नातेदारी का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, श्रेणियाँ

मानव का जन्म परिवार में होता है, यहीं से उसका पालन-पोषण प्रारम्भ होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति परिवार से निरन्तर कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है। परिवार में ही उसे अपने रीति-रिवाज, परम्पराओं एंव रूढि़यांे की शिक्षा मिलती है। परिवार के सदस्य ही मानव के विचारों, मूल्यों, जीवन के ढंगांे ,भावनाओं आदि को विकसित करते हैं। प्रत्येक बालक या बालिका को माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, मामा-मामी, दादा-दादी, नाना-नानी अनेक प्रकार के रिश्तेदारों का पता परिवार से ही चलता है। नातेदारी व्यवस्था रिश्तेदारी की ही व्यवस्था है। नातेदारी में उन व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जिनका परस्पर संबंध वंशावली के आधार पर होता है। ऐसे संबंधों के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। गोद लिया बच्चा परिवार वालों का नातेदार बन जाता है। 

नातेदारी शब्द के कई अर्थ है। हमारे नातेदार दो तरह के हो सकते हैं एक तो वे, जो हमसे रक्त द्वारा जुड़े हुए होते हैं। इन्हें हम सम्बन्धी नातेदार कहते हैं। दूसरे प्रकार के नातेदार विवाह से जुड़े होते हैं। इन्हें हम विवाह सम्बन्धी नातेदार कहते हैं। 

नातेदारी का परिभाषा

नातेदारी परिभाषित किया जा सकता है -

रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, ‘‘नातेदारी प्रथा वह व्यवस्था है जो व्यक्तियों को व्यवस्थित सामाजिक जीवन में परस्पर सहयोग करने की प्रेरणा देती है।’’

चाल्र्स विनिक ने लिखा है, ‘‘नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आ जाते हैं जो कि अनुमानित और वास्तविक, वंशावली संबंधों पर आधारित हैं।’’

रेडक्लिफ ब्राउनः “नातेदारी” सामाजिक उद्देश्यों के लिए स्वीकृत वंश संबन्ध है जो कि सामाजिक संबंधों के परम्परागत संबंधों का आधार है।

चाल्र्स विनिक - ‘‘नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध होते हैं जो कि अनुमानित और वास्तविक वंशावली संबंधों पर आधारित होते हैं।‘‘

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कह सकते हैं कि नातेदारी का अर्थ रिश्तेदारों अथवा नातेदारी से है नातेदारी में सभी वास्तविक व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है।

नातेदारी के प्रकार 

नाते-रिश्तेदारों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है- 1. विवाह संबंधी नातेदारी तथा 2. रक्त संबंधी नातेदारी । 

1. विवाह संबंधी नातेदारी

विवाह संबंधी नातेदारी के अंर्तगत न केवल विवाह-संबंध द्वारा संबद्व पति-पत्नी ही आते है बल्कि इन दोनों परिवारों के अन्य संबंधी भी आ जाते हैं। जब एक व्यक्ति विवाह करता है तो उसे स्वभावतः यह पता चलता है कि विवाह नामक संस्था ने न केवल दो स्त्री पुरुष के बीच संबंध स्थापित किया है, बल्कि इन दोनों से संबंधित अन्य व्यक्ति एक-दूसरे से संबद्व हो गए हैं। 

उदाहरणार्थ, विवाह के पश्चात एक पुरुष केवल एक पति ही नहीं बनता, बल्कि बहनोई, दामाद, जीजा, पूफा, ननदोई, मौसा, साढू आदि भी बन जाता है। इसी प्रकार एक स्त्री भी विवाह के पश्चात पत्नी बनने के अलावा पुत्र-वधू भाभी, देवरानी, जेठानी, चाची, मामी आदि भी बन जाती है। इसमें से प्रत्येक संबंध के आधार दो व्यक्ति हैं, जैसे साला-बहनोई, सास-दामाद, साली-जीजा, देवर-भाभी, पति-पत्नी, सास-वधू आदि। इस प्रकार से विवाह, द्वारा संबद्व समस्त संबंधियों या नातेदारी को विवाह-संबंधी कहते हैं।

2. रक्त-संबंधी नातेदारी

रक्त-संबंधी नातेदारी के अंर्तगत वे लोग आते हैं जो समान रक्त के आधार पर एक-दूसरे से संबंधित हों। उदाहरण के लिए माता-पिता और उनके बच्चों के बीच अथवा दो भाइयों के बीच या दो भाई-बहन के बीच का संबंध रक्त के आधार पर ही आधारित है। इस संबंध में यह भी स्मरणीय है कि रक्त-संबंधी नातेदारों में रक्त-संबंध वास्तविक भी हो सकता है और काल्पनिक भी। दूसरे शब्दों में रक्त-संबंध केवल प्राणिशास्त्राीय आधार पर ही नहीं, अपितु समाजशास्त्राीय आधार पर भी स्थापित हो सकता है। 

उदाहरणार्थ, जिन समाजों में बहुपति विवाह-प्रथा का प्रचलन है वहाँ प्राणिशास्त्राीय आधार पर यह निश्चित करना असंभव है कि कौन-सा बच्चा किस पति का है। इसलिए वहाँ प्राणिशास्त्राीय पितृत्व को गौण मानकर समाजशास्त्राीय पितृत्व को अधिक मान्यता दी जाती है। नीलगिरी की बहुपति-विवाह टोडा जनजाति में सामाजिक पितृत्व का एक विशेष पुरसुतपिमी, द्वारा निश्चित किया जाता है। जो व्यक्ति गर्भवती स्त्री को उसके प्रसव के पाँचवे महीने में धनुष-बाण भेंट करता है, वही उस स्त्री की होने वाली सभी संतानों का पिता तब तक कहलाता रहता है जब तक दूसरा कोई पति उसी प्रकार का संस्कार न करें। 

ईसाई मत के प्रारंभ होने से पहले जर्मन नियम के अनुसार एक बच्चा उस समय तक उस परिवार का सदस्य नहीं बन सकता, जब तक पिता कुछ सामाजिक संस्कारों के द्वारा उसे अपना पुत्र स्वीकार नहीं करता।
समाज में कई संस्थाएं होती है। नातेदारी भी एक संस्था है। इस संस्था में व्यक्ति का स्थान, उसके अधिकार, और कर्तव्य, सम्पत्ति पर उसका दावा, ये सब बातें इस तथ्य पर निर्भर है कि वंशावलिक सम्बन्धों के जाल में व्यक्ति का क्या स्थान है? मनुष्य के प्राथमिक सम्बन्ध उसके नातेदारी के सम्बन्ध ही है और नातेदारी सम्बन्धों का बहुत बड़ा आधार उसकी वंशानुक्रम समूह की सदस्यता है। नातेदारी और वंशानुक्रम एक ही नहीं है। एक अर्थ में वे सब लोग सगे-सम्बन्धी है जिनका समान रक्त है। 

एक ही पूर्वज की संतान जिसकी नसों में एक ही पिता का रक्त बहता है, रक्त संबंधी नातेदार है। रक्त सम्बन्धी नातेदार केवल जैविक आधार पर ही गिने जाते हैं। इसका उदाहरण दत्तक पुत्र है लेकिन इस तरह के नातेदारों की संख्या बहुत सीमित होती है।

नातेदारी के बंधन एक व्यक्ति को भूमि में हिस्सेदारी, परिवार की सम्पत्ति में सांझेदारी और पारस्परिक सहयोग का अधिकार देते हैं। साधारणतया नातेदारी में दो तरह के नातेदार होते हैं :एक नातेदार वे हैं, जिनका रक्त सम्बन्ध है, जिनका पूर्वज एक ही है; और दूसरे नातेदार वे है जो विवाह द्वारा नातेदारी सम्बन्ध से जुड़े है।

वंशानुक्रम शब्द का अर्थ उन मान्यता प्राप्त सामाजिक संबंधों से है जिन्हें एक व्यक्ति अपने पूर्वजों के साथ जोड़ता है और पूर्वज वह है जिसकी वह संतान है। किसी भी व्यक्ति के वंशानुक्रम को या तो उसके पिता के परिवार से या माता के परिवा से या दोनों से गिना जाता है। जब एक व्यक्ति का वंश उसके पिता के नाम से गिना जाता है तो इसे पितृवंशीय वंशानुक्रम कहते है। जब वंश को व्यक्ति की माता की ओर से गिना जाता है तो इसे मातृवंशीय वंशानुक्रम कहते हैं। वंशानुक्रम की इस व्यवस्था को एक पक्षीय वंशानुक्रम कहते हैं। अपवाद रूप में कुछ ऐसी जन-जातियां भी है जिन्हें उभयवंशीय भी कहते हैं। यहां यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस समूह में वे लोग नहीं है जो विवाह संबंधी नातेदार है। 

वंशानुक्रम बंधुत्व को और भी अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। इसका विश्लेषण हम सुविधा के लिए विवाह से प्रारंभ करेंगे। प्रत्येक समाज पुरुष और स्त्री में शारीरिक बनावट को लेकर अंतर करता है। यह इस बनावट के कारण ही है कि स्त्री बच्चों का प्रजनन करती है। पुरुष और स्त्री में विवाह द्वारा यौन संबंध होते हैं। इस तरह पहला रिश्तेदार तो पुरुष का उस स्त्री से है जिससे वह विवाह करता है। इस प्रकार के सम्बन्ध को विवाह रिश्तेदार कहते है। पति-पत्नी से जो संतान उत्पन्न होती है उस संतान का अपने माता-पिता से जो संबंध होता है उसे वंशानुक्रम कहते हैं। इस परिवार में जब दूसरी संतान का जन्म होता है तो एक नये प्रकार के वंशानुक्रम सम्बन्ध पैदा होते हैं। अब ये दोनों बच्चे अपनी उत्पति अपने माता-पिता से मानते है। 

इन बच्चों का अपने माता-पिता के साथ जो संबंध है उसे नातेदारी व्यवस्था में वंशानुक्रम कहा जाता है। वंशानुक्रम सम्बन्ध के अतिरिक्त यहां हमें एक और संबंध भी मिलता है। परिवार के दोनों बच्चें आपस में भी सम्बन्धी है या तो वे भाई-भाई है, बहिन-बहिन है, या भाई-बहिन। बच्चों में पारस्परिक सम्बन्धों को नातेदारी व्यवस्था में समापाश्र्व नातेदार कहते हैं। इस विवेचन का अर्थ यह हुआ कि एक ही माता-पिता के बच्चे एक ही वंशानुक्रम के हिस्सेदार या सांझेदार होते है लेकिन वे परस्पर एक-दूसरे के लिए वंशानुक्रम स्वजन नहीं है वे तो केवल अर्थात् समपाश्र्व नातेदार है।

बोलचाल की भाषा में समरक्त नातेदारों की गिनती करना चाहें तो इसका यह उपाय है कि हम किन लोगों को अपना नातेदार समझते है और इसके उत्तर में जो नातेदार मिले उन्हें हम नातेदारों के विवरण में रख दें। इस प्रकार का कार्य सबसे पहले मोरगन ने किया था। उन्होंने नातेदारों का विवरण देकर उनका वर्गीकरण कर दिया। मोरगन ने बताया कि वे व्यक्ति जिन्हें हम ‘‘पिता, माता, भाई, बहिन’’ आदि नाम से पुकारते है उन्हें दूसरे व्यक्ति भी इसी नाम से पुकार सकते हैं। इस प्रकार से सभी व्यक्ति जो रक्त से संबंधित है उन्हें पितृ-नातेदार या मातृ नातेदार कहते हैं और वे लोग जो विवाह से संबंधी है, विवाह नातेदार कहलाते है। 

वंशानुक्रम नातेदारी का विश्लेषण में एक और पद का प्रयोग भी होता है जिसे सम्मिलित समूह कहते हैं। इस समूह में भी वे लोग आते है जिनका एक ही वंशानुक्रम होता है, जो वंश की समपत्ति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक धारण करते रहते हैं। पितृवंशीय या पैतृक नातेदार कहलाते हैं। ऐसे समूह जिनमें एक बच्चे के साथ वंशानुक्रम की कड़ी स्त्री से जुड़ जाती है, मातृवंशीय या मृतत नातेदार कहते हैं। अंग्रेजी का शब्द यूटेराइन लेटिन भाषा का है जिसका अर्थ स्त्री वंशानुक्रम होता है।

वंशानुक्रम के आधार पर बना हुआ सम्मिलित समूह तकनीकी भाषा में वंश कहलाता है। यदि कोई व्यक्ति पितृवंशीय है तो इससे उत्पन्न हुई सन्तान पिता के वंश से जोड़ी जाती है। पिता के माध्यम से ऐसे पुत्र का वंश का उत्पादन साधनों पर अधिकार होता है, चाहे वे उत्पादन भूमि, पशु या कोई छोटा-बड़ा व्यवसाय हो। मातुवंशीय समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपना संबंध माँ के संबंध से रखता है, वंश की सम्पत्ति पर अधिकार ऐसे समाजों में माता का होता है। ऐसे कुछ अपवाद मिले हैं, जहां मातृवंशीय परिवारों में सम्पत्ति पर माता का अधिकार नहीं होता। पिछले पृष्ठों में हमनें वंशानुक्रम नातेदारों का विवेचन किया है।

संक्षेप में हम यह कहेंगें कि वंशानुक्रम नातेदार वे है जिनकी इस समूह में सदस्यता स्वत: जन्म से होती है, जिसमें वंश का नाम एकपक्षीय, मातृ या पितृ होता है और जो अपनी इस परम्परा को सतत बनाये रखते है। इस समूह के दो पक्ष है। एक वह जिसमें वंश का संबंध उपर की पीढ़ियों के साथ जोड़ा जाता है और दूसरा वह जिसमें संबंधों का आधार वंशानुक्रम न होकर एक वंश की संतान होता है। यह समूह समपाश्र्व नातेदारी समूह कहा जाता है।

नातेदारी की प्रमुख श्रेणियाँ

1. प्राथमिक नातेदार - जिन रिश्तेदारों के साथ हमारा सीधा वैवाहिक या रक्त संबंध होता है, उन्हें हम प्राथमिक नातेदार कहते हैं। प्राथमिक नातेदारों में आठ संबंधियों को सम्मिलित किया जाता है। जैसे पति-पत्नी, पिता-पुत्र, माता-पुत्री, माता-पुत्र, छोटे-बड़े भाई, छोटी-बड़ी बहन तथा भाई-बहन ये वे संबंधी हैं जिनके साथ हमारा घनिष्ट संबंध होता है। 

2. द्वितीयक नातेदार - द्वितीयक नातेदार वह नातेदार होते हैं जो हमारे प्राथमिक नातेदारों के संबंधी होते हैं ये हमारे प्राथमिक नातेदारों के कारण जुड़े होते हैं क्योंकि ये हमारे संबंधियों के प्राथमिक नातेदार होते हैं, जैसे चाचा - भतीजे में संबंध, दादा - पोते में संबंध, देवर - भाभी का संबंध। एक बेटे का पिता उसका प्राथमिक नातेदार और पिता का भाई उसका प्राथमिक नातेदार है परन्तु वह बेटे का द्वितीय नातेदार है क्योंकि वह उसका चाचा है।

3. तृतीयक नातेदार - इस श्रेणी में उन नातेदारों को सम्मिलित किया जाता है जो हमारे द्वितीयक नातेदारों के प्राथमिक नातेदार हैं व हमारे प्राथमिक नातेदारों के द्वितीयक नातेदार जैसे साले की पत्नी, साले का लड़का, परदादा हमारा तृतीयक नातेदार है। किसी व्यक्ति के भाई का साला उसका तृतीयक नातेदार है। भाई तो प्राथमिक नातेदार है और साला, भाई का द्वितीयक नातेदार है। 

3 Comments

Previous Post Next Post