जनसंचार के प्रमुख माध्यम कौन-कौन से हैं?

जनसंचार के प्रमुख माध्यम

जनसंचार का अर्थ है सूचना और विचारों का प्रसार व संचार के आधुनिक साधनों के जरिए मनोरंजन प्रदान करना । जनसंचार के इन माध्यमों में इलैक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया दोनों ही आते हैं । 

संचार के परम्परागत साधन आधुनिक समाज की परिवर्तित परिस्थितियों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असमर्थ रहे हैं । इसीलिए तीव्र गति से सूचना सम्प्रेषण का कार्य सम्पन्न करने हेतु संचार के नये-नये माध्यमों की खोज होती रही है । 

आधुनिक मीडिया में रेडियो, टेलीविजन, फिल्म, अखबार और विज्ञापन अन्य नये-नये माध्यम भी आज सामने आ रहे हैं । 

जनसंचार के माध्यम

जनसंचार के माध्यम कौन-कौन से हैं, संचार माध्यम कितने प्रकार के होते हैं?

1. समाचारपत्र - सन् 1450 में जॉन गुटेनबर्ग के द्वारा मुद्रण के आविष्कार के बाद संचार साक्षरों के लिए एक वरदान बन गया । विकसित देशों में समाचार पत्रों का महत्वपूर्ण योगदान है । अमेरिका में 95 प्रतिशत लोग समाचार पत्र पढ़ते हैं । उसके बाद रूसी लोगों का नम्बर आता है । 

भारत में अठारहवीं शताब्दी के अन्त में यानि सन् 1780 में अखबार की शुरूआत हुई । जेम्स अगस्टस हिकि ने बंगाल गजट 1780 में निकाल कर अखबार प्रचलन शुरू किया । यह गुजरात भाषा में प्रकाशित भारत का सबसे पुराना अखबार है । 

इसके पश्चात् 1826 में उदन्त मार्तण्ड निकला । वर्तमान समय में 41 ऐसे समाचार पत्र हैं जो सौ वर्ष पूरे कर चुके हैं । टाईम्स ऑफ इण्डिया समाचारपत्र 150 साल पुराना है व हिन्दुस्तान टाईम्स ने अभी हाल में अपनी 75 सालगिराह को मनाया है ।

2. मैगजीन - मैगज़ीन एक निश्चित समय के बाद फिर से नई जानकारियों को अपने साथ ले कर आती है । इसकी हर नई प्रति में नई जानकारियां, नए विषय व मनोरंजन होता है । मैगजीन को 'Store House' का नाम दिया गया है क्योंकि इसमें विभिन्न ज्ञानों का भण्डार होता है । आजकल ये मैगजीन विशेषता लिए होती है अर्थात् विभिन्न विषयों जैसे राजनैतिक, फेशन, खेलकूद, आदमियों के लिए, व औरतों के लिए आदि की प्रधानता लिये होती है । 

आज देश के हर प्रांत, क्षेत्र और भाषा में दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन तेजी से हो रहा है । हर वर्ष इनकी संख्या में भी वृद्धि होती जा रही है । बहुसंस्करणीय, सांध्य संस्करणीय प्रकाशन, इलैक्ट्रानिक तकनीकी के विकास के साथ निरन्तर बढ़ते ही गए । रोचक ले-आऊट, सुरूचिपूर्ण साज-सज्जा और श्रेष्ठ मुद्रण के कारण इनके प्रति लोगों का आकर्षण भी बढ़ता जा रहा है । 

अधिक से अधिक जानकारी हासिल करने के उद्देश्य से समाचार पत्र भी हर वर्ग के लिए उनकी रूचियों के अनुरूप सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं । खेल, फिल्म, कला, बाजार भाव, राजनैतिक, उठा-पटक, जीवन के हर क्षेत्र से सम्बन्धित समाचार समाचारपत्रों के द्वारा प्रदान किए जाते हैं।

समाचारपत्रों में प्रकाशित विज्ञापन भी संचार का अंग है जो विभिन्न उत्पादों से सम्बंिधंत जानकारियां देते हैं । सामाजिक विज्ञापन घातक रोगों से बचाव, सामाजिक प्रदुषणों के परिहार और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का भी सन्देश देते हैं । जैसे एड्स से बचाव, टीकाकरण और स्वच्छ पेयजल को अपनाने की प्रेरणा । धूम्रपान, नशीली दवाइयों के सेवन को त्यागने की मंत्रणा सामाजिक विज्ञापनों के उदाहरण हैं। 

जनमत की सशक्तता, सांस्कृतिक चेतना, मूल्यों को स्थापित करने में समाचार पत्र सहायक हुए हैं। देश के स्वतंत्रता संग्राम में समाचार पत्रों का विशेष योगदान स्मरणीय है। समाज सुधार का हर आन्दोलन समाचार पत्रों को अपना प्रवक्ता बनाता है ।

प्रत्येक मैगजीन अपने निश्चित पाठकों को आकर्षित करती है तथा पाठक भी अपनी पसंद अनुसार मैगजीनों का चयन करते हैं। यह प्रबंध विज्ञापन की दृष्टि से बहुत उत्तम है । क्योंकि इसके द्वारा विज्ञापक अपने लक्षित लक्ष्य तक प्रभावी ढंग से पहुॅंच सकता है । मुख्यत: मैगज़ीन को चार भागों में बॉंटा गया है।
  1. उपभोक्ता मैगज़ीन
  2. व्यापार और तकनीकी मैगज़ीन
  3. व्यवसायिक मैगज़ीन
  4. शैक्षिक और शोधकर्ता जरनल
उपभोक्ता मैगज़ीन मुख्यत: विज्ञापनों पर आधारित होती है । वे एक निश्चित वर्ग तक पहुंचना चाहते हैं जैसे नर, नारी, बच्चे, बड़े बुजुर्ग व्यक्ति, खेल प्रिय, फिल्मों को पसंद करने वाले, आटोमोबाइल व युवा लोगों तक । व्यापार और तकनीकी मैगज़ीन व्यवसायिक जरनल होते हैं जो कि विशेष पाठकों व्यापारियों, व्यवसायों, कारखानों के स्वामियों के लिए होती है । ये इनसे सम्बन्धित विषयों पर जानकारी लिये होती है ।

जनसंपर्क मैगज़ीन संगठनों, सरकारी एजेंसियों, शैक्षणिक संस्थानों और दूसरे संगठनों के लिए होती है जो कि कर्मचारियों, उपभोक्ताओं, ओपिनियन लीडर के लिए जानकारी लिये होती है ।

शैक्षिक और शोधकर्ता जरनल जानकारी और ज्ञान को फैलाने के लिए होती है। इन मैगजीनों में विज्ञापन नहीं होते हैं ।

मैगज़ीन, मीडिया ग्रुप, प्रकाशन संस्था, समाचारपत्रों, छोटी संस्थाओं, संगठनों, व्यापारिक संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों और धार्मिक संगठनों द्वारा छापी जाती है । मैगज़ीन सरकारी विभागों व राजनैतिक पार्टियों द्वारा भी छापी जाती है । मैगज़ीन मुख्यत: साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक छपती है । यह चार महीने बाद व छ: महीने बाद भी छपती है । कुछ मैगज़ीन साल में एक बार छपती हैं। 

मैगज़ीन सामान्यत: 'Readers Digest' की भांति भी हो सकती है और टेजीविजन कार्यक्रमों को प्रदर्शित करने वाली गाइड के रूप में भी हो सकती है । बहुत सी मैगज़ीन ऐसी भी होती हैं जो कि दो विशिष्टता को लिये होती हैं । ये सामान्यत: लगातार छपती हैं और प्रत्येक मैगज़ीन समाज के कुछ विशेष वर्गों के लिए होती है ।

कुछ मैगज़ीन ज्ञान लिए व कुछ मनोरंजन लिये होती हैं । शुरूवाती दौर में मैगज़ीन का अस्तित्व धुंधला था, समाचारपत्र व मैगज़ीन की सीमा में कोई विशेष अन्तर न था ।

आज मैगज़ीन विभिन्न विषयों में प्रधानता लिये हुए है । The American Audit Bureau of Circulation ने 30 भिन्न-भिन्न प्रकार की विशेषता लिये मैगज़ीनों को बांटा है जिसमें मुख्य सौन्दर्य, व्यावसायिक, सिलाई, फैशन, खेल-कूद, फिल्म, सार्इंस, इतिहास, स्वास्थ्य, घर, फोटोग्राफी, यात्रा, संगीत, समाचार, पुरुष, नारी, कम्प्यूटर आदि है ।

मैगज़ीन को तीन भागों में बांटा जा सकता है । समाचार प्रधान, मनोरंजन प्रधान, स्वयं विचारधारा प्रधान । आज प्रत्येक मैगज़ीन अपने लक्षित पाठकों के इच्छित अनुसार होती है ।

शुरूआत में, जब वैज्ञानिक अस्तित्व में आई उसे अपना स्थान बनाने के लिए जन माध्यमों से संघर्ष करना पड़ा । जैसे रेडियो, टेलीविजन, फिल्म । परन्तु समाचारपत्र व मैगज़ीन अपना स्थान बनाने में सफल रहे ।

मैगजीन जनसंचार के विभिन्न माध्यमों में से एक है । मैगजीन की संख्या, सामग्री की प्रकृति, उपयोगिता आदि इसे एक राज्य से दूसरे राज्य तक फैलाया गया । इन मैगजीनों को ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक आधार पर भी बांटा गया ।

साधारणत: मैगज़ीन जानकारी, विचारधारा और व्यवहार को फैलाने में महत्वपूर्ण रोल अदा करती है । यह जहां हमें जानकारी प्रदान करती है वहीं दूसरी तरफ शिक्षा व मनोरंजन को भी पेश करते हुए पाठकों की रूचि का भी ध्यान रखती है ।

3. पुस्तकें - जनसंचार के माध्यमों से अगर हम देखें तो यह पुस्तकें जनसंचार का पूर्ण माध्यम नहीं है । यह समाचार पत्रों, रेडियो, टेलीविजन की तरह सभी दर्शक व पाठकों तक एक समान नहीं पहुंच पाती । जनमाध्यमों की दूसरे माध् यमों की तुलना में पुस्तकों के पाठकों की संख्या बहुत कम है । विश्वसनीय तौर पर पुस्तकें जनसंचार का महत्वपूर्ण माध्यम हैं । पुस्तकें अपने अन्दर बहुत सी जानकारी को संजाये हुए होती हैं और यह लम्बे समय तक चलने वाली तथा लम्बे समय तक सम्भाल कर रखने वाली होती हैं और यह डंह्रपदम और समाचार पत्रों से ज्यादा विश्वसनीय होती है ।

4. रेडियो - भारत में रेडियो का समय 1923 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से शुरू हुआ । स्वतंत्रता के समय बड़े महानगरों में छ: रेडियो स्टेशन थे । सन् 2002 तक यह परिदृश्य इतना बदला की भारत के 2/3 घरों तक अर्थात् 110 मिलियम पारों तक इसकी पहुंच हो गई । भारतीय स्थितियों में रेडियो एक प्रभावशाली माध्यम सिद्ध हुआ । यह असाक्षर लोगों तक भी पहुंचा। टी.वी. एवं फिल्म से सस्ता होने के कारण भी यह लोकप्रिय हुआ । स्थानीय रेडियो स्टेशन भी महत्वूपर्ण साबित हुआ ।

20वीं सदी के अन्त तक रेडियो सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम था । जिसकी ग्रामीणों एवं शहरी गरीबों तक पहुंच हो गई थी । टी.वी. के प्रसार में भारत में रेडियो को पीछे की ओर धकेला है लेकिन इसकी अहमियत आज भी बनी हुई है। जनसंचार माध्यमों की अपेक्षा रेडियो अनुपम योग्यता रखता है अपनी कार्यकुशलता में यदि हम टी.वी. देखते हैं या समाचार पत्र पढ़ते हैं तो हमें एक जगह बैठकर उस पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है परन्तु रेडियो में ऐसा नहीं है । हम अपनी दैनिक दिनचर्या के साथ रेडियो के कार्यक्रम का आनन्द ले सकते हैं, सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं ।

रेडियो में स्थान का सदैव अभाव रहता है जहां एक समाचारपत्र में 40 या 50 कॉलम (Column) होते हैं वही रेडियो उसके मुख्य पृष्ठ तक का समय रखता है यही कारण है कि रेडियो के लिए संक्षिप्ता अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है । रेडियो ही जनसंचार का एक ऐसा माध्यम है जिसे जब जैसे चाहे वहॉं सुना जा सकता है । इसे अपने शयनकक्ष में सुन सकते हैं या फिर आप अपनी कार, खेत खलिया, आप इसे पढ़ते हुए भी सुन सकते हैं या व्यंजन बनाते हुए भी सुन सकते हैं । इसके दो कारण हैं -
  1. दृश्यहीनता
  2. ट्रांजिस्टर क्रांति
दृश्यहीनता होने के कारण रेडियो एकाचित होने के लिए एक जगह बैठने के लिए बाधित नहीं करता । टी.वी. देखते हुए आप दूसरे काम नहीं कर सकते परन्तु रेडियो के साथ यह सुविधा है कि आप कोई भी कार्य करते हुए कार्यक्रम का आनन्द ले सकते हैं । रेडियो के इस गुण का कारण ट्रांजिस्टर का आविष्कार है । 

पहले पहल रेडियो हैडफोन लगाकर सुना जाता था । प्रगति हुई तो बड़े आकार के रेडियो सैट बनाए गए । परन्तु ट्रांजिस्टर के आविष्कार के कारण रेडियो में क्रांति आ गई। एक और रेडियो सैट की लागत कम हुई और दूसरी तरफ इसे ले जाने में सुविधा । आज पॉकेट रेडियो बहुत लोकप्रिय हो गए हैं।

रेडियो पर समाचार तेज गति से चलते हैं। अभिप्राय: है कि श्रव्य माध्यम होने के कारण रेडियो सूचना तुरन्त पहुंचा सकते हैं कहीं पर आकस्मिक कोई घटना घटी संवाददाता ने फोन से स्थानीय केन्द्र को खबर भेजी जहां से तुरंत दिल्ली के न्यूज रूप में खबर पहुंच गई और सारे देश ने न्यूज को जान लिया । यह अकसर होता है कि देर रात में हुई घटना 24 घण्टे के अन्दर समाचार पत्रों के माध्यम से हमारे तक पहुंचती हैं । कई बार टी.वी. भी अपने समाचार रेडियो से ग्रहण करता है । अत: तत्परता की दृष्टि से रेडियो का माध्यम अनुपम है।

रेडियो यदि शिक्षा देता है तो शुष्क नहीं बल्कि मनोरंजन के रस में पूर्णता भिगोकर अनेक विधाएं रेडियो के पास हैं। जैसे- नाटक, संगीत आदि । जिनका प्रयोग करके श्रोताओं के मन तक पहुंचा जाता है तथा जो संदेश उनको देना चाहता है उसे उनका अनुभव कराये बिना दे दिया जाता है । इससे जहॉं एक और मनोरंजन होता है वहीं साथ ही मन का अंधकार दूर हो जाता है।

इतनी विशेषताएं होते हुए भी रेडियो की कुछ सीमाएं हैं इसका दृष्टिहीन होना । यही कारण है कि टी.वी. के आ जाने से रेडियो के श्रोताओं की संख्या में कमी आ गई है और दृश्य का प्रलोभन उन्हें अपनी ओर ले गया । दूसरी सीमा श्रोता और प्रसारण कर्त्ता के बीच दीवार जो सदा बनी रहती है और उसका फीडबैक बहुत ही कम मिल पाता है । इसमें सुधार करने की गुंजाइस कम ही रह जाती है । रेडियो कुछ दिखा नहीं सकता, बल्कि सुना सकता है । समाचार पत्र की भांति हम इसमें पीछे लौट नहीं सकते । एक बार कार्यक्रम निकल गया तो गया । यह ध्वनि एक ऐसा क्षणभंगुर साधन है जो थोड़ा सा जटिल हुआ नहीं कि हवा में विलीन हो गया ।

भारत में रेडियो प्रसारण 1927 में आरम्भ हुआ और 1947 तक इसका विस्तार मंद गति से हुआ परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद नीति निर्माताओं का ध्यान संचार की ओर गया और जहां उस समय मात्र छ: प्रसारण केन्द्र थे वहां अब प्रसारण केन्द्रों की संख्या 185 हो गई है जिसमें से 72 स्थानीय प्रसारण केन्द्र भी स्थापित हो गए हैं । देश के 90 प्रतिशत भू-भाग पर तथा 97.3 प्रतिशत जनसंख्या तक अपना संदेश पहुंचाने वाला भारतीय रेडियो प्रसारण आकाशवाणी विश्व की अनूठी व्यवस्था है । 

आकाशवाणी प्रतिदिन 291 समाचार बुलेटिन की व्यवस्था करती हैं । यह 19 भारतीय तथा 24 विदेश भाषाओं में प्रसारित की जाती हैं । यही नहीं विभिन्न श्रोताओं के लिए विविध कार्यक्रमों का निर्माण अनेक विधाओं जैसे वार्ता नाटक, रूपक, पत्र-पत्रिका आदि में किया जाता है और श्रोताओं के पक्ष के माध्यम से समय अनुसार उनमें परिवर्तन भी किए जाते हैं । सूचना शिक्षा तथा मनोरंजन के उद्देश्य से बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय का लक्ष्य रखते हुए आकाशवाणी ने दशकों का लम्बा सफर तय कर लिया है।

5. टेलीविजन - टेलीविजन एक श्रव्यदृश्य माध्यम है जिसे न केवल सुना जाता है बल्कि दृश्य को देखकर यथार्थ का अधिक बोध होता है यद्यपि यह भी रेडियो की भांति इलैक्ट्रॉनिक मीडिया है परन्तु टेलीविजन की अपनी कुछ विशेषताएं हैं जो रेडियो में नहीं पाई जाती । यही कारण है कि इसके कार्यक्रमों के निर्माण में इन विशेषताओं का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है ।

कहा जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के समतुल्य होता है रेडियो के माध्यम से जिस दृश्य का वर्णन चुन-चुनकर किया जाता है वही एक रमणीय दृश्य दिखाकर श्रोताओं का रसास्वादन करा देता है । अत: दृश्य और श्रृव्य और दोनों मिलकर टेलीविजन को अधिक सशक्त बनाने में सफल होते हैं ।

टेलीविजन में बहुत से अन्य माध्यमों में सौपान सम्मिलित होते हैं जैसे रेडियो का माइक्रोफोन, थेयटर से गति, फिल्मों से कैमरा एवं समाचार पत्रों से इस प्रकार इन सभी का एक साथ मिश्रण इस माध्यम को नवीन रूप दे जाता है ।

आज टेलीविजन की परिधि का इतना विस्तार हो चुका है कि उसकी परिकल्पना भी नहीं की जा सकती । टेलीविजन हमें समुद्र की उन गहराईयों का दर्शन कराता है और अंतरिक्ष के उस भू-भाग की भी जहॉं मानव के पॉंव भी नहीं पड़े। मानव के ज्ञान चक्षुओं को खोलने की अद्भूत क्षमता इसमें है । टेलीविजन की एक विशेषता है मानव को विश्वास दिलवाने की ।

यदि कोई खबर हमने सुनी तो शायद हम उस पर विश्वास न भी करें परन्तु उस दृश्य को देखकर विश्वसनीयता का पुट शामिल हो जाता है । साथ ही कला विज्ञान के अजूबों को दर्शाने से उसके सिद्धान्तों को अधिक बल मिलता है। टेलीविजन जनतंत्र का माध्यम है जहॉं पत्र-पत्रिकाओं से आनंद के लिए साक्षर होना आवश्यक है तथा क्रय शक्ति जरूरी है । वही टेलीविजन साक्षर व निरक्षर सभी के लिए एक सम्मान है । साथ ही एक बार टेलीविजन खरीदने के पश्चात् उसके कार्यक्रम का पूर्ण आनन्द लिया जा सकता है ।

रेडियो की ही भांति तत्परता का गुण टेलीविजन में भी है । कोई घटना घटी तो शीघ्र ही टेलीविजन टीम वहां पहुंचकर उसका पूर्ण ब्यौरा केन्द्र तक पहुंचाते हैं अब तो मोबाइल टीम के माध्यम से ये और भी शीघ्र सम्भव हो गया है । इस प्रकार घटना स्थल का पूर्ण विवरण दृश्य के माध्यम से देखा जा सकता है। टेलीविजन पर आज विज्ञापनों की बहुतायत ने उसे एक उद्योग का अंग सा बना दिया है । हर उत्पादक अपने उत्पादन या सेवा के संबंध में अधिकाधिक लोगों तक सूचना पहुंचाना चाहता है और इस माध्यम का वह पूर्ण प्रयोग करता है । इससे प्रतियोगिता में भी वृद्धि हुई है और लोगों का ज्ञान बढ़ा है ।

भारत का टेलीविजन प्रसारण तंत्र दूरदर्शन विश्व में अपने स्टूडियो, ट्रांसमीटरों, कार्यक्रमों तथा दर्शकों के आधार पर आदित्य है । 1959 में कुछ घण्टों के प्रसारण के साथ आरम्भ हुए दूरदर्शन ने 1965 से नियमित प्रसारण आरम्भ किया और आज तीन राष्ट्रीय चैनलों ‘दो विशेष अभिरूचि चैनलों, नौ क्षेत्रीय बाहरीय चैनले और एक अन्तर्राष्ट्रीय चैनल के एक विशाल नेटवर्क का सफर तय कर लिया है । आज 750 भूस्थलीय ट्रांसमीटरों के द्वारा इसकी पहुंच 86 प्रतिशत देशवासियों तक बन गई है। दूरदर्शन के कार्यक्रमों को 45 करोड़ दर्शक अपने घरों में देखते हैं । इस प्रकार विश्व का अपनी तरह का सबसे बड़ा नेटवर्क सत्यम शिवम् सुन्दरम के लक्ष्य से देशवासियों को सूचना पहुंचाने के कार्य में संलग्न हैं।

भारत में टेलीविजन की शुरूवात 1959 में हुई । यह शुरूवात यूनेस्को के सहयोग से एक शैक्षणिक परियोजना के रूप में थी । 1960 में धीमी गति से टीवी. आगे बढ़ा । रेडियो प्रसारण की तरह ही भारत में टी.वी. ब्राडकास्टिंग के रूप में बी.बी.सी. के माडल पर आधारित था । भारत ने इसके संदर्भ में अमेरिका की व्यवसायिक व निजी शैली को नहीं अपनाया । 1975 में सैटेलाइट टेलीविजन एक्सपेरिमेन्ट (SITE) का छह राज्यों के 2400 गांवों तक प्रसारण के साथ टी.वीदर्शकों की संख्या में विस्तार होने लगा । अमेरिकन सैटेलाइट ए.टी.एस-6 के द्वारा ग्रामीण कार्यक्रम प्रस्तुत होने लगे । ये शैक्षणिक कार्यक्रम ग्रामीण भारत के विकास को ध्यान में रखकर बनाए गए थे । एशियन-गेम्स 1982 के समय भारत में रंगीन टी.वी. आया । 

भारत के ग्रामीण विकास के लिए टी.वी. को एक महत्वपूर्ण हथियार मानकर इसके विस्तार के प्रयास किए गए । लेकिन 2002 के आते-आते दिशा ही बदल गई । टी.वी. के विकास के संदर्भ में क्षमता का उपयोग अधूरा रह गया और मनोरंजन की ओर झुक गया ।

6. सिनेमा - मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं एवं अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने वाजा सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसमें कल्पना दृश्य, लेखन, मंचनिर्देशन, रूप सज्जा के साथ प्रकाश, इलक्ट्रोन, कार्बोनिक और भौतिक रसायन विज्ञान का अद्भूत मिश्रण है। एक ओर इसमें सृजनात्मकता है तो दूसरी ओर जातिक प्रतिभा । इन दोनों के संगम से एक ऐसा आकर्षण होता है जो न केवल मनोरंजन प्रदान करता है बल्कि ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में विस्तार करता है सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सामाजिक जागृति लाने में योगदान देता है ।

सिनेमा जनसंचार का सशक्त माध्यम है। एक फिल्म एक साथ हजारों व्यक्तियों द्वारा देखी जाती है और अलग-अलग शहरों में जब प्रदर्शित की जाती है तो उसका संदेश लाखों व्यक्तियों तक पहुंचता है । एक शताब्दी पूर्व जिस डवअपदह कैमरे के कारण सिनेमा का आविष्कार हुआ उसमें देखते ही देखते अपने मायावी संसार में सारी दुनियां को जकड़ लिया । पहले सिनेमा मूक था और लगभग तीन दशक बाद सवाक हो गया । पहले वह Black & White था, सदी के मध्य तक आते-आते वह रंगीन हो गया ।

यद्यपि सिनेमा मनोरंजन का साधन रहा तथापि वृत्त चित्रों और न्यूज रिलों के द्वारा वह सूचना व ज्ञान के प्रचार का माध्यम भी बना । टेलीविजन के आगमन से पहले तक सिनेमा ही मध्यवर्ग और निम्नवर्ग का मनोरंजन का संस्ता और लोकप्रिय साधन था । भारत जैसे देश में तो आज भी लोकप्रिय है । टी.वी. कार्यक्रमों में भी इसने महत्वपूर्ण जगह बना ली है हालांकि टी.वी., केबल, वीडियो से इसकी लोकप्रियता का आधात लगा है । 

दुनिया में प्रतिवर्ष लगभग 800 फिल्में अकेले भारत में बनती हैं जो फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सबसे आगे हैं । नाटक की भांति फिल्म एक पूर्णकला माध्यम है जिसमें परम्परागत कला रूपों के साथ-साथ आधुनिक कलाओं का समावेश भी होता है तथा संवाद, अभिनय, फोटो ग्राफी, संगीत आदि विधाओं और कलाओं की सर्वोतम अभिव्यक्ति इस माध्यम से सम्भव है ।

आठवें दशक के मध्य तक आते-आते सिनेमाघरों में जाकर फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या में काफी कमी आई है । विशेष रूप से यूरोप, अमेरिका आदि देशों में । इसका अभिप्राय: यह भी नहीं है कि फिल्मों की लोकप्रियता में कमी आई है सच्चाई उलट है ।

टी.वी. ने फिल्मों की लोकप्रियता और अधिक बढ़ा दिया है । विद्युतीय संचार माध्यमों में चलचित्र एक महत्वपूर्ण विधा है । इसकी दृश्य, श्रव्य संचार की क्षमता इसकी अपार लोकप्रियता के कारण बनी है । सबसे पहले सन् 1824 में पीटरमार्क रोजेट ने छवि को पर्दे पर उतारने के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया पर इस सिद्धान्त का व्यवहारिक रूप सेल्यूलाइड पर लुईस डागर ने 1860-70 के दशक में प्रस्तुत किया । आरम्भिक चलचित्र मात्र मनोरंजन के उद्देश्य से बने थे । बाद में उसमें और लक्ष्य भी सम्मिलित हुए । 

सन् 1926 में वार्नर ब्रदर्स ने प्रथम चलचित्र का निर्माण किया । उसके पहले मूक चलचित्रों का मूक था । चलचित्र के सर्वप्रथम जनप्रदर्शन का कार्य अमेरिका में 1896 में सम्पन्न हुआ । यही 1903 में पूर्ण लम्बाई का चलचित्र प्रदर्शित हुआ । 1935 से चलचित्र में रंगों का उपयोग भी शुरू हो गया ।

भारत चलचित्रों का बड़ा उत्पादन है । हर वर्ष एक हजार के लगभग चलचित्र बनाने वाले इस देश की पहली फिल्म 1913 में बनी जो मूक थी और उस फिल्म का नाम आल्मआरा था । नृत्य, नाट्य, गीत, संगीत की इस मिली-जुली विधा ने लोगों को अपने जादू में बांध दिया । ये निरक्षर जनसमुदाय को आसानी से प्रभावित कर रही थी । केबल मनोरंजन ही नहीं सामाजिक मुद्दे पर भी जागरूकता फैलाते रहे हैं । देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता, जाति प्रथा, छात्रों की समस्याएं, युवाओं की समस्याएं, भ्रष्टाचार, महिला उत्पीड़न, चलचित्रों को विचारोतेजन कथानक रहे हैं ।

7. विज्ञापन - जनसंचार के विभिन्न माध्यमों में विज्ञापन भी एक माध्यम है । जिस प्रकार संचार के दूसरे माध्यमों में सन्देश को प्रेषित किया जाता है । उसी प्रकार विज्ञापन में भी सन्देश को सम्प्रेषित किया जाता है । इसमें से भी सन्देश का निर्माण अन्य माध्यमों के अनुसार शब्दों, चिन्हों व संकेतों के द्वारा किया जाता है तथा सन्देश को बनाते समय प्राप्तकर्ता को व्यवहार व उसकी इच्छा, आवश्यकता, क्षेत्र, मनोवैज्ञानिक स्थिति आदि का ध्यान रखा जाता है ।

विज्ञापन शब्द अंग्रेजी भाषा के Advertisement का हिन्दी रूपान्तर है तथा वह लेटिन भाषा के Adverter से बना है । जिसका अर्थ है ‘पलटना’ अथवा जनता को सूचित करना । इस प्रकार विज्ञापन का शाब्दिक अर्थ जनता को सूचित करना है । किसी भी सूचना को जन-जन तक पहुंचाने की प्रमुख भूमिका विज्ञापन की है और यही उसका प्रमुख उद्देश्य है । ‘पलटने’ का अभिप्राय इस रूप में लिया जा सकता है कि विज्ञापन जन सामान्य के समक्ष नवीन सूचनाओं को प्रदान करता है। सामान्यता: विज्ञापन को विभिन्न माध्यमों द्वारा एक विचार, कार्य अथवा उत्पादित वस्तु के सम्बन्ध में सूचनाओं को प्रचारित करने तथा विज्ञापन दाता की इच्छा व इरादे के अनुरूप कार्य करने के रूप में परिभाषित किया जा सकता है । 

विज्ञापन केवल संदेश का एक शब्द, चित्र, पत्रिका, दूरदर्शन आदि के द्वारा देना ही नहीं है । बल्कि यह एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम है जिसका प्रयोग अन्य व्यक्तियों से कार्य करने के उद्देश्य से किया जाता है । यदि आप समाज के एक बहुत बड़े हिस्से से कोई कार्य करवाना चाहते हैं तो विज्ञापन उन सभी को अपने अनुरूप कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है ।

अत: विज्ञापन व्यवसायिक संस्था का महत्वपूर्ण साधन है । यह उपभोक्ता को ऐसी सूचनाएं प्रदान करता है । जिससे उपभोक्ता खरीदने के सम्बन्ध में सही निर्णय ले सके । अत: विज्ञापन एक ऐसा प्रभावशाली माध्यम है जिसके आधार पर उत्पादित वस्तु के संबंध में जनता की स्वीकृति निर्मित की जा सकती है तथा इस प्रकार के वातावरण को निरन्तर आगे बढ़ाया जा सकता है ।

भारत में विज्ञापन का इतिहास बहुत पुराना है । विज्ञापन के क्षेत्र में सबसे पहला विज्ञापन सन् 1780 में जेम्स अगस्टस हिकि के समाचार पत्र बंगाल गजट में छपा था । समाचार पत्र में विज्ञापनों की अधिकता के कारण इसका नाम ‘कलकता जनरल एडवरटाइजर’ भी पड़ा ।

इसके साथ अन्य समाचार पत्र भी प्रकाशित हुए जो विज्ञापन की प्रधानता को लिये हुए थे इसमें बी. मिसिन्क और पीटर रीड का समाचारपत्र ‘इण्डियन गजट’ था । अन्य समाचारपत्र कलकता गजट (1784) व बंगाल जनरल (1785) थे ।

8. इंटरनेट - भारत में इंटरनेट की शुरूआत लगभग 15 वर्ष पहले हुई । सर्वप्रथम सैनिक अनुसंधान नैटवर्क (इआरनेट) ने शैक्षिक और अनुसंधान क्षेत्रों के लिए इसका उपयोग शुरू किया । ईआरनेट भारत सरकार के इलैक्ट्रानिक विभाग तथा यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम का एक संयुक्त उपक्रम था । भारत में इंटरनेट को काफी सफलता मिली और इसने अनेक नोडों का परिचालन शुरू किया । लगभग आठ हजार से अधिक वैज्ञानिकों और तकनीशियनों द्वारा ईआरनेट की सुविधाएं प्राप्त की जाने लगी । एनसीएसटी. मुंबई द्वारा अंतर्राष्ट्रीय संपर्क प्राप्त किया जाने लगा ।

15 अगस्त 1995 को विदेश संचार निगम लिमिटेड ने गेटवे इंटरनेट एक्सस सर्विस (जीआईएएस) की स्थापना वाणिज्यिक तौर पर की । इसने मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई, कलकता, बंगलूर और पुणे में इंटरनेट नोड स्थापित किए । इसने अमेरिका, जापान, इटली आदि देशों की इंटरनेट कंपनियों में समझौता करके देश के प्रमुख शहरों में इंटरनेट की सुविधाएं उपलब्ध करवानी शुरू की । उसके बाद दूरसंचार विभाग से मिलकर इसने देश के अन्य बड़े शहरों को भी इंटरनेट से जोड़ा । तत्पश्चात् दूरसंचार विभाग आइनेट नामक नेटवर्क के द्वारा देश के दूरदराज इलाकों को भी इंटरनेट से जोड़ने का भी काम शुरू किया ।

इस समय भारत में तीन सरकारी एजेंसियाँ इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर (आईएसपी) अर्थात् इंटरनेट की सुविधाएं उपलब्ध कराने का काम कर रही हैं - (1) दूरसंचार विभाग (2) महानगर टेलीकॉम निगम लिमिटेड तथा (3) विदेश संचार निगम लिमिटेड ।

1904 की उदारीकरण नीति ने इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के प्रवेश के लिए भी रास्ता खोल दिया । सरकार द्वारा बनाई गई इंटरनेट नीति के फलस्वरूप कई देशी-विदेशी कंपनियां आज भारत के इंटरनेट प्रेमियों को इंटरनेट सुविधाएं प्रदान कर रही हैं । इंटरनेट के ग्राहकों की संख्या क्रमश: बढ़ रही है । इस समय देश में लगभग चार लाख लोग इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं ।

इंटरनेट की कार्य-प्रणाली पर भी चर्चा करना यहां अप्रासंगिक न होगा । इंटरनेट पर कोई भी सूचना छोटे-छोटे भागों में विभाजित होकर गतिशील होती है। सर्वर सूचना को निश्चित आकार में विभाजित करके ग्राहक के पास ले जाता है। जब ग्राहक के कम्प्यूटर के पास सभी टुकड़े पहुॅंच जाते हैं तो वह उन्हें एकत्र करके एक स्थान पर प्रस्तुत कर देता है । ई-मेल के संदर्भ में सर्वर एक स्थनीय डाकघर की तरह काम करता है जो विभिन्न स्थानों से आई डाक को उसके पते पर पहुॅंचाने की व्यवस्था करता है । टुकड़ों को जोड़ने का जो कार्य होता है उसकी प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाले नियमो को ट्रांसमिशन प्रोटोकॉल कहलाते हैं । 

संक्षेप में ई-मेल का अर्थ है किसी भी संदेश का एक कम्प्यूटर से दूसरे कम्प्यूटर पर हस्तांतरण । इंटरनेट का मुख्य कार्य है सूचनाओं का आदान-प्रदान करना । वास्तव में वह सूचनाओं का समुद्र है । यह ऐसा आकाश है जो असीम है । इंटरनेट इस ब्रह्माण्ड में उपस्थित लगभग समस्त विषयों पर जानकारी समेटे हुए है

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