समुद्री बीमा क्या है समुद्री बीमा की आवश्यक शर्तें?

समुद्री बीमा सबसे प्राचीनतम बीमा का स्वरूप है व्यापारिक जगत में लोग सामुद्रिक हानि आपस में बाँट लेते हैं। सामुद्रिक बीमा का प्रारम्भ कब, कहां शुरू हुआ इसका निर्णय अभी तक नहीं हो पाया। प्राचीन काल में समुद्री मार्गों से व्यापार करने वाले देशों में समुद्री हानियों से क्षतिपूर्ति प्रदान करने की रीतियां प्रचलित थी। 13वीं शताब्दी के अन्त तक समुद्री बीमा अपने व्यावसायिक आधार का स्थापित कर लिया। आधुनिक समुद्री बीमा प्राचीन बीमा कार्यकलाप एवं छाप को ग्रहण कर लिया है। 

समुद्री परिवहन में अनेक आपदा आती थी जैसे-तूफान में फंसकर जहाज के माल नष्ट हो जाते थे, किसी चट्टान से टकराकर जहाज नष्ट हो जाता था या अग्नि काण्ड आदि से जहाज नष्ट हो जाते थे, और उससे माल एवं भाड़े की हानि होती थी। अन्य कोई ऐसा दायित्व आ सकता है जैसे युद्धकाल में, समुद्री जोखिमें बढ़ सकती थी। 

सामुद्रिक जोखिमों के अतिरिक्त आन्तरिक परिवहन (जैसे रेल, सड़क, आन्तरिक जल मार्ग) में भी माल भेजने की क्रिया में बहुत सी जोखिमें आ सकती है। 

वर्तमान सामुद्रिक बीमा में समस्त जोखिमों से हानि होने पर क्षतिपूर्ति का उपबन्ध इस अधिनियम में किया गया है। सामुद्रिक बीमा अधि0 1963 में बीमादाता (बीमा अभिकर्ता) सामुद्रिक हानियों से बीमादार की क्षतिपूर्ति करने का दायित्व ग्रहण करता है। जिसमें समुद्री बीमा की संविदा एक करार है जिसमें बीमादाता करार किये गये ढंग से बीमादार की समुद्री हानियों की या सामुद्रिक उद्यम से आनुषंगिक हानियों की क्षतिपूर्ति करने का वचन देता है।

समुद्री बीमा की आवश्यक शर्तें

1. समुद्री बीमा की सामान्य शर्तें -

1. प्रस्ताव - सामुद्रिक बीमा का प्रस्ताव लिखित एवं मौखिक हो सकता है। इसके लिये कोई विशेष प्रपत्र की आवश्यकता होती है। लेकिन कभी कभी सूचना तैयार करने के लिये एक निर्धारित प्रपत्र तैयार किया जाता है। इस प्रपत्र में बीमा वस्तु की जोखिम सम्बन्धित सभी सूचनायें प्राप्त की जाती है। ये सूचनायें सादे कागज में लिखी जा सकती है इन सूचनाओं में जहाज, माल पर किराया के मूल्य, माल की प्रकृति, बचन, परिणाम स्थायीत्व आदि आते हैं।

2. स्वीकृत - (प्रतिग्रहण) स्वीकृति की सूचनायें प्राय: दलाल एक स्लिप पर लिखकर बीमाकर्ताओं के पास भेज देता है। बीमाकर्त्ता इन सूचनाओं के आधार पर आंशिक या पूर्णरूपेण स्वीकृति का तात्पर्य यह नहीं है कि बीमाकर्त्ता जोखिम को वहन करने के लिए तैयार है। बीमा प्रसंविदा वैधानिक रूप से तक तक जारी नहीं किया जाता तब तक बीमा पत्र निर्गमित न हो। 

3. वैध उद्देश्य - बीमा खरीदने का उद्देश्य ऐसा होना चाहिए जो वैधानिक दृष्टि से मान्य हो। लाभ कमाने या धोखा देने के उद्देश्य से खरीदे गये बीमा अवैध होंगे और उन पर बीमाकर्त्ता का कोई दायित्व नहीं होगा। यह प्रसंविदा विवर्जित होता है। सामुद्रिक बीमा केवल क्षतिपूर्ति की प्रसंविदा है, अत: भुगतान वहीं होगा जहाँ पर बीमा पात्र को आर्थिक हानि हो। यदि बीमा पात्र को कोई हानि नहीं होती तो क्षति का भुगतान नहीं किया जायेगा। जुए की संविदा की तरह पूर्णत: शून्य होगी।

4. वैध प्रतिफल - मान्य प्रसंविदा के लिए यह आवश्यक है प्रतिफल वैध होने चाहिए। बीमाकर्त्ता को अपने वचन के बदले में कुछ ‘मूल्यवान’ प्रतिफल प्राप्त करना जरूरी है। यह केवल मुद्रा ही नहीं, बल्कि कोई भी अधिकार, हित, लाभ या अनुलाभ हो सकता है। प्रतिफल के लिए केवल इतना ही नही जरूरी है कि जिसके लिए कानून कुछ मूल्य निश्चित कर सके। सामुद्रिक बीमा में यह प्रतिफल प्रव्याजि के रूप में होता है। 

5. प्रसंविदा करने की सक्षमता - दोनों पक्ष (बीमाकर्त्ता और बीमादार) प्रसंविदा करने के योग्य होने चाहिए। बीमाकर्त्ता ने बीमा व्यापार करने के लिए अनुज्ञापत्र प्राप्त कर लिया हो तथा अपने कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत ही व्यापार करता हो। बीमापत्र को प्रसंविदा के योग्य होना चाहिए। वह स्वस्थ दिमाग को हो, विदेशी शत्रु न हो, अवयस्क न हो तथा अन्य किसी अपराध से दण्डित न हो।

2. सामुद्रिक बीमा संविदा की विशिष्ट शर्तें

सामुद्रिक बीमा अधिनियम, 1963 की धारा 13 में समुद्री बीमा विशिष्ट शर्तो को प्रावधानित किया गया है जो इस प्रकार ‘‘समुद्री बीमा की संविदा एक करार है जिसमें बीमादाता द्वारा किये ढंग पर विस्तार से बीमादार की सामुद्रिक हानियों की या समुद्री व्यापार से अनुषंगिक हानियों की क्षतिपूर्ति करने का वचन देता है।’’ 

समुद्री बीमा संविदा मुख्यत: दो अधिनियमों द्वारा शासित होती है : (क) भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 जिसमें साधारण संविदा के तत्वों का उपबन्ध किया गया है। समुद्री बीमा अधिनियम, 1963, जिसमें समुद्री बीमा से सम्बन्धित विशेष तत्वों का प्रावधान किया गया है।

उपरोक्त अधिनियमों के अनुसार समुद्री बीमा संविदा के विधिपूर्ण (lawful) होने के लिए शर्तो की पूर्ति होना आवश्यक होता है- समुद्री बीमा अधिनियम में उपबन्ध आदेश बीमा की शर्तें इस प्रकार है-
  1. बीमा योग्य हित,
  2. परम सद्भाव, 
  3. समाश्वासन (वारण्टियां)
1. बीमा योग्य हित - बीमा योग्य हित मौजूद न रहने पर समुद्री बीमा की संविदा शून्य ( void ) हो जाती है। बीमायोग्य हित तब मौजूद रहता है जब बीमा कराने वाले का बीमित विषय से ऐसा लगाव हो कि उसकी सुरक्षा से वह लाभान्वित हो और उसकी हानि या क्षति होने पर उसे हानि पहुंचे या उस पर कोई दायित्व आए। बीमा योग्य हित कब मौजूद रहे? समुद्री बीमा अधिनियम, 1963 की धारा 8 में यह उपबन्धित किया गया है कि समुद्री बीमा में बीमा कराते समय बीमायोग्य हित मौजूद रहना आवश्यक नहीं है। किन्तु हानि होते समय यह अवश्य मौजूद रहना चाहिए। इसका अपवाद केवल वह समुद्री बीमा है जो ‘हानि हुई या नहीं हुई’ ( Lost or not lost ) की शर्त के साथ कराया गया हो। इस अपवाद को यहां समझ लेना चाहिए। माल या जहाज के बन्दरगाह से चल चुकने के बाद उसका बीमा कराया जाता है। ऐसी स्थिति में सम्भव है कि बीमादार को उसकी सुरक्षितता के सम्बन्ध में कोई सूचना न हो। 

यदि बीमा कराने के पूर्व ही वह नष्ट हो चुका हो तो बीमादाता यह कह सकता है कि चूंकि बीमा कराने से पूर्व ही बीमित विषय की हानि हो चुकी थी अत: वह क्षतिपूर्ति का दायी नहीं है। ऐसी परिस्थिति के बचाव के लिए ‘हानि हुई या नहीं’ वाली शर्त लागू होती है जिसका तात्पर्य यह है कि बीमादाता उस हानि की पूर्ति भी करेगा जो बीमा कराने से पहले ही हो चुकी है। किन्तु यह शर्त तभी लागू होती है जब बीमित वस्तु की सुरक्षा या हानि की पूर्व सूचना बीमादाता अथवा बीमादार को न हो। यदि बीमादार जानता हो कि जिस वस्तु पर वह बीमा करा रहा है वह नष्ट हो चुकी है तब बीमादाता हानि होने पर दायी नहीं नहीं होगा। 

इसी प्रकार, यदि बीमादाता को यह जानकारी हो कि जिस जहाज अथवा माल के बीमे का प्रस्ताव उसे मिला है वह सुरक्षित पहुॅच चुका है और फिर भी वह बीमा कर ले तब उसे प्रीमियम वापस करना पड़ेगा क्योंकि उसने कोई जोखिम उठाया ही नहीं।

2. परम सद्भाव - समुद्री बीमा की संविदा परम सद्भावपूर्ण आचरण न हो तब दूसरा पक्षकार संविदा को शून्य घोषित कर सकता है (धारा 19) ‘परम सद्भाव’ का सामान्य आशय है संविदा करते समय दोनो पक्षकारों द्वारा संविदा विषयक समस्त आवश्यक बातों का प्रकटन । यदि किसी पक्षकार ने किसी महत्वपूर्ण तथ्य के सम्बन्ध में दुव्र्यपदेशन (misrepresentation), छिपाव (concealment) या अप्रकटन (non.disclosure)किया तब इससे परम सद्भाव का खण्डन होता है और संतप्त पक्षकार द्वारा संविदा शून्यकरणीय (voidable) होती है। परम सद्भावपूर्ण आचरण करना बीमादाता और बीमादार दोनों का ही कर्तव्य है और कोई भी पक्षकार दूसरे पक्षकार द्वारा इस नियम का पालन न होने पर संविदा शून्य (void ) कर सकता है। इस दिशा में बीमादार पर विशेष जिम्मेदारी होती है क्योंकि बीमित विषय के बारे में आवश्यक ज्ञातव्य बातों की जानकारी उसे ही रहती है।

i. व्यपदेशन ( Representation ) के नियम - संविदा तय करने के सिलसिले में बीमादार या उसके एजेन्ट द्वारा जो व्यपदेशन किए जाते हैं उनसे सम्बन्धित नियम समुद्री बीमा अधिनियम की धारा 22 में प्रावधानित है। जो इस प्रकार है :-
  1. बीमादार या उसके एजेंट को यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संविदा पूरी होने के पूर्व जो भी महत्वपूर्ण व्यपदेशन ( Representation ) किया जाता है वह सत्य होना चाहिए, अन्यथा बीमादाता संविदा शून्य कर सकता है। 
  2. ऐसा प्रत्येक व्यपदेशन महत्वपूर्ण है जो बीमादाता द्वारा प्रीमियम नियत करने या जोखिम संवृत करने के निर्णय पर असर डालता हो।
  3. व्यपदेशन तथ्य के बारे में प्रत्याशा या विश्वास (expectation or belief ) के बारे में हो सकता है। ऐसा व्यपदेशन सारत: सही और सद्भावपूर्वक होना चाहिए। 
ii. प्रकटन सम्बन्धी नियम- समुद्री बीमा अधिनियम की धारा 20 और 21 में बीमादार या उसके एजेंट के लिए प्रकटन के विषय में वैधानिक नियम दिए गए हैं जो इस प्रकार है :
  1. संविदा पूर्ण होने से पूर्व बीमादार बीमादाता को प्रत्येक ऐसी महत्वपूर्ण परिस्थिति (material circumstance) प्रकट करेगा जो उसकी जानकारी में हो।
  2. यदि बीमा संविदा बीमादार का एजेंट कर रहा हो तो उपर्युक्त कर्तव्य उस एजेंट का भी होगा। जो बातें एजेंट की जानकारी में हो उनको बीमादाता के समक्ष प्रकट करना आवश्यक है। 
  3. यह मान लिया जाता है कि बीमादाता को ऐसी प्रत्येक परिस्थिति की जानकारी है जो कारबार के सामान्य दौरान में उसे जाननी चाहिए।
  4. ऐसी प्रत्येक परिस्थिति महत्वपूर्ण होती है जो किसी जानकारी बीमादाता के इस निर्णय पर प्रभाव डालती है कि कितना प्रीमियम नियत किया जाए अथवा जोखिम संवृत किया जाए या नहीं। अत: ऐसी समस्त परिस्थितियों का पूर्ण प्रकटन करना बीमादार या उसके एजेन्ट का कर्तव्य हो जाता है। यदि ऐसा प्रकटन न किया गया तब बीमादाता संविदा शून्य (void) कर सकता है।
iii. प्रकटन सम्बन्धी नियम का अपवाद -कुछ परिस्थितियां ऐसी है जिनके बारे में यदि बीमादाता ने पूछताछ न की हो तब उनको प्रकट करने की जिम्मेदारी बीमादार या उसके एजेंट के ऊपर नहीं होती (धारा 20)। अत: यदि उन मामलों में बीमादाता पूछताछ करे तब तो उन्हें प्रकट करना होगा, किन्तु अन्यथा नहीं। वे परिस्थितियां है:
  1. ऐसी कोई परिस्थिति, जो जोखिम को कम करती हो।
  2. ऐसी कोई परिस्थिति, जिसकी जानकारी बीमादाता को है या होनी चाहिए। यह मान लिया जाता है कि सामान्य ज्ञान या सर्वविदित बातों की जानकारी बीमादाता को है। इसी प्रकार यह मान लिया जाता है कि बीमादाता को उन बातों की जानकारी है जिन्हें अपने कारबार के सामान्य सिलसिले में उसे जानना चाहिए।
  3. ऐसी परिस्थिति जिसका प्रकटन बीमादाता ने न चाहा हो अर्थात् जिसके बारे में उसने जानकारी को अधित्यक्त ( waive ) कर दिया हो।
  4. ऐसी कोई परिस्थिति जिसका प्रकटन किसी वारण्टी के कारण अनावश्यक हो।
3. समाश्वासन (वारण्टियां) - समुद्री बीमा अधिनियम के अनुसार बीमा संविदा में वारंण्टी का आशय उन वचनों से है जो बीमादार द्वारा दिए जाते हैं। धारा 35 (1) के अनुसार ‘‘वारण्टी द्वारा बीमादार यह वचन देता है कि कुछ विशिष्ट बात की जाएगी या नहीं की जाएगी या कोई शर्त पूरी की जाएगी अथवा जिस वचन द्वारा बीमादार किसी विशिष्ट तथ्य के विद्यमान होने को स्वीकार या इन्कार करता है।’’ वारण्टी का पूर्णतया पालन करना बीमादार के लिए अनिवार्य है। धारा 35 के अनुसार वारण्टी का अक्षरश: पालन होना चाहिए, चाहे वह जोखिम के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण (material) हो या सारहीन (immaterial) हो। वारण्टी भंग होने पर बीमादाता वारण्टी के भंग होने की तिथि से अपने दायित्व से मुक्त हो जाएगा, वह केवल उसके पूर्व की ही हानियों के प्रति दायी होगा, किन्तु दशाओं में वारण्टी का भंग होना क्षम्य मान लिया जाता है।
  1. यदि परिस्थितियां बदल जाने के कारण कोई वारण्टी लागू न हो सके, 
  2. यदि कोई कानून बनाए जाने के कारण उनके अन्तर्गत कोई वारण्टी विधिविरूद्ध (unlawful) हो जाए, या 
  3. यदि बीमादाता ने वारण्टी भंग को अधित्यक्त (waive) कर दिया हो।

सामुद्रिक बीमा की प्रकृति

समुद्री बीमा संविदा की प्रकृति क्षतिपूर्ति के सिद्धान्त से सम्बन्धित है। समुद्री बीमा की संविदा क्षतिपूर्ति संविदा है। अत: इसमें क्षतिपूर्ति सिद्धान्त लागू होता है। क्षतिपूर्ति सिद्धान्त यह है कि बीमा संविदा के अन्तर्गत बीमादार केवल वास्तविक हानि की ही पूर्ति कराने का हकदार है, किन्तु वास्तविक हानि से अधिक वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। समुद्री बीमा की संविदा प्रकृति में क्षतिपूर्ति सिद्धान्त उतनी कठोरता से नहीं लागू होता जितना अग्नि बीमा में होता है। सामान्त: में हम यह पाते है कि जहाज या माल के बीमे में अधिकतर मूल्यांकित पॉलिसी (Valued policy) ही ली जाती है। ऐसी पॉलिसी में बीमित जहाज अथवा बीमित माल का मूल्यांकन बीमा करते समय ही कर लिया जाता है- यह बीमदार और बीमादाता दोनों की परस्पर स्वीकृति से तय होता है और वह मूल्य पॉलिसी में लिख दिया जाता है। इस मूल्य को ‘बीमित मूल्य’ (insured value) कहते हैं।

जहाज का बाजार भाव बहुत घटता-बढ़ता रहता है। जहाज मालिक की दृष्टि से जहाज के विक्रय मूल्य का उतना महत्व नहीं है जितना कि उसकी भाड़ा उपार्जित करने की क्षमता का होता है। अत: जहाज का जो बीमित मूल्य दोनों पक्षों की पारस्परिक सहमति से तय होता है वह प्राय: ही उसके बाजार भाव से ऊँचा होता है। इसी प्रकार, माल का समुद्री बीमा करते समय उसके मूल्यांकन में उसकी लागत, भाड़े, बीमे एवं अन्य व्ययों के अतिरिक्त उस पर एक उचित प्रतिशत लाभ की रकम भी जोड़ी जाती है और तब उसका बीमित मूल्य निर्धारित होता है और इसी बीमित मूल्य के आधार पर क्षतिपूर्ति की रकम निर्धारित की जाती है।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि मूल्यांकित पॉलिसी के अन्तर्गत प्राप्त होने वाली क्षतिपूर्ति केवल वास्तविक हानि के लिए नहीं होती। माल बीमा में लाभ का अंश भी शामिल रहता है और जहाज बीमा में भी बाजार भाव का आधार न लेकर पूर्व निश्चित मूल्यांकन का आधार लेने के कारण वास्तविक हानि से अधिक रकम क्षतिपूर्ति के रूप में मिल जाती है। इसलिए अक्सर कहा जाता है कि समुद्री विशुद्ध रूप से क्षतिपूर्ति सिद्धान्त पर आधारित नहीं है। परन्तु यह कथन ठीक नहीं है। तथ्य यह है कि समुद्री बीमा व्यापारिक कारबार से सम्बन्धित होता है। अत: क्षतिपूर्ति करने में भी व्यावसायिक आधार पर अपनाया जाता है। मूल्यांकित पॉलिसी के प्रसंग में हम कह सकते हैं कि समुद्री बीमा में ‘शुद्ध क्षतिपूर्ति’ नहीं दी जाती अत: ‘व्यावसायिक क्षतिपूर्ति’ प्रदान की जाती है।

सामुद्रिक बीमा का क्षेत्र

समुद्री बीमा संविदा में बीमाकर्ता बीमित विषय की समुद्री जोखिमों द्वारा हानियॉ क्षति होने पर बीमादार की क्षतिपूर्ति के लिये दायी होगा। सामुद्रिक बीमा के क्षेत्र दो क्षेत्रों में जोखिमों को बाँटा गया है-

(1) समुद्री बीमा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में -
  1. माल बीमा
  2. जहाज बीमा 
  3. भाड़े बीमा का दायित्व 
  4. दायित्व बीमा
(2) समुद्री बीमा में जोखिम से जुड़ा दायित्व-
  1. समुद्री आपदावे 
  2. अग्नि से सम्बन्धित समुद्री आपदा 
  3. माल प्रक्षेपण से सम्बन्धित आपदा 
  4. चोरी, युद्ध अन्य आपदायें से सम्बन्धित आपदा।

सामुद्रिक बीमा की विषयवस्तु

समुद्री बीमा इन चार विषयों की जोखिमों पर कराया जाता है 
  1. माल पर, 
  2. जहाज पर 
  3. भाड़े पर तथा 
  4. दायित्व पर। 
इनको ही समुद्री बीमा की विषय-वस्तु (subject matter) कहा जाता है। विषय-वस्तु के आधार पर समुद्री बीमा को चार खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। 
  1. माल बीमा
  2. जहाज बीमा 
  3. भाड़ा बीमा और 
  4. दायित्व बीमा।
1. माल बीमा - समुद्री बीमा कारबार में माल बीमा का सबसे अधिक महत्व है। माल बीमा के अन्तर्गत वर्गो के माल का समुद्री बीमा कराया जाता है : 
  1. आयात-निर्यात सम्बन्धी माल 
  2. तटीय बन्दरगाहों के बीच जल परिवहन द्वारा जाने वाला माल 
  3. रेल, सड़क तथा अन्य परिवहन साधनों द्वारा भेजा जाने वाला माल तथा 
  4. आन्तरिक जलमार्गो में बजड़ों, नावों, स्टीमरों आदि द्वारा जाने वाला माल। 
माल के परिवहन के सिलसिले में कुछ जोखिमों से हानि होने पर उसकी पूर्ति करने की जिम्मेदारी माल वाहन (carrier) के ऊपर होती है। ऐसी हानियों और जोखिमों का उल्लेख माल परिवहन सम्बन्धी दस्तावेज (document) (जैसे बिल ऑफ लेडिंग, रेलवे रसीद आदि) में होता है। किन्तु अधिकांश जोखिमों के प्रति मालवाहक दायी नहीं होता। उदाहरण के लिए बहुत सी जोखिमें ऐसी है जो बिल ऑफ लेडिंग (वहन पत्र) में अपवादित (excepted) है, जैसे 
  1. नौचालन (navigation) में जहाज के कप्तान या कर्मचारियों की गलती या असावधानी 
  2. अग्निकांण्ड
  3. समुद्री मार्गो का संकट 
  4. दैवी घटना तथा 
  5. युद्ध जोखिम। 
इन अपवादित आपदाओं द्वारा माल की हानि होने पर जहाज कम्पनी उसके प्रति जिम्मेदारी नहीं लेती। अत: ऐसी हानियों तथा अनेक अन्य परिवहन सम्बन्धी जोखिमों से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए माल बीमा होता है।

2. जहाज बीमा - समुद्री बीमा के प्रसंग में ‘जहाज’ का आशय है ऐसा कोई भी जलयान, जो नौचालन (navigation) में प्रयुक्त होता है। जहाज एक मूल्यवान सम्पत्ति है और समुद्री परिवहन में इसके नष्ट होने की जोखिम रहती है, जिससे सुरक्षा पाने के लिए इसका बीमा कराना आवश्यक है। जहाज के अंतर्गत जहाज की समस्त सामग्री, रसद, स्टोर, मशीनरी बॉयलर, कोयला, इंजन तथा सभी प्रकार की फिटिंग आदि सम्मिलित है। बड़ी जहाज कम्पनियां एक ही बीमा पॉलिसी के अन्तर्गत पूरे जहाजी बेड़े का बीमा करा लेती है, जिसे ‘फ्लीट इन्श्योरेन्स (Fleet Insurance) कहा जाता है।

3. भाड़ा बीमा - व्यापारिक जहाजों को मुख्य उद्देश्य परिवहन सेवा द्वारा भाड़ा अर्जित करना होता है। यदि समुद्री जोखिमों के फलस्वरूप माल गंतव्य स्थान तक न पहुॅचाया जा सके तब जहाज के मालिक को भाड़े की हानि होती है। यदि व्यापारी ने भाड़ा अग्रिम चुका दिया हो तब माल की हानि के साथ ही उसे भाड़े की भी हानि होगी। इन हानियों की पूर्ति के लिए भाड़े का बीमा कराया जाता है जिसे ‘भाड़ा बीमा’ कहते हैं।

4. दायित्व बीमा - समुद्री जोखिमों द्वारा अनेक प्रकार के दायित्व भी आ सकते हैं जिनके कारण हानि हो सकती है। उदाहरणार्थ, यदि जहाज किसी दूसरे जहाज से या डाक से टकरा जाए जिससे अन्य पक्षकार को हानि पहुॅचे तब इसके लिए नुकसानी (damage) अथवा प्रतिकर (compensation) देना पड़ सकता है। इसी प्रकार विशेष परिस्थितियों में बीमित विषय में हित रखने वालों के ऊपर तृतीय पक्षकार के प्रति दायित्व आ सकता है। इन दायित्वों का भी समुद्री बीमा कराया जा सकता है। इसे ‘दायित्व बीमा’ कहा जा सकता है।

5. समुद्री बीमा में बीमित जोखिम- समुद्री बीमा का क्षेत्र जानने के लिए उन जोखिमों को समझ लेना चाहिए जिनके लिए यह बीमा कराया जाता रहा है। सामुद्रिक बीमा में जोखिम से जुड़ा दायित्व सामुद्रिक यात्रा में जोखिम से जुड़ा दायित्व वर्तमान समय में बीमा का क्षेत्र माना जाता है अब सामुद्रिक जोखिम को स्थलीय जोखिम को भी बीमा में जोड़ दिया गया है। इस जोखिमों में 
  1. समुद्री आपदायें 
  2. अग्नि, युद्ध की आपदायें 
  3. जल डाकुओं की आपदायें 
  4. नाविक के कर्तव्य, चोरी, युद्ध का जोखिम अन्य आपदायें आती है जो इस प्रकार है-
6. समुद्री आपदाए - इन आपदाओं के उदाहरण है भयानक मौसम और तूफान, किसी जहाज से भिड़न्त (Collision), किसी चट्टान से टकराकर डूब जाना (Foundering), उत्कूलित होना ( Stranding) अर्थात छिछले जल-तल में फंस जाना, समुद्री जल का विक्षोभ, आदि। लेकिन नौचालन (navigation) के सिलसिले में वायु-वेग द्वारा या साधारण तरंगों से उत्पन्न साधारण संकट को ‘समुद्री आपदा’ नहीं माना जा सकता। समुद्री आपदा का आशय आकस्मिक और असाधारण दुर्घटना से है। साधारण आपदाएं तो ‘समुद्र पर की आपदाएं (perils on the sea) है जिसके लिए बीमादाता दायी नहीं होता; बीमादाता ‘समुद्र की आपदाओं’ (perils of the sea) के प्रति ही दायित्व ग्रहण करता है।

7. अग्नि से सम्बन्धित समुद्री यात्रा - जहाज चलाने में कोयला, तेल, बिजली, अन्य दाहक पदार्थो का प्रयोग होता है जिससे आग लग सकती है। इसी प्रकार, बिजली गिरने से या विस्फोट के कारण भी आग लग सकती है जिससे जहाज या माल जलकर नष्ट हो सकता है। समुद्री उद्यम में अग्निकांड की जोखिम आज भी एक बड़ी जोखिम मानी जाती है। किन्तु बीमादाता का दायित्व अग्नि द्वारा उन्हीं हानियों के प्रति रहता है जो आकस्मिक कारणों से हुई हो यदि बीमित माल के अन्दरूनी दोष ( inherent vice) के कारण या बीमादार के कपट के कारण आग लगने से हानि हुई हो तब बीमादाता दायी नहीं होगा।

8. बाल प्रक्षेपण - जब जहाज संकटग्रस्त हो जाता है तब उसे संकट से उबारने के लिए उसके बोझ का हल्का करना पड़ता है। इसके लिए जहाज पर लदे हुए माल या जहाज के किसी अन्य सामान को जान-बूझ कर समुद्र में फेंक दिया जाता है ताकि संकटग्रस्त जहाज की सुरक्षा हो सके। इस क्रिया को ही ‘माल प्रक्षेपण’ या ‘जेटीसन’ कहते है। यह भी समुद्री यात्रा की एक जोखिम है। इससे जो हानि होती है उसके प्रति बीमादामा दायी होता है। साधारणतया कुछ ही माल ऐसे होते है जो जहाज के डेक के ऊपर रखे जाते हैं। यदि माल, जिसे डेक के अन्दर रखने की प्रथा हो, किन्हीं कारणों से डेक के ऊपर रखा हो और इस तथ्य का उल्लेख पॉलिसी में न हुआ हो, तब जेटीसन द्वारा उसकी हानि होने पर बीमादाता दायी नहीं होगा। इसी प्रकार अन्दरूनी दोष के कारण माल के फेंकने की क्रिया को जेटीसन नहीं माना जाता।

9. नाविक, कर्तव्य भंग - समुद्री व्यापार के सन्दर्भ में ‘नाविक कर्तव्य भंग या बैरट्री का अर्थ है जहाज के मास्टर या कर्मीदल (Cre) द्वारा जान बूझकर किया गया प्रत्येक ऐसा दोषपूर्ण कार्य, जिससे माल या जहाज के मालिकों का अहित होता है। यह छलपूर्ण व्यवहार है जो मालिकों की मर्जी के खिलाफ होता है। नाविक कर्तव्य भंग के उदाहरण है जहाज को लेकर कहीं भाग जाना, माल बेच कर उसकी रकम हड़प जाना, उचित अनुमति लिए बिना जहाज को निजी कार्य के लिए प्रयुक्त करना, बन्दरगाह का शुल्क दिए बिना जहाज रवाना कर देना आदि। यह भी समुद्री व्यापार की एक जोखिम है। बैरेट्री प्रमाणित करने के लिए दो बातें साबित करनी चाहिए :
  1. यह कप्तान या कर्मीदल की भूल या असावधानी से नहीं हुई बल्कि जान-बूझकर कपटपूर्ण तरीके से हुई, तथा 
  2. इसके लिए माल या जहाज के स्वामियों की न तो सहमति थी न उनकी कोई सांठ-गांठ थी। बैरेट्री द्वारा हुए विचलन (deviation) को क्षम्य माना जाता है।
समुद्री यात्रा में चोरी की जोखिम रहती है। यह आवश्यक है कि चोर कोई बाहरी व्यक्ति हो और चोरी खुलेआम बल प्रयोग द्वारा हुई हो। यदि जहाज का कोई व्यक्ति चोरी करता हो-चाहे वह व्यक्ति कर्मीदल (cre) का सदस्य हो या जहाज का यात्री हो-तब बीमा की दृष्टि से उसे ‘चोरी’ नहीं कहेंगें।

युद्धकाल में समुद्री व्यापार और पविहन में असाधारण संकट उपस्थित होता है। शत्रु देश की आक्रामक कार्यवाहियों से तथा अपनी सरकार की प्रतिरक्षात्मक कार्यवाहियों से जहाज, माल और भाड़े के प्रति जोखिम बढ़ जाती है। जहाज और माल पूर्णतया नष्ट हो सकता है, शत्रु के कब्जे में आ सकता है, नौचालन में बड़ी बाधाएं हो सकती है, सामान्य यात्रा क्रम बदलना पड़ सकता है। समुद्री बीमा में युद्ध की जोखिमों को भी संवृत किया जा सकता है। आपदाओं के अतिरिक्त समुद्री बीमा पॉलिसी में अन्य आपदाओं को भी संवृत किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, समुद्री बीमा में स्थलीय जोखिम का भी बीमा होता है। यदि व्यापारी चाहे तो समुद्री व्यापार के सिलसिले में उन सभी जोखिमों को बीमा करा सकता है जो आन्तरिक परिवहन की क्रिया में उपस्थित होते हैं। 

विवरण से स्पष्ट होता है कि समुद्री बीमा केवल समुद्री संकटों तक सीमित नहीं है। इसका क्षेत्र विस्तृत हो गया है। इसके अन्तर्गत परिवहन की पूरी क्रिया से सम्बन्धित अनेकानेक जोखिमों का बीमा होता है। इसलिए अनेक विद्वानों को यह मत है कि इस बीमा को ‘परिवहन बीमा’(Transportation Insurance) कहना अधिक उपयुक्त होगा।

समुद्री बीमा कराने की प्रक्रिया

समुद्री बीमा कराने के इच्छुक व्यक्ति को इसके लिए बीमा कम्पनी के पास प्रस्ताव भेजना पड़ता है। समुद्री बीमा में जहाज का बीमा करने के लिए तो छपे हुए प्रस्ताव पत्रों का प्रयोग किया जाता है। लेकिन माल बीमा के लिए छपे प्रस्ताव-पत्र का रिवाज नहीं है। माल बीमा कराने वाले को अपनी ओर से जोखिम सम्बन्धी समस्त महत्वपूर्ण सूचनाएं एक प्रस्ताव के रूप में देनी पड़ती है। प्राय: इसके लिए बीमा एजेंट की सहायता लेना सुविधाजनक होता है।

प्रस्ताव के आधार पर अभिकर्ता एक फार्म तैयार करता है जिसे ‘प्रश्नावली’ कहते है। प्रश्नावली में माल भेजने वाले का नाम, माल का विवरण, उसके पैकिंग के ब्यौरे, यात्रा का वर्णन, माल का अनुमानित मूल्य आदि लिखा जाता है तथा प्रस्तावक के भूतकालीन बीमों और हानियों का भी ब्यौरा दिया जाता है। प्रश्नावली के अन्त में अभिकर्ता को अपनी राय देनी होती है। इस प्रश्नावली में अंकित विवरणों के आधार पर कम्पनी प्रस्तावित जोखिम का सम्यक आकलन करती है और प्रीमियम दर निश्चित करती है। प्रीमियम दर निश्चित करते समय अनेकानेक बातों पर विचार करना होता है, जैसे माल की प्रकृति, पैकिंग का ढंग, ऋतु, जहाज सम्बन्धी विशेषताएं तथा प्रस्तावक सम्बन्धी आचारिक संकट, आदि। इन बातों के आधार पर कम्पनी निश्चित करती है कि जोखिम स्वीकार करना चाहिए अथवा नहीं और यदि स्वीकार किया जाए तब प्रीमियम दर क्या होनी चाहिए।

यदि जोखिम स्वीकार करने योग्य हो तब कम्पनी जोखिम को संवृत करने के लिए एक अस्थायी बीमा रसीद देती है जिसे ‘कवर नोट’ कहा जाता है। वैधानिक नियमानुसार समुद्री बीमा की संविदा तब पूर्ण मानी जाती है जब बीमादाता बीमा के प्रस्ताव को स्वीकार कर लें, चाहे उस समय पॉलिसी जारी हुई हो अथवा नहीं। बीमा का प्रस्ताव कब स्वीकार हुआ यह ‘कवर नोट’ दर्शित करता है (धारा 23)। कुछ समय के बाद कम्पनी पॉलिसी जारी करती है। यह पॉलिसी ही बीमा संविदा का वैधानिक साक्ष्य है। ‘कवर-नोट’ तो केवल यह इंगित करता है कि संविदा कब तय हुई थी, किन्तु पॉलिसी के अभाव में संविदा पूर्ण हुई नहीं मानी जा सकती।

समुद्री बीमा के प्रकार

समुद्री बीमा के क्षेत्र में अनेक प्रकार की बीमा पॉलिसियों का चलन है। इन पॉलिसियों के वर्गीकरण का आधार और प्रत्येक वर्ग की पॉलिसियों का प्रकार तालिका से इस प्रकार है -

समुद्री बीमा के प्रकार

वर्गीकरण का आधारपालिसियों के प्रकार
बीमा अवधि के आधार परसमय पालिसी ( Time Policy )
यात्रा पॉलिसी ( Voyage Policy )
मूल्यांकन के आधार परमूल्यांकित पॉलिसी (Valued Policy)
अमूल्यांकित पॉलिसी (Unvalued Policy)
बीमित विषय के आधार पर माल पॉलिसी (Cargo Policy)
 (क) नामांकित पॉलिसी (Named Policy)
 (ख) प्लवमान पॉलिसी (Floting Policy)
 (ग) सर्व जोखिम पॉलिसी (All Risks Policy)
जहाज पॉलिसी (Hull Policy)
 (क) एक जहाज पॉलिसी (Single Vessel Policy)
 (ख) जहाजी पॉलिसी (Fleet Policy)
 (ग) निर्माण पॉलिसी (Construction Policy)
भाड़ा पॉलिसी (Freight Policy) 
4. बीमायोग्य हित के आधार परपद्यम पॉलिसी (Wager Policy)
हितयुक्त पॉलिसी (Interest Policy)

1. बीमा अवधि आधार पॉलिसी - 

i. समय पॉलिसी - एक निश्चित अवधि से सम्बन्धित पॉलिसी को ‘समय पॉलिसी’ कहते हैं जैसे 1 अगस्त 2002 से 31 जुलाई, 2003 तक। यह पॉलिसी 12 मास तक के लिए जारी की जा सकती है, इससे अधिक अवधि की समय पॉलिसी विधिमान्य (valid) नहीं होगी। (धारा 27)। जहाज पॉलिसियां (Hull Policies) प्राय: समय पॉलिसियां ही होती हैं- इसमें बीमादार को निश्चितकालीन बीमा की सुविधाएं प्राप्त होती है। इस प्रकार जहाज का मालिक पृथक यात्राओं के लिए अलग-अलग बीमा कराने के झंझट से मुक्त हो जाता है।

ii. यात्रा पॉलिसी - यात्रा पॉलिसी में जहाज की यात्रा का व्याख्या किया जाता है, जैसे ‘कर्लिफोनिया (संयुक्त राज्य अमेरिका) से न्यूयार्क होकर कानपुर तक अथवा ‘जयपुर से गॉधीनगर तक’। यात्रा पॉलिसी यात्रा से सम्बन्धित रहती है, समय से नहीं। माल या भाड़े के बीमा के लिए यात्रा पॉलिसी ही ली जाती है। इस पॉलिसी में बीमादाता का दायित्व माल के जहाज पर लद चुकने के समय से शुरू हो जाता है और यह दायित्व तब तक जारी रहता है जब तक वह माल गन्तव्य बन्दरगाह पर सुरक्षित रूप से उतार न दिया जाय।

2. मूल्यांकन के आधार पर

i. मूल्यांकित पॉलिसी - मूल्यांकित पॉलिसी उसे कहते हैं जिसमें बीमित विषय (माल, जहाज आदि) का मूल्य लिखा रहता है। इस मूल्य की ‘बीमित मूल्य’ कहते हैं। व्यवहार में इसे ‘करारित मूल्य’ भी कहा जाता है। माल के बीमित मूल्य को तय करते समय इसमें माल की लागत, भाड़ा तथा अन्य व्ययों के अलावा लाभ के लिए भी कुछ प्रतिशत (जैसे 10 से 15 प्रतिशत) जोड़ा जा सकता है। जहाज वाला भी जहाज के बाजार मूल्य से कुछ अधिक बीमित मूल्य निश्चित कर सकता है। यह बीमित मूल्य बीमादाता और बीमादार के बीच तय कर लिया जाता है। जब हानि होती है तब इसी बीमित मूल्य के आधार पर क्षतिपूर्ति की रकम निर्धारित की जाती है।

ii. मूल्यांकित पॉलिसी - यदि पॉलिसी में बीमित विषय का मूल्य न लिखा हो तब उसे ‘अमूल्यांकित पॉलिसी’ कहते हैं। हानि होने पर इसमें बीमित विषय का बीमायोग्य मूल्य (insurable value) ज्ञात करना पड़ता है और तदनुसार क्षतिपूर्ति की जाती है। माल बीमा में यह बीमायोग्य मूल्य वस्तुत: वह मूल्य है अर्थात इसे लागत बीमा और भाड़ा जोड़कर ज्ञात किया जाता है। कुछ प्राप्य भाड़ा तथा उससे सम्बन्धित बीमा व्यय जोड़कर भाड़े का बीमा और जहाज बीमा में इसका चलन बहुत कम है।

3. बीमित विषय के आधार पर - 

i. माल पॉलिसी - माल का समुद्री बीमा करने पर बीमादाता पृथक पॉलिसी जारी करते हैं-इसे कारगो पॉलिसी कहा जाता है। यह पॉलिसी अनेक प्रकार की होती है जिसमें इस प्रकार है।
  1. नामांकित पॉलिसी (Named Policy) - नामांकित पॉलिसी उस माल पॉलिसी को कहते हैं जिसमें बीमित माल को ढोने वाले जहाज का नाम लिखा रहता है।
  2. प्लवमान पॉलिसी (Floating Policy) - इस पॉलिसी में यह तय रहता है कि बीमादानर जब-जब माल भेजेगा तब-तब बीमादाता को घोषित करता रहेगा कि किस जहाज से, किस तिथि को, कितना माल भेजा गया। इस पॉलिसी में जहाज का नाम, भेजे गए माल की मात्रा आदि का उल्लेख नहीं रहता (जैसे नामांकित पॉलिसी में रहता है) वरन् ये बातें समय-समय पर घोषित करनी होती है।
  3. जोखिम पॉलिसी (All Risks Policy) - जिस माल पॉलिसी में माल के परिवहन की क्रिया में समस्त संभावित जोखिमों को सम्मिलित कर लिया जाता है उसे ही सर्व जोखिम पॉलिसी कहते हैं। 
ii. जहाज पॉलिसी - यह जहाज से सम्बन्धित पॉलिसी होती है। जहाज पॉलिसी प्राय: समय पॉलिसी होती है। जहाज पॉलिसी के मुख्य भेद है :
  1. एक जहाज पॉलिसी - जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट होता है, इस पॉलिसी में केवल एक जहाज का ही बीमा होता है। 
  2. जहाजी बेड़ा पॉलिसी - इस पॉलिसी के अन्तर्गत अनेक जहाजों का एक साथ बीमा होता है। आज कल की जहाज कम्पनियों के पास एक मार्ग पर चलने वाले बहुतेरे जहाज होते हैं और उनके लिए जहाजी बेडा पॉलिसी विशेष सुविधाजनक होती है।
  3. निर्माण पॉलिसी - यह पॉलिसी जहाज निर्माण की समस्त जोखिमों को संवृत करती है। इसके अन्तर्गत जहाज का निर्माण प्रारम्भ होने के समय से पॉलिसी चालू हो जाती है और जहाज के पूर्णतया निर्मित हो जाने तक तथा तत्पश्चात समुद्र में एक दो बार ट्रायल हो जाने तक जोखिमें संवृत रहती है। इसे (Builder's Risk Policy) भी कहा जाता है। 
iii. भाड़ा पॉलिसी - यदि व्यापारी ने भाड़ा अग्रिम चुका दिया हो तब भाड़े की रकम माल के मूल्य के साथ ‘माल पॉलिसी’ में ही संवृत हो जाती है, अत: ऐसे भाड़े के लिए पृथक पॉलिसी नहीं जारी होती। किन्तु, जिस जहाज वाले को माल के गन्तव्य बन्दरगाह पर पहुॅचने पर ही भाड़ा मिल सके और माल न पहुॅचने पर भाड़ा न मिल सके, तब उसे भी समुद्री जोखिमों से बहुत बड़ी हानि सम्भावित है। ऐसे भाड़े के लिए ही भाड़ा पॉलिसी जारी की जाती है। भाड़ा पॉलिसी मे भी बहुधा विशेष प्रकार की शर्ते लगाई जाती है जिन्हें (Freight Clauses) कहा जाता है।

4. बीमा योग्य हित के आधार पर-

पद्यम पॉलिसी और हितयुक्त पॉलिसी- बीमा योग्य हित के दृष्टिकोण से हम समस्त पॉलिसियों को दो वर्गो में बांट सकते हैं -
  1. हितयुक्त पॉलिसी उसे कहते हैं जिसमे बीमादार का बीमायोग्य हित मौजूद रहता है। 
  2. जिस पॉलिसी में बीमादार का बीमायोग्य हित नहीं रहता, अथवा जिस पॉलिसी में कोई ऐसी शर्त दी रहती है, जिसके अनुसार बीमायोग्य हित का मौजूद रहना आवश्यक नहीं माना जाता उसको पद्यम पॉलिसी (Wager Policies) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, यदि पॉलिसी में यह शर्त हो कि बीमायोग्य हित रहे या न रहे (interest or no interest) या पॉलिसी के अलावा बीमायोग्य हित के किसी सबूत की आवश्यकता नहीं (without further proof of interest than the policy itself) तब ऐसी शर्तयुक्त पॉलिसी को पद्यम पॉलिसी (wager policy) कहा जाएगा। ऐसी पॉलिसी विधान की दृष्टि में शून्य (void) मानी जाती है। समुद्री बीमा अधिनियम की धारा 6 में यह स्पष्ट किया गया है कि बाजी के रूप में समुद्री बीमा की प्रत्येक संविदा शून्य (void) है।

2 Comments

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