है। ये विधियां मुख्यत: मनोवैज्ञानिक होती है। मनोचिकित्सा विधियां मुख्यत: दो प्रकार की होती है - व्यक्तिगत व सामूहिक।

फिशर के अनुसार, ‘‘मनोचिकित्सा, विविध प्रकार के मानवीय रोगी एवं विक्षोभों, विशेषतया जो मनोजात कारणों से होते है का निराकरण करने के लिए मनोवैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धान्तों का योजनावद्ध एवं व्यवस्थित ढंग से उपयोग है।’’

जेम्स डी. पेज के अनुसार, ‘‘मनोचिकित्सा का अर्थ है- मानसिक विकृतियों, विशेषतया मन: स्नायुविकृतियों का मनोवैज्ञानिक प्रविधियों के माध्यम से उपचार करना।’’
मनोग्रस्तता एवं बाध्यता नामक मनोवैज्ञानिक समस्या से संबंधित कई महत्वपूर्ण बिन्दु स्पष्ट होते हैं -
  1. मनोग्रस्तता का संबंध विचारों, व कल्पनाओं से होता है। 
  2. ऐसे विचार एवं कल्पनाओं से संबंधित चिंतन अर्थहीन होते हैं। 
  3. ऐसे विचार या चिंतन का स्वरूप पुनरावर्ती होता है तथा रोगी के मन में जबरदस्ती प्रवेश कर उसकी चित्त की शांति को भंग कर देते हैं। 
  4. रोगी का इन विचारों, कल्पनाओं के उत्पन्न होने व अनाधिकृत प्रवेश पर कोई नियंत्रण नहीं रहता है। रोगी चाहकर भी इन्हें उत्पन्न होने से नहीं रोक पाता है। 
  5. बाध्यता में भी व्यक्ति न चाहते हुए एक ही क्रिया को बार-बार दोहराता है। 
  6. मनोग्रस्तता के समान ही बाध्यता में भी व्यक्ति द्वारा की गयी अनुक्रियायें अवांछित ही नहीं बल्कि अतार्किक एवं असंगत भी होती हैं। 
सार रूप में मनोग्रस्तता-बाध्यता विकृति में रोगी के मन में बार-बार नकारात्मक विचारों की श्रृंखला चलने लगती है जिनसे रोगी छुटकारा पाना चाहता है क्योंकि ये विचार उसकी मानसिक शांति को नष्ट कर उसमें दुश्चिंता को जन्म देते हैं जिनसे बचने के लिए उसे कुछ अवांछनीय क्रियाओं को करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। रोगी जानता है कि ये क्रियायें अर्थहीन, असंगत एवं अतार्किक हैं परन्तु वह उन्हें करने से स्वयं को रोकने में स्वयं को मजबूर महसूस करता है।

इस प्रकार की समस्या को दूर करने के लिए इससे संबंधित कारणों की पहचान करना अथवा स्रोत का पता लगाना बहुत ही आवश्यक होता है तथा साथ ही त्वरित उपचार हेतु प्रभावशाली प्रविधियों का उपयोग करने हेतु निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। अतएव मनोरोग के कारणों का पता लगाने, उचित डायग्नोसिस करने तथा उपयुक्त उपचार हेतु क्लायंट एवं चिकित्सक के बीच एक मनश्चिकित्सकीय पेशेवर संबंध मनोचिकित्सक द्वारा जान-बूझकर विकसित किया जाता है जिसमें क्लायंट एवं चिकित्सक दोनों परस्पर सहयोग एवं सहमति का रवैया अपनाते हुए मनोचिकित्सा के उद्देश्यों का निर्धारण करते हैं एवं तदनुरूप चिकित्सा प्रविधि या चिकित्सा योजना का प्राथमिकताओं के अनुसार निर्धारण करते हैं।

मनोचिकित्सा के उद्देश्य

मनोचिकित्सा के उद्देश्यों को दो प्रकार की दृष्टि से देखा जा सकता है। प्रथम दृष्टि में मनोचिकित्सा के सामान्य उद्देश्यों को रखा जा सकता है एवं द्वितीय दृष्टि में मनोचिकित्सा के विशिष्ट उद्देश्यों को स्थान दिया जा सकता है। इस प्रकार मनोचिकित्सा के दृष्टि भेद से दो उद्देश्य हुए।

1. सामान्य उद्देश्य - मनोचिकित्सा का सामान्य उद्देश्य मनोरोगी की भावनात्मक समस्याओं एवं मानसिक तनावों एवं उलझनों को दूर करके उसमें सामथ्र्य, आत्मबोध, पर्याप्त परिपक्वता आदि विकसित करना होता है।

2. विशिष्ट उद्देश्य - मनोचिकित्सा के विशिष्ट उद्देश्यों में रोगी के मनोरोग के निदान एवं उसके उपचार की प्रचलित विभिन्न पद्धतियों और उपागमों को ध्यान में रखते हुए निर्मित किये गये उद्देश्यों को रखा जाता है। जैसे कि एक संज्ञानात्मक उपागम के आधार पर किसी रोगी के मनोरोग का कारण उसके विचार, विश्वास एवं चिंतन प्रक्रिया में खोजे जाते हैं एवं उनका उपचार भी विचार प्रक्रिया एवं सोच में बदलाव लाने से किया जाता है। इस प्रकार संज्ञानात्मक उपागम के आधार पर मनोचिकित्सा का उद्देश्य विचारों में सकारात्मक बदलाव एवं नकारात्मक विचारों की रोकथाम हो सकता है
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अरूण कुमार सिंह अपनी पुस्तक आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान में मनोचिकित्सा के कुछ प्रमुख उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हैं उन उद्देश्यों के प्रमुख हैं।-
  1. रोगी के अपअनुकूलित व्यवहारों में परिवर्तन लाना । 
  2. रोगी के अन्तर्वैयक्तिक संबंध एवं अन्य दूसरे तरह के सामथ्र्य को विकसित करना । 
  3. रोगी के आन्तरिक संघर्षों को एवं व्यक्तिगत तनाव को कम करना । 
  4. रोगी में अपने इर्द-गिर्द के वातावरण एवं स्वयं अपने बारे में बने अयथार्थ पूर्वकल्पनाओं में परिवर्तन लाना ।
  5. रोगी में अपअनुकूलित व्यवहार को सम्पोषित करने वाले कारकों या अवस्थाओं को दूर करना ।
  6. रोगी को अपने वातावरण की वास्तविकताओं के साथ अच्छी तरह समायोजित करने में सहयोग प्रदान करना । 
  7. आत्मबोध एवं आत्मसूझ को सुस्पष्ट करना । 
इसी प्रकार प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक द्वय सुन्डबर्ग एवं टाइलर ने मनोचिकित्सा के विभिन्न पहलुओं एवं इस क्षेत्र में किये गये अनुसंधानों की समीक्षा के आधार पर मनोचिकित्सा के प्रमुख उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का वर्णन किया है इनमें जो सर्वाधिक उत्कृष्ट हैं ।

1. उपयुक्त व्यवहार करने के लिए रोगी के अन्त:अभिप्रेरण को मजबूती प्रदान करना - मनोचिकित्सा में मनोचिकित्सक का एक उद्देश्य रोगी को सही कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना होता है। इसके लिए मनोचिकित्सक द्वारा रोगी की अन्त:अभिप्रेरणा को मजबूती प्रदान करने का प्रयास किया जाता है। मनोरोग अथवा मनोवैज्ञानिक समस्या होने पर उसके समाधान में स्वयं सफल न हो पाने पर रोगी को सहायता की आवश्यकता पड़ती है इसे हेतु उसे प्रथम निर्णय तो यही लेना पड़ता है कि वह इसके लिए मनोचिकित्सक अथवा काउन्सलर के पास जाये अथवा नहीं एवं इसके कारण रोगी में मानसिक वैचारिक द्वन्द्व उत्पन्न हो जाता है। यदि एक बार रोगी अपने इन द्वन्द्वों से जूझते हुए सूझ-बूझ द्वारा मनोचिकित्सक के सम्मुख अपनी समस्या रखने का निर्णय लेता है तथा ऐसे ही अन्य सही निर्णय अपनी अन्त:अभिप्रेरणा से लेता है तो यहॉं पर उसके इस अन्त:अभिप्रेरण के स्तर को उच्च बनाये रखने अथवा मजबूती प्रदान करने की एक महती जिम्मेदारी मनोचिकित्सक की होती है। 

2. भावनाओं को अभिव्यक्त करने के तरीकों द्वारा सांवेगिक दबाव को कम करना - जब रोगी अपनी मनोवैज्ञानिक समस्या लेकर मनोचिकित्सक के पास आता है तथा मनोचिकित्सक द्वारा समस्या पर बात करने पर उनकी अभिव्यक्ति करने में उसे सांवेगिक समस्या अथवा दबाव से स्वयं से ही जूझना पड़ता है तो इससे रोगी समस्या सही प्रकार से बताने में असमर्थ हो जाता है एवं उसमें कई प्रकार की चिंतायें भी उत्पन्न हो जाती हैं मनोचिकित्सा में इस प्रकार के सांवेगिक दबाव को मनोचिकित्सा के प्रभावी होने के लिए कम करने की महती आवश्यकता होती है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फ्रायड इस हेतु विरेचन (catharsis) तकनीक का प्रयोग किया है। उनका कहना था कि सांवेगिक दबाव के दूर होने से मनोचिकित्सा बहुत ही आसान एवं प्रभावी सिद्ध होती है। 

3. रोगी की अन्त:शक्ति को सम्वर्धन एवं विकास के लिए अवमुक्त करना - मनोचिकित्सा का यह एक बहुत ही महतवपूर्ण उद्देश्य है। इस उद्देश्य के पीछे की अवधारणा पर मानवतावादियों द्वारा सर्वाधिक जोर दिया गया है उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य में स्वयं के सम्वर्धन एवं विकास की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति जन्मजात रूप से विद्यमान होती है तथा अनुकूल वातावरण मिलने एवं सम्यक् निर्णयों की छॉंव में उसकी यह प्रक्रिया सहज ही जारी रहती है। जब कभी इसमें व्यक्ति द्वारा अपने जीवन के प्रति लिये गये निर्णयों के कारण एवं प्रतिकूल वातावरण की वजह से बाधा उत्पन्न होती है तब व्यक्ति में मानसिक उलझने उत्पन्न हो वह मनोरोगों का शिकार हो जाता है। मानवतावादियों का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्दर छिपी प्रतिभा एवं संभावनाओं अभिव्यक्त करने एवं साकार रूप देने की अकथित अभिलाषा रखता है इसे अभिव्यक्त करने की परिस्थितियॉं उत्पन्न करने अथवा इसकी ओर व्यक्ति का ध्यान आकर्षित करने से व्यक्ति आत्म-विकास के पथ पर सहज ही अग्रसर हो जाता है। 

4. अपनी अवॉंछनीय आदतों को बदलने में सहायता करना - इस उद्देश्य के पीछे मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि व्यक्ति की अवॉंछनीय एवं अनुपयुक्त आदतें उसे मनोरोगीे बनाती है तथा समुचित उपचार हेतु इन आदतों में सुधार की आवश्कता होती है। व्यवहारवादियों का मानना है कि हमारी आदतें सीखने के गलत नियमों का परिणाम होती हैं यदि हम सीखने के सही नियमों का इस्तेमाल करना व्यक्ति को सिखा दें तो उसके द्वारा कई अवांछनीय आदतों में सकारात्मक एवं सुधारात्मक बदलाव लाया जा सकता है। 

5. रोगियों के संज्ञानात्मक संरचना को परिमार्जित करना - संज्ञानात्मक विचार धारा के मनोवैज्ञानिकों के अनुसार संज्ञानात्मक संरचना को परिमार्जित करना मनोचिकित्सा का एक प्रमुख उद्देश्य है। उनके अनुसार मानसिक रोगों अथवा मानसिक समस्याओं का मूल कारण व्यक्ति के विचार, विश्वास एवं सोच का विकृत होना होता है। यदि व्यक्ति के नकारात्मक विचारों, गलत विश्वासों एवं विकृत सोच को उपयुक्त विचार एवं विश्वास से बदल दिया जाये अथवा इसमें संशोधन करन परिमार्जित कर दिया जाये तो इससे उसकी समस्या के समाधान का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। 

6. आत्म-ज्ञान प्राप्त करना - मनोचिकित्सा का एक प्रधान उद्देश्य आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना भी है। माना जाता है कि व्यक्ति की मानसिक समस्याओं का एक प्रमुख कारण उसका स्वयं के सम्बंध में सही एवं ठीक-ठीक ज्ञान का न होना है। यदि व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का सम्यक् ज्ञान हो जाये तो उससे उसका स्वयं के सम्बन्ध में सही निर्णय लेना आसान हो जाता है। सही निर्णय के लिए सही समझ जरूरी होती है एवं सही समझ विश्लेषणात्मक क्षमता में वृद्धि होने से बढ़ती है। विश्लेषणात्मक क्षमता के विकास के लिए अभ्यास की प्रवृत्ति होना जरूरी है। एवं अभ्यास की प्रवृत्ति के लिए स्वयं के बारे में जानने की अभीप्सा होना आवश्यक है। अतएव मनोचिकित्सक रोगीे को स्वयं को जानने के लिए प्रेरित प्रोत्साहित करने को मनोचिकित्सा का ही एक प्रमुख लक्ष्य मानते हैं। 

7. संचार एवं अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों को प्रोत्साहित करना - संचार एवं अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों को प्रोत्साहित करना मनोचिकित्सा का एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य है। इसके पीछे अवधारणा यह है कि रोगी का व्यवहार उसके चिंतन एवं विचारों से प्रभावित होता है तथा विचार उसके भावदशा के अनुरूप होते हैं यह भावदशा उसके सामाजिक प्राणी होने की वजह से अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों पर निर्भर करती है। एवं अन्तर्वैयक्तिक संबंधों का ठीक होना बहुत हद तक परस्पर संचार पर निर्भर करता है। अतएवं मनोचिकित्सा का एक प्रमुख उद्देश्य संचार एवं अन्तर्वैयक्तिक संबंधों को मजबूत करना भी है। 

8. आत्म ज्ञान एवं अन्तदृष्टि को बढ़ाना - रोगी में अन्तदर्ृष्टि उत्पन्न करना तथा स्वयं के बारे में जानकारी बढ़ाने को भी मनोचिकित्सा के एक विशेष उद्देश्य के रूप में स्थान दिया गया है। अन्तर्दृष्टि के अभाव में व्यक्ति की निर्णय क्षमता कुंद हो जाती है तथा किंकर्तव्यविमूढ़ता उत्पन्न हो जाती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने विचारों भावों एवं व्यवहारों के सम्बन्ध में ठीक से विचार नहीं कर पाता है तथा उसकी समस्या के कारण तथा संभावित परिणाम उसे कभी स्पष्ट रूप से समझ नहीं आते हैं जिसके कारण उसमें समय के साथ कई मनोवैज्ञानिक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं एवं उसे जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। 

9. शारीरिक दशाओं में बदलाव लाना - रोगी के शारीरिक प्रक्रियाओं बदलाव लाना ताकि उसकी पीड़ापरक अनुभूतियों को कम कर दैहिक चेतना में वृद्धि भी मनोचिकित्सा का एक प्रमुख उद्देश्य माना जाता है। इस उद्देश्य के पीछे मनोचिकित्सा की अवधारणा है कि मन तथा देह दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं अर्थातफ दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। स्वच्छ मन के लिए स्वच्छ शरीर आवश्यक है। मनोचिकित्सकों का मत है कि रोगी के दैहिक दुखों या दर्दनाक अनुभूतियों को कम करके तथा उनमें दैहिक चेतना में वृद्धि करके मनोचिकित्सा की परिस्थिति के लिए उन्हें अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। इसके लिए व्यवहार चिकित्सा में रोगी को विश्राम प्रशिक्षण देकर उनकी चिंता एंव तनाव को दूर किया जाता है । रोगी की शारीरिक चेतना में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए योग की प्रक्रियाओं का भी सहारा लिया जा सकता है। 

10. रोगी के वर्तमान चेतन स्थिति में बदलाव लाना - मनोचिकित्सा का एक उद्देश्य यह भी होता है कि कि रोगी की चेतन अवस्था में इस ढंग का परिमार्जन या बदलाव किया जाये कि उससे उसमें अपने व्यवहारों पर अधिक नियंत्रण की क्षमता बढ़ जाये, उसमें सृजनात्मक क्षमता में बढ़ोत्तरी हो तथा आत्म-बोध में बढ़ोत्तरी हो जाये। इन सब क्षमताओं के विकास के लिए तरह-तरह की प्रवृद्धि जिसमें ध्यान, विलगाव, तथा चेतन विस्तार आदि प्रमुख है का उपयोग किया जाता है। इस सब विधियों के इस्तेमाल से आत्म-बोध तथा आत्मनिर्भरता आदि जैसे गुणों का विकास होता है। 

11. रोगी के सामाजिक वातावरण में बदलाव लाना - मनोचिकित्सा का उद्देश्य कभी कभी मनोरोग की प्रकृति एवं स्थिति के कारण रोगी के उपयुक्त उपचार हेतु उसके सामाजिक वातावरण में बदलाव लाने का भी होता है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिकों को तर्क है कि मनोरोगों के कई केसेज में रोगियों के रोग के कारण में एक कारण सामाजिक वातावरण भी होता है तथा यह या तो सीधे रूप में अथवा परोक्ष रूप में रोगी के मनोरोग की स्थिति को मजबूत करता रहता है ऐसी परिस्थिति में यह जरूरी हो जाता कि रोगी की सामाजिक परिस्थिति में कुछ बदलाव किये जायें इसके लिए कई बार रोगी को स्थानपरिवर्तन की भी सलाह दी जाती है। उपरोक्त बिन्दुओं के विस्तृत वर्णन से स्पष्ट है कि मनोचिकित्सा के बहुत से उद्देश्य हैं जिन की जानकारी होना व्यक्ति के लिए आवश्यक है।

मनोचिकित्सक की विधियां

मनोचिकित्सा की विधियों प्रविधियों को पॉंच प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। इन श्रेणीवर्गों में कई उपप्रविधियों को भी स्थान दिया गया है -
  1. मनोगत्यात्मक मनोचिकित्सा 
  2. व्यवहार चिकित्सा 
  3. संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा 
  4. मानवतावादी चिकित्सा 
  5. सामूहिक चिकित्सा

1. मनोगत्यात्मक मनोचिकित्सा

 मनोगत्यात्मक मनोचिकित्सा में व्यक्तित्व की गत्यात्मकता के विश्लेषण पर प्रमुख रूप से जोर दिया जाता है। इसके अन्तर्गत मानवी व्यक्तित्व के अन्तर्वैयक्तिक पहलुओं के बीच की अन्त:क्रिया को विश्लेषण के केन्द्र बिन्दु में रखा जाता है। मनोचिकित्सा के इस वर्ग में कई प्रमुख चिकित्सा विधियॉं आती हैं जो इस प्रकार से है -

1. मनोविश्लेषणात्मक मनोचिकित्सा - मनोविश्लेषणात्मक मनोचिकित्सा का प्रतिपादन सिगमण्ड फ्रायड द्वारा किया गया है। मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा का मूल लक्ष्य रोगी को अपने आप को उत्तम ढंग से समझने में मदद करने से होता है ताकि वह रोगी पहले से अधिक समायोजी ढंग से सोच सके तथा व्यवहार कर सके। इसमें उपचार की प्रक्रिया के अन्तर्गत रोगी के अचेतन में चल रहे संघर्ष एवं इससे बचने के लिए प्रयोग किये जा रहे ईगो सुरक्षा प्रक्रम को चेतन मन के तल पर उजागर किया जाता है। इसके लिए फ्री-एसोशियेसन, इन्टरप्रिटेषन ऑफ ट्रांसफेरेन्स, रेजिस्टेंस एवं स्वप्न विश्लेषण तकनीक का सर्वाधिक उपयोग किया है। फ्री-एसोसियेशन तकनीक के अन्तर्गत व्यक्ति की चिंता से जुड़ें पहलुओं के संबंध में रोगी की समझ को बढ़ाने के लिए उदासीन उद्दीपकों के माध्यम से चिंता के कारणों का पता लगाया जाता है तथा कारण पता लगने पर उन्हें रोगी को समझाया जाता है। 

फ्रायड का विश्वास था कि मानसिक विकृतियॉं इड के आवेगों पर ईगो के नियंत्रण के कम होने से पनपती है। जब व्यक्ति को यह समझा दिया जाता है कि उसकी मानसिक समस्या अथवा मनोरोग किन कारणों से उत्पन्न हुई है और वह किस प्रकार अपने ईगो की शक्ति को बढ़ा सकता है तब उसकी चिंता कम होने लगती है। फ्री- एसोसियेशन के समान ही ट्रांस्फेरेशन का अध्ययन, रेजिस्टेंस का विश्लेषण एवं स्वप्नों के विश्लेषण द्वारा भी रोगी की विकृति के संदर्भ में अन्तदृष्टि को खोलने का कार्य किया जाता है। 

अन्तर्दृष्टि के विकास से व्यक्ति खुद-ब-खुद ही विकृति के रहस्यों को समझ जाता है फलत् मनोग्रस्ति विचारों की रोकथाम होती है एवं प्रभाव स्वरूप बाध्यकारी व्यवहार को अंजाम देने की जरूरत नहीं रह जाती है। सार रूप में मनोविकृति से व्यक्ति को छुटकारा मिल जाता है। 

2. विश्लेषणात्मक मनोचिकित्सा - इस मनोचिकित्सा का प्रतिपादन कार्ल युंग द्वारा किया गया है। इसके अन्तर्गत वैयक्तिकता पर अधिक बल डाला जाता है। वैयक्तिकता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने आत्मन् के भिन्न-भिन्न पहलुओं को एक साथ मिलाकर एक सम्पूर्ण स्वरूप विकसित करता है जो कि संगठनात्मक होता है। युंग के अनुसार चिकित्सा का उद्देश्य व्यक्ति को एक पूर्णत: संतुलित व्यक्ति बनाना होता है। और इसके लिए यह आवश्यक है कि आत्मन् के विवेकपूर्ण पहलुओं को उसके अन्तर्दर्शी पहलुओं (intutive aspects) के साथ मिलाया जाये। रोगी का अन्तर्दर्शी पहलू अचेतन में दबा होता है जिसे चेतन स्तर पर लाना आवश्यक होता है क्योंकि जब तक अन्तर्दर्शी पहलू अचेतन में होता है तब तक इसका संबंध रोगी के व्यवहारिक एवं विवेकपूर्ण हिस्सों से युक्त नहीं किया जा सकता है और व्यक्ति मानसिक रोग से छुटकारा नहीं पा सकता है। 

अन्तर्दर्शी पहलुओं को चेतन स्तर पर लाने के लिए युंग ने शब्द-साहचर्य (word association) तथा स्वप्न विश्लेषण (dream analysis) प्रविधि का उपयोग किया है। इन प्रविधियों के उपयोग से व्यक्ति के अन्तर्दर्शी पहलू चेतन में आ जाते हैं तथा वह अपने आपको सम्पूर्णता में प्रत्यक्षित करने लगता है तथा उसमें मानसिक शांति एवं सामंजस्या विकसित हो जाता है और वह स्वयं व समाज से समायोजनशील व्यवहार करने लगता है। इससे मानसिक रोग दूर हो जाते हैं। 

3. वैयक्तिक चिकित्सा - वैयक्तिक चिकित्सा का प्रतिपादन एडलर द्वारा किया गया है। एडलर के अनुसार व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक समस्याओं एवं कुसमायोजी व्यवहार का कारण उपाहं (इड) एवं पराहं (सुपर ईगो) के आवेगों का अहं (ईगो) के साथ संघर्ष नहीं होता है बल्कि दोषपूर्ण जीवनशैली तथा मन में गलत धारणाओं का विकास होता है। चिकित्सा के दौरान मनोरोगी को यही समझाने का प्रयास किया जाता है कि उसके विकृत व्यवहार का कारण उसकी गलत धारणाए एवं दोषपूर्ण जीवनशैली है। रोगी को उपयुक्त मनोवृत्ति विकसित करने में सहायता की जाती है तथा उन्हें बताया जाता है कि सामाजिक अभिरूचि, साहस तथा सामान्य बोध के विकास से या उसके विकास की दिशा में अपने जीवनशैली में धनात्मक बदलाव लाने से उनका मनोरोग या विकृति दूर हो जायेगी। एक प्रकार से चिकित्सा के दौरान व्यक्ति को उसकी दोषपूर्ण जीवनशैली से अवगत कराया जाता है एवं फिर उसमें परिवर्तन लाने के लिए उसे प्रोत्साहित किया जाता है। एडलर का मत है कि जो व्यक्ति जितना ही अधिक सामाजिक होता है तथा सामाजिक कार्यों में रूचि लेता है वह उतना ही मानसिक रूप से स्वस्थ होता है। 

2. व्यवहार चिकित्सा 

व्यवहार चिकित्सा के अन्तर्गत व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव लाकर मनोवैज्ञानिक समस्याओं का उपचार किया जाता है इसके लिये इसकी कई प्रविधियों का उपयोग किया जाता है इन प्रविधियों प्रमुख हैं-

1. क्रमबद्ध असंवेदीकरण (Systematic desensitiazation)- क्रमबद्ध असंवेदीकरण विधि का प्रतिपादन जोसेफ वोल्पे नामक मनोवैज्ञानिक द्वारा किया गया है यह विधि अनुबंधन के नियमों पर आधारित होती है। इसमें रेसीप्रोकल इन्हिबिशन सिद्धान्त (reciprocal inhibition principle) का उपयोग किया जाता है। इस विधि का उपयोग तब किया जाता है जब रोगी में चिंता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति के प्रति उपयुक्त अनुक्रिया करने की क्षमता होने के बावजूद भय के कारण ऐसा नहीं कर पाता है तथा विपरीत अनुक्रिया करता है। क्रमबद्ध असंवेदीकरण मूलत: चिंता कम करने की एक प्रविधि है जो इस स्पष्ट नियम पर आधारित है कि एक ही समय में व्यक्ति चिंतित या रिलैक्स अवस्था में एक साथ नहीं रह सकता है। इसे ही रेसीप्रकल इन्हीबिशन प्रिंसिपल कहा जाता है। इसमें रोगी को पहले रिलैक्स अवस्था में होने का प्रशिक्षण दिया जाता है। और जब वह रिलैक्सेशन की अवस्था में होता हैतो उसमें चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों को बढ़ते क्रम में दिया जाता है। परिणामस्वरूप रोगी चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपक अथवा परिस्थिति के प्रति असंवेदित हो जाता है क्योंकि उन्हें रिलेक्सेशन की अवस्था में ग्रहण करने की अनुभूति प्राप्त कर चुका होता है।

2. अन्त:विस्फोटक चिकित्सा या फ्लडिंग (Implosive therapy or Flooding)- ये दोनो मनोचिकित्सा प्रविधियॉं सीखने के विलोपन (extinction) सिद्धान्त पर आधारित हैं। इसकी अवधारणा यह है कि रोगी किसी उद्दीपक या परिस्थिति से इसलिये भयभीत या चिंतित होते हैं क्योंकि वे सचमुच में यही नहीं सीख पाये हैं कि एसे उद्दीपक अथवा परिस्थितियॉं वास्तविकता में उतनी खतरनाक नहीं हैं जितनी की वह समझ रहा है। जब उन्हें ऐसी परिस्थितियों या उद्दीपकों के बीच कुछ समय तक लगातार रखा जाता है तथा किसी प्रकार का नकारात्मक परिणाम उत्पन्न नहीं होता है तब वे यह सीख जाते हैं कि उनकी चिंता या भय निराधार है। इस प्रकार से उनकी चिंता या भय धीरे धीरे विलुप्त हो जाता है।

3. विरूचि चिकित्सा (Aversion therapy)-इस चिकित्सा विधि का प्रयोग अवांछनीय व्यवहारों को अंजाम देने की आदत या प्रवृत्ति को रोकने के लिए रोगी पर किया जाता है। इसमें अवॉंछनीय व्यवहार करने पर रोगी को पीड़ादायक दंड विभिन्न तरीकों से प्रदान किया जाता है। इस तरह की प्रविधि में चिंता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति या उद्दीपक के प्रति रोगी में एक तरह की विरूचि पैदा कर दी जाती है जिससे उससे उत्पन्न होने वाला अवांछनीय व्यवहार अपने आप धीरे-धीरे बंद हो जाता है। रोगी में विरूचि उत्पन्न करने के लिए दंड, विशिष्ट औषध, विद्युत आघात आदि का उपयोग किया जाता है। अधिकतर प्रकार की चिकित्सा क्लासिकी अनुबंधन (classical conditioning) के सिद्धान्त पर आधारित होती है परन्तु दंड आधारित विरूचि चिकित्सा में क्रियाप्रसूत अनुबंधन (operant conditioning) का उपयोग किया जाता है। 

4. निश्चयात्मक चिकित्सा (Assertive therapy)- निश्चयात्मक चिकित्सा का उपयोग मनोरोगियों में व्यवहारिक दृढ़ता या निश्चयात्मकता उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें पर्याप्त सामाजिक कौशलों का अभाव होता है जिसके कारण वे समाज की विभिन्न परिस्थितियों में लोगों के साथ अन्तरवैयक्तिक संबंध स्थापित नहीं कर पाते हैं। इसके परिणामस्वरूप वे अपने जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर पाते हैं फलत: उनमें हीनभावना, तुच्छता की भावना एवं विभिन्न प्रकार की चिंतायें जन्म ले लेती हैं। वे हमेशा तनाव से घिरे रहते हैं। ये क्रोधी स्वभाव के भी होते हैं। इनका आत्मसम्मान न्यून हो जाता है तथा मनोविकृति के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। निश्चयात्मक चिकित्सा में ऐसे लोगों को सामाजिक कौशलों का प्रशिक्षण दिया जाता है तथा इस प्रकार जीवन में आगे बढ़ने में मदद की जाती है। 

5. संभाव्यता प्रबंधन (Contingency management) -संभाव्यता प्रबंधन के अन्तर्गत क्रियाप्रसूत अनुबंधन (operant conditioning) के नियमों पर आधारित सभी व्यवहार चिकित्सा विधियों को रखा जाता है तथा इनके उपयोग द्वारा व्यक्ति के कुसमायोजित व्यवहार में सुधार व्यवहार में होने वाले बदलावों तथा परिणामों को नियंत्रित करके किया जाता है। बुटजिन, एकोसेला तथा एलॉय के अनुसार ‘किसी अनुक्रिया की आवृत्ति का परिवर्तन करने के इरादे से उस अनुक्रिया के परिणाम में किया गये जोड़ तोड़ को संभाव्यता प्रबंधन कहा जाता है’। संभाव्यता प्रबंधन में प्रमुख चिकित्सा प्रविधियों के नाम निम्न हैं-शेपिंग (shaping),टाइम-आउट(time-out),संभाव्यता अनुबंधन (contingency contracting), अनुक्रिया लागत (response cost), प्रीमैक नियम(premack principle)] टोकन इकोनॉमी (Token economy)। 

6. मॉडलिंग (Modelling)- यह चिकित्सा प्रविधि सीखने के प्रेक्षणात्मक सिद्धान्त (observational learning) पर आधारित है। इस प्रविधि का प्रतिपादन अल्बर्ट बण्डूरा द्वारा किया गया है। इस प्रविधि में रोगी चिकित्सक अथवा मॉडल को एक विशिष्ट व्यवहार करते हुए प्रत्यक्षित करता है तथा साथ ही साथ उस व्यवहार से मिलने वाले परिणामों का भी ज्ञान प्राप्त करता है। इसे तरह के प्रेक्षण के आधार पर रोगी स्वयं भी वैसा ही व्यवहार करना धीरे-धीरे सीख लेता है। इस प्रविधि का सर्वाधिक प्रयोग दुर्भीति के उपचार में सफलतापूर्वक किया गया है।

3. संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा 

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा में मनोरोगों का कारण व्यक्ति के विकृत सोच, नकारात्मक विचार, विश्वास, मूल्यॉंकन एवं व्यवहार को माना जाता है तथा मनोरोग के उपचार हेतु इन्हें उपयुक्त बनाने के लिए विभिन्न प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है उनमें प्रमुख हैं-
  1. तार्किक-सांवेगिक चिकित्सा (Rational-emotive therapy)
  2. बेक संज्ञानात्मक चिकित्सा (Beck's cognitive therapy)
बेक की संज्ञानात्मक चिकित्सा एवं एलिस की रेशनल-इमोटिव थेरेपी (Beck's cognitive therapy and Ellis Rational-Emotive therapy)- संज्ञानात्मक चिकित्सा मनोविकृतियों का उपचार रोगी के विचारों, विश्वासों, धारणाओं एवं मान्यताओं में परिवर्तन लाने के माध्यम से करती है। इसके अन्तर्र्गत प्रसिद्ध संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक एरोन बेक एवं एल्बर्ट एलिस द्वारा प्रतिपादित चिकित्सा विधियों का उपयोग किया जाता है। 

मनोवैज्ञानिक एरोन बेक ने बेक-संज्ञानात्मक चिकित्सा प्रविधि का प्रतिपादन किया है यह चिकित्सा विधि रोगी के नकारात्मक विचारों को सकारात्मक विचारों से प्रतिस्थापित कर रोगी की चिंता का निवारण करती है। यह चिकित्सा प्रविधि इस सिद्धान्त पर आधारित है कि व्यक्ति को चिंता विकृति होने के लिए उसके नकारात्मक विचार जिम्मेदार होते हैं जिनकी उत्पत्ति के पीछे रोगी के पास कोई वाजिब तर्क नहीं होता है इनका स्वरूप भी ऑटोमेटिक होता है अर्थात् ये रोगी के नियंत्रण में नहीं होते हैं एवं सतत् रूप से उसके चिंतन का हिस्सा बने रहते हैं। 

बेक संज्ञानात्मक चिकित्सा के द्वारा इन्हे सकारात्मक विचारों द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। जिससे व्यक्ति की चिंता काफी हद तक नियंत्रण में आ जाती है। एलिस द्वारा प्रतिपादित रेशनल इमोटिव थेरेपी (Rational emotive therapy) का उपयोग भी इस विकृति के उपचार हेतु किया जाता है। यह चिकित्सा विधि इस सिद्धान्त पर आधारित है कि यदि रोगी के चिंता के संबंध में विकृत धारणाओं एवं मान्यताओं को उपयुक्त तर्क के माध्यम से चुनौति दी जाये तो उसकी चिंता के संबंध में समझ बढ़ती है एवं चिंता का सामान्यीकरण करने की प्रवृत्ति घटती है।

संज्ञानात्मक चिकित्सक अपने क्लायंट की मनोविकृति से संबंधित संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने में मदद करते हैं। प्रारंभ में वे अपने क्लायंट को इस संबंध में शिक्षित करते हैं किस प्रकार अनचाहे विचारों की गलत विवेचना के कारण, जिम्मेदारी के अतिरंजित भाव के कारण, एवं न्यूट्रलाइजिंग व्यवहार इस विकृति के लक्षणों को उत्पन्न करने एवं और अधिक स्थायित्व देने में सहायक हो रहे हैं। इसके दूसरे चरण में चिकित्सक क्लायंट को उसके विकृत चिंतन को पहचानने, उसे चुनौती देने एवं संशोधित करने हेतु निर्देशित करते हैं। बहुत से शोध अध्ययनों में यह पाया गया है कि संज्ञानात्मक सिद्धान्तों पर आधारित इन प्रविधियों का उपयोग करने से मनोग्रस्ति विचारों एवं बाध्यकारी व्यवहारों की बारंबारता एवं असर में कमी आती है ।

4. मानवतावादी चिकित्सा 

इस प्रकार की चिकित्सा विधियों में मानवतावादी एवं अनुभवात्मक पहलुओं पर जोर दिया जाता है इसके लिए रोकी की अंदर छिपी उसकी संभावनाओं को तलाशने तथा उन्हें अभिव्यक्त करने के तौर तरीकों को सिखलाने पर जोर दिया जाता है। इसके अन्तर्गत चिकित्सा प्रविधियों को प्रमुख माना गया है।
  1. क्लायंट केन्द्रित चिकित्सा (Client-centered therapy)
  2. अस्तित्वात्मक चिकित्सा (Existential therapy) 
  3. गेस्टाल्ट चिकित्सा (Gestalt therapy) 
  4. लोगो चिकित्सा (Logotherapy)

5. सामूहिक चिकित्सा 

सामूहिक चिकित्सा में मनोरोगी के मनोरोग की चिकित्सा हेतु समूह को ही एक जरिया बनाकर उपयोग किया जाता है समूह में होने वाली अंत:क्रिया के द्वारा घनिष्ठता, भावों की अभिव्यक्ति आदि के द्वारा रोगी चिकित्सा की जाती है इसके अन्तर्गत निम्नांकित प्रविधियॉं सर्वाधिक प्रचलित हैं।-
  1. साइकोड्रामा (Psychodrama)
  2. पारिवारिक चिकित्सा (Family therapy)  
  3. वैवाहिक एवं युग्म चिकित्सा (Marital and couple therapy)
  4. संव्यवहार विश्लेषण (Transactional analysis) 
  5. एन्काउन्टर ग्रुप थेरेपी (Encounter group therapy)

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