निष्पादन बजट क्या है भारत में निष्पादन बजट सर्वप्रथम कब अपनाया गया?

निष्पादन बजट का तात्पर्य ऐसी बजट प्रक्रिया से है जिसके अन्तर्गत बजट में शामिल कार्यक्रमों तथा योजनाओं का क्रियान्वयन इस प्रकार से किया जाये ताकि अपेक्षित तथा वास्तविक निष्पादन के मध्य कम से कम अन्तर हो तथा परियोजनाओं का क्रियान्वयन इष्टतम स्तर पर हो सके। इसके लिये यह अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि बजट के प्रत्येक चरण में अपेक्षित व्यय तथा अपेक्षित प्राप्तियों का एक नियोजित रूप रेखा तैयार की जाय तथा कार्यक्रमों का क्रियान्वयन एवं संचालन उच्च स्तर का हो सके तथा वांछित परिणामों को आसानी से प्राप्त किया जा सके। 

बजट के क्रियान्वयन के लिए निर्मित कसौटियों के आधार पर सार्वजनिक व्यय में पूर्ण मितव्ययता बरती जाय तथा बजट का संचालन एक कुशल प्रबन्धतंत्र द्वारा किया जाय। इस प्रकार निष्पादन बजटिंग में कुशल प्रशासनिक कार्य तंत्र को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। क्योंकि कार्यक्रमों या योजनाओं का इष्टतम निष्पादन कुशल प्रशासनिक कार्यतंत्र पर ही पूर्ण रूप से आधारित होता है।

भारत में निष्पादन बजट

भारत में निष्पादन बजट लागू करने की मांग सर्वप्रथम 1954 में लोकसभा-विवाद में की गई थी। इसके उपरान्त समय-समय पर यह मांग दोहराई जाती रही। संसद की अनुमान समिति ने अपनी बीसवीं रिपोर्ट 1957.58 में यह सिफारिश की थी कि बजट की उपलब्धि तथा कार्यक्रम बजट व्यवस्था में सम्मिलित की गई लागत और योजनाओं के उचित मूल्यांकन के लिए आदर्श होगी, विशेषतया बड़े पैमाने पर विकास-संबंधी क्रियाओं के लिए। निष्पादन बजट को लागू करना लक्ष्य होना चाहिए जिसे धीरे-धीरे और उत्तरोत्तर चरणों में बजट-संबंधी कोई गम्भीर व्यवस्था के बिना प्राप्त किया जाये। अनुमान समिति ने अपनी सिफारिश का समर्थन समय-समय पर अपनी सिफारिशों को दोहरा कर किया और कहा कि सार्वजनिक उपक्रमों को कहा जाए कि उपलब्धि तथा कार्यक्रम विवरण तैयार करें। 1961 में भारत सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को इस बारे में आदेश जारी किये और कहा कि वे संसद को पेश करने के लिए व्यापार जैसे बजट के अतिरिक्त ऊपर लिखित विवरण भी भेजें।

विदेशी विशेषज्ञों की सिफारिशों, लोक-प्रशासन के भारतीय संस्थान तथा योजना आयोग ने भी उपलब्धि बजट के लिए आंदेालन में अपने प्रयत्नों से योगदान दिया। प्रशासनिक सुधार आयोग ने सरकार को सिफारिश की कि 1969.70 के बजट से शुरू होकर दो साल के भीतर-भीतर सरकार के सभी संगठनों और विभागों में निष्पादन बजट को लागू किया जाए जो विभाग अथवा संगठन विकास कार्यक्रमों पर सीधा नियंत्रण रखते हैं। सरकार इस समय सारणी पर न टिक पाई। इसने निर्णय किया कि सभी विकास संबंधी विभागों के द्वारा धीरे-धीरे निष्पादन बजट को लागू किया जाए। इससे पूर्व भी वित्त मंत्रालय ने एक मसौदा तैयार किया था जिसका शीर्षक था चुने हुए संगठनों के निष्पादन बजट 1968.69 जो संसद के सामने अप्रैल, 1968 में पेश किया गया जिसमें चार मंत्रालयों विभागों के बजटों का विकल्प प्रस्तुतीकरण था और जो परम्परागत बजट मसौदों के पूरक के रूप मे पेश किया गया। तब से अधिकाधिक विभागों के लिए निष्पादन बजट तैयार किये जाते रहे हैं। 1977.78 तक भारत सरकार के लगभग 32 विकास-संबंधी विभागों को इस योजना के अधीन सम्मिलित कर लिया गया था। यह प्रक्रिया चल रही है। कई राज्य सरकारों ने भी विकास-संबंधी विभागों में उपलब्धि बजट तैयार करने शुरू कर दिये हैं।

निष्पादन बजट का इतिहास

निष्पादन बजट का प्रचलन वित्त प्रशासन में अभी कुछ ही वर्षों से शुरू हुआ है, परन्तु आज यह इसका एक अंग हो गया है। जब हम वित्त प्रशासन में सुधार की बात करते हैं तो निष्पादन बजट का नाम स्वत: ही आ जाता है। निष्पादन बजट परम्परागत बजट से बहुत भिन्न है। परम्परागत बजट जिसे ‘लाइन-आइटम बजट’ भी कहते हैं कर्मचारी, भवन, सज्जा आदि व्यय की मदों को ध्यान में रख कर बनाया जाता है। इस बजट से इतना ही पता चलता है कि कितना सार्वजनिक धन कर्मचारियों पर खर्च हुआ, कितना अन्य मदों पर। इससे यह ज्ञात नहीं होता है कि सार्वजनिक धन के व्यय से कितनी उपलब्धियां प्राप्त huii हैं। इसी कमी को निष्पादन बजट पूरा करता है। निष्पादन बजट विशिष्ट उद्देश्यों व कार्यों पर केन्द्रित रहता है। यह बताता है कि कितने कार्य सम्पादित करने का विचार है।

परम्परागत बजट या ‘लाइन-आइटम बजट’ उस काल की देन थी, जब सरकार के कार्य संकीर्ण होते थें अत: सार्वजनिक व्यय कम रहता था, और प्रयत्न भी यही किया जाता था कि कम से कम खर्चा हो। साथ ही, वित्त प्रशासन मध्यम व निम्न श्रेणी के कर्मचारियों को सदैव शंका की दृष्टि से देखता था, तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने नियंत्रण की एक विशाल श्रृंखला उत्पन्न कर ली थी। निश्चय ही, इससे प्रशासन की गति मंद हो गयी पर औपनिवेश्कि शासन को इससे क्यों परेशानी होती।

स्वतन्त्र भारत में औपनिवेशिक उद्देश्य अर्थहीन बन गए। अपनी चतुर्मुखी उन्नति के लिए भारत में पंचवष्र्ाीय योजनाओं का सहारा लिया गया और इन योजनाओं के अन्र्तगत सार्वजनिक व्यय बेतहाशा बढ़ने लगा। इस नयी राजनीतिक परिस्थिति में मितव्ययता तथा उत्तरदायित्व के पुराने विचार महत्वहीन हो गये। वास्तव में इन विचारों से देश की प्रगति में बाधा ही पड़ने लगी, क्योंकि जैसी कहावत है कि पैसा बचाने के चक्कर में रूपया खो देते हैं। ब्रिटिश काल में व्याप्त अविश्वास तथा सन्देह के प्रशासनिक दृष्टिकोण स्वतन्त्र भारत में बाधक सिद्ध होने लगे। आज आवश्यकता यह है कि हम अपने विकास कार्यक्रमों को जल्दी-जल्दी पूरा करें ताकि इनके फल लोगों तक पहुंच सकें। ऐसे समय सन्देह एंव शंका की प्रक्रियाएं उपयोगी सिद्ध नहीं होती।

निष्पादन बजट की परिभाषा सीधी है। इस प्रकार का बजट सार्वजनिक व्यय को कार्यों, प्रोग्रामों तथा कृतियों में प्रकट करता या दिखाता है। इस प्रकार निष्पादन बजट परम्परागत बजट से इस अर्थ में भिन्न है कि परम्परागत बजट केवल यह बताता है कि कितना रूपया कर्मचारियों पर खर्च हुआ, कितना फर्नीचर पर, कितना सज्ज्ाा आदि पर। भारतीय प्रशासकीय सुधार आयोग (1966-1970) के अनुसार निष्पादन बजट सरकारी क्रियाओं को कार्यों, कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं में प्रकट करने की एक प्रक्रिया है। इस प्रकार के बजट का वर्णन सबसे पहले अमेरिका के हूवर कमीशन ने 1949 में किया था। हूवर कमीशन ने सिफारिश की थी कि बजट को कार्यों, क्रियाओं तथा परियोजनाओं की रूपरेखा में होना चाहिए। जब बजट इस भांति बनने लगेगा तो यह स्पष्ट होने लगेगा कि क्या कार्य सम्पादित किये गये हैं या क्या सेवाएं दी जा रही हैं।

निष्पादन बजट, बजट बनाने का एक नया तरीका प्रस्तुत करता है। परम्परागत बजट तो यह बताता है कि कितना खर्चा कर्मचारियों पर हुआ, कितना स्टेशनरी पर, कितना गाड़ियों पर, आदि। इस प्रकार का बजट तो केवल साधनों तक ही अपने को सीमित कर लेता है। मुख्य चीज तो यह है कि कर्मचारियों, स्टेशनरी आदि पर खर्चा किस काम को पूरा करने पर किया गया; अर्थात् सम्पादित होने वाला काम निष्पादन बजट का केन्द्र बिन्दु हो जाता है।

निष्पादन बजट एक संगठन के उद्देश्यों का विश्लेषण करता है, और फिर इसके अनेक कार्यों के अन्र्तगत व्यय दिखाया जाता है। यहां यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि कार्य (function), कार्यक्रम (programme) तथा परियोजना (activity or project) के विशेष अर्थ होते हैं। कार्य के अन्र्तगत कार्यक्रम तथा परियोजनाएं आती हैं। उदाहरण के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा विभाग का कार्य है-शिक्षा। इस कार्य के अन्र्तगत कार्यक्रम हो सकता है-’प्राथमिक शिक्षा’; लेकिन इस कार्यक्रम के अन्र्तगत परियोजनाएं भी आती हैं, जैसे स्कूल भवन निर्माण, शिक्षकों का प्रशिक्षण आदि।

पारम्परिक बजट निर्माण व निष्पादन बजट निर्माण में अन्तर

सन् 1950-62 तक भारतीय बजट के अन्तर्गत वित्तीय पहलुओं पर जोर दिया जाता रहा है। इसी कारण इसमें वास्तविक लक्ष्यों और उपलब्धियों के साथ वित्तीय परिव्ययों का अन्र्तसम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाया था। नियोजित अर्थव्यवस्था और सरकारी क्रियाकलापों की जटिलता एवं बढ़ते हुए परिमाण के सन्दर्भ में भारतीय बजट व्यवस्था को नई दिशा प्रदान करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके परिणामस्वरूप नई बजट व्यवस्था उभरकर सामने आई। इस नई बजट तकनीकी का संबंध विकासात्मक दायित्वों और योजना के लक्ष्यों को पूरा करने से है। यह आशा कि जाती थी कि यह बजट तकनीक सरकार के प्रकार्यात्मक क्षेत्रों, कार्यक्रमों और क्रियकलापों की अर्थव्यवस्था में सरकार के प्रयासों का व्यापक चित्र प्रस्तुत करेगी। इन सबके अतिरिक्त इस नई बजट तकनीकी में निवेशों को उत्पादों के साथ एकीकृत करने का प्रयास किया गया जिससे परम्परागत बजट प्रणाली कहा जाता है जिसकी भारत में शुरूआत अंग्रेजों द्वारा की गई। परम्परागत बजट में क्रय के मदों पर जोर दिया जाता है जिन पर खर्च किया जाना होता है। इसमें व्यय के उद्देश्य को स्पष्ट नहीं किया जाता है। इसलिए परम्परागत बजट केवल विभिन्न अभिकरणों तथा उनके व्यय के लिए आवंटित राशि को ही अभिव्यक्त कर सकता है। इससे केवल विधायी नियंत्रण में ही सुविधा होती है। भारत में यह पद्धति सौ वषोर्ं से भी अधिक समय तक चलती रही।

परम्परागत बजट प्रमुखतया विधिक एवं लेखा संबंधी साधन का काम करता है। इसमें विभिन्न विभागों की व्यय संबंधी आवश्यकताओं पर प्रति वर्ष खर्च होने वाले अनुमानित राशि का समेकन किया जाता है। समूचे व्यय को मांगों और अनुदानों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें व्यय के मदवार वर्गीकरण पर जोर दिया जाता है उदाहरणार्थ, स्थापना प्रभार उपस्कर तथा सामग्री। फ्लेक्स निग्रो (Fleix-Nigro) के अनुसार “परम्परागत बजट स्वभावत: अधिक कठोर होता है। नियंत्रण सरकार द्वारा क्रय की गई प्रत्येक मद/सेवा के लेखांकन द्वारा स्थापित किया जाता है।”

परम्परागत बजट में कमियां पाई जाती है -
  1. इसमें व्यय पर नियंत्रण रखने की सुविधा होती है तथा इससे निर्णायकों की इकाई लागत और कार्यक्रमों के मूल्यांकन में मदद मिलती है।
  2. इससे मौजूदा कार्मिक स्थिति तथा प्रबंध एंव उपस्कर की दशाओं का पता नहीं चलता है।
  3. इससे विधान निर्माण को यह पता नहीं चल पाता कि उसका निर्वाचक किसी विशिष्ट परियोजना से किस प्रकार प्रभावित होता है।
  4. इसका नागरिकों के लिए कोई शैक्षिक महत्व नहीं होता है।
  5. इससे कार्यक्रम निविष्टियों और उत्पादों के मध्य संबंध का पता नहीं चल पाता है।
  6. यह कार्य के वैकल्पिक माध्यमों को निर्धारित करने के लिए मार्गदर्शक का काम नहीं कर सकता है।
  7. इससे प्रत्येक विकल्प के आपेक्षिक लागतों और लाभों का पता नहीं लग पाता है।
  8. परिणामस्वरूप केन्द्रीय बजटीय अभिकरण लक्ष्यों की अपेक्षा वित्तीय लेखों और कार्यक्रमों के सम्पादन में ही अधिक रूचि लेते हैं।
  9. यह ‘कल्याणकारी राज्य’ की अपेक्षा ‘पुलिस राज्य’ के लिए अधिक उपयुक्त है।
  10. इसका इस्तेमाल व्यय की वस्तुओं पर मदवार रखने के लिए किया जाता है।

निष्पादन बजट निर्माण

परम्परागत बजट निर्माण की कमियों को दूर करने के उद्देश्य से ही निष्पादन बजट निर्माण शुरू किया गया जिसने अब पूरी तरह से परम्परागत बजट निर्माण का स्थान ग्रहण कर लिया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त यह पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका में बजटीय तकनीक के रूप में शुरू किया गया। 1950 से अफ्रीकी सरकार ने इसे ग्रहण किया और बाद में एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के कई देशों ने इसे अपनाया। संयुक्त राज्य अमेरिका के हूवर आयोग (1949) ने इसे संयुक्त राज्य अमेरिका में लागू करने का सुझाव दिया था।

प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, “कार्य-निष्पादन बजट कार्यों, कार्यक्रमों, कार्यकलापों तथा परियोजनाओं के तहत सरकारी संकार्यों को प्रस्तुत करने की एक प्रविधि है।” एस. एसविश्वनाथन के शब्दों में, “निष्पादन बजट निर्माण एक ऐसा विस्तृत संक्रियात्मक दस्तावेज है जिसे कार्यक्रमों, क्रियाओं के तहत तैयार किया जाता है, प्रस्तुत किया जाता है और क्रियान्वित किया जाता है। इसमें उनके वित्तीय भौतिक पहलू घनिष्ठ रूप से अन्तगर््रन्थित रहते हैं।” निष्पादन बजट का अति महत्वपूर्ण उद्देश्य सम्पादित किए जाने वाले कार्य तथा प्रदान की जाने वाली सेवा को ठीक-ठीक परिभाषित करना और उस कार्य या सेवा पर कितनी वित्तीय लागत आएगी उसका वास्तविक अनुमान लगाना है।

पीटर एन. डीन निष्पादन बजट निर्माण के पांच महत्वपूर्ण तत्वों के बारे में सुझाव दिया है:
  1. सूचना के प्रयोजनों हेतु सरकारी बजट का कार्यक्रमों एंव क्रियाकलापों में उप-विभाजन जोकि समान उद्देश्यों या संकार्यों वाली अभिज्ञात इकाइयों के द्योतक होते हैं।
  2. बजट वर्ष के लिए प्रत्येक कार्यक्रम तथा क्रियाकलाप के संक्रियात्मक उद्देश्यों का पता लगाना।
  3. प्रत्येक कार्यक्रम के लिए बजट निर्माण और लेखांकन।
  4. उत्पादों तथा क्रियाकलापों के निष्पादन का मापन।
  5. मानक और मानदंड स्थापित करने के लिए परिणामी आंकड़ों का इस्तेमाल करना ताकि लागत और निष्पादन का मूल्यांकन हो सके। तथा सरकारी संसाधनों का अधिक कुशलतापूर्वक उपयोग हो सके।
उन विकासशील देशों के लिए परिणामोन्मुख बजट की आवश्यकता जरूरी है जहां निवेश योग्य संसाधन कम हों तथा विकास में गतिरोध अधिक होता हो। आधुनिक कल्याणकारी राज्य के लिए बजटीय निष्पादन का माप अधिक महत्वपूर्ण होता है। अब केवल निष्पादन बजट निर्माण से ही संभंव हैं। यह परिणामोन्मुख बजट होता है।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर निष्पादन बजट की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है :
  1. यह बजट आंबटन के जरिए सरकारी कार्यक्रमों को नियंत्रित करता है। यह कार्यक्रमों, क्रियाकलापों तथा कार्यों के रूप में सरकार कार्यो को प्रस्तुत कर के किया जा सकता है।
  2. सार्वजनिक नीतियों को सरकारी वित्तीय संक्रियाओं के प्राकार्यात्मक वर्गीकरण के जरिए पता लगाने का प्रयास किया जाता है।
  3. स्पष्टतया अभिज्ञात लागत अपरिव्ययों के माध्यम से ही राजकीय निष्पादन की समीक्षा की जा सकती है।
  4. साधनों की अपेक्षा साध्य पर ही ध्यान दिया जाता हैं।
  5. यह स्पष्टतया सरकारी खर्चे के उद्देश्यों को परिभाषित कर सकता है।
  6. प्रत्येक सरकारी कार्य-निष्पादन की लागत का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकता है।
  7. यह लक्ष्यों का पहले ही निर्धारण कर सकता है जिन पर सरकारी विभागों के निष्पादन का समय-समय पर मूल्यांकन किया जा सकता है।
  8. परिमाणात्मक तथा मात्रात्मक रूप में कार्यकुशलता तथा कार्यमापन के लिए यह एक आधार का काम करता हैं।
  9. विगत वर्ष के निष्पादन का अभिलेख बजट के लिए भावी अनुमान का काम कर सकता है।
  10. इससे जोर उपलब्धि के साधन से हटकर स्वयं उपलब्धि पर चला जाता है।
कार्य-निष्पादन बजट तैयार करने के लिए कृृषि, शिक्षा, उद्योग और स्वास्थ्य जैसी सरकार की प्रकार्यात्मक श्रेणियों का उपयोग किया जाता है। प्रत्येक प्रकार्यात्मक श्रेणी को ‘कार्यक्रमों में विभाजित किया जाता है (जैसे स्वास्थ्य को प्राथमिक, बाल तथा जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों में विभाजित किया जाता है।) फिर प्रत्येक कार्यक्रम को क्रियाकलापों में उपविभाजित किया जाता है जिन्हें फिर से आगे परियोजनाओं में विभाजित किया जाता है। इस दृष्टि से निष्पादन बजट निर्माण की चार प्रावधाएँ होती हैं :
  1. सभी सरकारी क्रियाकलापों के प्रकार्यात्मक वर्गीकरण का समेकन।
  2. राजकोषीय प्रबंध प्रणाली का विकास करना तथा लागत प्रतिवेदन।
  3. पर्याप्तता और इकाई लागतों के संबंध में सरकारी निष्पादन का मूल्यांकन करने के लिए उपयुक्त सांख्यिकी माप-तौल की विधि का विकास करना।
  4. सार्वजनिक नीतियों के निर्माताओं को समय-समय पर प्रतिपुष्टि प्रदान करने के लिए निष्पादन मूल्यांकन करना।
निष्पादन बजट में किए गए विभिन्न वर्गीकरण मुख्यत: बजट के तीन महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होते हैं -
  1. बजट निर्माण;
  2. आर्थिक विश्लेषण; और
  3. बजट का क्रियान्वयन और जवाबदेही।
एक वर्गीकरण से इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति न होने पर भी दूसरे वर्गीकरण का सहारा लिया जाएगा और इस प्रकार उद्देश्य और वर्गीकरण के बीच एक जटिल नेटवर्क तैयार हो जाता है। इसमें निम्नलिखित पहलू समाविष्ट होते हैं -
  1. आर्थिक स्वरूप : यह सरकारी स्थितियों एवं नीतियों के बारे में तर्कपूर्ण निर्णय हेतु उपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए होता है जिससे आर्थिक गतिविधियों के संयोजन एवं स्तर पर प्रभाव पड़ता हैं।
  2. प्रकार्यार्त्र्त्त्मक स्वरूप : यह क्रियान्वयन स्तर पर तथा विधायी पुनरीक्षा के लिए होता है।
  3. कार्यक्रम: इसके द्वारा सरकार की एक ही प्रकार के क्रियाकलापों को एक समूह में रखा जाता है।
  4. निष्पादन : इसके द्वारा सरकारी निष्पादन के परिणात्मक और मात्रात्मक माप के लिए निष्पादन इकाई का विकास किया जाता है।
  5. संगठनात्मक इकाई : इसके द्वारा बजट को सरकार के संगठनात्मक आवश्यकता वाली संरचना के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
  6. उद्देश्य : इसके द्वारा सरकारी व्यय के उद्देश्यों को उद्घाटित किया जाता है।

निष्पादन बजट निर्माण के गुण

परम्परागत बजट की तुलना में निष्पादन बजट निर्माण के प्राय: गुण होते हैं -
  1. यह परम्परागत बजट की बहुत सीे कमियों को पूरा करता है।
  2. इसे आधुनिक वित्तीय प्रशासन के एक औजार के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
  3. इसके माध्यम से नीति और निष्पादन, निवेश और उत्पाद, सरकारी कार्यक्रमों और गतिविधियों एंव वित्तीय पहलुओं के मध्य पारस्परिक संबंध स्थापित होता है।
  4. इससे बजटीय प्रक्रिया में सुधार हेाता है तथा इसका संबधं राजकोषीय नीति-निर्माण से होता है।
  5. इससे वास्तविक सरकारी निष्पादन का विश्लेषण संभव होता है।
  6. इससे वित्तीय जवाबदेही और विधायी नियंत्रण की बेहतर प्रणाली का विकास हो सकता है।
  7. इससे सरकारी कार्यों की लेखा परीक्षा की प्रक्रिया सुगम हेागी।
  8. इससे सरकार की दीर्घावधिक विकास नीतियों का प्रभावी परिणामोन्मुख मूल्यांकन हो सकेगा।
  9. यह वित्तीय प्रशासन में दूरगामी सुधारों का प्रवर्तक होगा।
  10. इससे सरकार के वित्तीय लेन-देन में अपव्यय और अकुशलता को दूर करने में मदद मिलेगी।
  11. यह दिशोन्मुख तथा अधिक विकासात्मक होता है।
  12. यह उत्तरदायित्व का निर्धारण करता है तथा राजस्व और व्यय के विकल्पों का सुस्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है।

निष्पादन बजट की समस्याएं और सीमाएं

परम्परागत बजट की तुलना में निष्पादन बजट निर्माण के समक्ष समस्याएं आती है:
  1. सरकारी निष्पादन का सदैव आसानी से पता नहीं चल पाता है और प्राय: इसका परिणाम भी सुस्पष्ट नहीं होता है।
  2. सरकारी अभिकरणों की बहुत सी परिसम्पत्तियों का इकाई लागतों के अनुसार हिसाब नहीं रखा जा सकता है।
  3. लेखा शीर्षों को विकास शीर्षों के साथ जोड़ना एक जटिल कार्य है।
  4. इससे सरकारी निष्पादन का परिमाणात्मक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
  5. संगठनात्मक इकाइयों के समनुरूप प्रकार्यों एवं कार्यक्रमों की वास्तविक श्रेणियां कुछ न कुछ कठिन होती है।
  6. इससे बजट प्रक्रिया में प्रशासनिक त्रुटियों का केवल समाधान ही हो सकता है। यह प्रशासनिक तथा संगठनात्मक कमियों को दूर करने का कोई मात्र साधन नहीं है।
  7. इससे कागजी कार्य काफी बढ़ जाता है और समय की भी बरबादी होती है।
  8. इसके लिए प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर वित्तीय विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है और इस प्रकार यह खर्चीली प्रक्रिया है।
  9. इसके लिए एक सुसंगठित सूचना प्रणाली की आवश्यकता होती है अन्यथा इससे प्राप्त नहीं हो सकता है।
  10. संसाधनों का पुनर्नियोजन एक संवेदनशील मुद्दा है जिसे केवल तकनीकी प्रविधियों से ही नहीं सुलझाया जा सकताा है।
  11. इस कार्य में योजना तथा योजना-भिन्न व्यय का कोई महत्व नहीं होता है।
प्राक्कलन समिति ने अपनी बीसवीं रिपोर्ट में निष्पादन बजट निर्माण की प्रक्रिया अपनाने की सिफारिश की थी। प्रशासनिक सुधार आयोग (1968) ने संघ तथा राज्य सरकारों से यह जोरदार अपील की थी कि वे निष्पादन बजट निर्माण की प्रक्रिया अपनाएं। 1968 में चार केन्द्रीय मंत्रालयों ने इस प्रक्रिया को अपनाया। प्राक्कलन समिति ने अपनी 60वीं रिपोर्ट में औद्योगिक उपक्रमों के लिए तथा 70वीं रिपोर्ट में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए यह प्रक्रिया अपनाने का सुझाव दिया।

1965 में योजना आयोग की योजना परियोजनाओं संबंधी समिति (सी.ओ.पी.पी.) ने इस मामले का अध्ययन किया। 1966 में निष्पादन बजट के संबंध में एक कार्यकारी दल गठित किया गया जिसने इसे अपनाने की व्यवहार्यता का अध्ययन किया। अध्ययन दल ने सुस्पष्ट कारणों से भारत में निष्पादन बजट धीरे-धीरे शुरू करने की नीति का समर्थन किया। 1968.69 में निष्पादन बजट चार केन्द्रीय मंत्रालयों में शुरू किया गया जो 1970.71 तक बढ़कर 7 मंत्रालयों तक हो गया।

वित्त मंत्रालय के बजट प्रभाग ने इसके लिए अनुवर्ती उपाए किए। बहुत से निचले तथा मध् यम स्तर के अधिकारियों को निष्पादन बजट-निर्माण का प्रशिक्षण दिया गया। यह प्रशिक्षण गृह मंत्रालय के सचिवालय प्रशिक्षण विद्यालय में दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (आई.आई.पी.ए.) ने यह प्रशिक्षण प्रदान किया।

बहुत से राज्य सरकारों ने भी निष्पादन बजट निर्माण शुरू किया जिसे सर्वप्रथम पंजाब राज्य ने अपनाया। 1978.79 तक प्राय: सभी राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों ने इसे अपना लिया। आज प्राय: सभी विकासशील देशों में निष्पादन बजट-निर्माण अधिक पसन्द किया जाता है। भारत ने इसे सही समय पर अपनाया है। तथापि, इसे शुरू करने में सरकार के समक्ष बहुत सी कठिनाइयां आई हैं। लेकिन इन कठिनाइयों को वित्तीय विशेषज्ञों द्वारा दूर किया जा सकता है। निष्पादन बजट निर्माण की सफलता बहुत कुछ कार्मिकों के प्रशिक्षण, विकासशील सूचना प्रणाली तथा सभी स्तर पर एक सदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की उपस्थिति पर निर्भर करती है।

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