ध्वनि चिकित्सा के जितने भी रूप है, उनमें संगीत चिकित्सा सर्वाधिक लोकप्रिय है। यदि हम गहराई से अनुभव करें तो पायेंगे कि ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण संरचना ही संगीतमय है। सृष्टि के आदि में भी सर्वप्रथम अनाहत नाद अर्थात् ऊँकार की ध्वनि ही
उत्पन्न हुयी थी और उसके बाद फिर सृष्टि रचना का क्रम आरींा हुआ। इस प्रकार सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ लयबद्ध गति से गतिमान् हो रहा है। मानव जीवन भी अपने प्राकृत स्वरूप में संगीतमय है, किन्तु वर्तमान समय में भौतिकवादी जीवनशैली एवं इंसान के अपने स्वार्थ, अज्ञान एवं अहंकार के कारण जीवन का संगीत कहीं खो गया है। राग बेसुरा हो गया है, जीवन की लय बिगड़ गई है। जिस शरीर एवं मन से संगीत प्रवाहित होना चाहिये, वह शरीर व्याधियों से ग्रस्त और मन विक्षिप्त हो गया है। अत: आप संगीत चिकित्सा के माध्यम से पुन: जीवन संगीत को लयबद्ध करने की आवश्यकता हेै।
संगीत चिकित्सा की अवधारणा अत्यन्त व्यापक है। इसमें संगीत सुनने से लेकर संगीत लिखना, सुर बनाना, संगीत के माध्यम से प्रस्तुति देना, संगीत की चर्चा करना, संगीत के माध्यम से प्रशिक्षण इत्यादि सभी शामिल है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य संवर्द्धन हेतु संगीत का किसी भी रूप में उपयोग संगीत चिकित्सा के अन्तर्गत आता है।
संगीत के प्रकार
संगीत के अनेक प्रकार है और भिन्न - भिन्न प्रकार के संगीतों का प्रभाव भी भिन्न - भिन्न होता है। संगीत के विभिन्न प्रकार हैं -- भक्ति संगीत
- वाद्य संगीत एवं शास्त्रीय संगीत
- लोक संगीत
- फिल्मी संगीत
- पॉप संगीत
भक्ति संगीत का दूसरा प्रकार देशभक्ति संगीत है, जो प्राय: किसी विशिष्ट राष्ट्रीय पर्व पर गाये - बजाये जाते हैं और जिनको गाने और सुनने से हमारे मन में देशभक्ति की भावना उत्पन्न होती है, क्योंकि इन संगीतों में हमारे देश की स्वतंत्रता की अनेक घटनायें होती है, अनेक महापुरुषों की बलिदान की गाथायें होती है। उदाहरण के तौर पर 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस), 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस), 02 अक्टूबर (गाँधी जयन्ती एवं शास्त्री जयन्ती) को हमारे टी0वी0 चैनलो, रेडियो, विद्यालयों आदि में इस प्रकार के देशभक्ति से ओतप्रोत संगीत सुनने को मिलते हैैं। जिनको सुनने - गाने मात्र से राष्ट्रप्रेम का संचार होने लगता है।
2. वाद्य संगीत एवं शास्त्रीय संगीत - भिन्न - भिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों जैसे तबला, बासुरी, हारमोनियम, सितार, वीणा आदि द्वारा बजाया जाने वाला संगीत वाद्य संगीत और शास्त्रीय संगीत कहलाता है।
3. लोक संगीत - यह संगीत का ऐसा प्रकार है जो अलग - अलग राज्यों में और अलग-अलग क्षेत्रों में उस राज्य की भाषा, उस क्षेत्र की भाषा में गाया - बजाया जाता है। इस प्रकार संगीत का लोग विभिन्न समारोहों तथा विवाह आदि उत्सवों में भी गायन - वादन करते है।
4. फिल्मी संगीत - वर्तमान समय में फिल्मी संगीत अत्यन्त लोकप्रिय है। प्रत्येक उम्र का व्यक्ति चाहे वह बच्चा हो, युवक हो, प्रौढ़ हो या वृद्ध हो, स्त्री हो या पुरूष हो सभी इसे गाना एवं सुनना पसन्द करते हैं। विभिन्न समारोहों, उत्सवों में इस प्रकार के संगीत गाये-बजाये जाते हैं। इससे मन तनाव एवं चिन्ता से मुक्त होकर प्रसन्न रहता है।
5. पॉप संगीत - वर्तमान समय में युवा पीढ़ी के बीच पॉप संगीत अत्यन्त लोकप्रिय हो रहा है। युवा प्राय: अपने कैरियर, रोजगार आदि को लेकर अत्यधिक तनावग्रस्त रहते है। पॉप संगीत इन्हें तनावमुक्त करके इनमें जोश, उमंग उत्साह का संचार करता है। वर्तमान समय में अनेक युवक - युवतियाँ पॉप संगीत के क्षेत्र में भी अपना कैरियर बना रहे हैं और तलाश रहे हैं, जिससे पॉप गायकों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संगीत के अनेक प्रकार हैं, जिनका भिन्न - भिन्न प्रकार से उपयोग करके स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव डाले जा सकते हैं।
संगीत के चिकित्सा की उपयोगिता
संगीत का हमारे जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। संगीत प्राणीमात्र के जीवन में आनन्द, उल्लास, प्रसन्नता, स्वास्थ्य एवं शांति का संचार करता है। संगीत में अद्भुत सामथ्र्य है। यह प्राणी को आनन्द की गहराइयों में ले जाता है। संगीत के माध्यम से अचेतन में दमित इच्छायें, भावनायें, बाहर निकल जाती है और व्यक्ति का मन आनन्द तथा प्रसन्नता से भर जाता है। संगीत द्वारा व्यक्ति तनाव मुक्त होकर स्वयं को प्रफुल्लित एवं उत्साहित अनुभव करता है।‘‘ध्वनि और संगीत का मानव के स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। ध्वनि चिकित्सा का उपयोग अस्पतालों, विद्यालयों, कॉरपोरेट कार्यालयों और मनोवैज्ञानिक उपचारों में किया जाता है। इससे खिंचाव कम होता है। रक्तचाप कम होता है, दर्द दूर होता है। सीखने की अयोग्यता दूर होती है, गतिशीलता व संतुलन में वृद्धि होती है और सहनशक्ति तथा क्षमता में वृद्धि होती है।’’ (वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ)
‘‘ हमारे शरीर पर ध्वनियों का एक निश्चित प्रभाव पड़ता है। तेज आवाजें तनाव, उच्च रक्तचाप, दबाव तथा अनिद्रा जैसे विकार उत्पन्न करती है, परन्तु यदि गंधव संगीत को कर्णप्रिय स्वरों तथा रागों के साथ बजाया जाये तो वह रोगियों को निश्चित रूप से लाभ पहुँचायेगा।’’ (आयुर्वेद और स्वस्थ जीवन) संगीत चिकित्सा के प्रभावों काा विवेचन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है -
- शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से
- मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से
- आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से
- सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से
- वनस्पतियों पर संगीत का प्रभाव
- पशुओं पर संगीत का प्रभाव
- रक्तचाप को नियंत्रित करने के लिये।
- श्वसन गति का नियमन।
- रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि के लिये।
- नींद संबधी समस्याओं को दूर करने में।
- रक्त संचार को संतुलित करने में।
- दर्द में राहत देने के लिये।
- माँसपेषीय तनाव को दूर करने मेंं।
- शल्य चिकित्सा के पहले तथा बाद की चिंता से छुटकारा दिलाने में।
- रसायनोपचार के दौरान मिचली तथा उल्टी से छुटकारा दिलाने में।
- प्रसव के दौरान एनेस्थीसिया को त्यागने में।
- पाचन प्रणाली के नियमन के लिये।
- विभिन्न शारीरिक रोगों को दूर करने में इत्यादि।
भिन्न - भिन्न रोगों का स्वास्थ्य पर भिन्न - भिन्न प्रभाव पड़ता है। संगीत विशेषज्ञों के अनुसार कुछ प्रमुख राग जो विभिन्न रोगों में उपयोगी हैं, वे निम्नानुसार हैं - वातरोग में मेघमल्हार, खाँसी में भैरव, वीर्यरोग में आसावरी, टी0बी0 में रामकली, मुलतानी, तिलंग, विलावल राग, सिरदर्द, दाँत दर्द, अनिद्रा, उच्च रक्तचाप आदि उद्दीपक प्रभावक रोगों में मुलतानी, भैरवी, मालकौंस, तोड़ी पूर्वी, यूरिया, धानी, विहागखमाज राग, आलस्य एवं शौथिल्य की स्थिति में कामोद, अड़ाना, सोरठ आदि रागों को प्रभावी माना गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से संगीत चिकित्सा अत्यन्तउपयोगी है।
2. मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से - संगीत का पभाव हमारे शरीर के साथ - साथ मन पर भी पड़ता है। तन और मन दोनों को प्रभावित करके संगीत हमारे जीवन में एक नया उल्लास और आनंद भर देता है। संगीत शोध विशेशज्ञों के अनुसार जब सुरताल के साथ संगीत बजाया या गाया जाता है तो एक विशेष आवृत्ति की ध्वनि तरंगे निकलती हैं, जो मानव मस्तिष्क की रासायनिक विद्युतीय संरचना पर प्रभाव डालती है। मस्तिष्क में प्रशामक शांतिदायक रसायन बीटा एडारेत्फिन का समुचित मात्रा में स्राव होने लगता है। लिम्बिक सिस्टम जिसका संबध हमारे संवेगों से है, उसके न्यूरॉन एडोरफिन को संगृहित कर लेते हैं। जिसके कारण मनोरोगों और मानसिक समस्याओं के कारण अव्यवस्थित जैसे - विद्युतीय परिपथ (Short Circuit) सामान्य अवस्था में आ जाते हैं और व्यक्ति की मनोदशा में सुधार होने लगता हैै।
रूसी वैज्ञानिक प्रो0 एस0 बी0 कोदाफ ने स्नायविक एवं मानसिक रोगों से ग्रस्त लोगों पर संगीत चिकित्सा का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। शिकागो के मनश्चिकित्सक डाँ0 बंकर, पीटर, न्यूमैन एवं माइकेल सेण्डर्ड के अनुसार मनोरोगों को दूर करने में संगीत चिकित्सा अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तुलना में अधिक प्रभावी एवं निरापद है। संगीत की तरंगों से व्यक्ति की अचेतन में दमित भावनायें चेतन में आकर निश्कासित हो जाती है। जिससे व्यक्ति स्वयं को हल्का और तनावमुक्त महसूस करता है।
‘‘संगीत ध्वनि तरंगों का प्रभाव मस्तिश्क के बाँये तथा दायें गोलार्द्ध पर पड़ता है और वहाँ से उत्पन्न होने वाले रोगों को नियंत्रित तथा ठीक किया जा सकता है।’’
संगीत विशेषज्ञों ने विभिन्न मनोरोगों के उपचार में कुछ विशेष रागों को प्रभावी बताया है। जैसे - उन्माद में बहार एवं बागेश्री, मिरगी में धानी एवं बिहाग, हिस्टीरिया में यूरिया, दरबारी कान्हड़ा, खमाज आदि को उपयोगी माना गया है। ‘‘सुबह का संगीत मस्तिश्क को शांत करता है। शास्त्रीय संगीत को रोगों में अधिक प्रभावी पाया गया है। आनंद भैरवी उच्च रक्तचाप को कम करने में लाभदायक है। हिंडेला, भूपति, वसंत, कंदा, नीलांबरी, असावेक संगीत उत्तेजिज दिमाग को शान्त करते हैं। पागलपन के लिये सारंग राग उत्तम है। तोड़ी तथा शिवरंजिनी भी मनोरोगों में उपयोगी है। सुप्रभात प्रार्थना शरीर तथा मस्तिष्क के लिये अच्छी है।’’ (आयुर्वेद और स्वस्थ जीवन)
‘‘जब चिन्तामुक्त होने के लिये संगीत का उपयोग किया जाता है तो वह धीमा, नियमित, लयबद्ध, मध्यम स्वर, हल्के वाद्य और शांतिदायक मधुरता से युक्त होना चाहिये।’’ (वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ) संगीत चिकित्सा मुख्यत: निम्न मानसिक समस्याओं और मनोरोगों में उपयोगी है -
- तनाव
- दुष्चिंता
- मिरगी
- हिस्टीरिया
- अवसाद
- उन्माद इत्यादि
3. आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से - आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी संगीत का मानव जीवन में अनिर्वचीनय महत्व है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय परब्रह्म ने स्वयं को सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही अभिव्यक्त किया था। इसलिये कहा भी गया है - ‘‘शब्दो वै ब्रह्म’’ अर्थात् ‘‘शब्द ही ब्रह्म है।’’ सृष्टि के आदि में गुंजित होने वाला प्रथम स्वर ‘‘ऊँकार’’ है और इसी ऊँकार से सातों स्वर (सा, रे, ग, म, प, ध, नि) जन्में। स्वर के उत्पन्न होते ही सम्पूर्ण सृष्टि में उल्लास छा गया और प्राणीमात्र खुशी से झूम उठा।
यदि आध्यात्मिक दृश्टि से संगीत की बात की जाये तो शास्त्रों में इसका वर्णन ‘‘नाद साधना’’ के रूप में मिलता है। नाद का अर्थ है - ‘‘ध्वनि’’, जो मूलत: दो प्रकार की मानी गयी है - 1) आहत और 2. अनाहत। आहत से तात्पर्य प्रयासपूर्वक उत्पन्न की जाने वाली ध्वनि से है और अनाहत से आशय बिना प्रयास के स्वत: उत्पन्न होने वाली ध्वनि से है। नादसाधना में साधक धीरे - धीरे स्वयं को पहले अपने अन्दर उत्पन्न होने वाली स्थूल ध्वनियों पर एकाग्र करता है, जैसे श्वास की , रक्त संचार की ध्वनि। इसके बाद जैसे - जैसे उसकी एकाग्रता बढ़ती जाती है, वैसे - वैसे वह अपने अन्दर और अधिक सूक्ष्म ध्वनियाँ सुनता है और सबसे अंतिम में अनाहत नाद के रूप में ऊँकार की ध्वनि सुनायी पड़ती है। जिससे साधक परमानंद को प्राप्त होता है। यदि विश्व इतिहास पर भी हम दृष्टिपात करें तो अनेक ऐसे भक्त साधकों के उदाहरण हमें मिलते हैं, जिन्होंने भक्ति संगीत द्वारा उस परमात्मा का साक्षात्कार किया । जैसे - महान् भक्त चैतन्य महाप्रभु, कृष्ण भक्ति में लीन मीराबाई आदि। आज भी उनके भक्तिपूर्ण संगीत को सुनकर प्राणीमात्र में आध्यात्मिक भावनायें हिलोरें लेने लगती हैं। अत: स्पष्ट है कि संगीत हमारे आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
4. सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और एक अच्छा सामाजिक जीवन व्यतीत करने के लिये उसका सामाजिक दृष्टि से स्वस्थ होना अत्यन्त आवश्यक है और संगीत इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक ओर तो संगीत से व्यक्ति में उत्साह का संचार होता है, जो उसे सक्रिय बनाकर सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के लिये अभिप्रेरित करती है। दूसरी ओर संगीत हमारी भावनाओं में सकारात्मक परिवर्तन लाता है। इससे हमारे मन में दूसरों के प्रति सद्भाव उत्पन्न होते हैं और इससे हमारे मन में दूसरों के प्रति सद्भाव उत्पन्न होते हैं और इससे हम संतोषजनक सामाजिक संबंध कायम करने में सफल होते हैं।
इस प्रकार संगीत सम्पूर्ण समाज को प्रभावित करता है।
संगीत का प्रभाव
1. वनस्पतियों पर संगीत का प्रभाव - संगीत मनुष्यों को ही नहीं वरन् वनस्पतियों को भी प्रभावित करता है। प्राणीमात्र पर इसका प्रभाव पड़ता है। संगीत के वनस्पतियों पर प्रभाव को लेकर वैज्ञानिकों द्वारा अनेक शोध कार्य किये गये हैं और इनके परिणाम अत्यन्त आशाजनक रहे हैं।चेन्नई के अन्नामलाई विश्वविद्यालय में वनस्पति विभाग के अध्यक्ष डाँ0 टी0एन0 सिंह ने चेन्नई तथा पांडिचेरी कृशिफामोर्ं में मूटर, धान, चना, सेम, सरसों आदि के पौधों पर संगीत के प्रभाव का अध्ययन किया। इन अध्ययनों के परिणामों में पाया गया कि संगीत से अन्नोत्पादन में वृद्धि होती है तथा फलों की गुणवत्ता तथा आकार में भी वृद्धि होती है। अत: स्पश्ट है कि संगीत का प्रयोग करके विभिन्न वनस्पतियों की मात्रा एवं गुणवत्ता दोनों ही बढ़ायी जा सकती है।
2. पशुओं पर संगीत का प्रभाव - पशुओं पर भी संगीत के प्रभावों को लेकर अनेक प्रयोगात्मक अध्ययन किये गये हैं। इस संबध में सोवियत रूस में एक प्रयोग किया गया, जिसके परिणाम में पाया गया कि संगीत के प्रभाव से दुधारू जानवरों की दुग्ध उत्पादन की क्षमता में वृद्धि हुयी तथा उनकी उत्तेजना एवं उद्विग्नता के स्तर में कमी आयी। रूस के महान् वैज्ञानिक गलोना हुगी था और विक्टर कोनकोव ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया कि मानसिक रूप से शांत होने पर पशु अधिक दूध देते है। इसी प्रकार अन्य अध्ययनों के अनुसार संगीत से पशुओं के स्वास्थ्य में भी शीघ्र सुधार होता है।
संगीत के स्वरों का स्वास्थ्य पर प्रभाव
ये सात स्वर किस प्रकार हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं -- स (शड्ज)
- रे (ऋष्भ)
- ग (गन्धार)
- म (मध्यम)
- प (पंचम्)
- ध (धैवत)
- नि (निषाद)
2. रे (ऋष्भ) - नाभि प्रदेश से उठती हुयी वायु जब कण्ठ एवं शीर्ष प्रदेश से टकराकर ध्वनि उत्पन्न करती है तो वह स्वर ऋशभ या रे कहलाता है।
इस स्वर का स्थान हृदय - प्रदेश है तथा स्वभाव शीतल एवं शुष्क, वर्ण हरा और पीला मिला हुआ है। ब्रह्मा इसके देवता है। यह स्वर कफज एवं पित्तज रोगों को दूर करता है।
उदाहरण - पपीहे का स्वर ऋशभ माना जाता है।
3. ग (गन्धार) - नाभि से उठती हुयी वायु जब कण्ठ एवं शीर्ष प्रदेश से टकराकर नासिका की गंध से मिश्रित होकर निकलती है, तब वह गन्धार कहलाती है।
इसका स्थान फेफड़े हैं। स्वभाव शीतल, रंग नारंगी और देवता सरस्वती है। यह पित्तज रोगों के शमन में विशेष लाभकारी है।
उदाहरण - बकरे का स्वर गन्धार माना गया है।
4. म (मध्यम) - नाभि प्रदेश से उठती हुयी वायु जब वक्ष - प्रदेश (उर- प्रदेश) तथा हृदय से टकराकर मध्य भाग में ध्वनि करती है, तब उसे मध्यम स्वर कहा जाता है।
इसका स्थान कंठ है। प्रकृति शुश्क, वर्ण गुलाबी एवं पीला मिश्रित है। इसकी प्रकृति चंचल मानी गयी है और देवता महादेव है। मध्यम स्वर वातज एवं कफज रोगों का शमन करता है।
उहारण - कौआ का स्वर।
5. प (पंचम्) - सात स्वरों में पाँचवे क्रम पर होने के कारण तथा पाँच स्थान (नाभि, उर, हृदय, कण्ठ एवं शीर्ष) का स्पर्श करने के कारण यह स्वर पंचम् कहलाता है।
पंचम स्वर का देवता लक्ष्मी को माना गया है। इसका स्वभाव उत्साहपूर्ण, वर्ण लाल एवं स्थान मुख है। यह कफज रोगों के शमन में विशेष रूप से उपयोगी है।
6. ध (धैवत) - पहले के पाँच स्वरों का अनुसंधान करने वाले इस स्वर का स्वभाव मन को प्रसन्न ओर उदासीन दोनों बनाता है। इसका स्थान तालु माना गया है। इसके देवता गणेश हैं और यह पित्तज रोगों को दूर करने में लाभकारी है।
उदाहरण - जैसे मेंढक का स्वर।
7. नि (निषाद) - अपनी तीव्रता से अन्य सभी स्वरों को दबा देने के कारण यह स्वर निषाद कहलाता है।