मनोरोग के प्रकार

अधिकतर शारीरिक स्थितियों को हेतुकी एवं संरचात्मक विकृति के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ सामान्य चिकित्सकीय स्थितियों जैसे माइग्रेन,ट्राईजेमिनल न्यूरालजिया को अभी तक इस प्रकार से वर्गीकृत नहीं किया जा सका है, जिसके कारण उनका वर्गीकरण केवल लक्षणों के आधार पर ही किया गया है। मानसिक विकार मुख्य रूप से इस दूसरे प्रकार की स्थिति के समान ही है। यद्यपि कुछ मनोरोगों में शारीरिक हेतुकी को माना गया है किन्तु अधिकांश का वर्गीकरण केवल लक्षणों के आधार पर ही किया जा सकता है।

मनोरोग के प्रकार

  1. चिन्ता विकार 
  2. देहरूपी विकार
  3. दैहिकीकरण विकार 
  4. रोगभ्रमी विकार 
  5. पीड़ा विकार 
  6. शरीर दुष्क्रिया आकृति विकार 
  7. मनोविच्छेदी विकृतियाँ 
  8. व्यक्तित्वलोप विकृति
  9. मनोदशा विकृतियाँ एवं आत्महत्या 
  10. मनोविदालिता या सिजोफ्रेनिया
  11. व्यामोही विकृतियाँ या स्थिर व्यामोही विकृतियाँ 

चिन्ता विकार 

चिन्ता को काफी लम्बे समय से कई मनोरोगों के लक्षण के रूप में पहचाना जाता है। सर्वप्रथम फ्र्रायडा (1895) ने कहा कि ऐसे मामले जिसमें मुख्य रूप से चिन्ता के ही लक्षण हों, फ्रायड के चिन्ता मन:स्ताप में भीतियों (Phobia) एवं संत्रास (panic attack) को सम्मिलित किया गया है परन्तु उन्होंने इसे दो भाग में बाँटा है - प्रथम, जिसे चिन्ता मन:स्ताप का नाम दिया गया है जिसमें मुख्यत: मानसिक लक्षण वाली घटनाएँ थी, दूसरा उसको जिसे चिन्ता हिस्टीरिया का नाम दिया गया, जिसमें चिन्ता के शारीरिक लक्षण वाली घटनायें थी। फ्रायड का मानना था कि चिन्ता विकार एवं चिन्ता हिस्टीरिया लैंगिक अन्तर्द्वन्द के कारण होते है।

चिन्ता मनोरोग एक ऐसी असामान्य स्थिति है, जिसमें मुख्य रूप से चिन्ता के मानसिक एवं शारीरिक लक्षणों की प्रधानता होती है। इन लक्षणों की उत्पत्ति किसी आंगिक मस्तिष्क रोग व अन्य मनोरोगों के कारण से नहीं होता है। DSM IV में चिन्ता मनोराग का तात्पर्य ऐसे विकार से लगाया गया है जिसमें रोगी में अवास्तविक चिन्ता एवं अतार्किक डर की मात्रा इतनी अधिक होती है कि उससे उसके सामान्य जीवन का व्यवहार प्रतिकूलित हो जाता है।

चिन्ता विकृति के प्रकार 

चिन्ता विकृति के छ: प्रकार बताये गये हैं -
  1. दुर्भीति (Phobias) 
  2. भीशिका विकृति (Panic disorder) 
  3. सामान्यीकृत चिन्ता विकृति (Generalized anxiety disorder or GAD) 
  4. मनोग्रस्ति बाध्यता विकृति (Obsessive – Compulsive disorder or OCD) 
  5. उप्तर आघातीय तनाव विकृति (Post - traunatic stress disorder or PTSD) 
  6. तीव्र तनाव विकृति (Active stress disorder)

देहरूपी विकार

देह का अर्थ शरीर होता है और देहरूपी विकारों में चिन्ता पर आधारित मनस्तापी प्रतिदर्श होते है जिसमें व्यक्ति कई प्रकार के शारीरिक लक्षणों को प्रस्तुत करता है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे उस व्यक्ति को शारीरिक समस्या है परन्तु इन लक्षणों अथवा समस्याओं का काई अंगिक आधार नहीं मिलता है।

देहरूपी विकारों की मुख्य विषेषता विभिन्न शारीरिक लक्षणों को बार - बार प्रस्तुत किया जाना है परन्तु किसी प्रकार की जाँच एवं परीक्षणों पर भी उनका कोई शारीरिक आधार नहीं मिलता है। मुख्य रूप से देहरूपी विकार इस प्रकार के होते है-
  1. दैहिकीकरण विकार (Somatization Disorder) 
  2. रोग भ्रमी विकार (Hypochondrial Disorder) 
  3. देहरूपी स्वचालित अकार्यता (Somataform Otonomic Dusfunction )  
  4. पीड़ा विकार (Pain Disorder) 
  5. शरीर दुष्क्रिया आकृति विकार (Body Dysmorphic Disorder)

दैहिकीकरण विकार - 

इस विकार में अनेकानेक पुनरावर्तक एवं बारम्बार परिवर्तनशील शारीरिक लक्षण , रोगी में पूर्व कई वर्षो से विद्यमान होता है। दैहिकीकरण विकार में कम से कम आठ तरह के लक्षण निश्चित रूप से होते है जो इस प्रकार है -
  1. चार तरह के दर्द के लक्षण - इसमें दर्द सिर, पेट, पीठ, छाती, पेशाब करने के दौरान, मासिक धर्म के दौरान, लैगिंक क्रिया के दौरान आदि में से किसी चार से सम्बद्ध हो सकता है। 
  2. दो आमाशयांत्र लक्षण - कम से कम दो आमाशयांत्र (Gestrointestinal) लक्षण जैसे - मिचले, के, डायरिया, पेट फूलना आदि अवश्य हुए हों। 
  3. एक लौंगिक लक्षण - इसमें कम से कम एक लैगिक लक्षण जैसे लैगिक तटस्थता (Sexual indefference) स्खलन समस्याएँ (Ejacalatory problem ) अनियमित मासिक स्राव, मासिक स्राव में अत्यधिक रक्त निकलना आदि अवश्य हुए हो। 
  4. एक कूटस्नायविक लक्षण - कम से कम एक कूटस्नायविक (pseudoneuroligical) लक्षण जैसे अंधापन द्विदृष्टि, बहरापन, स्पर्श संवेदना की कमी, विभ्रम, पक्षाघात, कंठ में दर्द या खाते समय निगलने में कठिनाई आदि अवश्य हुए हो।

रोगभ्रमी विकार - 

इस विकृति में व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के बारे में जरूरत से ज्यादा सोचता है तथा उसके बारे में चिंता करता है। उसके मन में अक्सर यह घात बनी रहती है कि उसे कोई न कोई शारीरिक व्याधि या बिमारी हो गई है और उसकी यह चिंता इतनी अधिक हो जाती है कि वह अपने दिन प्रतिदिन की जिंदगी के साथ समायोजन करने में असमर्थ रहता है। इस तरह की चिंता व्यक्ति में कम से कम छ: महीने तक बने रहने पर ही उसे रोगी भ्रम विकार की श्रेणी में रखा जा सकता है अन्यथा नहीं। इस विकृति में रोगी की शिकायत किसी एक अंग विषेष तक सीमित नहीं रहती है। कभी - कभी उन्हें लगाता है कि पेट में भयानक रोग हो गया है तो कभी - कभी उनके सिर में गड़बड़ी नजर आती है। इसी तरह से उन्हें अपने यौन अंगों में किसी ढंग का शारीरिक रोग होने की खौफनाक चिंता होती है। जब ऐसे रोगियों से उनके लक्षण के बारे में विस्तृत रूप से पूछ - ताछ की जाती हैं। तो वे उसकी सही-सही वर्णन करने में असमर्थ रहते है। मेडिकल परीक्षण से जब यह बात स्पष्ट हो जाती हे कि वास्तव में उनकी आशंकाएँ निराधार है तो भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता है कि उनमें कोई रोग नहीं है। बल्कि वे मेडिकल परीक्षणों में कुछ कमी रह जाने की बात करते है आधुनिक अध्ययनों से यह पता चला है कि यह रोग महिलाओं एवं पुरूषो में लगभग समान ढंग से होता है।

पीड़ा विकार - 

इस विकृति में रोगी गंभीर या स्थायी तौर पर दर्द का अनुभव करता है जबकि इस तरह के दर्द कोई दैहिक आधार (Physical basis) नहीं होता है। इस तरह का दर्द प्राय: हृदय या अन्य महत्वपूर्ण अंगों के क्षेत्र में सम्बद्ध होता हे। गहन मेडिकल जाँच में ऐसे रोगियों के दर्द का कोई भी स्पष्ट आधार व विकृति नहीं मिलती है। सामान्यत: इस तरह के दर्द की उत्पत्त्रि का सम्बन्ध किसी प्रकार के संघर्ष या तनाव से होता है या जब व्यक्ति किसी दुखद परिस्थिति से छुटकारा पाना चाहता है या अन्य लोगों की सहानुभूति या ध्यान को अपनी ओर खींचना चाहता है, तो इस तरह को दर्द व्यक्ति में उत्पन्न होते देखा गया है। मनश्चिकित्सकों का मत है कि इस रोग के निदान में काफी दिक्कत इसलिए होती है क्योंकि दर्द एक पूर्णत: आत्मनिष्ठ अनुभूति है जो मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित होने वाली घटना है। अत: यह पहचान करना मुश्किल हो जाता है कि व्यक्ति में हाने वाला दर्द का स्वरूप कायप्रारूप (Somatoform) है या वह वास्तविक दर्द है।

शरीर दुष्क्रिया आकृति विकार - 

इस विकृति में रोगी को अपने चेहरे में कुछ कल्पित दोष (Imagined defect) उत्पन्न हो जाने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। जैसे सम्भव है कि रोगी को यह विश्वास हो जाए कि उसके नाम का आकार दिनों दिन बढ़ा होता है या होता जा रहा है, या उसके ऊपरी होंठ ऊपर की दिशा में तथा निचली होंठ नीचे की दिशा में लटकता जा रहा है। इस तरह के कल्पित दोष से वह इतना अधिक चिंतित रहता है कि उसके दिन प्रतिदिन के सामाजिक जिंदगी में काफी परेशानी आ जाती है और समायोजन सम्बद्ध समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है।

इस तरह की विकृति से संबद्ध कम शोध किये गये है। इस तरह की विकृति वाले अधिकतर रोगी यूरोपियन एवं एशियन देशों के मानसिक अस्पतालों में कुछ देखने को मिले है। अमेरिका में इस तरह के रोग न के बराबर देखे गए है। यही कारण है कि कई मनचिकित्सकों में इस बात पर मतभेद है कि इसे कायप्रारूप विकृति (Somatoform disorder) का एक स्वतंत्र प्रकार माना जाए या नहीं।

मनोविच्छेदी विकृतियाँ 

मनोविच्छेदीविकृति एक महत्वपूर्ण एवं सामान्य मानसिक रोग है जिसमें रोगी के मानसिक प्रक्रियाएँ विशेषकर स्मृति या चेतना जो समन्वित रहता है, विच्छेदित हो जाता है। इसमें स्मृति का कुछ क्षेत्र चेतन से विच्छेदित होकर अलग हो जाता है जिससे व्यक्ति अपने आप को तथा वातावरण को भिन्न ढंग से प्रत्यक्षण करने लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनोविच्छेदी विकृति का सबसे प्रमुख लक्षण विच्छेदन है। विच्छेदन की अनुभूति में अन्य बातों के अलावा इस तरह की अनुभूतियाँ अधिक होती है -
  1. स्मृतिलोप (Amnesia) - स्मृतिलोप में रोगी अपने पूर्व अनुभूतियों का आंशिक या पूर्णरूपेण प्रत्याहृन (Crecall) करने में असमर्थ रहता है। 
  2. व्यक्तित्वलोप (Depersonalization) - इसमें रोगी को पूरा वातावरण ही अवास्तविक एवं अविश्वसनीय लगता है। 
  3. पहचान संभ्राति /आत्मविस्मृति (Identify confusion) - इसमें रोगी को अपने बारे में यह संभ्राति उत्पन्न होती है कि वह कौन है, क्या है, आदि। 
  4. पहचान बदलाव - इसमें रागी कभी - कभी कुछ आश्चर्य उत्पन्न करने वाले कौशलों से अपने को लैश पाता है। रोगी को आश्चर्य इसलिए होता है कि उसे पता भी नहीं रहता है कि उसमें ऐसा कौशल है। जैसे सम्भव है कभी - कभी रोग विदेशी भाषा में कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग करके अपने सम्भाशण को आकर्षक बना देता है कि उसे आश्चर्य होने लगता है।

मनोविच्छेदी विकृति के प्रकार –

मनोविच्छेदी विकृति (Dissociative Disorder) के कई तरह के प्रकार बतलाये गये हैं, जिनमें चार प्रमुख है -
  1. मनोविच्छेदी स्मृतिलोप (Dissociative Amnesia) - इस रोग में व्यक्ति अपने ऐसे अनुभवों का प्रत्याहृान पूर्णत: या अंशत: नहीं कर पाता है, जो तनाव उत्पन्न करने वाला होता है या जो मानसिक आघात उत्पन्न किये होते है। स्मृतिलोप के अनेक प्रकार होते है, जिनमें प्रमुख है।
    1. पश्चगामी स्मृतिलोप (Retrogracle Amensia) 
    2. उत्तर अघातीय स्मृतिलोप (Post traumatic amnesia) 
    3. अग्रगामी स्मृतिलोप (Anterograde amnesia) 
    4. चयनात्मक या श्रेणीबद्ध स्मृतिलोप (Selective of categorical amnesia) 
    5. सामान्यीकृत स्मृतिलोप (Generalized amnesia) 
    6. सतत स्मृतिलोप (Continuous amnesia) 
    7. क्रमबद्ध स्मृतिलोप (Systemized amnesia)
  2. मनोविच्छेदी आत्मविस्मृति (Dissociative Fugue) – इसे पहले मनोजनिक आत्म विस्मृति (psychogenic Fugue) कहा जाता था। इसमें व्यक्ति में स्मृतिलोप (amnesia) के लक्षण तो होते ही है। साथ ही साथ वह अपने घर या सामान्य निवास स्थान छोड़कर एवं अप्रत्याशित ढंग से दूर चला जाता है और वह वहाँ नया काम, नया नाम, बताकर एक नयी जिन्दगी की शुरूआत करता है। कई दिन, महीना तथा कभी -कभी साल बीत जाने के बाद फिर रोगी अचानक अपने आप को नये जगह में पाकर आश्चर्यचकित रह जाता है और फिर वह नयी जिन्दगी के बारे में सब कुछ भूल जाता है। उसे यह भी समझ में नहीं आता कि वह किस तरह यहाँ आता था और क्यों आता था। अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि सामान्य जनसंख्या का करीब 0.2 प्रतिशत लोगों में ही इस तरह का रोग पाया जाता है। स्पष्टत: तब इस तरह के रोग का प्रचलन काफी कम है।
  3. मनोविच्छेदी पहचान विकृति (Dissociative Identify Disorder) - इस रोग को पहले बहुत्यक्तित्व विकृृति (Multipli Personality Disorder) कहा जाता था। मनोविच्छेदी पहचान विकृति  में एक ही व्यक्ति में दो या दो से अधिक भिन्न व्यक्तित्व अवस्थाएँ पायी जाती है। प्रत्येक अवस्था अपने आप में सवंगात्मक एवं भावात्मक दृश्टिकोण से काफी सुसज्जित एवं संगठित होते है और प्रत्येक व्यक्तित्व तंत्र का अपना - अपना अलग विचार एवं संज्ञान (Cognition) होता है। व्यक्ति एक व्यक्तित्व अवस्था में कुछ समय (जैसे कुछ महीना या साल) एक रहकर फिर अपने आप दूसरे व्यक्तित्व अवस्था में चला जाता है। एक व्यक्तित्व अवस्था व्यक्तित्व अवस्था में नाटकीय ढंग से भिन्न होता है। जैसे व्यक्ति एक व्यक्तित्व अवस्था में कुछ मजाकिया, चिंतामुक्त व्यवहार कर सकतता है तो दूसरी अवस्था में वह किसी गंभीर, शान्त एवं चिन्तायुक्त व्यक्ति समान व्यवहार कर सकता है। वैसी आवश्यकताएँ एवं व्यवहार जो मुख्य व्यक्तित्व में अवरूद्ध एवं दबी होती है, वे अन्य व्यक्तित्व अवस्थाओं में विषेष रूप से अभिव्यक्ति होती हे। इसे पहले भूतबाधा आदि के रूप में प्रत्यक्षण किया जाता था।
  4. व्यक्तित्व विकृतियाँ (Personality Disorders) - व्यक्तित्व विकृति किसी तनावपूर्ण परिस्थिति (Stress Situation) के प्रति एक प्रतिक्रिया नहीं होती है जैसा कि हम Adjustment disorder में पाते है न ही वह चिंता के प्रति एक तरह का अपरिपक्व व्यक्तित्व विकास का प्रतिफल होता है। इा तरह की व्यक्तित्व विकृतियों के लक्षण किशोरावस्था तक स्पष्ट हो जाते है जो वयस्कावस्था में भी मौजूद रहते है। व्यक्तित्व विकृति मूलत: शीलगुणों की विकृति है। दूसरे शब्दों में व्यक्तित्व विकृति वैसा विकृति है, जो पर्यावरण को कुसमायोजित ढंग से प्रत्यक्षण करने तथा उसके प्रति अनुक्रिया करने की प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है।

व्यक्तित्वलोप विकृति

इसमें व्यक्ति का आत्मन् का प्रत्यक्षण अथवा अनुभव इस हद तक बदला रहता है कि उससे पृथकता का भाव उत्पन्न होता है। व्यक्ति स्वयं को यंत्र के समान चलने वाला प्राणी मानने लगता है। उसे लगता है कि वह स्वप्न की दुनिया में विचरण कर रहा है और वह स्वयं की ही मानसिक तथा शारीरिक प्रक्रियाओं का एक बाहरी प्रेक्षक बनकर उनका निरीक्षण कर रहा है। इस रोग में व्यक्ति को संवेदी भ्रामक, भावात्मक अनुक्रियाओं की कमी, अपनी की क्रियाओं पर नियंत्रण न होने का भाव आदि होते देखा गया है। इस प्रकार के रोगियों में सम्मोहनशीलता का गुण अधिक पाया जाता है।

व्यक्तित्व विकृति के प्रकार -

मनोरोग के वर्गीकरण की नवीनतक सर्वमान्य अमेरिकतन पद्धति है, के अनुसार व्यक्तित्व विकार के 10 प्रकार है -
  1. स्थिर व्यामोही व्यक्तित्व विकृति 
  2. स्किजोआयड व्यक्तित्व विकृति 
  3. स्किजाटाइपल व्यक्तित्व विकृति 
  4. हिस्ट्रीओनिक व्यक्तित्व विकृति 
  5. आत्ममोही व्यक्तित्व विकृति 
  6. समाज विरोधी व्यक्तित्व विकृति 
  7. सीमान्तरेखीय व्यक्तित्व विकृति 
  8. परिवर्जित व्यक्तित्व विकृति 
  9. अवलम्बित व्यक्तित्व विकृति 
  10. मनोग्रस्ति बाध्यता व्यक्तित्व विकृति ।

मनोदशा विकृतियाँ एवं आत्महत्या 

मनोदशा विकृति जैसा नाम से ही स्पष्ट है, एक ऐसी मानसिक विकृति है जिसमें व्यक्ति के भाव, संवेग एवं संबधित मानसिक दशाओं में इतना उतार - चढ़ाव होता है कि वह अपने दिन प्रतिदिन के जवन में समायोजन का सामान्य स्तर बना कर नहीं रख पाता है और उसकी सामाजिक एवं पेशेवर जिंदगी में तरह - तरह की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। इस तरह की मानसिक विकृति में व्यक्ति की मनोदशा में कमी तो विषाद देखा जाता है ताक कभी विषाद एवं सुखाभास दोनों ही कभी - कभी बारी - बारी से होते देखा जाता है। चाहे मानसिक अवस्था विषाद का हो या सुखाभास का, रोग का समायोजन बुरी तरह प्रभावित हो जाता है और व्यक्ति को चिकित्सा देना अनिवार्य हो जाता है।

मनोदशा विकृति के प्रकार  -

इसे एकध्रवीय भी कहा जाता है और इसका मुख्य लक्षण व्यक्ति में उदासी एवं विषाद का होना है। इसके अतिरिक्त इसमें भूख - नींद एवं शारीरिक वनज में कमी होते पायी जाती है और व्यक्ति का संक्रियण स्तर काफी कम जाता है। विषादी विकृति को फिर दो भागों में बॉटा गया है -

1. डायस्थाइमिक विकृति (Dysthymic Disorder) - इस विकृति में विषादी मनोदशा का स्वरूप चिरकालिक होता है अर्थात् गत कई वर्षो से व्यक्ति की मनोदशा विषादी होती है। व्यक्ति को गत् कई वर्षो से किसी भी चीज में अभिरूची, आनन्द की कमी का अनुभव करता है। बीच में कुछ दिनों के लिए उसकी मनोदशा भले ही सामान्य हो जाय परन्तु विषादी मनोदशा की प्रबलता सतत बनी रहती हे। 

2. बड़ा विषादी विकृति (Major depressive disorder) - इस विकृति में व्यक्ति एक या एक से अधिक बड़े विषादी घटनाओं का अनुभव किया होता है। व्यक्ति प्रत्येक चीज में अपनी अभिरूचि खो चुका होता है तथा उसे कोई कार्य में मन नहीं लगता है। ऐसे व्यक्तियों में नींद की कमी, शारीरिक वनज की कमी, थकान, स्पष्ट रूप से सोचने की क्षमता में कमी, बेकार एवं अयोग्य होने का भाव, आत्महत्या की प्रवृत्ति आदि अधिक होती है। इस विकृत में श्रेणीकृत होने के लिए वह आवश्यक है कि ऐसे लक्षण कम-से-कम गत दो सप्ताह से अवश्य हो रहे है।
  1. द्विध्रुवीय (Bipolar) विकृति - द्विध्रुवीय विकृति वैसी विकृति को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति या रोगी में बारी - बारी से विषाद तथा उन्माद दोनों ही तरह की अवस्थाएँ होती पायी जाती है। यही कारण है कि इसे उन्मादी - विषाद विकृति भी कहा जाता है। DSM IV (TR) में द्विध्रुवीय विकृति में तीन प्रकार बतलाये गये है -
    1. साइक्लोथाइमिक विकृति (cyclothymic disorder) - dysthmic disorder के समान cyclothymic disorder में भी मनोदशा में चिरकालिक क्षुब्धता पायी जाती हैं। इसमें विषादी व्यवहार तथा अल्पोन्माद व्यवहार दोनों ही पाये जाते है परन्तु इन दोनों में से किसी की भी गंभीरता ऐसी नहीं कि यह द्वारा निर्धारित कसौटी को छू सकें। ऐसे व्यवहारों का इतिहास निश्चित रूप से कम से कम दो वर्ष पुराना अवश्य होता है। 
    2. द्विधु्रवीय एक विकृति (Bipolar Ipisorder) - जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वैसी मानसिक विकृति होती है जिसमें रोगी या व्यक्ति एक या एक से अधिक उन्माद की घटना तथा एक या एक से अधिक विषाद की घटना की अनुभूति अवश्य किया होता है। गुडविन तथा जैमिसन के अनुसार Bipaler I disorder के बहुत कम रोगी ऐसे भी होते है जो एक या एक से अधिक बार उन्मादी अवस्थ का अनुभव किये हो किन्तु उन्हें कभी भी विषादी लक्षण का अनुभव नहीं हुआ हो। 
    3. द्विधुवीय दो विकृति (Bipolar II disorder) - इसमें रोगी को कम से कम एक अल्पोन्मादी मानसिक अवस्था का अनुभव तथा कम से कम एक या एक से अधिक विषादी मानसिक अवस्थाओं का अनुभव हो चुका होता है। इसके रागी को कभी उन्मादी मानसिक अवस्था का अनुभव नहीं होता है। अल्मोन्मादी अवस्था एक ऐसी अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति की मनोदशा थोड़ी देर के लिए बढ़ी - चढ़ी होती है। तथा उनमें चिढ़चिढ़ापन जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। द्विध्रुवीय एक विकृति तथा द्विध्रुवीय दो विकृति के मुख्य अंतर यह है कि द्विध्रुवीय दो विकृति में उन्मादी व्यवहार की गंभीरता कम होती है जबकि द्विध्रुवीय एक विकृति में उन्मादी व्यवहार व्यक्ति अधिक गंभीर मात्रा में दिखाता है।
अन्य मनोदशा विकार (Other mood disorder) - इस श्रेणी में वैसी मनोदशा विकृतियों को रखा गया है जो दैहिक एवं मानसिक विकृतियों से उत्पन्न हो जाते है। जैसे क्लिंटन के अध्ययन के अनुसार प्रत्येक 10 मुख्य विषादी में से एक का कारण मनोवैज्ञानिक या सांवेगिक न होकर कोई मेडिकल बिमारी जैसे- कैंसर, मधुमेह, हृदय आघात आदि या कुछ द्रव्य दुरूपयोग (substance abuse) या अन्य विकृतियों के उपचार के लिए लिया जाने वाला औशध आदि होता है।

मनोविदालिता या सिजोफ्रेनिया

सिजोफ्रेनिया एक गंभीर मानोरोग है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति को सामान्यत: पागल कहा जाता है। यह चिन्तन एवं क्षुब्ध मनोदशा की विकृति है। इस रोग में व्यक्ति में गलत प्रत्यक्षण तथा गलत विश्वास उत्पन्न हो जाता है तथा वास्तविकता को समझने में अनेकों कठिनाइयाँ होती है, तथा भाषा संबधित सांवेगिक अभिव्यक्ति में तालमेल करने में असमर्थता होती है। मनोविदालिता, मनोविक्षिप्तता विकृतियों का एक समूह है जिसमें चिंतन, संवेग तथा व्यवहार में अत्यधिक क्षुब्धता की विषेषता होती है। विकृत चिंतन जिसमें विचार तार्किक रूप से संबद्ध नहीं होते हैं, दोषपूर्ण प्रत्यक्षण एवं ध्यान होता है। यह रोगी को अन्य लोगों एवं वास्तविकता से दूर करके उसे व्यामोह तथा विभ्रम के काल्पनिक दुनिया में ले जाता है।

मनोविदालिता के प्रकार - 

  1. विघटित मनोविदालिता - विघटित मनोविदालिता का मुख्य लक्षण संभ्राति (Confusion) संगतता (incoherence) तथा कुंठित प्रभाव (feat affect) आदि है। इस प्रकार में विभ्रम तथा व्यामोह विषेषकर लैंगिक, रोगभ्रमी (hypo chondrical) धार्मिक तथा दंडात्मक (persecutory) काफी होते है एवं घटियाा ढंग से संगठित होते है। रोगी में अपने शरीर से संबधित विचित्र विषेषकर शारीरिक हृास से संबधित विचार काफी आते है। विघटित मनोविछालिता के रोगी न तो अपनी देख-रेख ठीक ढंग से करते है और न ही इनका सामाजिक संबध ही उत्तम होता है।
  2. कैटेटोनिक मनोविदालिता - इसमें पेशीय लक्षण (motor symptoms) बौद्धिक (Intellectual) तथा लक्षणों (emotional symptoms) से अधिक स्पष्ट होते है। सामान्यत: इस प्रकार के मनोविदालिता में तीन तरह की लाक्षणिक अवस्थाएँ होती है - एक अवस्था catatonic stupor का होता है जिसमें रोगी गतिहीन तथा अनुक्रियाहीन होने का लक्षण दिखलाता है। रोगी एक स्थिति में लम्बे समय तक चुपचाप सोता या खड़ा रहता है, वह किसी से बातचीत नहीं करना चाहता है तथा किसी के बात पर कोई ध्यान भी नहीं देता है। कभी - कभी वह सांकेतिक हाव - भाव, रूढ़िवादी गति तथा दृढ़ मनोवृत्ति भी दिखलाता है।
  3. व्यामोही मनोविदालिता - मनोविदालिता के इस प्रकार का सबसे प्रमुख लक्षण व्यामोह तथा श्रव्य विभ्रम का एक क्रमबद्ध एवं संगठित तंत्र का होना है। व्यामोह में दंडात्मक व्यामोह (diliusion of persecuation) की प्रबलता होती है परन्तु इसके अतिरिक्त बड़प्पन का व्यामोह (diliusion of grendeour) , dilusion or reference भी पाया जाता है। जब ऐसे रोगियों के प्रत्यक्षण तथा चिंतन की सत्यता के बारे में दूसरों के द्वारा प्रश्न किया जाता है, तो उनके इस व्यामोही चिंतन व विभ्रमात्मक प्रत्यक्षणों के साथ-साथ उसमें क्रोध या चिंता भी उत्पन्न होती है। APA (1994) के अनुसार इसके विपरीत जिन रोगियों में बड़प्पन का व्यामोह अधिक होता है वे शांत एवं अकेले रहते है।
  4. मिश्रित मनोविदालिता -  इस श्रेणी में उस मानसिक रोगी को रखाा जाता है जिन्हें मनोविदालिता के रोगी के रूप में पहचान तो की जाती है किन्तु उसके मनोविदालिता के कोई स्पष्ट प्रकार में रखना संभव नहीं हो पाता है। जब रोगी में मनोविदालिता के लक्षण अचानक उत्पन्न होते है और लघु अवधि में ही वे दूर हो जाते है, तो उसे प्रखर मिश्रित मनोविदालिता (acute undifferentiated schizophrenia) कहा जाता है। परन्तु मनोविदालिता के रोग की शुरूआत क्रमिक (gradual) होती है और उसके लक्षण लम्बे समय तक बने रहते है, तो इसे चिरकालिक मिश्रित मनोविदालिता (chronic undifferentiated schizophrenia) कहा जाता है।
  5. अवशिष्ट मनोविदालिता - इस श्रेणी में मनोविदालिता के उन रोगियों को रखा जाता है जो मनोविदालिता के सम्पूर्ण कसौटी पर तो खरे नहीं उतरते है परन्तु फिर भी उनमें मनोविदालिता के लक्षण दीख पड़ते है। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार के मनोविदालिता के भड़कीले लक्षण की संख्या तथा तीव्रता में तो कमी हो जाती है परन्तु फिर भी वे अवशिष्ट प्रारूप में बने रहते है। इसमें रोगी में भोथरें या अनुपयुक्त सांवेगिक प्रतिक्रिया, सामाजिक प्रत्याहार (Social withdraw) अनोखा व्यवहार (eccentric behavior) तथा कुछ आतार्किक चिंतन के लक्षण होते है। DSM IV (TR) (2000) के अनुसार इस प्रकार के मनोविदालिता के मुख्य लक्षण प्रकार है।
    1. स्पष्ट सामाजिक अलगाव 
    2. समाजिक भूमिकाओं को करने में स्पष्ट दोष 
    3. व्यक्तिगत स्वास्थ्य एवं देखभाल में गंभीर दोष 
    4. अनुपयुक्त सांवेगिक अभिव्यक्ति 
    5. अत्यन्त विचित्र व्यवहार 
    6. असाधारण प्रत्यक्षज्ञानात्मक अनुभूतियाँ 
    7. भावषून्यता अथवा पहल की कमी।
    8. इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि मनोविदालिता के इस प्रकार में मनोविदालिता के प्रमुख लक्षण जैसे व्यामोह, विभ्रम, असंगतता तथा विघटित व्यवहार आदि तो अनुपस्थित रहते है किन्तु अन्य उपर्युक्त तरह के लक्षण उनमें दीखते है, जो निश्चित रूप से दुखदायी होते है।

व्यामोही विकृतियाँ या स्थिर व्यामोही विकृतियाँ 

स्थिर व्यामोह (paranoia) से तात्पर्य एक वैसे मानसिक रोग से होता है जिसमें रोगी एक जटिल व्यामोह तंत्र विकसित कर लेता है परन्तु उसमें किसी प्रकार के विभ्रम (hallucination) भाषा तथा क्रिया-कलापों में गड़बड़ी तथा स्थिति भ्रान्ति आदि का कोई लक्षण नहीं होता है। स्पष्ट हुआ कि इस रोग में रोगी में व्यामोह तंत्र इतना जटिल (Complex) होता है कि उसके व्यवहार में असामान्यता तथा कुसायोजन (Maladjustment) स्पष्ट रूप से दिखते है। सुव्यवस्थित एवं स्थिर व्यामोह के अलावा इस तरह के रोगियों में और कोई भी लक्षण असामान्य नहीं होते है। DSM IV (TR) में इस रोग का नाम व्यामोही विकृति (delusional disorder) रखा गया है।

स्थिर व्यामोही विकृति के प्रकार - 

  1. दंडात्मक प्रकार (persecutory types) -इस प्रकार की विकृति के रोगी में यह व्यामोह या गलत विश्वास उत्पन्न हो जाता है कि दूसरे लोग उसके प्रति कुछ साजिश कर रहे है, उन्हें तकलीफ देने का प्लान तैयार कर रहे है। इस तरह के व्यक्तियों के प्रति क्रोध तथा अहिंसा दिखाते है जिन्हें वे यह समझते है कि वह उन्हें चोट पहुँचा रहा है। 
  2. ईश्र्यालू प्रकार (Jealous type) - इस प्रकार के रागी में गलत विश्वास उत्पन्न हो जाता है, कि उसका लैंगिक साथी (sexual partner) अविश्वासी (unfaithful) है इस तरह के गलत विश्वास का आधार छोटे-छोटे सबूतों के आधार पर लगाये गये गलत अनुमान होते है। 
  3. कामोन्मादी प्रकार (Erotomanic type) - इस प्रकार के रोगी को यह गलत विश्वास हो जाता है कि कुछ उच्च-स्तरीय व्यक्ति या सम्मानित व्यक्ति उसके साथ प्यार करते और उसके साथ लैंगिक संबध की इच्छा रखते है। कभी-कभी इसमें रोगी किसी अपरिचित व्यक्ति से रोमांस करने का विश्वास विकसित कर लेता है। नैदानिक प्रतिदर्श इस प्रकार के रोग अधिकतर महिलाओं में होते है।  
  4. आडम्बरी प्रकार (Complex) -इस प्रकार के रागी में यह गलत विश्वास हो जाता है कि उसमें कोई असाधारण या दिव्य सूझ या शक्ति या योग्यता है। उसे यह भी गलत विश्वास हो जाता है कि उसने कोई महत्वपूर्ण खोज किया है। ऐसे रोगी प्राय: यह भी कहते पाये जाते है कि उनका किसी बडे़ राजनैतिक नेता से संबध है या ईश्वर के दूत है। 
  5. शरीरिक प्रकार (Sometic type) - इस प्रकार के रागी को यह गलत विश्वास हो जाता है कि उसमें काई ना कोई शारीरिक क्षुब्धता उत्पन्न हो गयी है। वह इस विचार से हमेशा अत्यधिक परेशान रहता है। Sometic dilusion के कई प्रकार होते है। इसमें सबसे सामान्य वह है जिसमें रोगी को यह गलत विश्वास हो जाता है कि उसकी त्वचा, मुँह, 
  6. मिश्रित प्रकार (Mixed type) - इस श्रेणी में स्थिर व्यामोह के किसी रोगी को तब रखा जाता है, जिन रोगियों में कोई एक तरह का व्यामोही विषय की प्रबलता नहीं होती है। 
  7. अविशिष्ट प्रकार - इस प्रकार के स्थिर व्यामोह के किसी रोगी को तब रखा जाता है जब उसका प्रबल व्यामोही विश्वास के बारे में यह निश्चय नहीं किया जा सकता है कि किस प्रकार है। जैसे मान लिया जाए कि कोई व्यक्ति में संदर्भ व्यामोह तो होता है परन्तु आडम्बरी या दंडात्मक तत्व न हो, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि उसका व्यामोही विश्वास किस श्रेणी का है।

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