उत्पाद विकास का अर्थ, परिभाषा, प्रक्रिया, लाभ, तत्त्व

उत्पाद विकास का अर्थ उत्पाद-विचार को वास्तविक उत्पाद मे परिवर्तित करने से लिया जाता है। यह वह प्रक्रिया है जो तकनीकी एवं विपणन क्षमताओं को संयोजित करती है और पतनोन्मुख उत्पादों के पुनस्र्थापनों के रूप में नये उत्पाद अथवा संशोधित उत्पाद बाजार में प्रस्तुत करती है। 

स्टेन्टन के शब्दों में “उत्पाद अनुसंधान इंजीनियरिंग एवं डिजायन सम्बन्धी तकनीकी क्रियाएँ, उत्पाद विकास कहलाती है।“ इस परिभाषा के अनुसार विद्यमान उत्पादों में सुधार, उनका पुनर्डिजाइनिंग तथा नये उत्पादों का विकास कार्य ‘उत्पाद विकास’ से सम्मिलित होता है। 

लिपसन एवं डारलिंग के शब्दों में, “उत्पाद विकास वह प्रक्रिया है जिसमें, सामान्यतः एक वर्ष की प्रदत्त समयावधि के लिए उत्पाद रेखा में नवीन उत्पाद जोड़े जाते है, चालू उत्पाद हटाये जाते हैं। और संशोधित किये जाते हैं।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि ‘उत्पाद विकास’ का अर्थ उत्पाद रेखा मे नवीन उत्पादों को जोड़ने, चालू उत्पादों की डिजायनों, आकारों, उपभोगों, गुणों एवं पैकेज विशेषताओं में सुधार करने तथा अवांछित उत्पादों को पृथक करने से होता है। 

अन्य शब्दों में बाजार की वास्तविक जरूरतों को पूरा करने हेतु ‘उत्पाद तैयार करना’ उत्पाद विकास कहलाता है।

उत्पाद विकास की परिभाषा

कोडवेकर के अनुसार, ‘‘उत्पाद विकास से तात्पर्य, ‘‘बाजार की सटीक अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए उत्पाद का आविष्कार करना है।’

कोटलर तथा आर्मस्ट्रॉग के अनुसार, ‘‘उत्पाद विकास संस्था की उन्नति की वह व्यूरचना है जिसके अन्तर्गत विद्यमान बाजार संभागों में संशेधित या नये उत्पाद प्रस्तुत किये जाते है।’’

विलियम जे स्टेन्टन के अनुसार, ‘‘उत्पाद विकास उत्पाद-बाजार उन्नति की वह व्यूहरचना है जिसमें संस्था अपने विद्यमान बाजारों में बेचने के लिए नये उत्पादों का विकास करती हैं।’’

उत्पाद विकास की प्रक्रिया

उत्पाद विकास करना एक जटिल कार्य है। इसकी सफलता के लिए आवश्यक है कि इसकी विधिवत् प्रक्रिया को अपनाया जाय। ऐसी प्रक्रिया में अनेक चरण हो सकते हैं। विभिन्न संस्थाओं की उत्पाद विकास प्रक्रिया अलग-अलग हो सकती है किन्तु एक आदर्श उत्पाद विकास प्रक्रिया में चरण होते है।

1. विचारों की खोज एवं उत्पत्ति - यह उत्पाद विकास की प्रक्रिया का प्रथम चरण हैं। इसमें विद्यमान या चालू उत्पादों में सुधार करने एवं नये उत्पादों के विकास हेतु बहुत बड़ी संख्या में सृजनात्मक विचारों की खोज की जाती है। ऐसा कहा जाता है कि अधिक विचार होंगे, उतनी ही अधिक सम्भावना एक विचार के चुने जाने की होती है। 

वे संस्थाएँ जो विचारो की खोज करती है, इस कार्य के लिए एक अधिकारी नियुक्त कर देती है, जिसका कार्य विचारों की खोज करना, विचारों के लिए कर्मचारियों एवं अन्य को प्रोत्साहित करना तथा उन विचारों को सम्बन्धित विभागों को भेजना है। नये विचारों की खोज  इन स्रोतों से की जा सकती है।

i. ग्राहक- ग्राहकों से स्वयं की इच्छाओं, आवश्यकताओं, पसन्द-नापसन्द, समस्या, सुझाव, उत्पाद में सुधार आदि के सम्बन्ध में नये विचार प्राप्त किये जा सकते हैं।

ii. निर्माता के विक्रेता - निर्माता के विक्रेताओं का प्रत्यक्ष सम्बन्ध ग्राहकों से होता है। इसलिए ग्राहक द्वारा उत्पाद के सम्बन्ध में परिवर्तन बताये जाते हैं। यही नहीं, कभी-कभी विक्रेता स्वयं शिकायत करते हैं, जैसे यह पैकेट बहुत बड़ा है या हाथ में ले जाने में बहुत असुविधा होती है। ऐसी शिकायतों से नये-नये विचार मिल जाते है।

iii. प्रबन्धक एवं कर्मचारी - संस्था के प्रबन्धक एवं कर्मचारी भी नये-नये उत्पादों, वस्तुओं के निर्माण करने के लिए विचारों को प्रस्तुत करते हैं, जैसे मुख्य वस्तु के साथ पूरक वस्तुओं के निर्माण का विचार, उत्पादन सुविधाओं के उपयोग के लिए वस्तुओं के निर्माण का विचार एवं वितरण-माध्यमों का उचित उपयोग करने के लिए नयी वस्तुओं का निर्माण का विचार आदि।

iv. वैज्ञानिक - बड़ी बड़ी संस्थाएँ अपने यहाँ प्रयोगशालाएँ रखती हैं एवं उनको चलाने के लिए उच्च श्रेणी के वैज्ञानिक भी। इनके द्वारा भी नये-नये उन्नत विचार प्रस्तुत किये जाते है।

v. प्रतियोगियो - प्रतियोगी के द्वारा भी उत्पाद के सम्बन्ध में नये-नये विचार आते है। एक अच्छी संस्था प्रतियोगी उत्पादों का विश्लेषण अपनी प्रयोगशाला में करती रहती है जिससे कि उसको नये-नये विचार मिलते रहते है। 

vi. अन्य विभाग - उत्पादों के विकास के लिए संस्था के विभिन्न विभागों, जैसे मानव संसाधन विभाग, अनुसन्धान विभाग, सेवा विभाग, मरम्मत एवं उत्पादन विभाग आदि से विचार आमन्त्रित किये जाते है।

vii. विश्वविद्यालय एवं सरकारी अनुसन्धान प्रयोगशालाएँ - कभी-कभी विश्वविद्यालयों एवं सरकारी प्रयोगशालाओं के द्वारा भी नये विचार आते हैं जो नवीन उत्पादों के विकास में सहायक होते हैं।

viii. अन्य स्त्रोत -विचार प्राप्ति के कर्इ अन्य स्त्रोत भी है, जैसे मध्यस्थ, विनियोक्ता, विदेशी बाजार, पत्र-पत्रिकाएँ, व्यापार संघ, चैम्बर, ग्राहको के पत्र, इन्जीनियर, आविश्कारक, विभागीय प्रतिवेदन, स्वतंत्र शोधकर्ता एवं विचारक आदि।

2. विचारो की जाँच परख -  उत्पाद विकास की प्रक्रिया के प्रथम चरण में जहाँ अधिकाधिक विचारों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता हैं। जबकि इस चरण से ही प्रत्येक अगले चरण में उत्पाद विचारों को कम करने का प्रयास किया जाता है। उत्पाद विकास प्रक्रिया के प्रथम चरण में प्राप्त या संकलित उत्पाद विचारों को इस दूसरे चरण में जाँचा-परखा एवं उनका मूल्याकंन किया जाता है। 

उनकी जाँच परख एवं मूल्याकंन के बाद उन विचारों को त्याग दिया जाता है जो संस्था के लिए किसी भी कारण से अनुपयोगी होते हैं। समान्यत: प्रमुख मानदण्डो पर उत्पाद विचारों को जाँचा -परखा जाता है एवं उनका मूल्याकंन किया जाता है:
  1. संस्था के उद्देश्य के साथ अनुकूलता;
  2. विचारों की व्यावहारिकता;
  3. विचारों के अपनाने पर आवश्यक पूँजी;
  4. कच्चे माल एवं अन्य साधनों की उपलब्धता
  5. तकनीकी एवं प्रबन्धकीय योग्यता की उपलब्धता;
  6. उत्पाद की नवीनता;
  7. विपणन योग्यता;
  8. संस्था की ख्याति पर प्रभाव; इत्यादि।
उत्पाद विचारों की जाँच-परख, उत्पाद विकास प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण चरण है। अत: इसमें पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। इसमें थोड़ी-सी भी असावधानी से प्रतिकूल या अव्यावहारिक उत्पाद विचार छँटनी होने से रूक जाता है और प्रक्रिया के अलगे चरण में पहुँच जाता है। ऐसे में संस्था को समय, श्रम तथा धन की भारी हानि उठानी पड़ सकती है। इतना ही नहीं, अनुपयोगी विचार को अगले चरण में पास होने देने से कर्इ बार बहुत उपयोगी विचार से भी ध्यान हट जाता हैं। इसकी भी संस्था को कीमत चुकानी पड़ सकती है। 

इस सन्दर्भ में शोएल तथा गुल्टीनन ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘अच्छे विचारों को तिलांजलि देने से अवसर खोने लगते हैं तथा कमजोर विचारों को अपनाने से लागत बढ़ने लगती है।’’

3. व्यावसायिक विश्लेषण -  जाँच-परख के बाद जो उत्पाद विचार दमदार एवं हितकारी नजर आते हैं, उनका व्यावसायिक विश्लेषण किया जाता है। दूसरे शब्दों में जाँच-परख एवं मूल्याकंन के बाद शेष बचे उत्पाद विचारों की व्यावसायिक उपादेयता, व्यावहारिकता एवं लाभदेयता का अध्ययन किया जाता है। सामान्यत: उत्पाद विचारों के व्यावसायिक विश्लेषण में  इन बातों का विश्लेषण किया जाता है :
  1. माँग विष्लेशण, जिसमें सभी उत्पाद विचार से निर्मित माल की सम्भावित माँग का विश्लेषण एवं अनुमान किया जाता है।
  2. लागत विष्लेशण, जिसमें उत्पाद निर्माण के लिए आवश्यक पूँजी, उत्पाद निर्माण एवं विपणन की लागतें आदि का अनुमान एवं विश्लेषण किया जाता है। 
  3. लाभदेयता विश्लेषण, जिसमें उत्पाद की लाभदेयता का अनुमान लगाया जाता है। इस हेतु उत्पाद का ‘‘बे्रक-इवन विश्लेषण’’ तथा इससे सम्बन्धित कर्इ अनुपात विश्लेषण किये जाते हैं।
इसके अतिरिक्त, उत्पाद विचार का व्यावसायिक विश्लेषण के समय सम्पूर्ण व्यावसायिक वातावरण के घटकों, अर्थव्यवस्था की स्थिति, उत्पाद का सम्भावित जीवन चक्र आदि का भी विश्लेषण किया जाता है।

4. उत्पाद विकास - इस अवस्था में उत्पाद विचार को उत्पाद में परिवर्तित किया जाता है। इस चरण में उत्पाद को वास्तविक रूप से बनाया जाता है तथा उसका परीक्षण किया जाता है। 

इस प्रक्रिया में उत्पाद के रंग, रूप, गुण, आकार, किस्म, पैंकेजिंग, नाम आदि का भी निर्धारण किया जाता है। उत्पाद विकास के इस चरण में इस प्रकार की क्रियाएँ की जाती है -
  1. लक्षण निर्धारण क्रियाएँ, जिनके अन्तर्गत विपणन विभाग ग्राहकों की इच्छाओं, आवश्यकताओं, पसन्दगी, वरीयता आदि के आधार पर उत्पाद के लक्षणों को निर्धारित करता हैं। इसमें उत्पाद की किस्म, रंग, रूप, आकार, डिजाइन, आदि को निर्धारित किया जाता है।
  2. वैज्ञानिक एवं इंजीनियरी क्रियाएँ, जिनके अन्तर्गत उत्पाद को भौतिक स्वरूप या मूर्त रूप में तैयार किया जाता है। विपणन विभाग द्वारा निर्धारित उत्पाद के लक्षणों के अनुरूप ही उत्पाद को तैयार किया जाता है।
  3. क्रियात्मक परीक्षण, जिसमें उत्पाद की क्रियाशीलता/संचालन की जाँच की जाती है।
  4. उपभोक्ता वरीयता परीक्षण, जिसमें उपभोक्ताओं की वरीयता की जाँच की जाती है। इस हेतु कुछ उपभोक्ताओं से उत्पाद का परीक्षण भी कराया जाता है।
  5. विपणन मिश्रण का निर्धारण - जिसमें उत्पाद के विपणन कार्यो के मिश्रण को निर्धारित किया जाता है। इसमें उत्पाद का नाम, पैकेजिंग, लेबलिंग वितरण विधियों, संवर्द्धनात्मक साधनों आदि का निर्धारण सम्मिलित है।
5. जाँच विपणन - उत्पाद विकास के पिछले चरण में उत्पाद को वास्तविक स्वरूप में लाया जाता है तथा उसकी कुछ उपभोक्ताओं से जाँच भी करायी जाती है। किन्तु इस अवस्था या चरण में उत्पाद की उपभोक्ताओं से जाँच कराने तथा उनकी प्रतिक्रियाएँ जानने हेतु उसे वास्तविक बाजार में ही प्रस्तुत कर दिया जाता है। 

यद्यपि यह बाजार बहुत सीमित क्षेत्र का ही होता है। जाँच विपणन वस्तुत: एक प्रकार का विपणन अनुसंधान ही है। जाँच विपणन के प्रमुख उद्देश्य एवं लाभ है -
  1. भावी उत्पाद का विक्रय सम्भाव्यता को ज्ञात करना। ;पपद्ध उत्पाद के सम्बन्ध में उपभोक्ताओं एवं व्यापारियों के विचारों एवं प्रतिक्रियाओं को जानना।
  2. उत्पाद विपणन कार्यक्रम की प्रभावशीलता का मूल्याकंन करना।
  3. उत्पाद के दोषों का पता लगाना।
  4. प्रतिस्पर्धियों की प्रतिक्रियाओं को जानना।
  5. उत्पाद का उचित मूल्य निर्धारित करना।
  6. वैकल्पिक उत्पाद के विपणन कार्यक्रमों की प्रभावशीलता को जाँचना।
6. उत्पाद का व्यवसायीकरण -  जब जाँच विपणन के परिणाम उत्साहजनक आ जाते हैं, तो उत्पाद का व्यवसायीकरण किया जाता है। उत्पाद व्यवसायीकरण से तात्पर्य उत्पाद को वास्तव में पूरे बाजार में प्रस्तुत करने से है। उत्पाद के व्यवसायीकरण से पूर्व एक व्यापक विपणन योजना तैयार की जाती है। इस योजना में इन बातों की व्यवस्था की जाती है -
  1.  नये उत्पाद के उत्पादन हेतु आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था करना, जिनमें पूँजी, यंत्र, उपकरण, कच्चा माल आदि प्रमुख है।
  2. बाजार क्षेत्रों का निर्धारण करना।
  3. लक्ष्य बाजारों के लिए विपणन रणनीति बनाना।
  4. मूल्य नीति, उधार नीति आदि का निर्धारण करना।
  5. वितरण मध्यस्थों की व्यवस्था करना।
  6. संवर्द्धनात्मक निर्णय एवं व्यवस्था करना।
  7. विक्रय दल की नियुक्ति एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।
  8. उत्पाद की सतत् किस्म नियन्त्रण की व्यवस्था करना।
  9. अन्य विभागों से समन्वय करना।
  10. नवीन उत्पाद के नाम, ब्राण्ड, पेटेन्ट, पैंकेजिंग आदि के पंजीयन एवं सुरक्षा की व्यवस्था करना।
  11. उत्पादों के परिवहन एवं भण्डारण की व्यवस्था करना।
उत्पाद का व्यवसायीकरण करने के बाद उसका निरन्तर अनुगमन भी करना पड़ता है। इससे उत्पाद विपणन में समस्याएँ नही आती है तथा माल के छोटे-मोटे दोषों को यथासमय दूर किया जा सकता है। इस प्रकार उपर्युक्त प्रक्रिया का पालन करके कोर्इ भी संस्था अपने उत्पाद को बाजार में प्रस्तुत कर सकती है।

उत्पाद विकास के लाभ

आज के युग में उत्पाद विकास प्रत्येक संस्था के लिए अनिवार्य है क्योंकि इसमें व्यावसायिक फर्मों, समाज एवं राष्ट्र को अनेक लाभ होते है, जैसे -
  1. उत्पाद विकास के माध्यम से उपभोक्ताओं को अधिकतम सन्तुष्टि होती हैं।
  2. निर्माताओं के बजाार में वृद्धि होती है, फलस्वरूप उत्पादों का बाजार विस्तृत हो जाता है।
  3. उत्पाद विकास से जीवन-चक्र की आयु बढ़ जाती है। 
  4. उत्पाद विकास कार्यक्रम से उत्पाद रेखाओं का विस्तार एवं संकुचन किया जाता है। जिससे अर्थव्यवस्था में माँग-पूर्ति सन्तुलित रहती है, रोजगार के अवसरों में कमी नहीं होने पाती है। परिणामस्वरूप आर्थिक प्रगति में स्थायित्व आता है। 
  5. उत्पाद विकास ग्राहकों को स्थायी बनाता है और नये बाजारों का विकास करता है। 
  6. उत्पाद विकास के माध्यम से प्रतियोगियों का सामना करना सरल हो जाता है। 
  7. नवाचार नये उत्पादों के विकास को सम्भव बनाता है एवं सरलीकरण उत्पाद रेखाओं की अनावश्यक जटिलता को दूर करके ग्राहको के उत्पाद चयन को विवेकपूर्ण सुगमता उपलब्ध करता है।
  8. उत्पाद सुधार एवं संवेष्ठन सुधार ग्राहकों को सामाजिक प्रतिष्ठा एवं मनोवैज्ञानिक सन्तुष्टि उपलब्ध करते है।
  9. उत्पाद विकास कार्यक्रम संस्था के लाभों में वृद्धि करते है।
  10. उत्पाद विकास, विक्रय संवर्द्धन, सेवाओं एवं आश्वासनों आदि पर उत्पादों के प्रभावों को प्रदर्शित करता है और उत्पादों के सुधार तथा निष्पादित-मूल्याकंन के आधारों के विकास को समझाता है।

उत्पाद विकास के तत्त्व 

 ‘उत्पाद-विकास’ सही उत्पाद को सही रूप में सही कीमतों पर सही मात्रा में सही स्थान पर पहुँचाने से सम्बन्ध रखता है इस कार्य को करने के लिए उत्पाद विकास प्रक्रिया के निम्नलिखित तीन तत्त्वों को विकसित किया गया है- 

1. उत्पाद नवाचार- नवाचार का अर्थ नये विचारों की खोज एवं उनकी लाभप्रद प्रयुक्ति से होता है। उत्पाद नवाचार की सहायता से उत्पादों को बाजार खण्ड की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया जाता है, उत्पाद-रेखा में नवीन उत्पाद सम्मिलित किये जाते हैं और उन अवस्थाओं की खोज की जाती है। जिनमें लाभप्रद रूप से नये उत्पादों का विकास एवं विपणन सम्भव होता है। कोई भी फर्म और उसके प्रबन्धक वर्तमान प्रतिस्पर्धी स्थितियों में चालू उत्पादों से सन्तुष्ट नहीं रह सकते, भले ही वे उत्तम एवं लाभप्रद क्यों न हों। यही कारण है कि उत्पाद नवाचार अर्थात् नये उत्पादों के विकास का कार्य दिनों-दिन अधिकतम प्रबन्धकीय स्वीकरण प्राप्त करता जा रहा है। 

उत्पाद नवाचार के महत्त्व को निम्नलिखित घटकों के सन्दर्भ में मूल्यांकित किया जा सकता है- 
  1. नवीन तकनीकी आविष्कारों एवं उपलब्धियों का समुचित लाभ उठाने के लिए नवाचार क्रार्यक्रम को अपनाना अनिवार्य है। 
  2. संस्था की निष्क्रिय कार्यक्षमता का उपयोग करने के लिए नवाचार जरूरी है। 
  3. बाजार एवं उपभोक्ता माँग में होने वाले परिवर्तनों के साथ समायोजन करने के लिए नवाचार आवश्यक है। 
  4. संस्था के कार्यक्षेत्रा एवं लाभों में वृद्धि के लिए नवाचार परमावश्यक है। 
2. उत्पाद सुधार - उत्पाद सुधार का अर्थ बाजार-माँग, फैशन, ग्राहक-रूचियों आदि के अनुसार उत्पादों में उन गुणों को उत्पन्न करने से है जो उपभोक्ताओं को अधिकतम सन्तुष्टि उपलब्ध करा सकें। उत्पादों की किस्म, आकृति, शैली, रंग, डिजाइन, उपयोग आदि विशेषताओं में किये जाने वाले परिवर्तन उत्पाद सुधार में सम्मिलित किये जाते हैं। यद्यपि उत्पाद सुधार जोखिम पूर्ण होता है, किन्तु उत्पादों के विकास की तुलना में कम जोखिमपूर्ण होता है। और फर्म की प्रतियोगी स्थिति को बनाये रखने के लिए परमावश्यक होता है। 

3. संवेष्टन सुधार - संवेष्टन का अर्थ वस्तुओं को डिब्बों, पैकेटों अथवा अन्य कन्टेनर्स में इस प्रकार बन्द करने से होता है कि ग्राहक उन्हें आसानी से पहचान सके, ले जा सके, सुरक्षित रख सके, टूट-फूट न हो तथा वे ग्राहक की प्रतिष्ठा का प्रतीक बन सके। संवेष्टन वस्तुओं के मूल्य एंव बिक्री को प्रभावित करता है। और उत्पाद विभेदीकरण दाँवपेंचों का एक अनुपम उपकरण होता है। 

संवेष्टन सम्बन्धी कानून उवं नियम भी गा्रहकों को धोखाधड़ी एवं ठगी से बचाने के लिए अधिकांश राष्ट्रों में, पारित किये जा चुके हैं। भारत में भी हाल ही में ऐसा कानून बना दिया गया है जो डिब्बों अथवा पैकटों में आने वाली वस्तुओं के नाम, उत्पादकों के नाम, उनकी मात्रा, मूल्य आदि के बारे में पैकेज पर विवरण देना कानूनन आवश्यक मानता है। 

इन समस्त स्थितियों ने संवेष्टन सुधार को पृथक से उत्पाद विकास प्रक्रिया का एक प्रमुख तत्त्व बना दिया है।

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