द्वितीयक समूह का अर्थ एवं परिभाषा

एन्थेनी गिडेन्स ने आज के समाज में द्वितीयक समूह के महत्व को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनका कहना है कि हमारा दैनिक जीवन - सुबह से लेकर शाम तक - द्वितीयक समूहों के बीच में गुजरता है। एक तरह से हमारी श्वास दर श्वास द्वितीयक समूहों के सदस्यों के साथ निकलती है। सही है गिडेन्स के यह विचार। यूरोप और अमरीका के देशों पर पूरी तरह से लागू होते हैं। हमारे देश में निश्चित रूप से द्वितीयक समूहों का वह स्थान नहीं है जो दूसरे देशों में है। ऐसी स्थिति के होते हुए भी हमारे यहाँ गाँवों का शहरीकरण शीघ्रता से हो रहा है। पंचायत राज और विकास योजनाओं ने अधिकारीतंत्र के जाल को दूर-दूर तक अपनी लपेट में ले लिया है। हर छोटे-बड़े काम के लिए गाँव के आदमी को सरकारी कार्यालय के द्वार को खटखटाना पड़ता है, प्रसूति तथा छोटी-मोटी दवा-दारु के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य केन्द्र के लिए दौड़ना पड़ता है और आवागमन के लिए परिवहन निगम की बसों पर चढ़ाना-उतरना पड़ता है। पान मसाला जिसे वह खाता है, कहीं दूर कानपुर या इन्दौर से आता है। तात्पर्य यह है कि अब गाँव की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, मनोरंजन आदि द्वितीयक समूहों के साथ में जुड़े हुए है। ऐसी अवस्था में द्वितीयक समूहों का क्षेत्र हमारे यहाँ भी बहुत विशाल हो गया है।

द्वितीयक समूह का अर्थ एवं परिभाषा 

कूल ने प्राथमिक समूह के विवरण में द्वितीयक समूह की चर्चा नहीं की है। शायद 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में विदेशों में भी द्वितीयक समूहों का अधिक महत्व नहीं था। इसी कारण कूले ने प्राथमिक समूहों की व्याख्या तक ही अपने आपको सीमित रखा। इन देशों में औद्योगीकरण और शहरीकरण के परिणामस्वरूप द्वितीयक समूह महत्वपूर्ण होने लगे हैं। इसी कारण 20वीं शताब्दी के मध्य पहुँचकर द्वितीयक समूह अध्ययन के मुख्य क्षेत्र बन गये। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि समाज जितना अधिक आधुनिक, औद्योगिक और पूँजीवाद होगा, उतने ही अधिक उसमें द्वितीयक समूह होंगे। कूल के बाद के समाजशास्त्रियों ने द्वितीयक समूह की व्याख्या विशत् रूप में की है। यहाँ हम द्वितीयक समूह की कतिपय महत्वपूर्ण परिभाषाओं का उल्लेख करेंगे।

द्वितीयक समूह के लक्षण 

1. द्वितीयक समूह लोगों की एक समिति है : ये समूह मध्यम आकार से वृहद आकार के होते है। इनमें सदस्यों की संख्या बहुत बड़ी होती है। इसी कारण लोग एक दूसरे को जानते भी नहीं है। इन द्वितीयक समूहों को समिति इसलिए कहते हैं कि इनकी स्थापना सोच समझकर विधिवत् रूप से की जाती है। द्वितीयक समूहों के उदाहरण में अधिकारीतंत्र, स्वयं सेवी संस्थाएँ, व्यावसायिक संगठन आदि सम्मिलित है।

2. अवैयक्तिक सम्बन्ध : द्वितीयक समूह के सदस्य एक दूसरे को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते। बैंक के काउन्टर पर वह व्यक्ति जो चेक लेता है, या डाकघर में जो बाबू टिकट देता है, वह कौन सी जाति-बिरादरी का है, कहाँ का रहने वाला है, विवाहित या अविवाहित है, इससे हमें कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं है। हमारा उद्देश्य तो चेक का धन या डाक टिकट लेना है। तात्पर्य हुआ, द्वितीयक समूह के सदस्यों के साथ हमारे संबंध किसी निश्चित उद्देश्य को लेकर ही होते हैं। इससे आगे संबंधी हमारा कोई सरोकार नहीं होता।

3. सम्बन्धों का आधार संविदा होता है : द्वितीयक समूह के सदस्यों के साथ लम्बी अवधि तक हमारे संबंध होते है। बाजार का कामकाज बैंक के सम्बन्धों के बिना नहीं हो सकता। चिकित्सालय या सेवार्थ संस्थाओं के द्वितीयक संगठनों के साथ भी हमारे सम्बन्ध निश्चित नियमों के अनुसार होते है। कोई किसी पर कृपा नहीं करता।

4. औपचारिक सम्बन्ध : द्वितीयक समूहों में लोगों के साथ हमारे सम्पर्क वस्तुत: प्रस्थिति और भूमिका से जुड़े होते हैं। किसी अमुक प्रस्थिति में कौन सा व्यक्ति काम करता है, इस व्यक्ति से हमें कोई मतलब नहीं। आज इस प्रस्थिति में महेश काम करता है, कल वह चला जाता है और उसके स्थान पर सुरेश आ जाता है। हमें महेश व सुरेश से कोई तात्पर्य नहीं है। हमारा संबंध तो उस प्रस्थिति के साथ है, जिस पर इन नामों के लोग काम करते थे। अत: द्वितीयक समूह में हमारे सम्पर्कों का उपागम हर स्थिति में औपचारिक ही होता है।

5. निश्चित उद्देश्य : द्वितीयक समूह में व्यक्ति के जीवन की सम्पूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती। प्रत्येक संगठन के कुछ सीमित और निश्चित लक्ष्य होते हैं। ये संगठन इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए ही काम करते है, इनसे आगे नहीं। अत: जहाँ कहीं हमारा संगठन से वास्ता पड़ता है, तो हमारे संबंध कुछ सीमित क्षेत्रों में ही होते है। चिकित्साल्य हमें बीमारी का निदान तो देगा, लेकिन यदि हम इससे हमारे पहनने के कपड़े मांगें तो इस आवश्यकता की पूर्ति का काम चिकित्सालय के क्षेत्र से बाहर है।

6. संविदा के उल्लंघन पर दण्ड : हम आग्रहपूर्वक कह रहे है कि द्वितीयक समूह संविदा की सीमा में काम करते है। यदि ये समूह संविदा की शर्तों को नहीं मानते तो इसका खामियाजा उन्हें पंचों या अदालत के माध्यम से भोगना पड़ेगा। जब बीमारोधक को उसकी निश्चित धनराशि नहीं मिलती, या उसके भुगतान में अड़चने आती है तो दोनों के लिए अदालत खुली हैं। संविदा द्वितीयक समूहों के सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रित करती है।

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